Tortoise incarnation in Hindi Spiritual Stories by Vishal Saini books and stories PDF | कूर्म अवतार

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कूर्म अवतार

स्वर्गलोक में इंद्र का राज था। उनकी सभा में सुख और वैभव की कोई कमी नहीं थी। एक दिन, जब इंद्र अपनी सभा में बैठे थे, वहां महर्षि दुर्वासा पधारे। दुर्वासा, अपने तप और तेज के लिए विख्यात थे, किंतु उनका स्वभाव क्रोधी और कठोर था। वह इंद्र को आशीर्वाद देने आए थे और अपने साथ एक दिव्य माला लाए, जो पुष्पों से सुशोभित थी और जिसकी सुगंध स्वर्गलोक को और भी रमणीय बना रही थी।

दुर्वासा : "हे इंद्र, मैं तुम्हें यह दिव्य माला भेंट करता हूँ। यह माला मेरे तप का प्रतीक है। इसका सम्मान करना और इसे संभालकर रखना।"

इंद्र ने माला को स्वीकार किया और उसे अपने गले में धारण किया। लेकिन उनके मन में माला का कोई विशेष महत्व नहीं था। वह अपनी सभा के वैभव में इतने मग्न था कि माला को कुछ देर बाद उतारकर अपने ऐरावत हाथी के गले में डाल दिया।

ऐरावत, जो स्वयं एक दिव्य था, उस माला को सूंघकर विचलित हो गया और उसे अपने पैरों तले कुचल दिया। यह देखकर दुर्वासा का क्रोध भड़क उठे।

दुर्वासा (क्रोधित स्वर में): "हे इंद्र, तुमने मेरे तप की अवमानना की! यह माला केवल पुष्पों का समूह नहीं थी, यह मेरी साधना और भक्ति का प्रतीक थी। तुम्हारे इस अपमान के लिए मैं तुम्हें और समस्त देवताओं को श्राप देता हूँ कि तुम्हारा सारा ऐश्वर्य और बल नष्ट हो जाए!"

इंद्र ने तुरंत दुर्वासा के चरणों में गिरकर क्षमा मांगी।

इंद्र : "हे महर्षि, मुझसे भूल हो गई। कृपया अपने श्राप को वापस ले लें। हम देवता आपके तप का सम्मान करते हैं।"

दुर्वासा (शांत दृढ़ स्वर में): "मेरा श्राप अपरिवर्तनीय है, इंद्र। तुम्हें अब अपने कर्मों का फल भोगना होगा। केवल भगवान विष्णु ही तुम्हारी रक्षा कर सकते हैं।"

दुर्वासा के चले जाने के बाद, स्वर्गलोक में एक अजीब सा सन्नाटा छा गया। देवताओं की शक्ति क्षीण होने लगी। उनके शरीर का तेज फीका पड़ गया, और स्वर्गलोक की चमक धीरे-धीरे मंद होने लगी। 

इंद्र ने महसूस किया कि वो और देवता कमजोर पड़ रहे है, उधर असुर, जो सदा देवताओं से युद्ध की ताक में रहते थे, अब अधिक शक्तिशाली लग रहे थे। 

असुरों ने इस कमजोरी का लाभ उठाया और स्वर्ग पर आक्रमण कर दिया। देवता पराजित होने लगे, और इंद्र को अपनी स्थिति असहाय प्रतीत होने लगी।

इंद्र (चिंतित स्वर में): "हे गुरुदेव बृहस्पति, यह क्या विपत्ति आ पड़ी है? हमारी शक्ति लुप्त हो रही है, और असुर हम पर हावी हो रहे हैं। हमें क्या करना चाहिए?"

बृहस्पति : "हे इंद्र, यह दुर्वासा के श्राप का परिणाम है। हमें भगवान विष्णु की शरण में जाना होगा। केवल वही हमें इस संकट से उबार सकते हैं।"

इंद्र ने एक सभा बुलाई, जिसमें सभी प्रमुख देवता अग्नि, वरुण, वायु, सूर्य, और अन्य उपस्थित थे। उन्होंने निर्णय लिया कि वे क्षीरसागर में निवास करने वाले भगवान विष्णु के पास जाएंगे। 

