Shri Bappa Raval - 7 in Hindi Biography by The Bappa Rawal books and stories PDF | श्री बप्पा रावल - 7 - कांचीपुरम का युद्ध

Featured Books
Categories
Share

श्री बप्पा रावल - 7 - कांचीपुरम का युद्ध

षष्ठम अध्याय
कांचीपुरम का युद्ध

अगले दिन प्रातः काल शस्त्राभ्यास के उपरान्त कालभोज ने अखाड़े के बाहर रखा मटका उठाया और गटागट उसमें भरा जल पी गया। किन्तु अभी उसने मटका नीचे रखा ही था बेड़ियों में जकड़े एक मनुष्य को घसीटते हुए उसके कदमों में ला पटका गया। भोज ने दृष्टि उठाकर देखा, कि उसे लाने वाले कोई और नहीं हरित ऋषि और भीलराज बलेऊ थे।

उसने अपने गुरु को प्रणाम करते हुए प्रश्न किया, “ये सब क्या है, गुरुदेव?”

हरित ऋषि ने मुस्कुराते हुए उसके कंधे पर हाथ रखा, “युद्ध की विभीषिका बड़ी भयानक होती है, वत्स कालभोज। जब किसी योद्धा की तलवार सहस्त्रों का रक्त बहाकर उसे विजयश्री के सम्मान से अलंकृत करती है, तो इस बात की भी संभावना बढ़ जाती है कि वो अपनी तलवार की रक्त की प्यास बुझाने को ही श्रेष्ठ और सम्मान देने वाला कर्म समझने लगे। केवल युद्ध और रक्तपात को ही अपना जीवन लक्ष्य बना ले, रण में शव गिराने का इतना आदि हो जाये कि शवों के ढेर को देखे बिना उसे निद्रा ही ना आये। ऐसा मनुष्य एक प्रकार से नरभक्षी ही हो जाता है। ऐसे में एक ऐसा कर्म है जो भयानक रक्तपात से भरे रणप्रसंगों में भी उस योद्धा के मस्तिष्क और चरित्र दोनों का संतुलन बनाए रखता है, और वो है क्षमादान। विषम से विषम परिस्थितियों, में भी जो क्षमा करने का सामर्थ्य रखे, वही योद्धा मानव समाज की प्रेरणा बन सकता है। क्योंकि ऐसा वीर और चरित्रवान मनुष्य ये भलीभाँति जानता है कि हिंसा सदैव अंतिम विकल्प होना चाहिए, वो भी तब जब शांति के सारे द्वार बंद हो जायें।”

हरित ऋषि के वचन सुन कालभोज ने कुछ क्षण विचार किया, फिर मुस्कुराते हुए बलेऊ की ओर देखा, “तो आप और भीलराज पिछले पाँच वर्षों से मेरा किस प्रकार से परीक्षण ले रहे थे? और.. और आप ही ने..।”

“हाँ, हमने ही भीलराज से वचन लिया था कि जब तक तुममें इतना साहस न आ जाये कि तुम बिना भीलराज का सत्य जाने केवल उनके व्यक्तित्व को परखकर उन्हें क्षमा करने की वीरता दिखा सको, तब तक तुम्हें महाराज नागादित्य के सत्य से अनभिज्ञ ही रखा जायेगा।”

हरित ऋषि के वचन सुन कालभोज ने गहरी श्वास भरी और बलेऊ की ओर देखा, “तो भीलराज केवल मेरे परीक्षण के लिए सत्य को मुझसे छुपाकर मेरी घृणा के पात्र बनते रहे?”

बलेऊ मुस्कुराते हुए कालभोज के निकट आया, “और आपने अपने उच्च कोटि के चारित्रिक बल प्रदर्शन से मेरी तपस्या को सफल बना दिया।”

मुस्कुराते हुए कालभोज की दृष्टि उस बंदी पर पड़ी जिसे बेड़ियों में जकड़कर वहाँ लाया गया था। दिखने में वो थोड़ा वृद्ध प्रतीत हो रहा था, चेहरे पे झुर्रियां भी निकल आयीं थीं और गालों पर कई गड्ढे भी हो गये थे, मानों वर्षों से पौष्टिक भोजन न किया हो, “मुझे ऐसा क्यों आभास हो रहा है कि इस मनुष्य को मैंने पहले कहीं देखा है।”

