HG A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupada in Hindi Spiritual Stories by Vishal Saini books and stories PDF | HG A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupada

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HG A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupada

आज 17 अगस्त को उनकी दिव्य कृपा ए. सी. भक्तिवेदांत श्रील स्वामी प्रभुपाद जी का प्रकट्य दिवस है।

यह दिन पूरे विश्वभर में बड़े धूमधाम से मनाया जाता है, क्योंकि प्रभुपाद जी ने जो योगदान मानवता और संपूर्ण विश्व को दिया है, उसे यह संसार कभी भूल नहीं सकता।

उन्होंने न केवल भारत बल्कि समूचे विश्व को भगवान श्रीकृष्ण के पवित्र नाम से जोड़ा और भक्ति की वह धारा प्रवाहित की जो आज भी लाखों-करोड़ों लोगों को दिशा दिखा रही है।

श्रील प्रभुपाद जी ने अपने गुरु महाराज की आज्ञा से पश्चिमी देशों में अंग्रेज़ी भाषा के माध्यम से वैदिक ज्ञान का प्रचार करने का संकल्प लिया।

उसी आदेश को पूरा करने के लिए वे 1965 में एक मालवाहक जहाज़ से अमेरिका की ओर निकले। उस समय उनकी आयु 69 वर्ष थी। यह यात्रा आसान नहीं थी। जहाज़ में यात्रा करते समय उन्हें दो बार हृदयाघात (हार्ट अटैक) आया, परंतु जिस पर भगवान श्रीकृष्ण की कृपा हो, उसका बाल भी बाँका नहीं हो सकता।

जब यह वृद्ध संत अमेरिका के लिए निकले, तब उनके पास न कोई धन-संपत्ति थी और न ही कोई बड़ा सहारा।

केवल 40 रुपये, एक भगवद्गीता, थोड़े से कपड़े और भगवान की पूजा हेतु राधा-रानी की एक छोटी मूर्ति उनके पास थी। अमेरिका में उतरते ही उन्हें किसी का समर्थन नहीं मिला। अकेले और अजनबी भूमि पर भी वे अपने गुरु के आशीर्वाद से दृढ़ रहे। धीरे-धीरे उन्होंने वहाँ के लोगों, विशेषकर हिप्पियों, से संवाद करना शुरू किया।

उस समय अमेरिका के युवाओं पर हिप्पी आंदोलन का गहरा प्रभाव था। वे दिशाहीन थे और जीवन की नकारात्मक प्रवृत्तियों में फँसे हुए थे। प्रारंभ में उन्होंने श्रील प्रभुपाद पर हँसी भी उड़ाई। परंतु जब वे प्रभुपाद जी के हरिनाम संकीर्तन में शामिल हुए, तो उनके भीतर आनंद का संचार हुआ। धीरे-धीरे वही हिप्पी युवक भक्ति के पथ पर आ गए और कृष्ण के सच्चे भक्त बन गए। प्रभुपाद जी ने उन हिप्पियों को हैप्पी बना दिया।


श्रील प्रभुपाद जी के जीवन का एक प्रसंग अत्यंत मार्मिक है। जब वे घर पर नहीं थे, तब उनकी पत्नी ने उनकी लिखी हुई भगवद्गीता की पांडुलिपि के पन्नों को चाय के पैसों के लिए कबाड़ी को बेच दिया। जब प्रभुपाद जी को इसका पता चला तो उन्हें गहरा आघात पहुँचा। उन्होंने अपनी पत्नी से पूछा – “तुम्हें क्या चाहिए – Tea or me ?” पत्नी ने मज़ाक में उत्तर दिया – “tea” यह उत्तर प्रभुपाद जी के हृदय में गहराई तक उतर गया और उन्होंने निर्णय ले लिया कि अब वे गृहस्थ जीवन त्यागकर संन्यास लेंगे और अपना शेष जीवन केवल भगवान और भक्ति के प्रचार में समर्पित करेंगे।

