अध्याय 1: मिट्टी के घर में पलता सपना
कच्चे रास्ते पर धूल उड़ती थी, और उसी रास्ते के किनारे एक टूटा-फूटा, मिट्टी का छोटा सा घर खड़ा था। बारिश में छत टपकती थी और गर्मी में दीवारें तपती थीं, लेकिन उसी घर में एक सपना पल रहा था — एक माँ का सपना, जो अपनी बेटी जानवी को पढ़ा-लिखा कर बड़ा इंसान बनाना चाहती थी।
जानवी की माँ, शांति देवी, सुबह अंधेरे में उठ जाती थीं। दूसरों के घरों में झाड़ू-पोंछा, बर्तन मांजना, और खेतों में मजदूरी करना — यही उनका रोज़ का जीवन था। थक कर चूर हो जातीं, पर चेहरे पर कभी शिकन नहीं लातीं, क्योंकि उनकी आंखों में बस एक ही चीज़ चमकती थी — जानवी की मुस्कान और उसका भविष्य।
जानवी कक्षा 5 में पढ़ रही थी। पुराने फटे कपड़े, घिसी हुई चप्पलें और किताबों के नाम पर सिर्फ दो कॉपियां — यही था उसका स्कूल का सामान। लेकिन उसकी आंखों में तेज़ था, और दिल में जज़्बा। जब वह स्कूल से लौटती, मां उसे देखकर थकान भूल जाती।
शाम को, शांति एक दिया जलाकर जानवी के पास बैठ जाती। "बिटिया, पढ़ाई कर ले… तुझसे ही तो उजाला है इस घर का।" जानवी मुस्कराकर पढ़ने लगती।
हर दिन की गरीबी, हर रात का अंधेरा — इन सब के बीच जानवी का उजाला पनप रहा था।
अध्याय 2: रोटियों से पहले किताबें सुबह का समय था। सूरज की हल्की किरणें झोंपड़ी की दीवारों से छनकर अंदर आ रही थीं। शांति देवी आंगन में बैठी आटे को गूंथ रही थीं, लेकिन आंखें बार-बार दरवाज़े की तरफ उठ जाती थीं। जानवी स्कूल जा चुकी थी, लेकिन उसकी माँ की सोच वहीं अटकी थी — स्कूल की फीस, किताबों का खर्च, और आने वाली परीक्षा।
शांति ने पिछले महीने की मजदूरी से कुछ पैसे बचा रखे थे। उन पैसों से वह घर में थोड़ा राशन ला सकती थीं, पर इस बार उनकी आंखों के आगे सिर्फ जानवी की किताबें थीं।
“भूख तो झेली जा सकती है, लेकिन बिटिया का सपना अधूरा न रह जाए,” उन्होंने सोचा।
दोपहर में शांति बाजार गईं। किताबों की दुकान पर पहुंचीं और दुकानदार से कहा, “भैया, पांचवी कक्षा की हिंदी और गणित की किताबें चाहिए, सस्ती वाली।”
दुकानदार ने किताबें दीं और पैसे मांगे। शांति ने कांपते हाथों से अपनी मेहनत की कमाई थमाई — वही पैसे जो शायद पूरे महीने का राशन लाने के लिए काफी थे।
घर लौटकर जानवी को किताबें दीं। जानवी की आंखों में चमक आ गई। वह किताबों को ऐसे छू रही थी जैसे कोई मंदिर में भगवान की मूर्ति को स्पर्श करता है।
शांति उसे निहारते हुए बोली, “बिटिया, हम गरीब हैं, पर तेरी पढ़ाई में कोई कमी नहीं आने दूंगी। रोटियाँ बाद में भी मिल जाएंगी, लेकिन तेरा सपना अधूरा रह गया तो मेरी माँग की सिन्दूर भी सूनी हो जाएगी।”
जानवी की आंखें नम हो गईं। वह समझ चुकी थी — उसकी माँ रोटी नहीं, उसका भविष्य गूंथ रही थी।
अध्याय 3: समाज की सुईयाँ
गांव की गलियों में कुछ लोगों की ज़ुबानें अक्सर दूसरों के जख्म कुरेदने में लगी रहती थीं। जानवी की माँ शांति, जब खेतों में काम करने जाती, तो कुछ औरतें ताना मारतीं—
“अरी शांति, क्या करेगी पढ़ा के बिटिया को? आखिर में चूल्हा-चौका ही संभालना है।”
कभी-कभी पुरुष भी हँसते हुए कहते, “गरीबों की लड़कियाँ अफसर नहीं बनतीं, ब्याह ही तो करना है।”
शांति चुप रह जाती, पर उसकी आंखों में आंसुओं की जगह आग होती।
वह जानती थी कि यह समाज वही सवाल करता है, जो उसकी सोच से बड़ा हो। लेकिन जानवी का सपना इस समाज से कहीं बड़ा था।
रात को जानवी बोली, “माँ, सब क्यों कहते हैं कि पढ़ाई लड़कों के लिए है?”
