शिवशिला पर जो हुआ था, वो अब केवल एक रहस्य नहीं था — वो एक भविष्य का उद्घोष था।
गुरुकुल के आचार्य, ध्यानियों और शिष्यवर्ग के भीतर एक अनजानी घबराहट समा गई थी।
गुरु वसिष्ठ अकेले नहीं रह गए। वरिष्ठतम गुरु — अचिन्त्य ऋषि, जो 200 वर्षों से ध्यानस्थ थे — उन्होंने भी अपनी समाधि भंग की।
“शिवशिला ने इतने वर्षों बाद स्वयं ऊर्जा छोड़ी… और वो भी किसी बालक के कारण?”
वसिष्ठ बोले — “वो बालक नहीं है… वो बीज है। अग्निबीज।”
अग्निबीज — एक ऐसा शब्द जो केवल प्राचीन पांडुलिपियों में मिलता था।
उसका अर्थ था: वह आत्मा जो समय के नियमों को झुका सकती है।
इस बीज के दो परिणाम हो सकते थे:
यदि साधक शुद्ध रहा, तो वो सम्राट धर्मेन्द्र की तरह संसार में संतुलन लाएगा।
यदि वो भ्रष्ट हुआ, तो वो बन जाएगा 'त्रिनेत्र काल' — वो जो तीन युगों को निगल सकता है।
और अब आरव के भीतर वही बीज जाग चुका था।
आरव अपने कक्ष में था। बाहर आकाश खुला था, पर भीतर उसके मन में एक अजीब बोझ था।
शिवशिला के अनुभव ने जैसे उसकी आत्मा को खरोंच दिया था।
हर रात अब उसे वही स्त्री — मालिनी — स्वप्न में बुलाती थी।
उसकी आँखें गहरी थीं, पर उनमें आँसू नहीं… केवल स्मृति थी।
"तुम लौटे हो, पर मुझे नहीं पहचाना। मैं प्रतीक्षा करती रही..."
उसके साथ ही एक और आकृति प्रकट होने लगी थी — साम्राज्ञी स्वरानी, एक तेजस्वी स्त्री, जो युद्ध के कवच में थी, पर उसकी आँखें पीड़ा से भीगी थीं।
"आरव... मुझे माफ़ कर दो। मैंने तुम्हारा राज्य नहीं बचा पाया।"
आरव हर बार पसीने से भीगकर उठता।
रजनीशा, शिवधाम के नागकक्ष में बैठी थी। उसके सामने बिछा था एक प्राचीन मंत्र-लेख, जिसमें लिखा था:
> "कालसम्राट जब पुनर्जन्म ले, तो नागवंश की कन्या को दो कर्तव्य निभाने होंगे:
एक — उसकी रक्षा।
दो — उसका परीक्षण।"
उसने तय कर लिया था: वह आरव को आजमाएगी।
“यदि वह सच में वही है… तो मेरे कुल की कसम है, मैं उसके साथ बंधन बाँधूँगी। पर यदि वह मात्र एक आवरण है… मैं उसे स्वयं समाप्त कर दूँगी।”
माया झील किनारे बैठी थी, जहाँ पहले वह अपनी दिव्य दृष्टि साधती थी।
अब वह भ्रमित थी — क्योंकि वह देख रही थी तीन संभावित भविष्यों को।
1. एक भविष्य में आरव एक सम्राट था — सभी नायिकाएँ उसके साथ, पर युद्ध का अंत रक्त में।
2. दूसरे में वह एक सन्यासी बन जाता — पर आत्मा अधूरी रहती।
3. तीसरे में… वह माया को ही भूल जाता, और काल की घोर सत्ता बन जाता।
माया की आँखों से पहली बार एक आँसू गिरा।
“क्या मैं फिर एक युग से मिटा दी जाऊँगी, आरव?”