इसी त्याग और दृढ़ निश्चय के परिणामस्वरूप जुलाई 1966 में उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ (ISKCON) की स्थापना की। केवल एक दशक में ही यह संगठन लगभग 100 आश्रमों, विद्यालयों, मंदिरों, संस्थानों और कृषि-समुदायों का वैश्विक संघ बन गया। श्रीकृष्ण का नाम और भक्ति का संदेश पूरे विश्व में गूँजने लगा।

प्रभुपाद जी ने न केवल मंदिरों की स्थापना की बल्कि उन्होंने महान ग्रंथ भी लिखे। उन्होंने श्रीमद्भागवतम्, भगवद्गीता, श्री चैतन्य चरितामृत जैसे अमूल्य ग्रंथों का अनुवाद और व्याख्या की। इसके अलावा उन्होंने 100 से भी अधिक ग्रंथ लिखे। विद्वानों ने इन ग्रंथों को उनकी गहराई और प्रामाणिकता के लिए अत्यधिक सम्मान दिया है। आज ये ग्रंथ अनेक विश्वविद्यालयों में मानक पाठ्यपुस्तकों के रूप में पढ़ाए जाते हैं। उनकी रचनाओं का 11 भाषाओं में अनुवाद हुआ है।

1972 में प्रभुपाद जी ने अपने ग्रंथों के प्रकाशन हेतु भक्तिवेदांत बुक ट्रस्ट की स्थापना की। आज यह संस्था भारतीय धर्म और दर्शन पर पुस्तकों का विश्व का सबसे बड़ा प्रकाशक बन चुकी है।

अपने जीवन के अंतिम दस वर्षों में, उम्र के प्रभाव के बावजूद, उन्होंने विश्व की बारह यात्राएँ कीं और छह महाद्वीपों तक श्रीकृष्ण का संदेश पहुँचाया। उनकी यह यात्राएँ केवल धार्मिक प्रवचन ही नहीं थीं, बल्कि उन्होंने पूरे विश्व को कृष्णनाम के धागे में पिरो दिया।

प्रभुपाद जी ने अपने जीवनकाल में 108 मंदिरों की स्थापना की और भक्ति का वातावरण पूरे विश्व में फैला दिया। उन्होंने कृष्ण-भक्ति को केवल भारत तक सीमित नहीं रखा बल्कि इसे विश्वव्यापी आंदोलन बना दिया।

उनकी सेवाएँ केवल ग्रंथों और मंदिरों तक ही सीमित नहीं थीं। 1972 में उन्होंने पश्चिम में पहली बार वैदिक शिक्षा प्रणाली की शुरुआत की। डलास (टेक्सास) में उन्होंने गुरुकुल विद्यालय की स्थापना की। यह विद्यालय 3 बच्चों से शुरू हुआ और 1975 तक इसमें 150 छात्र पढ़ने लगे।

इसके अतिरिक्त उन्होंने श्रीधाम मायापुर (पश्चिम बंगाल) में एक विशाल अंतरराष्ट्रीय केंद्र की स्थापना की, जहाँ आगे चलकर वैदिक अध्ययन संस्थान की स्थापना का संकल्प लिया गया। इसी प्रकार उन्होंने वृंदावन में भव्य कृष्ण-बलराम मंदिर और अंतरराष्ट्रीय अतिथि-गृह का निर्माण कराया, जहाँ विदेशी भक्त वैदिक संस्कृति का प्रत्यक्ष अनुभव कर सकते हैं।

श्रील प्रभुपाद जी के अथक प्रयासों और अद्वितीय योगदान ने आज संपूर्ण विश्व को कृष्ण-भक्ति से जोड़ा है। उन्होंने दिखा दिया कि सच्चे समर्पण और दृढ़ विश्वास से कोई भी व्यक्ति संसार के कोने-कोने में भगवान का संदेश पहुँचा सकता है।

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