शांति ने उसे अपने पास बिठाया और प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, “बेटी, ये वही लोग हैं जो उस पेड़ को भी काट देना चाहते हैं जो फल देना शुरू करता है। तू पेड़ बन, फल दे, और फिर देख, यही लोग छांव में बैठने आएंगे।”
उस दिन जानवी ने पहली बार समझा कि पढ़ाई सिर्फ किताबों का ज्ञान नहीं, अपने अस्तित्व की लड़ाई भी है।
अध्याय 4: परीक्षा की वो रात
सर्दियों की एक कड़ी रात थी। हवाएं तेज़ थीं, और झोंपड़ी की दीवारें कंपकंपा रही थीं। मिट्टी के घर में कोई हीटर नहीं था, बस एक छोटा सा दिया और माँ की बाँहों की गर्मी ही सहारा थी। जानवी के स्कूल में सालाना परीक्षा अगले दिन थी।
उसके पास न स्वेटर था, न गर्म कंबल। मगर वह चुपचाप दीये की रौशनी में पढ़ती रही। काँपते हाथों से किताबें पलटती, और माँ की बगल में बैठकर सवालों का अभ्यास करती।
शांति देवी ने एक पुरानी साड़ी में से फटा हुआ टुकड़ा निकाला, और जानवी के पैरों को ढकते हुए बोली, “ठंड से डरना नहीं, बिटिया… ये सर्दियाँ तुझे रोक नहीं सकतीं। तेरी मेहनत ही तुझे गर्मी देगी।”
जानवी थकी हुई थी, मगर उसकी आंखों में नींद नहीं थी। उसे मालूम था कि ये रात सिर्फ ठंडी नहीं है — यह उसके भविष्य की परीक्षा की रात है।
रात के अंतिम पहर में जब जानवी की आंखें भारी होने लगीं, शांति ने उसकी किताबें बंद कीं और धीरे से बोली, “अब सो जा, मेरी चांदनी। कल तुझे उजाले की तरफ बढ़ना है।”
और अगली सुबह, जानवी जब स्कूल के गेट पर पहुंची, तो उसके हाथ में सिर्फ पेन और एडमिट कार्ड था, लेकिन मन में था – माँ के त्याग की ताकत और सपनों की उड़ान।
अध्याय 5: पहला पुरस्कार
परीक्षा के कुछ हफ्ते बाद जानवी का स्कूल में वार्षिकोत्सव रखा गया। मंच सजा था, रंगीन झंडियां फहराई गई थीं और बच्चों के चेहरे पर उल्लास था। लेकिन जानवी की आँखों में थोड़ी झिझक और बहुत सारा सपना था।
शांति देवी स्कूल नहीं आ सकीं क्योंकि उन्हें खेत में मज़दूरी करनी थी। लेकिन जाते हुए उन्होंने जानवी से कहा,
“अगर आज तेरा नाम पुकारा जाए, तो सीना ऊँचा कर के जाना। मैं नहीं रहूंगी, पर मेरी दुआ तेरे साथ होगी।”
जानवी को यकीन नहीं था कि वह पुरस्कार पाएगी। मगर जब मंच से प्रधानाचार्य ने नाम पुकारा, तो जानवी की धड़कनें तेज हो गईं—
“कक्षा पाँच में प्रथम स्थान पाने वाली छात्रा – जानवी!”
