अदित्य ने पलटकर छत के कोने में झाँका, लेकिन वहाँ कुछ नहीं था।
बस दीवार पर हवा से हिलती बेलें, और रात की हल्की ठंडी सरसराहट।
"मैंने... कुछ देखा?"
उसने खुद से सवाल किया, फिर सिर झटकते हुए सीढ़ियों की ओर बढ़ गया।
नीचे पहुंचा तो ठाकुर बैठक में अकेले बैठा बीड़ी सुलगा रहा था।
“नींद नहीं आ रही?” अदित्य ने पूछा।
“जिस घर में बेटा जिंदा आया हो और सुबह दिल के बिना मिला हो... वहां नींद नहीं, सिर्फ सवाल आते हैं।”
अदित्य पास बैठ गया।
“आपने कभी गौर किया… कि इन चारों मौतों में एक बात कॉमन है?”
ठाकुर ने थूक निगला — “कहना चाहते हो, औरत कॉमन है?”
“औरत नहीं... वो औरत। **रूहाना।**”
ठाकुर चुप रहा। बीड़ी बुझ चुकी थी।
इसी बीच, हवेली की पिछली खिड़की से रूहाना अंदर आई।
चुपचाप।
पाँवों की आवाज़ नहीं… बस हल्की सी गुलाब की खुशबू।
जैसे हवा में लहराती हुई कोई अनदेखी मौजूदगी।
वो अपने कमरे की ओर बढ़ी, लेकिन दरवाज़ा बंद करने से पहले एक पल रुकी।
उसने कान लगाया — बैठक में धीमी बातें चल रही थीं।
“...तो क्या तुम उससे बात करोगे?” ठाकुर की आवाज़ आई।
“ज़रूर। लेकिन सीधा नहीं। मैं उसे जानना चाहता हूँ… **उसकी आंखों से, उसकी बातों से…** किसी का सच सामने लाने का सबसे अच्छा तरीका होता है—उसे अपनी सोच से बाहर खींच लाओ।”
रूहाना मुस्कराई।
“बहुत चालाक हो अदित्य...” उसने खुद से बुदबुदाया, “पर खेल तुमसे भी ज़्यादा शातिर है…”
अगली सुबह हवेली की रसोई में चाय बन रही थी।
अदित्य टेबल पर बैठा, अख़बार देख रहा था।
रूहाना सामने आकर बैठ गई — लाल रंग का सिंपल सूट, बिना मेकअप, मगर वही आँखें… वही अदाएं।
“गुड मॉर्निंग,” उसने कहा।
“ख़ास है।” अदित्य ने जवाब दिया, बिना मुस्कुराए।
“क्यों?”
“क्योंकि अब तुमसे बात करनी है।”
“तो बात करो ना… डर क्यों रहे हो?”
उसकी मुस्कान कुछ ज़्यादा ही नर्म थी।
“डर... नहीं, एहतियात।”
“ओह…” रूहाना ने चाय का घूंट लिया, “तुम भी मुझ पर शक करते हो?”
अदित्य ने अख़बार फोल्ड किया।
“मैं किसी पर भी आँख मूंदकर भरोसा नहीं करता। खासकर तब, जब हर मौत के साथ किसी की परछाई बार-बार नज़र आए।”
रूहाना की उंगलियाँ चाय के कप से खेलने लगीं।
“तो तुम भी बाकी सब जैसे हो… वही बातें, वही शक।”
“क्या मैं ग़लत हूँ?”
“पता नहीं… शायद हां, शायद ना।”
उसने धीमे से आँखें उठाईं — “पर अगर मैं कहूं कि मैं सिर्फ एक औरत हूं, जो मोहब्बत चाहती है...?”
“तो मैं कहूंगा,” अदित्य ने जवाब दिया, “कि मोहब्बत में चार मरे हुए लड़के थोड़ा ज़्यादा हैं।”
कुछ देर खामोशी छाई रही।
रसोई से आती अदरक की खुशबू, दूर से आती मंदिर की घंटी, और इन दोनों के बीच... एक अजीब सी कंपकंपी।
रूहाना उठी, अपना दुपट्टा ठीक किया और धीमे से बोली —
“कभी-कभी लोग जो दिखते हैं, वो होते नहीं। और जो नहीं दिखते, उनकी छाया सबसे ज़्यादा डरावनी होती है…”
वो चली गई।
रात को गांव में फिर हलचल मच गई।
इस बार चौधरी का लड़का **सोहन** ग़ायब था।
“शादी तो नहीं हुई थी, फिर गया कहां?”
“आखिरी बार रूहाना के घर के पास देखा गया…”
अब तो सबकी ज़ुबान पर एक ही नाम था — रूहाना।
ठाकुर हवेली में अदित्य के पास आया।
“अब बर्दाश्त से बाहर है... या तो कोई जवाब मिलेगा, या गांव वाले खुद फैसला कर लेंगे।”
“फैसला…?”
“हाँ, अगली शादी गांव की नहीं होगी। गांव रूहाना को बहू नहीं, **भूत मानने लगा है।**”
रात के ढाई बजे…
अदित्य फिर छत पर गया।
चांदनी धीमी थी, और हवेली के पिछवाड़े लाल साड़ी हवा में टंगी दिखी।
लेकिन जैसे ही अदित्य ने नीचे देखा, कोई नहीं था।
पर दीवार पर कुछ लिखा था — **"जो दिल से देखेगा, वही जान पाएगा…"**
उसने दीवार को छुआ।
दीवार ठंडी नहीं थी, जल रही थी।
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