Naari Bhakti Sutra - 3 in Hindi Spiritual Stories by Radhey Shreemali books and stories PDF | नारद भक्ति सूत्र - 3. भक्ति के अनुकूल कर्म कैसे हो

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नारद भक्ति सूत्र - 3. भक्ति के अनुकूल कर्म कैसे हो

3.

भक्ति के अनुकूल कर्म कैसे हो


निरोधस्तु लोकवेदव्यापारन्यासः ||८|| 
तस्मिन्ननन्यता तद्विरोधिषूदासीनता च ॥९॥ 
अन्याश्रयाणां त्यागोऽनन्यता ||१०|| 
लोके वेदेषु तदनुकूलाचरणं तद्विरोधिषूदासीनता ||११|| 

अर्थ : निरोधस्तु = वस्तुतः त्याग; लोक = लौकिक, 
वेद = धार्मिक; व्यापार = व्यापारों का; न्यास : संन्यास है। लौकिक और वैदिक (समस्त) कर्मों के त्याग को निरोध कहते हैं ||८|| 
भगवान के प्रति अनन्यता तथा उसके विरोधी विषय में उदासीनता को निरोध कहते हैं ।।९।। 
एक प्रियतम प्रभु को छोड़कर अन्य आश्रयों का त्याग अनन्यता है ।।१०।। 
लौकिक और वैदिक कर्मों में भगवान के अनुकूल कर्म करना ही उसके प्रतिकूल विषयों में उदासीनता है ।।११।।

नारद भक्ति सूत्र के ८ से लेकर ११ तक के सूत्र आपस में जुड़े हुए हैं। इनमें नारद जी ने एक तरह से गीता के निष्काम कर्मयोग का ही पुनःस्मरण कराया है। जिसमें कहा गया है कि एक मात्र ईश्वर के ही निमित्त और उसी को समर्पित कर, अपने कर्तव्य कर्म (करने योग्य कर्म) करो। उसी से मुक्ति का रास्ता खुलेगा। आइए, इसे नारद जी के शब्दों में समझते हैं।

प्रस्तुत सूत्रों का सार समझने से पूर्व हमें इसमें बताई गई दो परिभाषाओं को समझने की ज़रूरत है। पहली है 'निरोध' और दूसरी है 'अनन्यता’। ‘अनन्यता' का अर्थ है– बाकी सभी सांसारिक आश्रयों को छोड़कर एक मात्र ईश्वर के ही आश्रित हो जाना, उसे ही समर्पित हो जाना और उसी एक के निमित्त करने योग्य कर्म करना। इसे हम 'ईश्वर से अनन्य प्रेम' या 'अनन्य भक्ति' भी कह सकते हैं।

'अनन्य भक्ति' का अर्थ यह नहीं कि हमने अपने सभी सांसारिक रिश्ते-नातों एवं ज़िम्मेदारियों से मुँह मोड़ लिया, सब कुछ छोड़कर ईश्वर भजन-कीर्तन में लीन हो गए और फिर सोचने लगे, 'मैं तो बस ईश्वर के ही आश्रित हूँ, वही मेरा खयाल रखेगा। मैं ईश्वर का भक्त हूँ, मुझे अब इस संसार से कोई मतलब नहीं।' ऐसे बहुत से लोग हैं जो ईश्वर भक्ति के नाम पर सब कुछ छोड़-छाड़कर बैठ जाते हैं। वे खुद को संन्यासी समझने लगते हैं और परिवार को कष्ट देते हैं। जबकि उनके मन में संसारी कलाबाज़ियाँ ही चलती रहती हैं। इस तरह से वे धर्म के नाम पर सिर्फ अपनी ज़िम्मेदारियों से भागते हैं। 

'अनन्यता' से तात्पर्य है– संसार में रहते हुए संसार से कोई अपेक्षा न करना, ना ही किसी भी सांसारिक सुख, उद्देश्य या प्राप्ति में आसक्त होना। अपेक्षारहित, आसक्तिरहित रहकर अपने कर्तव्य कर्मों (लोकाचार, आजीविका, शिक्षा, व्यापार, गृहस्थी के कर्म आदि) को ईश्वर द्वारा दिए गए कार्य मानकर ईश्वर के लिए करते चले जाना। जो अपेक्षा रखना उसी एक ईश्वर से रखना। कर्मों के जो भी परिणाम आए, उसे ईश्वर का प्रसाद मानकर पूर्णरूप से स्वीकार करना और उस परिणाम को भी ईश्वर को ही समर्पित कर देना। ऐसा आचरण ही ईश्वर के प्रति अनन्यता है। संत कबीर, संत रैदास ऐसे जीवन के उदाहरण हैं।