हरित ऋषि ने बलेऊ को संकेत किया, और उनकी सहमति पाकर भीलराज ने कहना आरम्भ किया, “अब समय आ गया है वीर कालभोज कि आपको सत्य से अवगत करा दिया जाये। यही है वो षड़यन्त्रकारी जिसने आपके पिता की मृत्यु का षड़यन्त्र रचा था। हाँ, शस्त्र मेरे थे, वो पाप मुझसे ही हुआ, किन्तु ऐसा प्रसंग उत्पन्न करने वाला यही मनुष्य था।” श्वास भरते हुए बलेऊ ने गर्व से सर ऊँचा करते हुए कहा, “आपके पिता महावीर थे, भोज। और उस वीर शिरोमणि गुहिलवंशी नागादित्य का चरित्र वर्णन करके मैं स्वयं को गर्वित महसूस करूँगा। एक समय ऐसा था जब चालुक्यों की भूमि से आये उस वीर ने समग्र मेवाड़ और पल्लव भूमि के योद्धाओं को अपने नाममात्र से आतंकित कर रखा था। और उन्होंने अपने सामर्थ्य का सिक्का जमाया था चालुक्यों और पल्लवों के मध्य हुए अपने जीवन के सबसे प्रथम युद्ध में।”

680 ई.
कांचीपुरम (पल्लवराष्ट्र)
मस्तक पर रक्तरंजित शिरस्त्राण धारण किये अश्व पर आरूढ़ हुआ वो वीर भयानक भुजंग की भाँति फुंफकारता हुआ अपने अश्व सहित दो गज ऊपर उछला और अपने हाथों में थमी दोनों तलवारें लिये सामने आ रहे तीन योद्धाओं पर झपटा। लम्बी-लम्बी ढालें और भल्ल उठाये उस वीर की ओर दौड़ रहे तीन योद्धा अकस्मात ही उसके विशालकाय अश्व की हिनहिनाहट के साथ उसका सिंघनाद सुन क्षणभर को स्थिर से हो गये। उस अश्व ने अपने खुरों से सामने खड़े योद्धाओं में से एक के मस्तक पर प्रहार कर उसे धराशायी किया और वो वीर तलवारों के प्रहार से शेष दो योद्धाओं के शिरस्त्राण सहित उनका मस्तक चीर आगे बढ़ गया।

अपने तीन विशिष्ट सैन्य अधिपतियों को यूँ धराशायी होकर भूमि पर गिरा देख बीस गज की दूरी पर अपने रथ पर खड़ा योद्धा विचलित हो गया। यह देख उस अश्वारोही वीर ने अपना भाला चलाकर अपने सामने खड़े योद्धा के रथ की ध्वजा काट डाली और उस पर कटाक्ष करते हुए कहा, “क्या हुआ महाराज नरसिंहवर्मन? अपने इन्हीं तीन प्रमुख योद्धाओं के विश्वास पर अपने राज्य की शक्ति का दम भरते थे न? प्रतीत होता है कि इन्हें रण का अभ्यास छुड़वाकर स्वयं का अंगरक्षक बनाना आपकी बहुत बड़ी भूल सिद्ध हुई, पल्लवराज।”

अपनी भौहें ताने राजा नरसिंहवर्मन कुछ क्षणों तक अपने धाराशाही हुए वीरों के शव ही निहारते रहे। फिर अपने रथ पर खड़े भाला ताने हुए कटाक्षमय स्वर में बोले, “अति उत्साह में तुम ये भूल गये चालुक्यराज, कि अपनी अदनी सी सेना को विनाश से बचाने के लिये तुम अपनी इस छोटी सी सैन्य टुकड़ी के साथ स्वयं नरभक्षी सिंहों की माँद में आ चुके हो।”

