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भक्ति पाकर कैसी दशा होती है
यत्प्राप्य न किञ्चिद्वाच्छति, न शोचति,
न द्वेष्टि, न रमते, नोत्साही भवति ||५||
अर्थ : उस भक्ति के प्राप्त होने पर ना किसी वस्तु की इच्छा करता है, ना शोक करता है, ना द्वेष करता है, ना विषयों में रमण करता है। तथा ना ही विषयों के प्राप्त करने का उत्साह ही करता है।
प्रस्तुत भक्ति सूत्र में नारद जी ने परमभक्ति को प्राप्त भक्तों के जिन-जिन लक्षणों का वर्णन किया है, उनके विपरीत लक्षण संसारियों में पाए जाते हैं। एक संसारी इंसान कैसा होता है? उसके भीतर दिन प्रतिदिन नई-नई इच्छाएँ जगती रहती हैं– कभी गाड़ी, घर, मोबाइल, कपड़े एवं अन्य सुख-सुविधाओं की, कभी पद, प्रमोशन, प्रतिष्ठा की, कभी परिवार से जुड़ी इच्छाएँ– जैसे मेरे बच्चों की नौकरी लग जाए, बेटी की शादी हो जाए... आदि।
अगर कुछ उसके मन मुताबिक नहीं होता तो वह दुःखी हो जाता है, शोक करने लगता है। दूसरे उससे आगे निकल जाए तो वह द्वेष करने लगता है, उसे सब मनचाहा मिल जाए तो वह उनमें आसक्त होकर, लोभी और अहंकारी हो जाता है। वह दिन-रात इंद्रिय विषयों में ही डूबा रहता है। ऐसा इंसान तभी उत्साहित होता है, जब उसे कुछ प्राप्त हो, उसका कुछ न कुछ व्यक्तिगत स्वार्थ सिद्ध हो वरना नहीं। परोपकार और निःस्वार्थ कामों में वह 'इसमें मेरा क्या फायदा?' सोचकर उदासीन ही रहता है।
अब अपने इन लक्षणों के कारण जब उसके जीवन में दुःख और चिंताएँ आती है तो वह राहत पाने के लिए थोडा-बहुत अध्यात्म की बातें सुनता है, सत्संग में जाता है। वहाँ उसे कहा जाता है, 'तुम इतनी इच्छाएँ मत करो, आसक्ति और शोक मत करो, किसी से द्वेष ना करो, विषयों का त्याग करो क्योंकि ये आदतें ही तुम्हारे दुःखों की जड़ हैं' तो उसे कुछ-कुछ बात समझ में आती है। उसके भीतर कुछ चेतना जगती है और वह अपने इन अवगुणों और विकारों पर काम करना शुरू करता है।
यहाँ तक तो ठीक है मगर सवाल यह है कि क्या वह ऐसा कर पाएगा, माया के बीच रहकर माया से लड़ पाएगा, अपनी वर्षों की वृत्तियाँ बदल पाएगा? सिर्फ ज्ञान और संकल्प शक्ति के बल पर यह संभव नहीं। दुनिया में मात्र प्रेम ही ऐसी ताकत और हौसला देता है, जो इंसान में असंभव बदलाव भी ला सकता है। संसारी प्रेम में भी इंसान अपनी ऐसी आदतें बदल देता है, जो उसके प्रियतम को पसंद नहीं तो फिर अगर उसमें ईश्वर के प्रति अनन्य प्रेम जग जाए तो उसे भला कौन रोक सकता है?
ईश्वर से निःस्वार्थ अनन्य प्रेम ही भक्ति है। जिसने इस भक्तिरस का पान कर लिया, उसने संसार के स्वामी ईश्वर को ही बस में कर लिया, फिर वह किसी सांसारिक वस्तु की इच्छा क्यों करेगा? जो भक्ति के परमानंद में झूम रहा हो, वह किसी बात के लिए शोक क्यों करने लगा और मायावी विषयों में सुख को क्यों ढूँढ़ने लगा ? जिसको संसार की सबसे बड़ी निधि 'भक्ति' मिल गई हो, वह कैसे किसी से द्वेष कर सकता है? वह भक्त उदासीन, उत्साह से अपने कर्तव्य कर्म करता हुआ भक्ति में लीन रहता है और संसार में समभाव से उपस्थित रहकर आंतरिक परमानंद में ही डूबा रहता है। भक्त की इसी अवस्था का बखान नारद मुनि ने भक्ति के पाँचवे सूत्र में किया है।
यज्ज्ञात्वा मत्तो भवति स्तब्धो भवति आत्मारामो भवति
।।६।।
अर्थ : जिसको जानकर (भक्त) उन्मत हो जाता है, स्तब्ध हो जाता है, आत्मरमण करने लगता है ।। ६ ।।