मान लीजिए, एक परिचित ने आपसे कुछ मदद माँगी। अब मदद देते हुए आपके अंदर कैसे भाव जगते हैं? 'मैं इसकी मदद कर रहा हूँ पर क्या यह समय पड़ने पर मेरी मदद करेगा?' या फिर 'मुझे ईश्वर ने इस तक अपनी मदद पहुँचाने का माध्यम बनाया है, मुझे ईश्वर ने इस योग्य समझा, उसका बहुत-बहुत धन्यवाद।' मान लीजिए, उस व्यक्ति ने आपसे मदद तो ली लेकिन भविष्य में आपको ज़रूरत पड़ने पर उसने आपकी मदद नहीं की तो फिर आप क्या सोचेंगे? 'कितना एहसान फरामोश, बेगैरत इंसान है, मुझसे मदद ली और अब मेरी ज़रूरत पर मुँह फेर लिया, मेरा समय आने दो, बताऊँगा इसे' या फिर आप सोचते हैं, 'मेरे द्वारा ईश्वर ने उसको मदद पहुँचाई थी देखते हैं मुझको किसके द्वारा ईश्वर मदद पहुँचाएगा। मेरा एक वही सहारा है, वही मेरा ध्यान रखेगा।' इन उदाहरणों में पहली तरह की सोच भक्ति बिहीन लोगों की होती है और दूसरी तरह की सोच अनन्य ईश्वर भक्तों की होती है।

सूत्र-९ में नारद जी कहते हैं, भगवान के प्रति अनन्यता तथा विषय में उदासीनता 'निरोध' है। अर्थात ईश्वर के बजाय संसार में आसक्ति रखना, संसारी लोगों और साधनों से अपेक्षाएँ रखना, इंद्रिय सुखों में लिप्त रहना, ईश्वर भक्ति से रहित होकर स्वार्थपूर्ण व्यक्तिगत जीवन जीना, धन-संपदा, पद-प्रतिष्ठा, मान-सम्मान के पीछे भागना और उसे पाना ही जीवन का एक मात्र लक्ष्य समझना आदि। ये सभी कार्य 'निरोध' हैं, जिन्हें नहीं करना चाहिए। ऐसा जीवन विकारों और बुरी वृत्तियों को जन्म देता है। वह जीवन में दंभ, कुंठाएँ, निराशा, क्रोध, ईर्ष्या, वैमनस्य जैसे भावों को प्रबल करता है, जिससे इंसान कभी भी सुखी और आनंदित जीवन नहीं जी पाता।

अब लौटते हैं आठवे सूत्र पर, जहाँ नारद जी ने दो तरह के कर्म बताएँ हैं– लौकिक कर्म (सांसारिक कर्म) और वैदिक कर्म (वेदों में वर्णित कर्म)। सामान्य संसारी लोग अज्ञानवश आसक्ति और मोह में फँसे जो कर्म करते हैं, उन्हें लौकिक कर्म कहा जाता है। वैदिक कर्म वे हैं, जिनको वेद-शास्त्रों में करने योग्य कर्म बताया गया है।