चालुक्यराज ने चहुं ओर दृष्टि घुमाकर देखा। तीन दिशाओं से पल्लव सैनिक उन्हें और उनके सौ चालुक्य सैनिकों को घेरने आगे बढ़ रहे थे। मुखमण्डल से बहते हुए रक्त से मिश्रित स्वेद को पोछ चालुक्यराज भूमि पर कूदे और सामने आ रहे सहस्त्रों योद्धाओं को देख भी स्थिर खड़े रहे। घनी दाढ़ी और शरीर पर गुदे घावों के चिन्ह उनके वर्षों के युद्ध के अनुभव को दर्शा रहे थे। पैंसठ वर्ष की आयु में भी ऊँचे कंधे और सशक्त भुजदण्ड धारक चालुक्यराज को देख कोई भी पहली बार में यही कहता कि कोई नवयुवक ही युद्ध कर रहा है। अपने शस्त्रों पर पकड़ मजबूत कर उन्होंने अपने साथ खड़े मुट्ठीभर सैनिकों को संकेत किया। अपने राजा के संकेत पर उन सैनिकों ने अपनी ढालें ऊँची की और भाले सीधे कर धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगे। विजय के आश्वस्त उन्माद में ठहाके लगाते नरसिंहवर्मन ने कदाचित अपने शत्रु के साहस और नीतियों को कमतर आंक लिया था। यदि वो चालुक्यराज के चंद्रमा समान तेजोवान मुख पर छाई शीतलता और धैर्य की ओर ध्यान देते तो कदाचित असावधानी बरतने की भूल न करते।

अगले ही क्षण बाईं ओर स्थित लगभग तीस गज ऊँचे पर्वतों से सहस्त्रों बाणों की वर्षा हुई और चालुक्यराज को बाईं ओर से घेरने आ रहे सैकड़ों पल्लव सैनिकों के मस्तक और छाती चीरते हुए अकस्मात ही उन्हें आतंकित कर दिया।

“ये कौन सी सैन्य टुकड़ी आ गयी ?” अपने रथ पर अबतक निर्भीक खड़े नरसिंहवर्मन भी चकित रह गये।

उबड़ खाबड़ चट्टानों पर छलाँगे मारते हुए लगभग दो सहस्त्र योद्धा पल्लवों पर बाण चलाए जा रहे थे, और साथ में गुरत्वाबल ने उनके तीरों की गति और तेज कर दी थी। दूसरी ओर चालुक्यों की तीन सहस्त्र अश्वारोहियों का दल लिये गुहिलवंशी शिवादित्य सिंहनाद करता हुआ सेना पर टूट पड़ा। 

चालुक्यराज के दायीं ओर आ रही सेना का नेतृत्व करते हुए राजा नरसिंहवर्मन स्वयं शंका में पड़ गये कि अब वो अपनी सेना को अगला आदेश क्या दें। अकस्मात हुए प्रहारों से सकपकाई पल्लवों की सेना अपने महाराज की शंका के कारण चंद क्षणों तक दुर्बल सी पड़ गयी। और इन चंद क्षणों में ही शिवादित्य ने गतिमान अश्वारोहियों को लेकर शत्रुसेना का घेराव चीरते हुए उनकी कमरतोड़ कर रख दी।

“टूट पड़ो पर्वतों पर।” गर्जना करते हुए नरसिंहवर्मन ने अपने साथ खड़ी सेना की एक टुकड़ी को चालुक्यराज के बाईं ओर लड़ रही सेना की सहायता करने का आदेश दिया।

पर्वतों के नीचे खड़ी पल्लव सेना ने रक्षण नीति अपनाई और स्वयं को ढालों से ढककर बाणों से बचने का प्रयास किया। किन्तु निकट आते ही चालुक्यों की उस सैन्य टुकड़ी ने लम्बे-लम्बे भाले उठाये और दस दस गज से भी अधिक ऊँचाई से कूदते हुए पल्लवों के मस्तक छेदने लगे। स्वयं से तिगुनी सैन्य टुकड़ी पर शत्रु को इस प्रकार भारी पड़ता देख नरसिंहवर्मन आश्चर्यचकित रह गये। किन्तु उस सेना के अदम्य साहस और मनोबल का कारण शीघ्र ही दिखाई पड़ गया।

