आत्म-साक्षात्कार — जो खोया, वही अब पहचान बना
फोकटिया: लेखक: धीरेन्द्र सिंह बिष्ट
शोर जब थमता है, तब अंदर की आवाज़ें साफ़ सुनाई देने लगती हैं। कमल से हुई दूरी, उसके झूठ, और फिर लोगों का समर्थन—इन सबने राजीव के आसपास की हलचल को शांत कर दिया था। मगर अब असली हलचल उसके अंदर थी।
हर रात, जब वो अपने छोटे से फ्लैट की बालकनी में बैठता, तो चाय का एक कप लेकर वो खुद से सवाल करता, “इतना समय क्यों लगा मुझे यह समझने में कि कुछ रिश्ते सिर्फ आदत होते हैं, ज़रूरत नहीं?”
कमल अब उसकी जिंदगी से बाहर था, लेकिन उसके निशान बाकी थे।
वो एक अजीब-सी फीलिंग थी—जैसे कोई लंबे समय तक किसी भारी चीज़ को उठाता रहा हो, और फिर अचानक वो बोझ हट जाए। हल्कापन अच्छा लगता है, पर खालीपन भी साथ आता है।
राजीव ने खुद में झाँकना शुरू किया।
उसने उन छोटी-छोटी बातों पर ध्यान देना शुरू किया, जिन्हें वो पहले नज़रअंदाज़ करता था—जैसे किसी दोस्त का कॉल टाइम पर आना, या ऑफिस में कोई उसके काम की तारीफ़ कर दे, या मां का ये कहना, “आजकल तू कुछ शांत लगता है, ठीक है न बेटा?”
उसने महसूस किया कि जिंदगी में सिर्फ “देना” ही प्यार नहीं है। खुद को भी कभी-कभी कुछ देना जरूरी होता है—समय, इज्ज़त, समझदारी।
वो किताबें पढ़ने लगा, जो सालों से उसके शेल्फ में बस शोपीस बनी हुई थीं।
वो गाने सुनने लगा, जो कभी कमल के मज़ाक की वजह से उसने छोड़ दिए थे।
वो उन दोस्तों से मिलने लगा, जिन्हें कभी कमल ‘बोरिंग’ कहता था, लेकिन असल में वो बहुत गहरे लोग थे।
एक दिन ऑफिस में लंच ब्रेक के दौरान उसकी नई सहकर्मी, दिशा, ने पूछा, “राजीव, तुम इतने संतुलित कैसे हो? आजकल सब हाइपर हैं, मगर तुम हमेशा शांत दिखते हो।”
राजीव मुस्कराया। जवाब सीधा था— “क्योंकि अब मैं खुद से झूठ नहीं बोलता।”
दिशा ने बात को हल्के में नहीं लिया। उन्होंने धीरे-धीरे बातें शुरू कीं—राजनीति से लेकर म्यूजिक तक, पुराने गीतों से लेकर करियर के प्लान्स तक। पहली बार, राजीव को लगा कि बात करने के लिए सामने कोई ‘सुनने’ वाला भी है, न कि सिर्फ जवाब देने वाला।
इसी दौरान उसने एक डायरी शुरू की- “जो मैंने नहीं कहा” ।
उसमें हर दिन कुछ न कुछ लिखता—कभी एक लाइन, कभी एक पेज।
“आज ऑफिस से लौटा तो बालकनी में हवा कुछ अलग थी। शायद इसलिए कि आज कमल याद नहीं आया।”
“दिशा ने आज कहा कि मैं अच्छा श्रोता हूँ। शायद इसलिए क्योंकि अब मैं खुद को भी सुनने लगा हूँ।”
“फोकट में दिया, अब सोच समझकर दूंगा। रिश्ता वहीं तक, जहाँ इज्ज़त बनी रहे।”
राजीव अब बदल रहा था। और वो ये बदलाव दिखाने की कोशिश नहीं कर रहा था, वो बस जी रहा था।
एक शनिवार की सुबह
शनिवार की सुबह थी। घर थोड़ा अस्त-व्यस्त था, लेकिन राजीव ने ठान लिया था—आज सफाई करनी है, जैसे भीतर की भी कर रहा हो।
पुराना एक डिब्बा निकला, जिसमें कॉलेज के फोटो थे। उनमें कमल भी था—हंसता हुआ, उसके कंधे पर हाथ रखे हुए। राजीव ने तस्वीर देखी, कुछ सेकंड चुप रहा, फिर मुस्कराया।
“हम तब मासूम थे। वो भी, मैं भी।”
उसने फोटो को वापस डिब्बे में रखा—न तो फाड़ा, न जलाया, बस जगह दे दी। जैसे अतीत को माफ़ करना सीख रहा हो।
वहीं बैठा-बैठा उसने एक स्केच बनाया— “फोकटिया”
एक इंसान, जिसके हाथ खाली थे, मगर आंखें चालाक थीं। जिसके पैरों के नीचे सिक्के थे, जो दूसरों की जेब से निकले थे।
ये स्केच वो सोशल मीडिया पर पोस्ट नहीं करता। ये सिर्फ उसके लिए था—एक पहचान जो अब इतिहास है।
आत्म-साक्षात्कार की असली परीक्षा
एक दिन, राजीव को एक मेसेज आया—कमल के छोटे भाई का।
“भैया, भैया ठीक नहीं हैं। बहुत अकेले हो गए हैं। आप चाहें तो एक बार मिल लीजिए। उन्हें लगता है आपने उन्हें बिल्कुल छोड़ दिया।”
राजीव ने कुछ देर तक फोन देखा। फिर जवाब दिया:
“मैंने उसे छोड़ा नहीं था। उसने रिश्ते को हल्का समझ लिया था। जब वो खुद को समझ ले, तब बता देना। तब मिलूंगा।”
उसने सच्चाई के साथ दया का संतुलन सीख लिया था।
अब उसके पास न बदला था, न घृणा—बस एक स्पष्टता थी।
आत्मा की आवाज़
एक शाम राजीव खुद से बात करने लगा—काफी देर बाद, बिना किसी डर के।
“राजीव, तुम अब वही नहीं हो जो पहले था। और ये ठीक है। बदलाव बुरा नहीं, समझदारी है।”
“कमल ने जो किया, उसने तुझे तोड़ा नहीं, गढ़ा है।”
“अब तू जानता है—मुफ्त में बाँटना और मुफ्त में बिक जाना—दोनों में फर्क है।”
नया मोड़
राजीव अब खुद के लिए जी रहा था। नई किताबें, नए दोस्त, नई सोच। पर सबसे ज़रूरी—नई समझ।
उसे अब दूसरों की validation नहीं चाहिए थी। उसे खुद से सहमति चाहिए थी।
अब वो “फोकटिया” की कहानी किसी और को बताता नहीं, वो बस मुस्करा देता है।
क्योंकि अब वो जानता है:
“जिस रिश्ते में इज्ज़त नहीं, उसमें रहना खुद से ग़द्दारी है। और जो आपसे सिर्फ फायदा चाहता है, वो कभी दोस्त था ही नहीं।”
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Phokatiya / फोकटिया: एकतरफा रिश्तों की सच्ची कहानी
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