शिवधाम के पश्चिमी द्वार पर, एक गुप्त सुरंग से काले वस्त्र में लिपटी एक आकृति प्रवेश करती है।
उसकी आँखें चमकती हैं… और वह बुदबुदाती है:
> “अग्निबीज जाग चुका है…
और अब मैं शिवधाम को भीतर से तोड़ूँगा।
प्रथम लक्ष्य: वह कन्या… जिसे वो सबसे प्रिय समझेगा।
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संध्या का समय था। शिवधाम की घाटी पर केसरिया आकाश फैल चुका था।
आरव ध्यान साधना से बाहर आया तो सामने रजनीशा खड़ी थी।
उसने सीधे कहा, “मेरे साथ चलो, आरव। आज रात तुम्हारी परीक्षा है — ना गुरुकुल की, ना गुरु वसिष्ठ की… मेरी।”
आरव कुछ पल चुप रहा। उसकी चेतना अब पहले जैसी नहीं थी — हर भाव के पीछे वह कोई छुपा संकेत महसूस करता।
“कैसी परीक्षा?” उसने पूछा।
“जिसमें तुम ये सिद्ध करोगे कि तुम केवल एक साधारण बालक नहीं… बल्कि वो हो जो लौट कर आया है।”
रजनीशा उसे शिवधाम से नीचे, एक बंद गुफा की ओर ले गई जिसे नागभूमि प्रवेश द्वार कहते थे।
“यहाँ से केवल वही जीवित लौट सकता है जिसकी आत्मा स्थिर हो। यहाँ भय, मोह और कामना — तीनों तुम्हारा परीक्षण करेंगे।”
गुफा अंधकारमयी थी, भीतर सर्पशिला की आकृतियाँ थीं, और हर दीवार पर पुरातन मंत्र खुदे थे।
जैसे ही दोनों भीतर गए, द्वार बंद हो गया।
रजनीशा ने कहा, “अब से हम दोनों भी केवल आत्माएँ हैं। तुम्हें भीतर मुझसे लड़ना होगा — मन से, शरीर से, और भाव से।”
गुफा का वातावरण अचानक बदल गया — फूलों की खुशबू, मंद संगीत, और सामने एक स्त्री आकृति प्रकट हुई। वह हूबहू माया जैसी थी।
आरव चौंका।
“मैं तुम्हारी इच्छा हूँ,” वह आकृति बोली।
“क्या तुम मुझसे मुक्ति चाहते हो? या मेरे साथ एक युग बिताना?”
आरव का हृदय दो भागों में बँट रहा था — एक ओर वह भावनाएँ जो माया से जुड़ी थीं, और दूसरी ओर चेतना जो कह रही थी, “यह छल है।”
उसने आँखें बंद कीं और कहा, “तुम मेरी स्मृति हो, मेरी कमजोरी नहीं।”
आकृति टूट गई।
रजनीशा दूर खड़ी थी, उसने सिर हिलाया — “पहला द्वार पार।”
शिवधाम के उत्तरी कुंड पर माया एकांत साधना में बैठी थी।
तभी हवा भारी हो गई, और उसके सामने वह आकृति प्रकट हुई जिसने पश्चिमी द्वार से प्रवेश किया था।
काले वस्त्र, गहरे नीले नेत्र, और उसकी हथेली में एक छाया-वृत्त।
“तुम वह हो… जिसने सम्राट को पूर्वजन्म में भटका दिया था,” वह बोला।
माया उठ खड़ी हुई।
“और तुम वो हो… जो फिर उसे अंधकार में धकेलना चाहता है।”
एक मंत्र की आभा माया के चारों ओर फैल गई — पर यह युद्ध बाहरी नहीं था, यह चेतना पर आक्रमण था।
अचानक… माया की आँखों के सामने दृश्य बदल गया।
वह आरव को देख रही थी — पर वह किसी और स्त्री के साथ था। हँसता, गाता… और माया पीछे अकेली खड़ी थी।
“ये… ये झूठ है,” माया ने आँखें मूँदीं।
पर उसका हृदय टूट चुका था।
रात के तीसरे प्रहर में गुरुकुल के सात वरिष्ठ आचार्य एकत्र हुए।
गुरु वसिष्ठ, अचिन्त्य ऋषि, वागीश ऋषि, और चार अन्य — एक मंत्र-चक्र के बीच।
“क्या वह बालक अब भी साधारण है?” वागीश ने पूछा।
वसिष्ठ बोले, “नहीं। उसके भीतर त्रिकाल दर्शन की क्षमता जाग गई है।”
“तो क्या वह काल का पूर्वज है?”