बाघ की भाँति हुंकार भरता हुआ एक वीर दो भाले उठाये पर्वतों से उछला, नीचे आते-आते दो सैनिकों के मस्तक छेद भूमि पर लुढ़कता हुआ आगे बढ़ा और अपनी कमर में लटकी दो कटारें निकाल अवाक खड़े दो पल्लव योद्धाओं की गर्दनें छेद डालीं। तीन क्षणों की इस समयावधि में उसने चार सैनिकों को हताहत कर पाँचवें सैनिक की गर्दन पकड़ उसकी तलवार छीनी और उसके कण्ठ पर चीरा लगाये आगे खड़े दो सैनिकों के सामने विद्युत गति से तलवार घुमाई और उन दोनों के शीश उतारकर भूमि पर गिरा दिये। रक्त के छींटों में नहाया वो शौर्यवान पल्लवों पर काल का दंश बनकर टूट पड़ा था।

दस क्षणों से भी कम समयावधि में इस प्रकार सात सैनिकों को गिरा देना कोई साधारण विद्या नहीं थी। और इस अद्भुत सामर्थ्य के प्रदर्शन ने नरसिंहवर्मन की चिंता कई गुना बढ़ा दी थी। क्योंकि अग्नि के तपोबल से उत्पन्न हुए प्रतीत हो रहे उस वीर के नेत्रों में भरे साहस का प्रतिबिंब उसके साथ युद्ध कर रहे हर वीर के नेत्रों में दिखाई पड़ने लगा था। इस कारण पर्वतों से उतरती चालुक्य सेना की वो टुकड़ी कुछ समय के लिये पूर्ण रूप से हावी हो गयी।

पर्वत से उतरे चालुक्य दल के उस नायक को देख नरसिंहवर्मन को अपने नेत्रों पर विश्वास ही नहीं हुआ, “ये तो कोई बालक प्रतीत होता है।”

वहीं दसियों पल्लव योद्धाओं को काटते हुए चालुक्यराज विचलित खड़े नरसिंहवर्मन के निकट आते जा रहे थे। हड़बड़ी में नरसिंहवर्मन ने उस योद्धा से ध्यान हटाया और चालुक्यराज की ओर एक के बाद एक तीन बाण छोड़े जिनमें से दो को उन्होंने बड़ी सरलता से तलवार से काटा और एक को अपनी ढाल पर रोका। नरसिंहवर्मन को विचलित देख पर्वतों की ओर संकेत करते हुए चालुक्यराज ने चुनौती पूर्ण स्वर में उन पर कटाक्ष किया, “प्रतीत होता है पर्वतों से उतरते हमारे सामंत गुहिलवंशी महावीर ‘नागादित्य’ और उसकी सैन्य टुकड़ी ने आपको भीतर से हिलाकर रख दिया है, पल्लवराज। आपकी ये दुर्बलता आपके बाणों की गति में स्पष्ट दिखाई दे रही है। मुझे तो समझ नहीं आता कि आपको महामल्ल की उपाधि दी किसने।”

मुट्ठियाँ भींचते हुए नरसिंहवर्मन ने कुछ क्षणों के लिये अपने नेत्र बंद कर अपना मन शांत करने का प्रयास किया। अपनी सेना को यूँ कटते देख उनका मनोबल बढ़ाने के लिये भाला और ढाल उठाये नरसिंहवर्मन ने हुंकार भरते हुए अपना रथ को चालुक्यराज की ओर दौड़ाया। अपने राजा को इस प्रकार सिंह की भाँति दहाड़ता हुआ शत्रुओं के राजा की ओर जाते देख पल्लवसेना भी पूर्ण मनोबल से चालुक्यों से जा भिड़ी।