देखा जाए तो संसार में हर इंसान कोई न कोई भूमिका अदा कर रहा है। जैसे माँ, पति, पत्नी, बच्चे, बॉस, कर्मचारी, शिक्षक, लीडर, नागरिक आदि। अपनी भूमिका में आसक्त हुए बिना, अपेक्षारहित होकर उसके लिए किए जाने वाले उचित कर्म इंसान के कर्तव्य कहलाते हैं। जैसे एक विद्यार्थी का कर्तव्य है अच्छे से पढ़ाई करना, शिक्षक का कर्तव्य है विद्यार्थियों को अच्छी शिक्षा देना आदि। पुराने समय में हमारे ऋषि-मुनियों ने हर भूमिका के कर्तव्य कर्मों को वेदों, शास्त्रों में संकलित किया था ताकि लोग उन्हें पढ़कर अपनी भूमिका को अच्छे से निभा सकें। एक इंसान के स्वयं के प्रति, परिवार, समाज, देश, प्रकृति, यहाँ तक कि ईश्वर के प्रति जो भी कर्तव्य हैं, उनका उल्लेख वेदों में मिलता है। इसे आज की भाषा में कहें तो वेद लाइफ मैन्यूअल थे, जिनमें समाज और लोगों के लिए डू ऍण्ड डोंट्स लिखे हुए थे। ताकि हर कोई अपनी-अपनी ज़िम्मेदारी बखूबी निभाए और सभी प्रेम, शांति से रहते हुए जीवन में उन्नति करे।

आठवे सूत्र में नारद जी ने सभी लौकिक और वैदिक कर्मों को निरोध कहा है। लेकिन इसका अर्थ ऐसा नहीं है कि वैदिक कर्म नहीं करने चाहिए। तात्पर्य इतना ही है कि हर कर्म को पूरी समझ के साथ, आसक्ति और अपेक्षा रहित होकर करना। चाहिए। अर्थात अनन्यता के भाव में रहते हुए ईश्वर के निमित्त करना चाहिए वरना, कर्म भी निरोध स्वरूप ही है। लौकिक और वैदिक कर्मों को ईश्वरीय इच्छा अनुकूल भक्तिभाव से करना चाहिए और उनके विपरीत विषयों जैसे इंद्रिय सुखों, को पोषित करने वाले कर्मों आदि में उदासीनता रखनी चाहिए।

भवतु निश्चयदाढर्यादूर्ध्वं शास्त्ररक्षणम् ||१२|| 
अन्यथा पातित्याशड्कया| ||१३|| 
लोकोऽपि तावदेव भोजनादि व्यापारस्त्वाशरी रधारणावधि ||१४||
अर्थ : विधि-निषेध से अतीत अलौकिक प्रेम प्राप्त करने का मन में दृढ़ विश्वास हो जाने के बाद भी शास्त्र की रक्षा करनी चाहिए। अर्थात भगवदनुकूल शास्त्रोक्त कर्म करने चाहिए। ||१२|| 
नहीं तो गिर जाने की संभावना है। ।।१३।। 
लौकिक कर्मों को भी विधिपूर्वक करते रहना चाहिए। भोजन आदि कार्य जब तक शरीर रहेगा तब तक होते रहेंगे। ।।१४।।

सूत्र १२, १३, १४ में नारद जी ने जो बात कही है, उसे गीता में श्रीकृष्ण ने भी इस तरह कहा है– 'यद्यपि मुझे किसी भी कर्म में आसक्ति नहीं है, न ही मुझे किसी काम को करने की ज़रूरत है और मैं कर्मबंधनों के जंजाल से भी मुक्त हूँ, फिर भी मैं लोगों को लोकव्यवहार की शिक्षा देने हेतु शास्त्रों में बताए हुए कर्तव्य कर्म करता हूं ताकि लोग मेरे व्यवहार को देखकर भ्रमित न हो और अपने-अपने कर्म करते रहें।'

आइए, इस बात को गहराई से समझते हैं। इंसान को जब परम ज्ञान की प्राप्ति होती है तो वह अनुभव से जान जाता है कि यह संसार ईश्वर का खेल मात्र है, इसमें हार-जीत, सफलता-असफलता, खोना-पाना सब समान ही है। अतः इस खेल को ज़्यादा सीरियसली लेने की ज़रूरत नहीं है। इसे खेल भावना से खेलना है और बस अपनी भूमिका अच्छे से निभानी है। स्वयं को जानते हुए अपनी भूमिका को सर्वश्रेष्ठ तरीके से निभाना और उसकी लीला में सहयोग देना, ईश्वर की आपसे बस यही अपेक्षा है। आत्मअनुभव में रहते हुए ईश्वर की अपेक्षा को पूरी करना ही एक भक्त का सच्चा कर्तव्य है।

