91===
आशी उद्विग्न थी, सामने पर्वत शृंखलाओं में से उगते हुए सूर्य को देखते हुए वह अपनी हाल में प्रकाशित पहली पुस्तक ‘शून्य से शून्य’ तक के मुख-पृष्ठ की तुलना सामने उगते हुए सूर्य को ताकते हुए करने लगी| कैसे हो सकती थी उसकी तुलना, उसने हाथ में पकड़ी पुस्तक के मुख-पृष्ठ को देखते हुए सोचा| इस पुस्तक में कहानी थी एक ऐसे व्यक्तित्व की जो जीवन भर शून्य के वृत्त में घूमता रहा है| इसीलिए यह शून्य से शून्य तक की कथा थी यानि कि आशी के शून्यता भरे जीवन की कहानी !
पूरा साल लगा था उसे अपने जीवन की कहानी को कागज़ों पर उतारने में ! आबू के इस आश्रम की प्रेस ने ही उसका प्रकाशन कर दिया था| एक छोटा सा ही स्टाफ़ था यहाँ पर जो आवश्यकता होने पर उपलब्ध था| यहाँ किसी न किसी आध्यात्मिक पुस्तक का काम चलता रहता था| इस एक साल में उसने कितना पाया था, उसका उसके पास कोई हिसाब-किताब नहीं था लेकिन उलझनों की गाँठ खोलने से जैसे उसका बंधा हुआ मस्तिष्क तो खुला ही था| अपनी गलतियों को स्वीकारना कम से कम आशी के लिए छोटी बात नहीं थी फिर भी वह सब हुआ था|
‘सब कुछ लुटा के होश में आए तो क्या किया’ मन में गूँजता लेकिन होश में आए तो सही| तीर कमान में वापिस नहीं डाला जा सकता किन्तु दुबारा न चले इससे लोगों की जान तो बच सकती है|
वह पूरे दिल से मनु और अनन्या से क्षमा मांगना चाहती थी, पिता को उसने अपनी ही बेहूदगी, बेवकूफी से खो दिया था| कितने दर्द दिए, पीड़ा दी, उनसे क्षमा तो कैसे मांगती लेकिन उसका पश्चाताप् करना चाहती थी| वह अपने बेहूदे अहं से ऊपर उठकर समझने लगी थी कि ज़िंदगी में जो कुछ भी होता है , वह या तो कुछ बना जाता है या सिखा जाता है| बहुत बड़ा पाठ पढ़ाया था उसे ज़िंदगी ने लेकिन इतनी देर में क्यों? क्यों नहीं जल्दी थपेड़े मारे ज़िंदगी ने उसे जो उसके पिता भी चैन से, सुकून से ऊपर जाते, कष्ट और पीड़ा से नहीं| फिर यही बात सामने आ जाती है कि---जो भी होता है आप होता है, जब होना होता है, अपने समय पर होता है|
कई-कई बार उसके मन में विचार आए कि वह यह सब क्यों कर रही है? इसके लिखने के समय उसे बार-बार उन अहसासों में से , पीड़ाओं में से होकर गुजरना होता है लेकिन यह पीड़ा से गुजरना भी तो एक पश्चाताप् ही तो था| शायद---नहीं शायद नहीं, यह आवश्यक था|
‘इस धरती पर कोई ऐसा इंसान नहीं है जिसको कोई समस्या न हो और कोई समस्या ऐसी नहीं है जिसका समाधान न हो’अचानक आशी को लगा कि मार्टिन उगते हुए सूर्य में से मुस्कुराकर कह रहा है| मार्टिन का इस प्रकार बार-बार दिखाई देना आशी को असहज करने का एक और कारण बन गया था|
उसने पुस्तक को घूरते हुए सोचा फिर मैं ही कैसे शून्य से शून्य के हिंडोले में झूलती रह गई? यही होना था, ऐसा ही होना था फिर---? क्यों बार-बार बीते हुए समय को सोचना? न जाने कितनी ज़िंदगी शेष होगी अभी? ”
आश्रम में बड़े ज़ोर-शोर से उत्सव की तैयारियाँ हो रही थीं और उसका दिल धडक रहा था कि मनु सबको लेकर आएगा भी या नहीं?
