Teri Meri Khamoshiyan - 4 in Hindi Love Stories by Mystic Quill books and stories PDF | तेरी मेरी खामोशियां। - 4

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तेरी मेरी खामोशियां। - 4

नायरा का कमरा।

कमरा अंधेरे में डूबा हुआ था।

केवल खिड़की से आती चाँदनी एक कोना रोशन कर रही थी… और उस रौशनी में नायरा बैठी थी—गुमसुम, बेआवाज़।


उसके आंसू—कभी बहते थे, कभी पलकों में ठहर जाते थे।

जैसे हर आँसू एक सवाल हो…

जिसका कोई जवाब उसे दुनिया में कहीं नहीं मिलता।


दरवाज़े पर हल्की दस्तक हुई…

फिर बिन इजाज़त के, एक जानी-पहचानी ख़ुशबू कमरे में दाख़िल हुई।


"नायरा..."

उसकी अम्मी, जिनसे ख़ून का रिश्ता तो नहीं था… मगर ममता का हर कतरा उनके लहजे में था।


नायरा ने पीठ मोड़ ली।


"अगर आप समझाने आई है, तो रहने दीजिए। सबको बस मेरी शादी ही क्यों नज़र आती है?"

उसकी आवाज़ भारी थी, गले में अटकी हुई।


अम्मी कुछ नहीं बोलीं।

वो धीरे से आकर उसके पास बैठ गईं, और उसके कंधे पर हाथ रखा।

नायरा कांप गई।


"कभी सोचा है नायरा," अम्मी की आवाज़ बहुत धीमी थी, "जिस दिन तू इस घर में आई थी, मेरी ज़िंदगी भी उसी दिन बदली थी।

लोग कहते रहे कि तू मेरी नहीं है…

पर मैंने तो तुझे खुद से भी ज़्यादा चाहा।

तेरी हँसी, तेरी ज़िद, तेरी चुप्पी… सबको संभाल कर रखा मैंने, जैसे तू मेरी साँस हो।"


नायरा का सीना भीग गया…

उसने पहली बार नज़रें मिलाईं—

उन आँखों में कोई रिश्ता नहीं था, मगर ममता की गहराई समंदर जैसी थी।


"माँ... अगर आप मेरी सगी माँ होतीं..."


अम्मी ने उसका चेहरा थाम लिया, और होंठों पर उँगली रख दी—


"कभी ये मत कहना।

मैं तेरी माँ हूँ—बस।

रिश्ता खून का नहीं… दिल का होता है।

और मेरा दिल… तुझसे जुड़ा है, जान-ए-मेरा।"


नायरा उनके सीने से लगकर फूट-फूटकर रो पड़ी।


"क्यों सब मुझसे इतने बड़े फैसले की उम्मीद रखते हैं अम्मी?

मुझे मेरी ज़िंदगी जीने दीजिए… मेरी अपनी रफ़्तार से।"


अम्मी ने उसके बालों को सहलाते हुए कहा—


"तुझे मजबूर करने नहीं आई हूँ, नायरा।

बस ये चाहती हूँ कि तू अपनी खुशी चुने…

ना कि किसी दर्द से भागने के लिए कोई रास्ता।

शादी… तुझ पर थोपी नहीं जाएगी।

लेकिन अगर कोई ऐसा आए, जो तुझसे तेरी तरह मोहब्बत करे…

तो क्या तू उस मोहब्बत से नज़रे चुरा लेगी?"


नायरा की आँखों से फिर से आँसू बह निकले…अम्मी कमरे से जाते-जाते एक लिफ़ाफ़ा मेज़ पर रख गईं।


"बस एक बार देख लेना… मना नहीं कर रही, पर तुझे समझना भी मेरा हक है।"

उनकी आवाज़ में न कोई ज़बरदस्ती थी, न शिकवा…

बस एक माँ की मासूम सी उम्मीद थी।


दरवाज़ा बंद हुआ…

और कमरे में फिर से वही ख़ामोशी उतर आई।


रात के पिछले पहर…


नायरा ने उस लिफ़ाफ़े को देखा।

नज़रों में एक लम्हे के लिए ठिठकन थी…

फिर उसने चुपचाप चेहरा फेर लिया।


"जिस चेहरे को ज़िंदगी से जोड़ना हो… उसे कागज़ पर नहीं देखा जाता।"