रण में बहती रक्त की धाराओं ने धरा सहित वहाँ के ऊँचे-ऊँचे टीलों पर भी अपना लाल रंग चढ़ाना आरम्भ कर दिया था। माँस के लोथड़ों और भालों से छिदे मस्तकों का अंबार लगना आरम्भ हो गया था। कटे हुए गिरे धड़ प्राण छोड़ने को तड़प रहे थे। और इसी सर्वनाश को समाप्त करने की आशा में चालुक्यराज और पल्लवराज नरसिंहवर्मन एक-दूसरे की ओर बढ़े चले जा रहे थे। भूमि पर दौड़ते चालुक्यराज ने छलांग लगाकर नरसिंहवर्मन तक पहुँचने का प्रयास किया, किन्तु गतिमान रथ पर सवार पल्लवराज ने उनके निकट आते ही ढाल से उनकी छाती पर चोट कर उन्हें भूमि पर गिरा दिया। फुंफकारते हुए चालुक्यराज ने भाला चलाकर सीधा उनके रथ के दायें पहिये पर दे मारा। वो पहिया कटकर अलग हुआ और नरसिंहवर्मन का रथ भूमि पर घिसटते हुए चिंगारियाँ उत्पन्न करने लगा, और रथ को खींचता हुआ अश्व भी जोर से हिनहिना उठा। अश्व को नियंत्रित करने के लिये नरसिंहवर्मन ने उसकी धुरा संभाली और उसे खींचकर अपने एक पहिये वाले रथ को संतुलित करने का प्रयास करते हुए दूसरे हाथ में थमा भाला चालुक्यराज की ओर फेंका। वो गतिमान भाला आश्चर्यजनक रूप से चालुक्यराज के ढाल का ऊपरी भाग तोड़ते हुए उनके कंधे पर घाव कर गया। नरसिंहवर्मन अपना रथ घुमाते हुए उनकी ओर आये और कुछ क्षणों के लिये असंतुलित हुए चालुक्यराज के ठीक सामने रथ से जुड़ा हुआ वो अश्व आ खड़ा हुआ। उसके खुरों की चोट खाकर चालुक्यराज छह गज दूर जा गिरे।

अपने महाराज को गिरते देख शिवादित्य उनकी ओर बढ़ने लगा, तभी नागादित्य उसके मार्ग में आ खड़ा हुआ, “अपना मोर्चा संभालिए, ज्येष्ठ। महाराज के सामर्थ्य पर संदेह करना उचित नहीं।” कहते उसने दो शत्रुओं के मस्तकों को भूमि पर गिराया और आगे बढ़ गया।

अपने भाई के निर्देश का निसंकोच अनुसरण करते हुए शिवादित्य पुनः पल्लवों पर टूट पड़ा। वहीं चालुक्यराज अत्यंत तीव्रगति से लुढ़कते हुए नरसिंहवर्मन के अश्व के खुरों से स्वयं को बचा रहे थे जो लगातार उन पर प्रहार करने का प्रयास किये जा रहा था। शीघ्र ही लुढ़कते हुए वो रथ के टूटे हुए पहिये तक पहुँचे और बिना एक और क्षण विचार किये उस पहिये को उस अश्व के पैरों में फँसा दिया। क्षणभर को विचलित हुआ वो अश्व अपना संतुलन खोने लगा। इस अवसर का लाभ उठाकर चालुक्यराज ने भूमि पर गिरी एक तलवार उठाई और उछलकर उस अश्व की गर्दन में धंसा दी। तड़पता हुआ वो अश्व सीधा भूमि पर गिरा। चोटिल होने से बचने के लिये नरसिंहवर्मन गिरते हुए रथ से कूद पड़े। फुंफकारते हुए चालुक्यराज पल्लवराज की ओर दौड़े। नरसिंहवर्मन ने भी तलवार और ढाल संभाली और अपने प्रतिद्वंदी के निकट आते ही पूरी दृढ़ता से उस पर टूट पड़े।

दो नरेशों की तलवारों के टकराव से उठती चिंगारियाँ अब इस युद्ध का निर्णय लेने को तैयार थीं। एक-दूसरे के रक्त की प्यास लिये वो दोनों एक-दूसरे पर यूँ प्रहार कर रहे थे मानों उनके जीवन का अंतिम युद्ध हो, और उस द्वन्द में विजय के अतिरिक्त उनके जीवन का और कोई उद्देश्य ही ना हो। दोनों के कवचों और ढालों में दरारें पड़नी आरम्भ हो गयीं थीं, शरीर घाव से भरे जा रहे थे। संध्या होने को थी, एक सामान्य मनुष्य कहो या उस युद्ध में भाग ले रहे योद्धाओं के परिवार जनों के विषय में विचार करो। उनकी इच्छा तो यही होती कि उन दोनों नरेशों में से कोई एक गिर जाये और युद्ध का निर्णय आज ही हो जाये। अन्यथा अगले दिन पुनः शस्त्रों की झंकार के शोर में सहस्त्रों के शव गिरते और कदाचित लाखों के हृदय में जीवनभर के दुखों के कांटे छोड़ जाते।