“शायद…”
“तो क्या उसे शिवधाम से निष्कासित कर देना उचित होगा?” अचिन्त्य ऋषि ने तीखा प्रश्न किया।
सभा मौन हो गई।
नागभूमि की गुफा में अंतिम परीक्षा शुरू हुई।
आरव एक विशाल दर्पण के सामने खड़ा था — पर उसमें वह स्वयं को नहीं, त्रिनेत्र सम्राट को देख रहा था।
काले वस्त्र, तीसरी आँख खुली हुई, और उसके चारों ओर राख।
“तुम मुझसे बच नहीं सकते,” दर्पण की छवि बोली।
“क्योंकि मैं ही तुम हूँ।”
आरव कांप रहा था — उसका शरीर पसीने से भीग गया।
“नहीं। मैं तुम नहीं हूँ।”
“झूठ। तुम चाहते हो साम्राज्य, शक्ति, स्त्रियाँ, अमरत्व…”
“मैं चाहता हूँ… सत्य।”
दर्पण टूट गया।
गुफा के द्वार खुल गए।
रजनीशा मुस्कराई — “तुम पास हुए। और अब… मैं वचन देती हूँ कि तुम्हारी रक्षा करूँगी। चाहे वो वचन मुझे मृत्यु के मुँह में क्यों न ले जाए।”
आरव चुप रहा… पर उसकी आँखों में पहली बार एक स्नेह की झलक थी।
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संध्या ढल चुकी थी, और माया अपने कक्ष में अकेली बैठी थी।
आज का दिन उसकी साधना का नहीं, संघर्ष का दिन था।
जो दृश्य उस पर थोपे गए थे — आरव किसी और स्त्री के साथ — वह केवल भ्रम थे, वह जानती थी।
पर फिर भी, क्यों उसका हृदय भारी था?
उसने जल से भरे पात्र में अपना प्रतिबिंब देखा। वहाँ माया नहीं थी — वहाँ एक पराजित स्त्री थी, जो अपने ही भविष्य से डर रही थी।
“क्या मेरे स्थान पर कोई और आ जाएगी?” उसने स्वयं से पूछा।
और भीतर से उत्तर आया — “हाँ… कई होंगी।”
सुबह, शिवधाम के कमल कक्ष में दोनों स्त्रियाँ आमने-सामने थीं।
माया आयी थी गुरु वसिष्ठ से कुछ पूछने, और वहीं रजनीशा आ पहुंची।
उनकी दृष्टियाँ मिलीं — माया की शांत, पर जल से गहरी।
रजनीशा की तेजस्वी, पर भीतर कहीं द्वंद्व से भरी।
माया ने पहले नम्रता से सिर झुकाया।
रजनीशा मुस्कराई — लेकिन वो मुस्कान स्पर्धा की थी, न कि स्नेह की।
“तुम वो हो, जिसने आरव को सबसे पहले देखा?” रजनीशा ने पूछा
माया चुप रही। फिर बोली — “मैंने उसे पहचाना है। देखा तो सबने है।”
रजनीशा कुछ कदम आगे बढ़ी।
“पहचानने और समर्पण में अंतर होता है, कन्या।”
माया की आँखों में हल्का जलकंप हुआ — और वह बिना उत्तर दिए वहां से चली गई।
गुरु वर्ग अब अधिक विलंब नहीं करना चाहता था।
अचिन्त्य ऋषि ने शिव-शिला के न्यास चक्र में एक पुरातन संकेत देखा था — वहाँ लिखा था:
> “जब अग्निबीज जागे, उसे तत्काल ‘मंत्र-शून्य क्षेत्र’ में भेजा जाए — अन्यथा सम्पूर्ण ज्ञान-भूमि पर संकट होगा।”
“आरव को इस शिवधाम में खुला छोड़ना अब उचित नहीं,” वसिष्ठ ने कहा।
“पर क्या उसे बंदी की तरह रखें?” वागीश बोले।
“नहीं। हम उसे पर्वतान्तर्म् कक्ष में भेजेंगे — वहाँ वह सीख भी सकेगा और सुरक्षित भी रहेगा।
फैसला हो चुका था।
आरव को ‘मंत्र-शून्य क्षेत्र’ भेजा जाएगा — जहाँ वह अपनी चेतना को समझेगा, पर अकेला रहेगा।
रात का समय था। आरव ध्यानमग्न था।
तभी गुरु वसिष्ठ उसके समीप आए।
“बालक… अब समय है तुम्हें स्वयं से मिलने का।”
“स्वयं से?” आरव ने पूछा।
“हाँ। ऐसी भूमि में, जहाँ कोई मंत्र काम नहीं करता, जहाँ केवल तुम्हारी आत्मा तुम्हारा साथी होगी।”
“और क्या मैं लौट पाऊँगा?”
