उन्हीं जानी-पहचानी राहों में,
आज भी जब गुजरता हूँ मैं,
मुड़कर देखती हैं वो मुझे —
इस आस में कि कहीं भुला तो नहीं...
मैं खुद पर ही हँस पड़ता हूँ,
ये देख — अंजान बनता हूँ,
कि अब भी गुमनाम ही हूँ।
पहले भी राहें कुछ कहती थीं,
अब मेरी ख़ामोशी ही ज़ुबान बन गई —
उन्हीं जानी-पहचानी राहों में...