परमज्ञान मिलने के बाद यदि भक्त अपने कर्तव्य कर्मों को छोड़ दे और यह सोचकर बैठ जाए कि 'अब उसे संसार से क्या लेना-देना, जो होता है होता रहे।' तो क्या यह ईश्वर की सच्ची भक्ति होगी? नहीं, यह ईश्वर की इच्छा का अनादर होगा। श्रीकृष्ण तो सर्वज्ञानी थे फिर भी उन्होंने संसार के चलन अनुसार गुरुकुल में रहकर शिक्षा प्राप्त की। एक राजा, योद्धा, मित्र, गृहस्थ जीवन आदि सभी तरह की भूमिकाओं का शास्त्रों के अनुसार भली-भाँति पालन किया।

यह सत्य है कि ईश्वर के खेल की समझ आने के बाद इंसान की 'विधि' यानी करने योग्य कर्मों और 'निषेध' यानी न करने योग्य कर्म, दोनों में ही कोई अंतर नहीं रह जाता है। कारण वह हर कार्य का कर्ता ईश्वर को ही समझता है और उसकी कर्मों और उनके फलों में आसक्ति खत्म हो जाती है। वह इन दोनों से परे होकर ईश्वरीय प्रेम में मग्न रहता है।

फिर भी सूत्र-१२ में नारद जी कहते हैं, मुक्त इंसान को भी शास्त्र की रक्षा करनी चाहिए। अर्थात अपनी भूमिका अनुसार शास्त्रों में नियत कर्तव्य कर्मों को अवश्य करना चाहिए ताकि उसका आचरण देखकर बाकी लोग कहीं कर्तव्यविमुख न हो जाएँ। अतः परमज्ञानी भक्त की ज़िम्मेदारी बनती है कि वह समस्त कर्तव्य कर्मों को भली-भाँति रीति से करे ताकि उसकी भावी पीढ़ी, उसके आसपास रहने वाले परिवारजन और समाज के लोग उससे शिक्षा लें।

इस बात को समझने के लिए संत कबीर का उदाहरण हमारे सामने है, जिनके जीवन चरित्र से एक आम गृहस्थ इंसान यह शिक्षा पाता है कि वह भी कबीर की तरह अपनी पारिवारीक ज़िम्मेदारी निभाते हुए आत्मसाक्षात्कार पा सकता है, उसे अध्यात्म के नाम पर ज़िम्मेदारियों से भागने की ज़रूरत नहीं।

१३ वें सूत्र में जब नारद जी कहते हैं, 'ऐसा न करने पर गिर जाने की संभावना है' तो इसका आशय यह है कि अपने कर्तव्य कर्मों को न करने से भी इंसान कर्मबंधन में बँधता है और उसका पतन होता है। वह कर्म न करने का कर्म करता है, जिससे उसकी मुक्ति संभव नहीं हो पाती। अतः अनासक्त होकर, हर कर्म को ईश्वर की सेवा, उसकी भक्ति समझकर अपनी भूमिका अनुसार सही कर्म करने चाहिए। ऐसा जीवन ही कर्मबंधनों से मुक्ति की राह खोलता है।

१४ वें सूत्र में नारद जी उन लोगों को शिक्षा दे रहे हैं, जो भक्ति के नाम पर या कर्मबंधनों से मुक्ति के लिए अपनी ज़िम्मेदारियाँ और घर-बार को त्याग देते हैं। ऐसा करके वे सोचते हैं कि जब वे कर्म ही नहीं करेंगे तो कर्मबंधन भी नहीं बनेंगे। मगर यहाँ समझनेवाली बात यह है कि इंसान कभी भी पूरी तरह से कर्मों से छुटकारा नहीं पा सकता। जब तक शरीर रहेगा, उसके पालन के लिए भोजन-जल तो लेना ही पड़ेगा, साँस भी लेनी होगी, शरीर संबंधी समस्त कर्म तो करने ही होंगे यानी किसी भी तरह कर्मों से छुटकारा नहीं पाया जा सकता। कर्मबंधनों से छूटने का बस एक ही उपाय है– अकर्ताभाव से कर्म करना। यह समझ रखना कि कर्म को करनेवाला ईश्वर है, मैं मात्र उसका साधन हूँ। यदि यह साध लिया तो बाहरी तौर पर कर्मों का त्याग किए बिना ही कर्मबंधनों से मुक्त रह पाएँगे।