पूरा मैदान तालियों से गूंज उठा। जानवी की आंखें भर आईं, पर उसने खुद को संभाला और मंच की ओर बढ़ी। उसके पाँव कांप रहे थे, पर उसकी आत्मा मजबूत थी। उसे एक प्रमाणपत्र और एक छोटी सी ट्रॉफी मिली, जो उसके लिए किसी सोने के गहने से कम नहीं थी।
वह जब घर लौटी, तो माँ मिट्टी सने हाथों से दौड़कर बाहर आई। जानवी ने ट्रॉफी आगे बढ़ाई और कहा, “माँ, ये तुम्हारा इनाम है।”
शांति की आँखों में आंसू आ गए। उसने ट्रॉफी को माथे से लगाया और बोली,
“आज पहली बार ऐसा लग रहा है कि मेरी गरीबी हार नहीं रही
, जीत रही है।”
अध्याय 6: नया स्कूल, नई दुनिया
जानवी के प्रथम स्थान के बाद गांव के लोगों की सोच थोड़ी बदली थी। अब वे उसे लड़कियों के लिए असंभव कहा गया सपना दिखाने वाली लड़की मानने लगे थे। लेकिन साथ ही, उसकी पढ़ाई के लिए नए मौके भी सामने आए।
एक दिन, स्कूल के प्रधानाचार्य ने शांति से कहा,
“शांति जी, जानवी में बहुत प्रतिभा है। अब उसे शहर के बेहतर स्कूल में दाखिला दिलाना चाहिए। वहां उसके लिए और बेहतर शिक्षक, किताबें और सुविधाएं होंगी।”
शांति की खुशी का ठिकाना नहीं था, लेकिन उसके मन में डर भी था। शहर का स्कूल फीस, किताबें, कपड़े — सबके लिए पैसे कहाँ से आएंगे?
फिर भी, उसने हार नहीं मानी। घर की छोटी-छोटी जरूरतों को कम कर, वह अपने सारे जतन कर रही थी।
जानवी जब नए स्कूल गई, तो वहाँ की दुनिया उसके लिए बिल्कुल नई थी — बड़े-बड़े क्लासरूम, लैब, कंप्यूटर, और पढ़ाई के लिए ढेर सारी किताबें। शुरू में तो वह थोड़ा डर गई, क्योंकि उसके पास सुंदर कपड़े और महंगे बैग नहीं थे।
लेकिन उसकी माँ की सीख थी, “अपनी मेहनत से अपनी पहचान बनाना। दिखावे से नहीं।”
जानवी ने मन लगाकर पढ़ाई की, और हर दिन माँ की उम्मीदों को जीता। गाँव की छोटी लड़की, अब शहर के बड़े स्कूल में अपना सपना सच करने निकली थी।
अध्याय 7: संघर्ष की नई राहें
शहर का स्कूल जानवी के लिए एक नई दुनिया था, लेकिन इसके साथ नए संघर्ष भी लेकर आया। वहाँ के बच्चे महंगे कपड़े पहनते, अच्छी जगह रहते थे, और उनके पास खिलौने, किताबें और गैजेट्स थे। जानवी के पास केवल माँ का प्यार और त्याग था।
पहले कुछ दिनों तक वह अकेलापन महसूस करती रही। कभी-कभी वह सोचती, “क्या मैं यहाँ टिक पाऊंगी? क्या मेरे सपने सच हो पाएंगे?”
