beete samay ki REKHA - 5 in Hindi Classic Stories by Prabodh Kumar Govil books and stories PDF | बीते समय की रेखा - 5

Featured Books
Categories
Share

बीते समय की रेखा - 5

5.
मित्तल साहब के पुत्र ने यहां रहते हुए बहुत तरक्की की और अब पिता के सेवानिवृत्त हो जाने के बाद परिसर में वो मित्तल साहब कहलाने लगे। कुछ समय बाद उनकी पत्नी को भी वहां शिक्षिका की नौकरी मिल गई।
इस दंपत्ति के दो पुत्र और दो पुत्रियां थीं।
इनमें सबसे बड़ी पुत्री का नाम रेखा था।
इसी रेखा की कहानी हम आपको सुनाने जा रहे हैं !
छोटी सी रेखा विद्यापीठ परिसर में परिवार के साथ रहते हुए प्राइमरी स्कूल में पढ़ने जाने लगी। यह कन्या बालपन से ही बेहद मेधावी थी। प्रायः देखा जाता है कि पढ़ाई में तेज़ होने वाले बच्चे कुछ अलग ही दिखाई देते हैं और कुछ आत्मकेंद्रित से ही रहते हैं। लेकिन रेखा अपने विद्यालय की छात्राओं में बहुत लोकप्रिय भी थी। विद्यार्थी और शिक्षक सभी लोग उसे बहुत पसंद करते। 
वह पढ़ने के साथ- साथ नृत्य तथा अन्य सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भी छुटपन से ही बढ़ - चढ़ कर भाग लेती थी। किसी सांस्कृतिक आयोजन में कोई नाटक, एकांकी, समूह नृत्य हो, रेखा का नाम उसमें अवश्य होता। लड़कियों का आवासीय संस्थान होने के कारण वहां प्रायः ऐसे आयोजन होते भी ख़ूब थे। अपने बालपन में ही कई बार उसने कृष्ण की बाल - लीलाओं को अभिनीत किया और अनेक बार नृत्य नाटिकाओं में भी कृष्ण बनी।
अपने सभी गोरे - चिट्टे भाई - बहनों के बीच रेखा कुछ खिलते सांवले रंग की थी किंतु यही रंग कृष्ण की भूमिका और नृत्यों में उसका सामर्थ्य बन जाता।
वह पढ़ाई में भी बेहद बुद्धिमती थी। शानदार सुंदर लिखावट तथा गणितीय दक्षता उसे अपने विद्यालय में लोकप्रिय बनाए रखते। उसके मोती से अक्षर सहपाठियों के लिए कौतूहल का विषय होते। उसका वैज्ञानिक दृष्टिकोण तथा तार्किकता आरम्भ से ही शिक्षकों का ध्यान आकर्षित करने वाले और अन्य छात्राओं को अचंभित करने वाले थे।
देखते- देखते समय के साथ रेखा की स्कूली पढ़ाई पूरी होने लगी। कुछ गंभीर और आत्मीय शिक्षकगण कभी- कभी दबी ज़ुबान से कह देते कि इतने अच्छे अंक लाने वाली छात्रा को इन सब गतिविधियों में समय नहीं लगाना चाहिए, कहीं पढ़ाई में इससे कोई कमी न रह जाए। लेकिन वो ज़माना ही ऐसी बेफ़िक्री का था कि लड़की ही तो है, इसे कौन कहीं लड़कों की तरह परिवार संभालना होगा। घर वाले भी पढ़ने को लेकर कोई दबाव न डालते। 
उस समय तक विद्यापीठ को अपनी परीक्षाओं के आयोजन में सरकार से स्वायत्तता नहीं मिली थी और स्कूल के अंतिम वर्ष में वहां की छात्राओं को राजस्थान राज्य की बोर्ड परीक्षाओं में ही शामिल होना पड़ता था।
कुछ लोगों को यह भी कहते सुना जाता था कि विद्यापीठ की घरेलू आंतरिक परीक्षाओं के कारण किसी छात्रा की प्रतिभा की वास्तविक पहचान तब तक नहीं हो पाती जब तक उसे बोर्ड की परीक्षा में राज्य भर के विद्यार्थियों के साथ स्पर्धा करने का अवसर न मिले।
रेखा ने भी स्कूल के अंतिम वर्ष में बोर्ड की परीक्षा दी। 
यहां सबके देखते - देखते चमत्कार हुआ।
रेखा ने राजस्थान राज्य भर में लड़कियों के बीच पहला स्थान प्राप्त किया। वह मेरिट लिस्ट में टॉप पर आई।