“यदि तुम वही हो… जिसे कालचक्र ने चुना है — तो अवश्य।”
उसी समय, एक प्राचीन योगिनी — देवी वैदिनी, जो अब किसी नहीं दिखती, एक गुफा में ध्यानस्थ थी।
उसकी चेतना में एक नाम प्रकट हुआ — “शर्वाणी”
वह एक अग्नि-कन्या होगी — जिसकी आत्मा तीन जन्मों से कालचक्र से बंधी है।
और वो इस युग में आरव की नियति से जुड़ने वाली है।
“वो तीसरी है,” वैदिनी ने बुदबुदाया।
“माया… रजनीशा… और अब शर्वाणी।
तीनों स्त्रियाँ… तीन दिशाएँ।
पर कालचक्र केवल एक मार्ग चुनेगा।”
रात को, माया ने कमल कुंड में स्नान किया।
फिर उसने शक्ति व्रत लिया — जिसमें एक कन्या 21 दिनों तक मौन रहती है और अपने हृदय को केवल एक भाव में बांधती है।
“मैं वचन देती हूँ,” माया ने जल में कहा,
“यदि मेरी आत्मा आरव की चेतना से बंधी है, तो यह व्रत सिद्ध होगा।
और यदि नहीं… तो मैं सदा के लिए अपनी भावनाएँ त्याग दूँगी।”
सुबह होते ही पर्वतान्तर्म् द्वार खोला गया।
आरव ने पीछे देखा — गुरु, शिष्य, और स्त्रियाँ — सब चुप थे।
माया नहीं दिखी — पर उसके कक्ष की दीपशिखा अब भी जल रही थी।
रजनीशा एक पल को पास आई, और धीमे स्वर में बोली —
“यदि तुम वही हो… तो मैं तुम्हारी रक्षक बनूँगी, और पत्नी भी।
पर यदि नहीं… तो मैं वो बनूँगी जो तुम्हारा अंतिम परीक्षण करेगी।”
आरव ने सिर झुकाया।
फिर वह उस द्वार में प्रवेश कर गया — जहाँ कोई मंत्र, कोई ऊर्जा, और कोई सहारा नहीं था।
केवल एक मौन — और एक आत्मा… जो भविष्य बनना चाहती थी।
आरव ने जैसे ही ‘पर्वतान्तर्म् द्वार’ के भीतर कदम रखा, वातावरण तुरंत बदल गया।
ना मंत्रों की गूंज, ना ऊर्जा की अनुभूति।
वहाँ केवल मौन था — इतना गहन, जैसे समय भी वहाँ ठहर गया हो।
चारों ओर घना धुंध था।
धरती पर चिह्नों की रेखाएँ, जो किसी प्राचीन सभ्यता की भाषा लगती थीं, और हर एक रेखा उसके हृदय की धड़कनों से जुड़ती महसूस होती।
वह स्थान मंत्र-शून्य था — पर सच में, वहाँ केवल बाह्य मंत्र निष्क्रिय थे।
अंदर के मन्त्र, आत्मा के मन्त्र — वे जागने लगे थे।
तीसरे दिन, आरव की चेतना एक चक्रवात में घिरी।
उसने स्वप्न में देखा — तीन आकृतियाँ सामने खड़ी हैं।
एक बालक, एक वृद्ध, और एक सम्राट।
“कौन हो तुम?” आरव ने पूछा।
“हम वही हैं… जो तुम बनोगे।”
“कौन सा मार्ग चुनोगे, आरव?” वृद्ध ने पूछा।
“ज्ञान? अधिकार? या… प्रेम?”