उसने खुद से बुदबुदाया… और लिफ़ाफ़े को छुए बिना बत्ती बुझा दी।



सुबह…


घर की फिज़ा कुछ बदली-बदली थी।

दादी-बुआ अभी भी नाश्ते की मेज़ पर बैठी थीं,

अब्बू अख़बार में गुम थे।


नायरा बिना किसी से नज़र मिलाए, चुपचाप सीढ़ियाँ उतरी।

नाश्ते की मेज़ पर हल्की खनक हुई, लेकिन उसने एक घूँट पानी तक नहीं पिया।

बस अपना बैग उठाया… और दरवाज़ा खोलकर बाहर निकल गई।


अम्मी ने सिर्फ देखा… कुछ कहा नहीं।

कभी-कभी माँएं चुप रहकर ज़्यादा महसूस कराती हैं।


बस स्टॉप।


सुबह की हवा थोड़ी ठंडी थी, लेकिन नायरा के भीतर की हलचल उससे भी तेज़ थी।

सड़क पर आते-जाते लोग, हॉर्न की आवाज़ें, कॉलेज के बैग्स लटकाए स्टूडेंट्स…

मगर नायरा इन सबसे अलग खड़ी थी।


उसकी आँखें कहीं और देख रही थीं।

शायद अपने अंदर की उलझनों को, या किसी जवाब को।


और तभी…


एक जानी-पहचानी सर्द खामोशी से भरी मौजूदगी पास से गुज़री।


सलेटी रंग की शर्ट, गहरे नीले जीन्स, और वही शांत चाल…

जिसमें न अहंकार था, न जल्दबाज़ी।


नायरा की धड़कन जैसे पलभर के लिए ठहर गई।


अमन…!


वो उसके ठीक सामने से गुज़रा,

नज़रें मिलीं… फिर फिसल गईं…

जैसे कुछ कहना भी हो, और छुपाना भी।


नायरा का दिल फिर उलझ गया—

"ये वही है ना? या फिर... कोई और है, जो मेरी रूह को जानता है?"


अमन ने कुछ नहीं कहा।

न कोई मुस्कान, न सलाम।

बस… एक झलक, और फिर वह अपनी राह चल पड़ा।


लेकिन उसकी वो नज़र…

जैसे कुछ कह गई थी।


“क्या वो वही था…?”

नायरा ने खुद से पूछा,

पर जवाब सिर्फ हवा में तैरती खामोशी थी।


दोपहर का वक़्त था… कॉलेज कैंटीन की रौनक हमेशा की तरह ज़ोरों पर थी।


निम्मी ट्रे में समोसे और दो कुल्हड़ वाली चाय लेकर सीधी नायरा की टेबल पर आकर बैठ गई।

नायरा सामने बैठी खिड़की के पार कहीं खोई हुई थी—उसके चेहरे पर अजनबी सी ख़ामोशी थी, जो निम्मी को बिल्कुल पसंद नहीं आई।


"ओ मोहब्बत की मरीज़… आज इतनी उदास क्यों है? लग रहा है जैसे समोसे भी तुझसे तौबा कर लेंगे!"


नायरा हल्की सी मुस्कराई, लेकिन निम्मी की शरारती आँखें भाँप गईं कि मुस्कान अधूरी है।


"कुछ नहीं यार… बस ऐसे ही..."


निम्मी ने झुंझलाकर उसकी कुल्हड़ उठाई—"ऐसे ही मत बोल, मुझे सच्ची बात बता वरना तेरी चाय जब्त कर लूंगी!"


नायरा ने गहरी साँस ली, और फिर कुछ रुककर बोली—

"कल रात सुल्ताना खाला आई थीं…"


"हाय अल्लाह! शादी-ब्याह वाली सुल्ताना खाला?"


"हां… वही। आते ही दुआएँ देने लगीं… शादी की दुआएँ!"


निम्मी का मुँह खुला का खुला रह गया, फिर हँसी में बदल गया—"क्या बात कर रही है! मतलब अब तू भी रिश्तों के रेडार पर आ चुकी है?"


नायरा ने आँखें तरेरीं—"मज़ाक मत कर निम्मी, बहुत अजीब सा लग रहा है। घर में सब… कुछ ज़्यादा ही संजीदा हो गए हैं। दादी बुआ तक आ गईं गाँव से!"


"और लड़का कौन है? दिखा फोटो-वोटो?" निम्मी ने आँखें चमकाते हुए पूछा।


नायरा ने सिर झटका—"नहीं… ना नाम पता है, ना शक्ल देखी है। अम्मी फोटो छोड़ गई थीं, मगर मैंने देखा तक नहीं।"


निम्मी का मुँह फिर खुला—"मतलब तूने उस बेचारे की शक्ल भी नहीं देखी और परेशान भी है? वाह री तेरी नफ़ासत!"


नायरा खामोश रही… उसकी आँखों में कुछ उलझा हुआ था।


निम्मी थोड़ी नरम पड़ी—"तो क्या करना है तुझे? शादी से मना करेगी?"


"पता नहीं… अभी बस पढ़ाई करनी है। और कुछ समझ नहीं आ रहा।"


कुछ पल के लिए दोनों खामोश रहीं।

फिर निम्मी ने धीरे से पूछा—"तो फिर ये बेस्टॉप वाला शहज़ादा… उसके बारे में क्या ख्याल है?"


नायरा ने झेंपते हुए सर झुका लिया—"कुछ नहीं... बस अजनबी है… और अजनबी ही ठीक है।"


निम्मी ने प्यार से कहा—"कभी-कभी अजनबी ही सबसे अपने हो जाते हैं, और अपने… अजनबी।"


नायरा चुप रही।


लेकिन अब उसके चेहरे पर वो पुरानी मुस्कान लौटने लगी थी…

थोड़ी उलझी, थोड़ी नर्म… मगर सच्ची।