उन दिनों लड़कियों को लड़कों की तुलना में पढ़ाई के कम अवसर मिलने के कारण ऐसा देखा जाता था कि उनके अंक लड़कों की तुलना में कम आते थे। यही कारण था कि लड़कों के लिए निकली योग्यता सूची में उनका नाम न आ पाने के कारण लड़कियों के लिए अलग योग्यता सूची निकाली जाती थी जो अपेक्षाकृत कम अंक पर होती थी।
लेकिन रेखा ने न केवल टॉप किया बल्कि पिछले चौदह वर्ष का रिकॉर्ड तोड़ते हुए लड़कों की मेरिट लिस्ट में भी अपना स्थान बनाया।
यह उपलब्धि उस छात्रा, रेखा के नाम रही जिसके शिक्षक - गण "पूत के पांव पालने में ही दिख जाने" की घोषणा आरम्भ से ही करते रहे थे। जो कभी पढ़ाई या परीक्षा के नाम पर घर- परिवार के कामकाज छोड़ कर नहीं बैठी, जो अपनी सहेलियों की मदद में भी तत्पर रही, परिवार और पड़ोस के उत्सव - त्यौहार भी उसने कभी नहीं छोड़े। कोई उत्सव हो उसमें पूरे उत्साह - उल्लास से भाग लेना। रेखा ने किसी तरह की कोचिंग कभी नहीं ली, अपनी क्लास के अलावा किसी शिक्षक या वरिष्ठ से कोई एक्स्ट्रा क्लास नहीं ली और राज्य भर की लड़कियों से आगे निकल कर दिखा दिया।
उस ग्रामीण परिसर में बसे विद्यालय का माहौल भी अपनी एक छात्रा के राज्य भर की टॉपर बन जाने से जैसे ग़मक उठा। सहेलियों में भी किसी ईर्ष्या, जलन की जगह इस उत्कंठा ने सिर उठाया कि देखें अब क्या करेगी रेखा, क्या पढ़ेगी रेखा, कहां रहेगी रेखा।
जैसे रेखा किसी दूसरी ही दुनिया की छात्रा बन गई।
इस शानदार सफलता के बाद रेखा ने गणित विषय लेकर बी. एस.सी. में प्रवेश लिया और कालांतर में यहां भी उच्चतम पोजीशन से स्नातक डिग्री पूरी की।
कहते हैं कि शिखर पर पहुंचने से अधिक कठिन होता है वहां बने रहना। क्योंकि एक बार भव्य सफलता का स्वाद चख लेने के बाद ख़ुद आपका अपना ज़मीर ही आपको उकसाता है कि आप किसी भी तरह अपनी ऊंचाइयां बनाए रखें।
अब रेखा अपनी पढ़ाई के प्रति और भी गंभीर होकर नियमित और प्रतिबद्ध हो गई। विद्यापीठ का परिसर काफ़ी लंबा- चौड़ा था और अब तक यहां तेज़ी से काफ़ी सारे भवन बन चुके थे। लड़कियों के लिए कई छात्रावास भी। 
शास्त्री परिवार की लाड़ली पुत्री शांता की स्मृति में यहां बने सभी आवासीय भवनों का नाम शांता के नाम पर ही रखा जा रहा था। कार्यकर्ताओं के लिए भी कई आवास बनते जा रहे थे। इस तरह यह परिसर निरंतर फल - फूल रहा था। 
रेखा के घर से कॉलेज व पुस्तकालय की दूरी काफ़ी थी अतः अध्ययन की नियमितता बनाए रखने के लिए वह स्वयं साइकिल का प्रयोग करती थी। उसने घर के किसी भी सदस्य पर यह दबाव कभी नहीं बनाया कि उसे कॉलेज या लायब्रेरी छोड़ कर आया जाए। उन दिनों वाहनों की न तो इतनी उपलब्धता होती थी और न ही ज़रूरत। पर दिनचर्या की नियमितता और समय- पालन रेखा का पहला सरोकार था।
रेखा ने इसी बीच बी. एस.सी. पूरी कर ली।
इसके बाद एक समस्या सामने आई। विद्यापीठ में तब तक वैसे तो कई विषयों की पढ़ाई शुरू हो चुकी थी किंतु संयोग से भौतिक शास्त्र में एम.एस.सी. विषय तब नहीं था। रसायन विज्ञान में स्नातकोत्तर डिग्री आरम्भ हो चुकी थी। 