तो यदि भक्ति अपने वास्तविक और शुद्ध स्वरूप में किसी को प्राप्त हो जाए उस भक्त की क्या-क्या अवस्थाएँ, कैसी-कैसी मनोदशाएँ होती हैं, यह नारद जी ने प्रस्तुत भक्ति सूत्र में बताया है। भक्ति की महिमा का बखान करते हुए सूत्र के पहले भाग में वे कहते हैं– भक्ति वह है, जिसको अनुभव से जानकर यानी पाकर भक्त उन्मत हो जाता है। उन्मत का अर्थ है– नशे में चूर हो जाना, दीवाना हो जाना। वैसे सच ही है, ईश्वर भक्तों को सामान्य संसारीजन दीवाना और पागल ही समझते हैं। वे सोचते हैं, जो लोग हमारी तरह सांसारिक सुखों और प्राप्तियों में संतुष्ट नहीं होते, उसके विपरीत फकीर बनकर घूमते हैं और मस्त रहते हैं, वे निश्चय ही पागल हैं। क्योंकि सुख तो सुविधाओं से ही आता है और भक्ति में लोग सुविधाएँ छोड़ देते हैं। अब उन मूर्खों को कौन समझाए कि भक्तों के पास भक्ति नामक ऐसी पारसमणि होती है, जिसको पाकर किसी और सुख की कामना शेष नहीं रहती।
जब हृदय में भक्ति बसी हो तो भक्तों को देह अभिमान ही नहीं रहता। वे देह में रहते हुए देह से परे होकर, ईश्वर प्रेम के नशे में चूर रहते हैं और दिन-रात भक्ति करते रहते हैं। जरा कृष्ण चेतना में लीन होकर गलियों में घूमने वाले चैतन्य महाप्रभु की, कृष्ण प्रेम दीवानी मीरा की उन्मत अवस्था का स्मरण करें... ऐसे ईश्वर प्रेमियों को दीन-दुनिया का होश नहीं रहता। भक्ति के मार्ग पर पगों के नीचे काँटे हैं या फूल, पीने को अमृत मिले या ज़हर, उन्हें फर्क नहीं पड़ता।
भक्ति में भक्त स्तब्ध भी हो जाता है क्योंकि उसे ईश्वरीय लीला के ऐसे-ऐसे रहस्य जानने को मिलते हैं, जो उसकी कल्पना शक्ति और तार्किक बुद्धि से परे होते हैं। जिन तक न कभी विज्ञान पहुँच सकता है, न ज्ञान, वह माया की उन अनसुलझी पहेलियाँ बूझ लेता है, जिसे कोई सामान्य व्यक्ति नहीं जान सकता। उन्हें जानने-समझने के लिए तो भक्ति और ज्ञान का संगम चाहिए। सबसे बड़ी बात यह है कि भक्त अपने जीवन का अंतिम लक्ष्य 'स्वयं की पहचान' प्राप्त कर लेता है। ऐसे भक्तों के लिए सिर्फ अपने ईश्वर की रचनात्मकता पर स्तब्ध होना, आश्चर्य करना और उसकी सराहना करना ही शेष रह जाता है।
भक्ति में डूबा भक्त आत्मरमण करने लगता है। आत्मरमण करने का अर्थ है– स्वयं की आत्मा, जो कि वही एक परम चैतन्य है, उसी में ही रमे रहना, होश में मदहोश। एक स्वअनुभवी भक्त की निरंतर यही अवस्था रहती है। वह अपनी पहचान पाकर, आत्मरमण करता हुआ ही संसार में विचरता है और अपने कर्तव्य कर्मों को अकर्ता भाव से या ईश्वर की सेवा समझकर अपना सौ प्रतिशत देते हुए पूर्ण करता है।
सा न कामय माना निरोधरूपत्वात् ॥७||
अर्थ : भक्ति कामना युक्त नहीं है क्योंकि वह निरोधस्वरूपा है।
'नारद भक्ति सूत्र' के सातवें सूत्र में नारद मुनि भक्ति की एक और विशेषता बताते हुए कहते हैं, 'भक्ति, कामना युक्त नहीं है।' कामना का अर्थ है– इच्छाएँ। लेकिन कैसी इच्छाएँ? वह समझना ज़रूरी है। 'इच्छा' मनुष्य जीवन का बड़ा महत्वपूर्ण अंग है। यह वह शक्ति है जो हमारे जीवन को आकार देती है। इच्छाओं के फलस्वरूप ही इंसान का जीवन एक दिशा में चलायमान होता है।
पहले इंसान के हृदय से कोई इच्छा उठती है। फिर वह उस इच्छा से जुडे विचार करता है, आगे उन विचारों को वाणी में लाता है और वाणी से क्रिया में उतारता है। उस क्रिया के उसे परिणाम प्राप्त होते हैं। उन परिणामों के अनुसार उसके दिल से फिर नई इच्छाएँ जन्म लेती हैं। यदि मनन करें तो पाएँगे कि आज आप जो भी कर रहे हैं, वह पूर्व में उठी किसी इच्छा का ही परिणाम है।
