भाग 4: डॉक्टर का सवाल और आरव की चुप्पी
थैरेपी रूम वैसा ही था — वही हल्की सी ठंडक, वही दीवार पर लगी घड़ी जिसकी टिक-टिक हर सेकंड को चीरती थी, वही कुर्सियाँ जिन पर बैठते हुए लोग अपनी गहराइयों तक जा चुके थे। लेकिन आज… आरव वैसा नहीं था।
उसका शरीर वहीं था, कुर्सी पर बैठा हुआ। आँखें खुली थीं, सांसें चल रही थीं — लेकिन उसकी मौजूदगी… जैसे धीरे-धीरे कमरे से गायब हो रही थी। उसकी आँखों में कोई एक खास दृश्य अटका हुआ था, जैसे ज़हन अब भी किसी पुराने सपने की गिरफ्त में था। वो देख रहा था, लेकिन सामने नहीं — कहीं भीतर। बहुत भीतर।
डॉ. मेहरा ने उसे गौर से देखा। उनके चेहरे पर वही जानी-पहचानी मुस्कान थी — शांति देने वाली, समझदारी वाली। लेकिन आज उसमें एक अजीब सी बनावट थी… जैसे वो भी किसी डर को छुपा रही हो।
“आरव, आज तुम कुछ बताना चाहोगे?”
“कोई सपना, कोई पुरानी बात, जो बार-बार लौटती है?”
आरव चुप रहा।
वो बोलना चाहता था, लेकिन जैसे कोई अदृश्य ताक़त उसकी ज़ुबान को थामे हुए थी। उसकी पलकें कभी झपकतीं, कभी ठहर जातीं — लेकिन होंठ बंद। बहुत बंद।
ये चुप्पी, सिर्फ़ चुप्पी नहीं थी।
ये एक गूंगी चीख थी। एक गहराई, जहाँ शब्द नहीं पहुँचते।
डॉक्टर मेहरा ने धीरे से अपना नोटपैड बंद किया और कुछ देर आरव की ओर देखते रहे।
फिर बोले —
“ठीक है। तो आज हम एक एक्सरसाइज़ करेंगे।”
वो उठे, और कोने में रखी एक दराज़ से कुछ तस्वीरें निकालीं। पुरानी, हल्की मुड़ी हुईं, पर स्पष्ट।
“मैं तुम्हें कुछ तस्वीरें दिखाऊँगा,
तुम सिर्फ़ ‘हाँ’ या ‘ना’ कहना।
ठीक?”
आरव थोड़ा आगे झुका — जैसे खुद को झोंक देना चाहता हो, या खुद को बचा लेना चाहता हो।
तस्वीर 1: एक लड़की का चेहरा
सफेद सूती कपड़े, लंबे बाल, झील के किनारे खड़ा चेहरा। हल्की मुस्कान, पर उसमें कोई दर्द छिपा था।
आरव की आँखें उस तस्वीर पर टिक गईं — कुछ पल तक।
उसकी पलकें हिलीं, लेकिन होंठ अब भी सिले हुए थे।
“जानते हो इसे?”
…कोई जवाब नहीं।
तस्वीर 2: एक अस्पताल का गलियारा
नीली टाइल्स, दीवार पर लगी इमरजेंसी लाइट, दूर एक स्ट्रेचर।
आरव की साँसें तेज़ हुईं।
उसकी उंगलियाँ अपने आप कस गईं, मुट्ठी में बदल गईं। पर आवाज़ अब भी नहीं आई।
तस्वीर 3: एक फाइल का कवर पेज
सादा, पुराना कागज़ — जिस पर टाइप था:
"Dr. Sana Malik – Memory Loss Case, 2017"
इस बार आरव जैसे जाग उठा। उसकी आँखें फैल गईं। चेहरा पहली बार किसी भावना से काँपा — और फिर उसने धीमे से कहा:
“ये फाइल मेरी नहीं है…”
“…ये उसकी है।”
डॉ. मेहरा की उंगलियाँ रुक गईं।
उनके चेहरे से वो जानकारियों की सुरक्षित दीवार थोड़ी दरक गई।
उनकी पेशेवर मुस्कान गायब थी — उसकी जगह अब था एक गहरा सवाल।
“आरव… तुम्हें कैसे पता ये फाइल किसी और की है?”
आरव ने उनकी तरफ देखा — इस बार सीधा। अब उसकी आँखों में पहले जैसा धुंधलापन नहीं था। वहाँ सन्नाटा नहीं, सच्चाई थी — खामोश, लेकिन जलती हुई।
और उसने सिर्फ़ एक वाक्य कहा:
“क्योंकि… मैंने उसे मरते देखा है।”
कमरे की हवा जैसे रुक गई।
घड़ी की टिक-टिक सुनाई देना बंद हो गई थी।
अब सिर्फ़ दो चीज़ें बची थीं — डॉक्टर की धीमी गहराती साँसें, और आरव की वो आँखें… जिनमें अब डर नहीं, बल्कि जवाब माँगने वाली आग थी।
अगली कड़ी में पढ़िए:
भाग 5: जब वक़्त थम सा गया था
(जब हर सपना, एक ही घटना को दोहराने लगे — पर हर बार सना अलग होती है…)