कदाचित अपनों के घर लौटने की लाखों प्रार्थनाओं के आगे आज ईश्वर भी झुक गये। प्रतिशोध की अग्नि में जल रहे चालुक्यराज का एक दांव आत्मसम्मान की लड़ाई लड़ रहे नरसिंहवर्मन पर हावी हो गया।

तलवार घुमाते हुए नरसिंहवर्मन ने पहले चालुक्यराज के हाथ पर गंभीर घाव किये और अगले ही क्षण उनके उदर पर वार किया। चालुक्यराज ने किनारे हटकर बचने का प्रयास किया, किन्तु नरसिंहवर्मन की तलवार उनकी कमर में घुस ही गयी। किन्तु कमर में हुआ ये गहरा घाव चालुक्यराज के लिये आघात कम और वरदान अधिक सिद्ध हुआ। उन्होंने तत्काल ही अपनी ढाल फेंक नरसिंहवर्मन की तलवार को अपनी बांह में जकड़ लिया और पूर्ण बल से अपनी तलवार घुमाते हुए अपने प्रतिद्वंदी के बायें हाथ पर प्रहार किया। ढाल संभाले नरसिंहवर्मन का हाथ कटकर भूमि पर गिर गया, और इससे पूर्व वो उस पीड़ा से उबर पाते चालुक्यराज की तलवार उनके कण्ठ की ओर बढ़ी और उस पर बंधे लौह कवच को तोड़ते हुए पल्लवराज की श्वास नली चीरकर बाहर निकली।

महामल्ला के नाम से विख्यात नरसिंहवर्मन के नेत्रों से लेकर मुख तक में रक्त उतर आया और अपनी अंतिम श्वास भरने को वो धरा पर गिर पड़े।

“चालुक्यराज ‘विक्रमादित्य’ की जय हो।” गुहिलवंशी योद्धा नागादित्य ने अपनी तलवार उठाकर हुंकार भरी।

अपने माथे पर लगे रक्त को पोछते हुए वीर चालुक्यराज ‘विक्रमादित्य’ ने अपनी कमर में धँसी तलवार खींचकर निकाली और आगे बढकर सम्मान सहित वो तलवार भूमि पर गिरे नरसिंहवर्मन की छाती पर रखकर उन्हें प्रणाम किया। अंत समय में शत्रु की दृष्टि में सम्मान देख पल्लवराज ने संतुष्ट होकर अपने नेत्र सदा के लिये मूँद लिये। श्वास भरते हुए विक्रमादित्य ने अपना शंख निकाला और उसे फूँकते हुए अपनी विजय की घोषणा की।

“हर हर महादेव।” शिवादित्य ने हुंकार भरी। वहीं नागादित्य भी चलकर चालुक्यराज के निकट आया और उनका हाथ उठाकर उद्घोष किया, “महामल्ला संहारक राजमल्ला चालुक्यराज विक्रमादित्य की जय हो।”

नागादित्य सहित चालुक्यों की इस हुंकार को सुन पल्लव योद्धाओं ने शस्त्र गिराने आरम्भ कर दिये। घायल अवस्था में चालुक्यराज चलकर नागादित्य और शिवादित्य के निकट आये और मुस्कुराते हुए कहा, “बहुत थकावट भरा दिन था आज। शिविर लगवाने की व्यवस्था आरम्भ करें?”

शिवादित्य और नागादित्य ने मुस्कुराते हुए सहमति में सिर हिलाया।

******

रात्रि में अग्नि की लौ प्रज्ज्वलित करते हुए शिवादित्य ने सामने बैठे अपने अनुज नागादित्य से प्रश्न किया, “महाराज भूमि पर घायल पड़े अपने जीवन के लिये संघर्ष कर रहे थे, फिर तुम्हें इतना विश्वास कैसे था कि वो सफल होंगे ?”

नागदित्य ने मूली चबाते हुए पूर्ण विश्वास से कहा, “क्योंकि भूमि पर गिरे होने के उपरान्त भी मैंने उनके नेत्रों में तनिक सा भी संदेह अनुभव नहीं किया। उनके सामर्थ्य से तो हम परिचित हैं ही, तो भला पल्लवराज उनके आगे कितने देर टिकते?”

