बात अब सिर्फ दोस्ती की नहीं रही
(पुस्तक: फोकटिया | लेखक: धीरेन्द्र सिंह बिष्ट)
“हर रिश्ता निभाना ज़रूरी नहीं,
कुछ को छोड़ना ही खुद से वफ़ा होती है।”
— धीरेन्द्र सिंह बिष्ट
राजीव ने जब कमल से दूरी बनाई, तो उसका इरादा बदला लेने का नहीं था। वह बस थक गया था—हर बार देने से, हर बार उम्मीद करने से कि शायद इस बार कमल कुछ बदलेगा। अब वह सिर्फ अपनी मानसिक शांति चाहता था।
लेकिन कमल को यह दूरी समझ नहीं आई। उसकी आदत थी कि लोग उसके आसपास रहें, उसके हिसाब से चलें, और अगर वह कुछ न भी दे, तो भी उसे सब कुछ मिलता रहे।
कुछ हफ्ते बीते ही थे कि राजीव को एक पुराने दोस्त, निखिल का फोन आया।
“भाई, सब ठीक है? सुन, कमल कह रहा था तू अब बहुत घमंडी हो गया है। तुझे अब पुराने दोस्तों से शर्म आती है।”
राजीव चुप रहा। फोन रखने के बाद बहुत देर तक बाइक पर बैठा रहा। ट्रैफिक की आवाज़ें बाहर थीं, लेकिन भीतर कुछ टूट रहा था। वही कमल, जो कभी कहता था “राजीव जैसा दोस्त नहीं मिलेगा,” अब उसे घमंडी बता रहा था।
शाम को घर पहुंचकर राजीव ने अपनी डायरी निकाली—एक पुरानी आदत। जब भी दिल उलझता, वह सब कुछ लिख डालता।
“कमल को फर्क इस बात से पड़ा कि मैंने उसे ‘ना’ कहा। क्या इतने सालों की दोस्ती इतनी सस्ती थी?”
अब बात सिर्फ दोस्ती की नहीं रही थी—अब बात थी उसकी छवि की।
कमल अब उसे बदनाम करने की कोशिश कर रहा था। वो लोगों को कह रहा था कि राजीव अब “क्लास” में है और बाक़ी सब “मास्साब के पीछे”। यह सब सुनकर राजीव को गुस्सा नहीं, बल्कि तकलीफ हुई।
अगले दिन राजीव ने सोशल मीडिया पर एक पोस्ट डाली:
“कभी-कभी, जब आप ‘ना’ कहना सीखते हैं,
तो कुछ लोग आपको बदल गया मान लेते हैं।
मगर सच्चाई ये होती है कि आपने बस थककर खुद को बचाना शुरू किया होता है।”
पोस्ट वायरल हो गया। लोगों ने कमेंट्स में उसका साथ दिया:
“भाई तूने सही कहा।”“हर फ्रेंड सर्कल में एक फोकटिया होता है।”“कमल जैसे लोगों को पहचानना आ गया अब।”
कमल अब देख रहा था कि जिसे वो हमेशा कंट्रोल करता था, वही अब खुद को साबित किए बिना सच बोल रहा था—शांत लेकिन असरदार।
इस सबके बीच राजीव ने एक बात और सीखी—“अब सफाई देना ज़रूरी नहीं, बल्कि चुप रहकर भी बहुत कुछ कह देना आता है।”
धीरे-धीरे उसने कमल को अपने सोशल सर्कल से हटाया—WhatsApp, Instagram, Facebook—सब जगह से। ये डिजिटल दूरी उसकी मानसिक शांति की असली शुरुआत थी।
लेकिन कमल अब भी शांत नहीं हुआ।
वह अपने व्हाट्सएप ग्रुप में लिखने लगा:
“बात पैसे की नहीं, बात है अहंकार की। राजीव को लगने लगा है कि वो बड़ा बन गया है।”
राजीव को जब यह सब किसी दोस्त ने भेजा, उसने बस एक लाइन में जवाब दिया:
“अब नकाब उतर चुका है, जो बचा है वो बस तमाशा है।”
उसी शाम, राजीव ने एक ब्लॉगर दोस्त को अपनी कहानी लिखने के लिए कहा—बिना नाम लिए, बस अनुभव के रूप में। ब्लॉग का टाइटल था:
“मित्रता या मुफ़्तखोरी? एक असली किस्सा”
ब्लॉग वायरल हो गया।
लोगों ने कहा:
“ये मेरी भी कहानी है।”“मैंने भी एक फोकटिया को अलविदा कहा है।”“अब समझ आ गया, कब ‘ना’ कहना ज़रूरी है।”
कमल को यह सब देखना पड़ा—वो भी उसी सोशल मीडिया पर जहाँ वह कभी मज़ाक उड़ाया करता था।
राजीव ने किसी को बदनाम नहीं किया, बस सच को जगह दी।
और सबसे अहम बात, उसने खुद को पहली बार पूरी तरह सुना।