रेखा इससे कुछ विचलित हुई। वो न तो अपना पसंदीदा संस्थान छोड़ना चाहती थी और न ही अपना मनपसंद विषय। उसने अपनी सहेलियों के बीच तो परिहास में एक बार कह भी दिया -"मैं उनमें से नहीं हूं जो बहती गंगा में हाथ धो लें, पढूंगी तो अपना पसंदीदा विषय ही" और इसी ऐलान को चरितार्थ भी कर दिखाया।
ऐसे में रेखा ने जयपुर आकर राजस्थान विश्वविद्यालय में भौतिक शास्त्र विभाग में प्रवेश लिया और वहां हॉस्टल में रहने लगी। बनस्थली विद्यापीठ से जयपुर की दूरी लगभग सत्तर किलोमीटर की थी।
इसके बाद उसकी इच्छा तो डॉक्टरेट करने की भी थी किंतु जहां लोगों को पढ़ाई पूरी करने के बाद नौकरी के लिए वर्षों तक इंतज़ार करते देखा जाता है वहीं रेखा का स्नातकोत्तर डिग्री पूरी होते- होते ही मुंबई के भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र में वैज्ञानिक अधिकारी के पद पर चयन हो गया। 
यह भी एक उपलब्धि ही कही जाएगी कि शुरू से माता- पिता की सरपरस्ती में सुदूर ग्रामीण क्षेत्र में पढ़ती हुई छात्रा ने पहली बार नौकरी के लिए मुंबई जैसे महानगर में जाते हुए भी घर के किसी सदस्य को उसे छोड़ कर आने की विनती नहीं की। वह अकेली ही अपनी सब व्यवस्था करते हुए मुंबई पहुंची। यहां उसकी नियुक्ति मॉड्यूलर लैब में न्यूक्लियर फिजिक्स डिवीजन में हुई।
इस तरह एक छोटे से ग्रामीण परिवेश की शांत ज़िंदगी से निकल कर वो मुंबई के अणुशक्ति नगर में आ गई। 
घर से पहली बार इतनी दूर जाने के अकेलेपन को सृजनात्मकता व सकारात्मकता से बिताने के मकसद से रेखा ने मुंबई विश्वविद्यालय से कंप्यूटर साइंस विषय में डॉक्टरेट भी कर डाली। इस उपलब्धि के बाद उसे डॉ. शंकर दयाल शर्मा, जो बाद में देश के राष्ट्रपति भी बने, उनके हस्ताक्षर से अपनी डॉक्टरेट डिग्री प्राप्त हुई। 
वो दिन देश में कंप्यूटर साइंस के आगमन के शुरुआती दिन थे। इस संदर्भ में कोई सलाह या मार्गदर्शन देने वाले न तो शिक्षक ही उन दिनों होते थे और न सहपाठी ही। सभी निर्णय पूरे जोखिम के साथ स्वयं ही लेने होते थे।
इस तरह एक नए विषय में डॉक्टरेट करके रेखा अब डॉ. रेखा बन गई। एक ऐसा विषय जिसके बारे में देश भर में अधिकांश कॉलेज- यूनिवर्सिटीज में उन दिनों कोई नहीं जानता था। केवल मीडिया में ये खबरें छपा करती थीं कि एक ऐसी तकनीक आ रही है जो हमारे सब कार्य चुटकियों में किया करेगी। कुछ गिने- चुने उत्साही लोग ही इसके प्रति उत्सुक हुआ करते थे।
यहां तक कि देश के बैंकों व अन्य दफ्तरों में तो यह कहा जा रहा था कि या तो सबको यह नई तकनीक सीखनी पड़ेगी या फिर नौकरी ही छोड़नी होगी।
जो लोग कंप्यूटर टेक्नोलॉजी से भय खाकर इसे अपनाने में अपने को अक्षम पाते थे उनके लिए सरकार ने स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति की योजनाएं शुरू कर दी थीं। इन्हें "गोल्डन शेकहैंड" कहा जाता था। आप सरकार से भरपूर पैसा लीजिए और नौकरी छोड़ दीजिए ताकि नई और तकनीक- दक्ष पीढ़ी सामने आ सके।
रेखा की मित्रता यहां उसकी ही तरह अन्य राज्यों से टॉप करके आई दो छात्राओं से हुई। इन दक्षिण भारतीय छात्राओं के संग- साथ में ही अणुशक्ति केंद्र के हॉस्टल में रहते हुए प्रशिक्षण पूरा हुआ और फ़िर नवी मुंबई में आवास हो गया। तीनों ने मिलकर एक फ्लैट ले लिया और इस तरह मुंबई महानगर की नई ज़िंदगी शुरू हो गई।
* * *