लेकिन तभी उसे अपनी माँ की बातें याद आईं —
“बिटिया, गरीबी सबसे बड़ी गुरु है, जो सबसे बड़ा सबक सिखाती है। मेहनत से डरो मत, अपने सपनों को पकड़ो।”
जानवी ने खुद से वादा किया कि वह कभी हार नहीं मानेगी। उसने अपनी कमजोरियों को ताकत में बदला। हर दिन स्कूल के बाद वह लाइब्रेरी में घंटों बैठकर पढ़ती, सवाल पूछती, और अपनी समझ को बढ़ाती।
धीरे-धीरे, उसके शिक्षकों ने उसकी प्रतिभा को पहचानना शुरू किया। जानवी की मेहनत रंग लाई और वह टॉपर्स में आने लगी।
माँ शांति की मेहनत भी जारी थी। खेतों में घंटों काम करने के बाद, वह अपने पड़ोसियों से कहतीं, “मेरी जानवी पढ़ेगी, बड़ा करेगी। गरीबी हमें रोक नहीं सकती।”
जानवी ने समाज की दीवारों को तोड़ना शुरू किया था, और हर कदम पर अपनी माँ के सपनों को सच करने के लिए लड़ रही थी।
अध्याय 8: पहला बड़ा मौका
जानवी की मेहनत रंग लाने लगी थी। स्कूल में एक बड़ा विज्ञान प्रोजेक्ट प्रतियोगिता आयोजित होने वाली थी। जानवी ने ठाना कि वह इस बार अपनी पूरी ताकत लगाएगी। यह मौका उसकी पढ़ाई और सपनों को एक नई दिशा देने वाला था।
परंतु, उसके सामने एक बड़ी समस्या थी। प्रोजेक्ट के लिए जरूरी सामग्री खरीदना महंगा था। जानवी ने माँ से मदद मांगी। शांति ने अपनी सारी बचत निकालकर जानवी को दी,
“बिटिया, यह तेरे सपनों का पैसा है। इसे अच्छे से इस्तेमाल करना।”
जानवी ने कड़ी मेहनत से प्रोजेक्ट बनाया। उसने गाँव की छोटी-छोटी चीजों को जोड़कर एक ऐसा मॉडल तैयार किया, जिससे पानी की बचत हो सके। यह प्रोजेक्ट न केवल उसके स्कूल में, बल्कि जिले भर में चर्चा का विषय बन गया।
प्रतियोगिता के दिन, जानवी ने अपने मॉडल को आत्मविश्वास के साथ प्रस्तुत किया। जजेस भी उसकी सोच और मेहनत से प्रभावित हुए। परिणाम स्वरूप, जानवी ने पहला पुरस्कार जीता।
यह जीत उसके लिए सिर्फ सम्मान नहीं थी, बल्कि एक संदेश था — गरीबी कभी सफलता की राह में बाधा नहीं बन सकती।
अध्याय 9: उम्मीदों का नया सूरज
जानवी की जीत ने पूरे परिवार में नई ऊर्जा भर दी। शांति देवी की मेहनत और त्याग रंग ला रहे थे। जानवी की कहानी अब केवल उनके गांव तक सीमित नहीं थी, बल्कि आसपास के गांवों में भी फैलने लगी।
स्कूल के शिक्षक, गांव के लोग, और जानवी के दोस्त सभी उसकी तारीफ करने लगे। लेकिन सबसे बड़ी खुशी शांति की थी, जिसने अपने सारे सपने जानवी के सपनों के साथ जोड़े थे।
अब जानवी के सामने एक बड़ा फैसला था — आगे की पढ़ाई के लिए शहर जाना या अपने गांव के करीब रहना। शांति ने बिना किसी हिचकिचाहट के कहा,
“बिटिया, जहां भी पढ़ाई हो, मैं तेरे साथ हूँ। तेरे सपनों की कोई सीमा नहीं होनी चाहिए।”
जानवी ने दिल से माँ को गले लगाया। उस गले लगाने में सारी मेहनत, सारे त्याग, और सारी उम्मीदें समाई थीं।
आसमान में सूरज की पहली किरणें फैल रही थीं, जैसे जानवी और उसकी माँ के लिए एक नई शुरुआत का संदेश लेकर आई हों। दोनों जानती थीं कि आगे भी रास्ते कठिन होंगे, लेकिन अब वे उस राह पर चलने को तैयार थीं।