तीनों आकृतियाँ उसके चारों ओर घूमने लगीं।
“तीनों एकसाथ नहीं हो सकते?”
“नहीं। कालचक्र केवल एक राह देता है… बाकी छीन लेता है।”
आरव चिल्लाया — “मैं कौन हूँ?!”
और सब कुछ अंधकार में डूब गया।
दूसरी ओर, शिवधाम से पूर्व दिशा में स्थित एक प्राचीन यज्ञकुंड — जिसे अन्यथा अग्निवेश कहा जाता था — अचानक सक्रिय हुआ।
वहाँ कोई आहुतियाँ नहीं दी गई थीं, फिर भी अग्नि उठी… और उसमें से एक स्त्री आकृति उभरी।
लाल आभा, जटाएँ जैसे अग्निशिखाएँ, और नेत्र — जो सूर्य जैसे दहकते थे।
यह थी शर्वाणी।
उसका शरीर भले नवयुवती का था, पर उसकी चेतना… किसी पुरातन ऋषि जैसी।
जैसे ही उसने धरा पर कदम रखा, धरती पर वैदिक रेखाएँ बनीं —
और आकाश में एक ध्वनि गूंजी:
“त्रयास्त्रीणि स्वरूपाणि, एकं अनश्वरम् मार्गं।”
(तीन स्त्रियाँ, तीन स्वरूप… केवल एक अमर मार्ग।)
उसी समय शिवधाम के कुंडों में जल अचानक उबलने लगा।
मंत्रोच्चारण के समय ऊर्जा भंग हो रही थी।
कुछ आचार्यों की चेतना विचलित हो गई।
गुरु वसिष्ठ तुरंत समझ गए — “आरव अब केवल स्वयं को नहीं ढूंढ रहा… उसका जागरण सम्पूर्ण शिवधाम को प्रभावित कर रहा है।”
माया अब भी मौन व्रत में थी, पर उसने भी इन ऊर्जा परिवर्तनों को अनुभव किया।
उसने अपनी आँखें खोलीं और बुदबुदाई —
“वो अब अकेला नहीं है…”
रजनीशा जब ध्यान में थी, तो उसे एक ध्वनि सुनाई दी —
पर वह मंत्र नहीं, कोई स्त्री स्वर था।
“मैं आ रही हूँ…”
उसने आँखें खोलीं — उसके सामने अग्नि की रेखा बनी, और उसमें से शर्वाणी की छवि प्रकट हुई — केवल क्षण भर के लिए।
रजनीशा ने अपनी तलवार पकड़ी और कहा —
“अब युद्ध केवल भावनाओं का नहीं रहेगा।”
पाँचवे दिन, मंत्र-शून्य क्षेत्र में आरव को फिर से स्वप्न आया।
इस बार केवल एक स्त्री सामने थी — अग्निमयी, पर शांत।
उसकी आँखों में चंद्रमा की शांति और सूरज की तपिश थी।
“तुम कौन हो?” आरव ने पूछा।
“मैं वो हूँ जो तुम्हारे हृदय की तीसरी दिशा बनूँगी।
माया तुम्हारा आधार है, रजनीशा तुम्हारी शक्ति…
और मैं तुम्हारी परीक्षा।”
“नाम…?”
“शर्वाणी
योगिनी वैदिनी ने उस अग्निकुंड के पुनः जागरण को देख लिया।
“अब जब तीसरी प्रकट हो गई है…
शिवधाम, मंत्र-शून्य क्षेत्र, और कालचक्र —
तीनों अपनी धुरी पर घूमने लगेंगे।”
उसने एक मंत्र लिखा —
“सावधान कर दो माया को…
क्योंकि अब उसे अपनी भावनाओं को बचाने का युद्ध लड़ना होगा।”
मंत्र-शून्य क्षेत्र के सातवें दिन, आरव ध्यान में बैठा था — पर भीतर कुछ बदला-बदला सा था।
उसके समक्ष फिर वह अग्नि-मूर्ति प्रकट हुई — शर्वाणी।
पर इस बार स्वप्न नहीं था — यह एक आंतरिक चेतन-संवाद था।
“क्यों आई हो?” आरव ने पूछा।
“क्योंकि तुम्हारी आत्मा ने पुकारा।
मैं अग्नि हूँ, आरव… शुद्धि और विनाश दोनों।”
“तुम माया की तरह शांत नहीं, न रजनीशा जैसी तेज… तुम क्या हो?”