तो फिर क्या वजह है कि जीवनलीला की अनिवार्यता होते हुए भी अध्यात्म में इच्छाएँ रखने को इतना गलत माना जाता है और नारदजी ने क्यों कहा है कि भक्ति में कामना नहीं होती? आइए, इसे समझते हैं।
इंसान के अंदर से दो तरह की इच्छाएँ उठती हैं। पहली तरह की सहज इच्छाएँ होती हैं, जो हमारे भीतर बैठे सेल्फ यानी स्त्रोत से उठती हैं। स्त्रोत से हमेशा शुभ, सहज और ईश्वरीय इच्छाएँ उठती हैं ताकि हमारे शरीर से ईश्वर अपनी लीला खेल सके, हमारा शरीर उसकी इच्छा के अनुसार अभिव्यक्ति कर सके। इस संसार में मनुष्य को छोड़कर बाकी सभी प्राणी सहज इच्छाओं के अनुरूप ही चलते हैं। ऐसी इच्छाओं से इंसान का विकास बाधित नहीं होता, न ही उसकी आध्यात्मिक राह में कोई बाधा खड़ी होती है क्योंकि वह प्रकृतिजनित होती है और प्रकृति के तालमेल से चलने पर कोई हानि नहीं होती।
दूसरी तरह की इच्छाएँ बाधा खड़ी करती हैं। इन इच्छाओं को ही 'कामना' या ‘वासना' कहा जाता है और यही आध्यात्मिक विकास में बाधा बनती हैं। इन इच्छाओं का स्त्रोत होता है व्यक्ति यानी अहंकार (मैं)। व्यक्ति (मैं) स्वयं को सेल्फ से अलग मानकर जीता है और यही मायाजनित व्यक्तिगत इच्छाएँ करता है।
जैसे– 'मुझे दूसरों से ज़्यादा सफलता मिले, मैं सबसे अमीर बन जाऊँ.. मेरी लॉटरी लग जाए तो मैं ऐश करूँगा... नई गाड़ी खरीदकर मैं अपने पड़ोसी को जलाऊँगा...' आदि। ये सभी व्यक्तिगत और स्वार्थपूर्ण इच्छाओं के उदाहरण हैं, जो इंसान का पतन करती हैं। जिसकी शुरुआत होती है एक स्वार्थी इच्छा के पनपने से। फिर इंसान उस इच्छा को जैसे-तैसे पूरी करता है। वह इच्छा पूरी होने पर उसे क्षणिक खुशी मिलती है। लेकिन जैसे ही वह एक इच्छा पूरी होती है तुरंत या कुछ समय बाद ही दूसरी इच्छा आकर उसे इतना बेचैन कर देती है कि उस नई इच्छा को पूरी करना ही उसका अंतिम लक्ष्य बन जाता है।
यदि इच्छा पूरी नहीं होती तो उसे बहुत दुःख और निराशा होती है और यदि इच्छा पूरी हो गई तो उसका अहंकार, क्रोध या लालच, मोह बढ़ता है। साथ में एक नई इच्छा भी पुनः लक्ष्य बन जाती है। इस प्रकार इंसान का पूरा जीवन इच्छाओं को तृप्त करते हुए अतृप्ति के भाव में ही निकल जाता है। इच्छा पूरी न होने पर इंसान में गुस्सा, जलन, ईर्ष्या, निराशा आदि पैदा होते हैं, उनकी पूर्ति में वह कपट करने, गलत रास्ते चुनने, पाप और हिंसा आदि करने से भी परहेज नहीं करता। जिससे उसकी चेतना का पतन होता है और उसके गलत कर्मबंधन बनते हैं। इस तरह कामनाओं के कुचक्र में उलझकर उसका पूर्ण पतन हो जाता है।
लेकिन जिन्हें अमृतस्वरूपा, प्रेमस्वरूपा भक्ति मिलती है, उसकी समस्त व्यक्तिगत कामनाएँ ईश्वर के चरणों में समर्पित हो जाती हैं और रह जाती हैं सिर्फ शुभइच्छाएँ, जो उनसे लोककल्याण के कार्य कराती हैं, उन्हें भक्ति के लिए प्रेरित कर, मुक्ति की राह पर ले जाती हैं।
इसीलिए नारद जी भक्ति को 'निरोधस्वरूपा' कह रहे हैं क्योंकि भक्ति के बल से ही भक्त अपनी अवांछित इच्छाओं को समझकर, उनको छोड़ पाते हैं और सिर्फ शुभ (ईश्वरीय) इच्छाओं पर ही ध्यान देते हैं। बड़े से बड़ा ज्ञानी, जो कामनाओं के नुकसान जानता है, वह भी भक्ति के बल के बिना उनका निग्रह नहीं कर पाता।
भक्ति की शक्ति से समस्त कामनाएँ स्वतः ही विलीन हो जाती हैं और बचती हैं सिर्फ शुभ इच्छाएँ लेकिन शुभ इच्छाओं से भी चिपकना नहीं है। उनको भी साक्षी भाव से देखना है। उनके पूर्ण होने या न होने में किसी भी तरह की आसक्ति नहीं रखनी है। ईश्वर की इच्छा के फल को भी ईश्वर के ऊपर ही छोड़ना है, यही सच्चे भक्त के लक्षण हैं।