अध्याय 10: नई चुनौतियाँ, नई उम्मीदें
शहर की पढ़ाई ने जानवी के सामने कई नई चुनौतियाँ रख दीं। बड़े-बड़े कॉलेज, ऊँचे भवन, और पढ़ाई की गहरी किताबें। नए दोस्त, नए माहौल में घुलना-मिलना आसान नहीं था।
कभी-कभी वह अपने पुराने घर की यादों में खो जाती, जहाँ माँ की ममता और संघर्ष उसे ताकत देते थे। नए शहर में अकेलापन भी महसूस होता, लेकिन जानवी ने ठाना था कि वह हार नहीं मानेगी।
माँ शांति देवी भी रोज़ाना फोन पर जानवी से बात करतीं, उसकी हिम्मत बढ़ातीं। “बिटिया, याद रखना, जो तू सह सके, वही तो तुझे मजबूत बनाता है।”
जानवी ने अपनी पढ़ाई में मन लगाया और सामाजिक कार्यों में भी हिस्सा लेने लगी। वह जानती थी कि शिक्षा सिर्फ किताबें पढ़ना नहीं, बल्कि दूसरों की मदद करना भी है।
हर मुश्किल में जानवी ने अपनी माँ की सीख को याद किया — संघर्ष से मत डरना, उम्मीदों को कभीत खोना।
अध्याय 11: जीवन का मोड़
जानवी की मेहनत रंग लाने लगी थी। कॉलेज की पढ़ाई में वह टॉप करने लगी, और उसकी छवि एक मेहनती और सशक्त छात्रा के रूप में बनने लगी। लेकिन जीवन ने एक नया मोड़ लिया, जब अचानक शांति देवी की तबीयत खराब हो गई।
गाँव से एक दिन फोन आया कि माँ अस्पताल में है। जानवी का दिल धक-धक करने लगा। शहर से तुरंत छुट्टी लेकर वह अपने गाँव की तरफ दौड़ी।
माँ की हालत देखकर जानवी के पैरों तले ज़मीन खिसक गई। गरीबी के कारण वह महंगे इलाज का इंतज़ाम नहीं कर पा रही थीं।
जानवी ने हार नहीं मानी। उसने गाँव के लोगों, अपने स्कूल के प्रधानाचार्य, और सामाजिक संस्थाओं से मदद मांगी। सभी ने मिलकर शांति देवी का इलाज कराया।
इस अनुभव ने जानवी को और भी मजबूती दी। उसने सोचा कि वह अपने गांव के गरीब बच्चों के लिए एक ऐसा स्कूल बनाएगी, जहाँ हर बच्चा पढ़ सके, चाहे उसकी आर्थिक स्थिति कैसी भी हो।
जानवी ने मन में ठाना —
“माँ के सपनों को सच करना है, और दूसरों के सपनों को भी उड़ानदेनी है।”
अध्याय 12: सपना साकार
समय बीतता गया और जानवी की मेहनत ने उसे आगे बढ़ाया। कॉलेज की पढ़ाई पूरी करने के बाद, उसने अपने गांव में एक छोटी सी स्कूल खोलने का फैसला किया। उस स्कूल का नाम उसने अपनी माँ के नाम पर रखा — “शांति देवी प्राथमिक विद्यालय”।
स्कूल खोलना आसान काम नहीं था। जानवी को जमीन की व्यवस्था करनी थी, शिक्षक ढूंढ़ने थे, और बच्चों को पढ़ाई के लिए प्रेरित करना था। लेकिन वह हार नहीं मानी।
धीरे-धीरे, गांव के बच्चे उस स्कूल में आने लगे। उनके चेहरे पर जानवी की तरह सपनों की चमक दिखने लगी। माँ शांति देवी भी अब स्वस्थ थीं और जानवी के साथ स्कूल में बच्चों को देखकर बहुत खुश होती थीं।
एक दिन, गांव के प्रमुख ने कहा,
“जानवी, तुम्हारे जैसे लोग ही समाज को बदलते हैं। तुमने गरीबी और मुश्किलों को मात दी, और अब दूसरों के लिए रास्ता बना रही हो।”
जानवी ने मुस्कुराते हुए कहा,
“यह मेरी माँ की मेहनत और त्याग की जीत है। मैं तो बस उनकी दुआओं का फल हूँ।”