रूहाना घबरा गई।
उसने आंखें मलीं, फिर से आईना देखा… पर अब आईना खाली था।
सिर्फ उसका चेहरा, थोड़ी बिखरी ज़ुल्फ़ें, और काँपती पलकों का अक्स।
"क्या हो रहा है मुझे?"
उसने धीरे से फुसफुसाया।
आईने से अब भी हल्की सी गंध आ रही थी —
जली हुई रेशम की… या शायद किसी पुराने जोड़े की।
वो पीछे मुड़ी, पर कमरा खाली था।
खिड़की आधी खुली हुई थी और बाहर रात जैसे पूरी आँखें गड़ाए बैठी थी।
रूहाना ने दरवाज़ा खोला… बाहर कदम रखा —
हवेली की लंबी वीरान गलियों से उसकी पायल की आवाज़ गूंज उठी।
धप… छन्न… धप… छन्न…
उधर गांव में —
अदित्य अब भी उस कागज़ को देख रहा था जो हवेली की बाउंड्री से बंधी लाल धागों की माला में अटका मिला था।
कागज़ पुराना था, पर उस पर ताज़ा खून से लिखा एक ही वाक्य:
**"वो जो हर रात शादी करती है… कभी खुद भी दुल्हन थी।"**
उसके हाथ काँप गए।
"ये किसने लिखा?" वो बुदबुदाया।
पास ही खड़ी शिवानी धीरे से मुस्कराई,
"कभी-कभी जवाब देने वाले खुद सवाल बन जाते हैं… और सवालों के नीचे छुपे होते हैं खून से लिखे सच।"
“तुम साफ़-साफ़ क्यों नहीं बोलती?” अदित्य झल्लाया।
शिवानी ने ठंडी साँस ली,
“क्योंकि जो सच साफ़ होता है, वो सबसे गहरा जख्म भी होता है। और अभी ये ज़ख्म खुला नहीं है… बस रिस रहा है।”
रात का तीसरा पहर…
रूहाना हवेली के नीचे बने पुराने तहखाने में जा पहुँची।
वो जगह सदियों से बंद थी।
दरवाज़ा खुद-ब-खुद खुला था… जैसे किसी ने बुलाया हो।
वो अंदर पहुँची —
जगह धूल से अटी पड़ी थी, पर बीचोंबीच एक लाल चुनरी बिछी थी।
उस पर रखा था — **एक सुहाग का थाल**, और पास ही जली हुई एक पुरानी तस्वीर।
रूहाना ने थाल उठाया… उसकी उंगलियाँ काँपीं।
तभी उसकी आँखें खुद-ब-खुद बंद हो गईं और एक अजीब-सा बुदबुदाहट उसके होंठों से निकली —
**"ओम मृत्युपथाय नमः..."**
वो चौंकी।
“ये क्या था?” उसने खुद से पूछा।
पर जवाब कोई नहीं था।
अगले ही पल हवेली की छत पर ज़ोर की आवाज़ गूंजी —
**किसी चीज़ के फटने की…**
और उसी वक़्त रूहाना के कानों में किसी बच्ची की चीख पड़ी।
"माँ… माँ… मुझे बचा लो…"
वो ठिठक गई।
उसकी आँखें डबडबाई…
"मैं किसी की माँ नहीं हूँ…" उसने धीरे से कहा।
पर फिर उसी दीवार से वही आवाज़…
**“क्योंकि तू शिवाया है… तू थी…”**
गांव के पुजारी अब एक्टिव हो गए थे।
उन्होंने हवेली को चारों तरफ से नींबू और राख की लकीरों से घेर दिया था।
"आज की रात आखिरी होनी चाहिए," उन्होंने कहा।
“कल सूरज उगे या न उगे, पर वो औरत दोबारा किसी से ब्याह नहीं करेगी।”
चैप्टर का अंत:
अगली सुबह से ठीक पहले, हवेली के दरवाज़े खुद-ब-खुद खुलते हैं।
और बाहर निकलती है रूहाना —
लाल साड़ी में, मांग में भरा सिंदूर, पर आँखें सूनी।
और उसके पीछे खड़ा है **एक नया दूल्हा** —
जिसका चेहरा गांव के किसी ने पहले कभी नहीं देखा था।
गांव की हलचल जैसे एक पल को थम गई।
सभी की आँखें हवेली की ओर —
रूहाना की चाल अब भी वैसी ही थी… धीमी, मोहक, मगर ठंडी।
उसके पीछे खड़ा वो दूल्हा —
गेंहुआ रंग, चौड़ा सीना, और आँखों में हलका डर।
“कौन है ये?” बुजुर्ग भैरों ने धीरे से पूछा।
पंडित मोहन ने माथा टेढ़ा किया,
“मैंने इसे गांव में पहले कभी नहीं देखा…”
रमेश ने धीरे से कहा, “कहीं बाहर का तो नहीं…?"