क्षीरसागर, वह दैवीय समुद्र था जहां भगवान विष्णु अपनी शेषनाग शय्या पर विराजमान रहते है। देवता क्षीरसागर पहुंचे। वहां का दृश्य अत्यंत रमणीय था। समुद्र का जल दूध की तरह श्वेत था, और उसमें कमल के फूल खिल रहे थे। शेषनाग पर भगवान विष्णु शांत और तेजस्वी मुद्रा में लेटे थे, और माता लक्ष्मी उनके चरणों की सेवा कर रही थीं।

देवताओं ने भगवान विष्णु को प्रणाम किया और अपनी व्यथा सुनाई।

इंद्र (विनम्र स्वर में): "हे विश्वनाथ, हे जगत के पालक, हम आपके शरणागत हैं। दुर्वासा के श्राप के कारण हमारा तेज और बल नष्ट हो रहा है। असुर हम पर विजय प्राप्त कर रहे हैं, और स्वर्गलोक संकट में है। कृपया हमारी रक्षा कीजिए।"

विष्णु भगवान: "हे देवताओं तुम्हारी यह स्थिति कर्मों का फल है, किंतु मैं तुम्हारी रक्षा करूंगा। तुम्हें अपनी शक्ति पुनः प्राप्त करने के लिए अमृत की आवश्यकता है, जो क्षीरसागर में छिपा है। लेकिन इसे प्राप्त करने के लिए तुम्हें समुद्र मंथन करना होगा।"

अग्नि (आश्चर्य से): "हे प्रभु, समुद्र मंथन? यह तो अत्यंत कठिन कार्य है। हमारी शक्ति तो पहले ही क्षीण हो चुकी है। हम इसे कैसे करेंगे?"

विष्णु (मुस्कुराते हुए): "हे अग्नि, तुम अकेले नहीं हो। असुरों को भी अमृत की लालसा है। तुम उनके साथ मिलकर समुद्र मंथन करो। मैं स्वयं तुम्हारी सहायता करूंगा। मंदर पर्वत को मथानी और वासुकी नाग को रस्सी बनाओ। मैं कूर्म (कछुए) के रूप में तुम्हें आधार दूंगा, ताकि मंदर पर्वत स्थिर रहे।"

देवताओं के मन में आशा का संचार हुआ। उन्होंने विष्णु भगवान को प्रणाम किया और स्वर्गलोक लौट आए। लेकिन एक प्रश्न उनके मन में था असुरों के साथ सहयोग कैसे करें, जो उनके शत्रु थे?

थोड़ा सोच कर इंद्र ने असुरों के राजा बलि को संदेश भेजा। बलि एक शक्तिशाली असुर था, जो अपने बल और नीति के लिए जाना जाता था। उसकी सभा में हिरण्यकशिपु के वंशज, शुम्भ-निशुम्भ, और अन्य असुर योद्धा उपस्थित थे। देवताओं का संदेश सुनकर बलि ने अपनी सभा बुलाई।

बलि (विचार करते हुए ): "देवता हमसे सहयोग मांग रहे हैं। यह सुनने में आश्चर्यजनक है। वे हमेशा हमारे शत्रु हैं। फिर वे अब हमारी सहायता क्यों चाहते हैं?"

शुक (बलि के गुरु ): "हे बलि, यह अवसर है। अमृत केवल देवताओं के लिए नहीं, हमारे लिए भी लाभकारी होगा। यदि हम समुद्र मंथन में सहयोग करें, तो हम भी अमृत प्राप्त कर सकते हैं। लेकिन सावधान रहना होगा, क्योंकि देवता धूर्त हो सकते हैं।"

बलि (दृढ़ स्वर में): "ठीक है,। हम देवताओं के साथ संधि करेंगे, लेकिन हमारी नजर उन पर रहेगी। अमृत का हिस्सा हमें भी मिलना चाहिए।"

देवताओं और असुरों के बीच एक संधि हुई। दोनों पक्षों ने मिलकर समुद्र मंथन की तैयारी शुरू की। मंदर पर्वत, जो विशाल और भारी था, को मथानी के रूप में चुना गया। वासुकी, जो नागों के राजा थे, ने स्वयं को रस्सी के रूप में प्रस्तुत किया।

वासुकी: "हे देवताओं और असुरों, मैं इस कार्य में तुम्हारी सहायता करूंगा। लेकिन मंथन के दौरान मेरे शरीर पर भारी दबाव पड़ेगा।"