“परेशान मत होइए, यहाँ की सब तैयारियाँ हो चुकी हैं| मुझे भी नहीं मालूम था कि आपके कार्यक्रम के लिए सबमें इतना जोश भर जाएगा---” सुहास ने अचानक पीछे से आकर उसके कंधे पर हाथ रख दिया था| वह उसकी ओर देखकर फीकी सी मुस्कुरा दी|
“जिनके लिए पूरा साल मैंने तपस्या की जाने वे सब इसमें शामिल होंगे या नहीं ? ” वह जैसे बड़बड़ाई|
“ज़रूर होंगे, क्यों नहीं होंगे? ”सुहास ने पूरे विश्वास से कहा|
आशी के चेहरे पर फीकी सी मुस्कान आ गई| कल ही तो था वह दिन जिसकी प्रतीक्षा वह धड़कते दिल से कर रही थी| कुछ देर बाद सुहास अगले दिन की तैयारी देखने चली गईं| कल के यज्ञ व पुस्तक के लोकार्पण के लिए काफ़ी प्रतिष्ठित लोगों को निमंत्रण भेजा गया था| प्रतिदिन का खाना बनाने वाली कुक ने अपने कई साथियों को एकत्रित कर लिया था जिससे भोजन की व्यवस्था ठीक से हो सके|
“कुल मिलाकर डेढ़ सौ से ज़्यादा मेहमान होंगे---किसी भी चीज़ की, व्यवस्था की कमी नहीं रहनी चाहिए| ”सुहास बहन ने सबको बुलाकर समझा दिया था| पैसे की कोई परेशानी नहीं थी। जब से आशी वहाँ रहने आई थी जब भी ज़रूरत पड़ती तुरंत अपने एकाउंट से पैसा निकलवाकर दे देती| उसने सुहास को कभी भी पैसे के कारण परेशान नहीं होने दिया था| जहाँ सुहास पहले काफ़ी परेशान रहती, ट्रस्टीज़ उसकी परेशानी समझना ही नहीं चाहते थे वहीं अब आश्रम की व्यवस्था कितनी आसानी से हो जाती, सुहास हतप्रभ रह जाती जब देखती कि उसके बिना कुछ कहे ही आशी आश्रम के एकाउंट में हर माह अच्छा-खासा एमाउंट जमा करवा देती है|
रात के ग्यारह बजे तक काफ़ी अतिथि आ चुके थे| आश्रम में इतने लोगों की एकसाथ रहने की व्यवस्था नहीं थी इसलिए आबू के अच्छे होटलों में से एक बड़ा होटल बुक कर लिया गया था और ज़रूरत पड़ने की अवस्था में कुछ और होटलों में भी बात कर ली गई थी| न जाने कितने दिनों बाद इस आश्रम में जैसे कोई इतना बड़ा त्योहार सा मनाया जा रहा था| अभी तक ऐसा तो कोई कार्यक्रम कभी नहीं हुआ था यहाँ|
“इंसान पैसे न होने से कैसे टूट जाता है ! ”कभी बहुत पहले एक दिन आशी के सामने आश्रम की व्यवस्था की बात करते हुए सुहास के मुँह से निकल गया था| बस, तबसे ही आशी ने जैसे आश्रम की काफ़ी ज़िम्मेदारी अपने ऊपर ले ली थी| सुहास ने कई बार मना किया क्योंकि आश्रम में वैसे संत श्री के सामने से ही कोई धन लेने का रिवाज़ नहीं था| वहाँ परंपरा बनी हुई थी कि जो लोग भी आते थे, वहाँ रखे हुए ‘डोनेशन बॉक्स’ में अपने मन या हैसियत के अनुसार से कुछ भी डोनेट कर देते थे| इस सबका हिसाब रखना सुहासिनी की ज़िम्मेदारी थी| संत श्री के परलोक-गमन के बाद गड़बड़ी शुरू हो गई और सीधी-सादी सुहास को न चाहते हुए भी टार्गेट बनना पड़ जाता था| यह सब जानकर आशी बिना कुछ सुहास से कहे, वहाँ सहायता करने लगी थी|
जो लोग आबू पहुँच चुके थे और होटल्स में ठहरे थे, उन सबकी सूचना आश्रम के लोग सुहास तक पहुंचा रहे थे जिनको यह ड्यूटी दी गई थी| सुबह दस बजे आश्रम में कार्यक्रम शुरू होने वाला था , उस समय से पहले ही सब लोग स्नान आदि करके आश्रम पहुँचने वाले थे|
पूरी रात आशी ने करवट बदलते हुए निकाली| सुबह की सुनहरी किरणों ने सामने पर्वतमाला से निकलते हुए सूर्य को अपने पीछे से ऐसे निकालकर पर्वत की चोटी पर बिराजित कर दिया जैसे कोई कोमल, गुलाबी नवजात शिशु माँ के गर्भ से निकलकर पर्वत की ऊँची चोटी पर सजे हुए पालने में आकर लेट गया हो, किरणें उसे झूला झूला रही हों और पीछे से गुलाबी आकाश में मुस्कान बिखरी हो|
प्रतिदिन की भाँति आशी सूर्य की किरणों के समक्ष नतमस्तक हुई और नमन करके धड़कते हुए हृदय से तैयार होने चली गई थी| उसकी आँखों में एक निराश समुंदर हिलोरें लेने लगा था| आश्रम में नीचे बड़े से रंग-बिरंगे लहलहाते हुए फूलों के गार्डन में चहलकदमियाँ शुरू हो गईं थीं |
आशी ने बॉलकनी में खड़े हुए ही नीचे झाँकते-झाँकते अचानक मुँह घुमाकर अपने कमरे में झाँका| उसके कमरे की मेज़ पर उपन्यास का ढेर रखा था| सुहास ने उपन्यास की प्रत्येक प्रति को सुंदर कागज़ से रैप करवा दिया था और विमोचन के समय की दस पुस्तकें सुंदर कपड़े से बँधवाकर उन्हें सुनहरी डोरी से बँधवा दिया दिया था| आज इस कार्यक्रम में भाग लेने वाले दूर-दराज़ से वे लोग आ रहे थे जो संत श्री के अनुयायी थे| उन सबके लिए आश्रम में इस प्रकार का कार्यक्रम होना एक उत्सुकता पैदा कर रहा था|