“या... शिकार?” किसी की आवाज़ आई।
अंदर हवेली में —
दरवाज़ा फिर से बंद हो गया।
धीरे-धीरे…
जैसे किसी अदृश्य हाथ ने उसे धक्का दिया हो।
और हवेली के उस कोने से फिर वही आवाज़ निकली —
**“शिवाया… एक और पूरी रात… फिर लौट आएगा वो…”**
अंदर, दूल्हा कांप रहा था।
"आपका नाम...?" उसने रूहाना से पूछा।
रूहाना मुस्कराई — वो मुस्कान जिसमें मीठापन कम और रहस्य ज़्यादा था।
"नाम जानने से क्या होगा? जो होने वाला है, वो नाम नहीं देखता… सिर्फ नियति सुनता है।"
“मैं... मैं तो बस शादी करने आया था,” उसने धीरे से कहा।
“तो कर ली ना,” उसने सिर झुका कर उसकी गर्दन में हाथ डालते हुए कहा,
“अब रात बाकी है…”
बाहर गांव में:
अदित्य उस बंधे हुए खून वाले कागज़ को अब भी देख रहा था।
शिवानी उसके पास खड़ी थी —
उसके बाल बिखरे थे, होंठ सूख चुके थे, और आंखें शून्य में घूर रही थीं।
“ये दूल्हा कौन है?” अदित्य ने पूछा।
शिवानी ने कुछ देर चुप रहकर कहा,
“ये हर बार नया होता है… मगर अंजाम एक जैसा।”
“तुम्हें कैसे पता?”
शिवानी ने उसकी ओर देखा…
“क्योंकि मैं वो लड़की हूँ, जो रूहाना से पहले उस हवेली की दुल्हन बन चुकी है।”
अदित्य चौंका।
"क्या?!"
शिवानी ने हौले से कहा,
“मैं मरी नहीं… बच निकली। पर कीमत अब भी चुका रही हूँ।”
इधर हवेली में:
रूहाना और नया दूल्हा कमरे में थे।
कमरा हल्के लाल और सुनहरे दीयों से सजा था।
बिस्तर पर लाल गुलाबों की पंखुड़ियाँ बिखरी थीं, और वातावरण में कोई मीठी, मदहोश करने वाली खुशबू थी।
“क्या तुम डर रहे हो?”
रूहाना ने उसके कान के पास फुसफुसाकर पूछा।
"न-नहीं... बस थोड़ी घबराहट है…"
“घबराहट अच्छा संकेत है,” उसने उसके सीने पर हाथ रखकर कहा,
“क्योंकि जो बिना डरे आता है… वो बहुत जल्दी चला भी जाता है।”
दूल्हा मुस्कराया, “आप बहुत अजीब बातें करती हैं।”
“और तुम बहुत भोले लगते हो,”
उसने उसकी शर्ट के बटन खोलते हुए कहा,
“चलो… आज रात सिर्फ बातें नहीं होंगी।”
और तभी…
कमरे की एक दीवार से हल्की सी खरोंचने की आवाज़ आई —
**"खर्र… खर्र…"**
दूल्हा चौंका।
"ये… ये क्या था?"
“शायद हवेली भी हमारी सुहागरात को सुनना चाहती है,”
रूहाना ने धीरे से कहा, और लैंप बुझा दिया।
अंधेरा।
सिर्फ साँसों की आवाजें।
और पायल की धीमी छनक।
चैप्टर का अंत:
अदित्य ने रात के अंधेरे में हवेली की पिछली खिड़की से अंदर घुसने की योजना बना ली है —
वो जानना चाहता है कि अंदर हर सुहागरात के बाद क्या होता है।
पर जैसे ही वो दीवार पार करता है —
मिट्टी में दबा कुछ उसके पाँव को पकड़ लेता है।
और ज़मीन से एक आवाज़ निकलती है —
**"तू भी आएगा… बारी-बारी सबकी आती है…"**
*****वेरी इंपॉर्टेंट नोट*****
मेरी audio book 🎧
ये कहानी है सब इंस्पेक्टर तनुश्री ग्रेवाल की, जिसने अभी-अभी पुलिस फोर्स जॉइन की है। ईमानदार, बेख़ौफ़ और निडर—तनुश्री का सपना है Criminals को सज़ा दिलाना, चाहे सामने कितनी भी बड़ी ताक़त क्यों न हो।
लेकिन किस्मत उसके रास्ते में ला खड़ा करती है डीसीपी अग्निवीर राठौड़ को—एक ऐसा अफ़सर, जिसकी आँखों में रहस्य और चेहरे पर शिकार की मुस्कान है। अग्निवीर के दिल में तनुश्री के लिए नफ़रत की आग है, और उसी आग को बुझाने के लिए वो उसे अपने रिश्तों की जंजीरों में बाँधना चाहता है। शादी उसके लिए प्यार नहीं, बल्कि बदला है।
इसी बीच, शहर में डर और खून से भरी घटनाएँ होने लगती हैं। एक केस तनुश्री को एक पुराने गाँव तक ले जाता है, जहाँ उसकी मुलाक़ात होती है उस प्राचीन डायन से, जिसे सदियों पहले एक पेड़ में कैद किया गया था। तनुश्री गलती से उसे आज़ाद कर देती है—और अब तनुश्री को मिलने वाले हर केस में, वो डायन गुनहगारों को ऐसे दर्दनाक तरीक़े से सज़ा देती है, जिन्हें देखकर रूह काँप जाए।
अब तनुश्री दोहरी जंग लड़ रही है—एक तरफ़ अग्निवीर का खतरनाक खेल, और दूसरी तरफ़ वो अलौकिक ताक़त, जिससे उसने खुद अपने हाथों किस्मत को बांध दिया है।
मेरी ये audio book pocket FM पर मौजूद हैं, इसका लिंक आपको मेरे इंस्टाग्राम आईडी के प्रोफाइल पर मिल जाएगा|
Instagram ID- sujata41251