इंद्र: "हे वासुकी, हम तुम्हारा सम्मान करते हैं। हम यह कार्य एकजुट होकर करेंगे। आपके शरीर का ध्यान रखेंगे।"

क्षीरसागर के तट पर एक विशाल सभा एकत्र हुई। मंदर पर्वत को समुद्र में लाया गया, और वासुकी को उसके चारों ओर लपेटा गया। असुरों ने वासुकी के सिर की ओर और देवताओं ने उसकी पूंछ की ओर स्थान लिया। लेकिन जैसे ही मंथन शुरू हुआ, मंदर पर्वत अपने भारी वजन के कारण समुद्र की तलहटी में धंसने लगा। देवता और असुर निराश हो गए।

बलि (क्रोधित स्वर में): "यह क्या हो रहा है? मंदर पर्वत स्थिर क्यों नहीं रह रहा है? क्या यह देवताओं की कोई चाल है?"

इंद्र (चिंतित स्वर में): "नहीं, बलि। यह कोई चाल नहीं है। मंदर पर्वत का वजन इतना अधिक है कि समुद्र इसे सहन नहीं कर पा रहा। और वो समुद्र में धंसता जा रहा है"

तभी वहाँ भगवान विष्णु उपस्थित हुए और भगवान विष्णु ने कूर्म (कछुए) का रूप धारण किया। उनका यह रूप बहुत विशाल था, जिसकी पीठ इतनी मजबूत थी कि वह मंदर पर्वत को सहन कर सके। कूर्म ने समुद्र में प्रवेश किया और मंदर पर्वत को अपनी पीठ पर संभाल लिया।

कूर्म (विष्णु भगवान ): "हे देवताओं और असुरों, अब भय छोड़कर मंथन शुरू करो। मैं तुम्हें आधार प्रदान करूंगा।"

देवता और असुर उत्साहित हो गए। उन्होंने पुनः मंथन शुरू किया। वासुकी के शरीर पर खिंचाव बढ़ने लगा, और समुद्र में विशाल लहरें उठने लगीं। मंथन के दौरान समुद्र से पहले एक भयंकर विष निकला, जिसे हलाहल या कालकूट कहा गया। यह विष इतना प्रचंड था कि वह समस्त सृष्टि को नष्ट करने की शक्ति रखता था। देवता और असुर भयभीत हो गए।

वरुण (भयभीत स्वर में): "यह विष हम सबको नष्ट कर देगा! हे प्रभु, हमें बचाएं!"

तब भगवान शिव प्रकट हुए। उन्होंने अपनी करुणा से उस विष को अपने कंठ में धारण किया और नीलकंठ कहलाए। मंथन पुनः शुरू हुआ। समुद्र से एक के बाद एक रत्न प्रकट होने लगे कामधेनु, ऐरावत, उच्चैःश्रवा, कौस्तुभ मणि, कल्पवृक्ष, लक्ष्मी देवी, चंद्रमा, पारिजात वृक्ष आदि। अंत में, धन्वंतरि प्रकट हुए, जो आयुर्वेद के देवता थे। उनके हाथ में अमृत से भरा एक स्वर्ण कलश था।

अमृत को देखकर असुरों की आँखों में लालच जाग उठा। उन्होंने अमृत कलश को छीनने की कोशिश की।

बलि : "यह अमृत हमारा है! हमने भी मंथन किया है!"

इंद्र : "बलि, यह संधि का हिस्सा था कि अमृत का बंटवारा होगा। तुम इसे बलपूर्वक नहीं ले सकते।"

विवाद बढ़ने लगा। ये देख कर भगवान विष्णु ने मोहिनी रूप धारण किया। मोहिनी का रूप इतना सुंदर था कि असुर और देवता दोनों मंत्रमुग्ध हो गए।

मोहिनी : "हे देवताओं और असुरों तुम विवाद छो दो। मैं इस अमृत का बंटवारा सही तरीक़े से करूंगी।"

मोहिनी ने असुरों को माया से मोहित कर दिया और अमृत को देवताओं को प्रदान करने लगी। राक्षस राहु इस बात को समझ गया और उसने छल से अमृत पीने की कोशिश की, लेकिन विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से उसका सिर काट दिया। इस प्रकार, देवताओं ने अमृत प्राप्त किया और उनकी शक्ति पुनः प्राप्त हो गयी।