“मैं तुम्हारी परीक्षा हूँ।
यदि तुम मुझे स्वीकार नहीं कर सके… तो तुम अग्निबीज नहीं बन पाओगे।”
“और यदि स्वीकार कर लिया?”
“तो मैं तुम्हारे लिए युद्ध बन जाऊँगी — और प्रेम भी।”
आठवें दिन, वह क्षेत्र जो अब तक शांत था — कांप उठा।
धरती फटने लगी, आकाश का रंग लाल हो गया।
आरव ने महसूस किया कि एक प्राचीन छाया उस क्षेत्र की सीमाओं को तोड़ रही थी।
वह कोई जीवित शक्ति नहीं थी — वह एक प्राचीन शाप था, जिसे कभी यहाँ बंद किया गया था।
वह शाप आरव की चेतना को लक्ष्य कर रहा था।
“तू वही है जो अग्निबीज है?” वह छाया फुफकारती थी।
“तो मैं तेरी परीक्षा बनूंगी — और विनाश भी।”
इधर शिवधाम में, माया का मौन व्रत पूरा हो गया।
वह दीपशिखा के सामने बैठी थी, और उसकी आँखों से आँसू गिर रहे थे — पर वह मुस्करा रही थी।
तभी अचानक उसकी देह के चारों ओर नीली आभा फैलने लगी।
वह तृतीय नेत्र साधना की प्रथम सीढ़ी पार कर चुकी थी — बिना किसी गुरु के।
गुरु वसिष्ठ ने जब यह देखा, तो वह चौंक गए।
“इस कन्या के भीतर केवल भाव नहीं, शक्ति भी जन्म ले रही है।”
गुरु वर्ग ने अब एक भव्य संकल्प किया।
“इन तीनों स्त्रियों — माया, रजनीशा और अग्निकन्या —
इनका भविष्य आरव से जुड़ा है।
पर यदि नियंत्रण न हुआ, तो यही तीन दिशाएँ, एक-दूसरे का विनाश बन सकती हैं।”
अब, एक चतुर्थ स्तंभ की आवश्यकता थी — कोई जो इन भावनाओं को संतुलन दे सके।
और वह संतुलन — केवल आरव ही बन सकता था।
रजनीशा ने अग्निवेश में जाकर अपनी तलवार जल में डुबोई।
“मैं शपथ लेती हूँ — यदि यह अग्निकन्या मेरी राह का अंत बनती है,
तो मैं आरव को छोड़ दूंगी…
या उसे पाने के लिए युद्ध करूँगी।”
उसकी आँखों में पहली बार द्वंद्व झलका —
प्रेम और अधिकार में।
आरव ने अगली बार जब शर्वाणी को देखा, वह धधकती हुई अग्नि में नहीं,
बल्कि एक शांत झील के किनारे बैठी थी — जैसे उसका दूसरा स्वरूप।
उसने पूछा — “तुम इतनी भिन्न कैसे हो सकती हो?”
शर्वाणी बोली — “अग्नि केवल जलाने के लिए नहीं होती,
वह आलोक देने के लिए भी होती है।
तुम्हारा प्रेम यदि केवल माया या रजनीशा तक सीमित रहा — तो मैं तुम्हें खो दूँगी।
पर यदि तुम सबको एक साथ स्वीकार कर सके — तो मैं तुम्हारी सबसे बड़ी शक्ति बनूँगी।”
और फिर पहली बार, आरव की चेतना में कालचक्र की ध्वनि गूंजी:
> “वर्तमान मार्ग अब ठहराव नहीं,
बल्कि एक समर है।
तीन दिशाएँ, एक केंद्र —
और केवल एक सम्राट।”
आरव का ध्यान टूटा।
मंत्र-शून्य क्षेत्र अब हिल रहा था।
कुछ जाग चुका था — न केवल आरव में,
बल्कि सम्पूर्ण ब्रह्मपथ में।
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