“यही भूल मैंने भी की थी।” तभी हाथ में एक पात्र लिये राजा विक्रमादित्य भी वहाँ पहुँचे। नागादित्य और शिवादित्य उनके सम्मान में उठ खड़े हुए। चालुक्यराज ने उन्हें बैठने का संकेत दिया और वहीं अग्नि के लौ के पास बैठ गये। अपने घावों पर उपचार लेप लगवाकर विक्रमादित्य ने उस पात्र में रखे द्रव्य की चुस्की लेते हुए भौहें सिकोड़ीं और उसे भूमि पर रखकर खीजते हुए कहा, “ये वैद्य लोग स्वादिष्ट औषधि क्यों नहीं बनाते?”

श्वास भरते हुए विक्रमादित्य ने आगे कहा, “हाँ तो मैं ये कह रहा था कि मुझे ये तो ज्ञात था कि महामल्ला के नाम से विख्यात महाराज नरसिंहवर्मन से द्वन्द करना सरल नहीं होगा, और इसी प्रयास में मैं घायल भी हुआ। लेकिन नागादित्य ने जो कहा वो भी शत प्रतिशत सत्य है कि मेरे इस आत्मविश्वास ने ही मेरा बल इतना बढ़ाया था कि मेरा आत्मसम्मान उस अश्व द्वारा कुचला जाना स्वीकार नहीं कर सकता था। बाकि नरसिंहवर्मन तो एक उच्च कोटि के योद्धा थे ही।”

“कहा था न।” नागादित्य ने एंठते हुए एक और मूली चबाई।

मुस्कुराते हुए शिवादित्य भी अंगीठी की लकड़ी ठीक करने लगा, “उचित होगा महाराज कि आप अपनी औषधि पूरी पी लें, योद्धाओं का जीवन संकटों से अछूता नहीं होता।”

भौहें सिकोड़ते हुए विक्रमादित्य ने पात्र में रखी औषधि की ओर देखा, और उसे उठाकर अपनी नाक पर हाथ रखते हुए पूरा पी गये। पात्र को भूमि पर रख चालुक्यराज ने उन दोनों भाईयों की ओर देखा, “वैसे सत्य कहूँ तो तुम दोनों के बिना ये विजय सम्भव नहीं थी। अद्भुत शौर्य का प्रदर्शन किया शिवादित्य, और ये तुम्हारा अनुज केवल उन्नीस वर्ष का है किन्तु पहले ही युद्ध में ऐसी अमिट छाप छोड़ी जो इस जन्म में तो भुलाये नहीं भूलेगी।”

शिवादित्य ने अपने अनुज की पीठ थपथपाते हुय गर्व से कहा, “सत्य कहा आपने, महाराज। हम तो असहाय बालक थे, जो परमारों के आक्रमण में अपने समस्त परिवारजनों को खो चुके थे। आपने हमें ना केवल शरण दी अपितु अपने ही पुत्र युवराज ‘विनयादित्य' के बराबर का सम्मान भी दिया। उस कृपा के बिना आज हम यहाँ नहीं होते। अपने शरणदाता के लिये प्राण अर्पण करना भी हम अपना सौभाग्य ही समझेंगे, महाराज।” शिवादित्य ने भी श्वास भरते हुए वहाँ रखे कुछ पत्ते रगड़े और अपने शरीर पर लगे सूक्ष्म घावों पर मले।

“आशा है, इस विजय के उपरान्त आपके हृदय को असीम शांति मिली होगी, महाराज।” नागादित्य उनकी ओर देख मुस्कुराया।

विक्रमादित्य मुस्कुराये, “अभी अभियान पूरा नहीं हुआ है। दशकों पूर्व जब पल्लवराज नरसिंहवर्मन ने रण में हमारे पिता महाराज पुलकेशी का वध करके हमारी मातृभूमि को हमसे छीना था, तब से चालुक्यों के जीवन का एक ही उद्देश्य था कि हम अपनी राजधानी बादामी को पुनः प्राप्त करें। हमारे ज्येष्ठ भ्राता आदित्यवर्मन, अभिनवादित्य, चंद्रादित्य, सभी ने हमारी मातृभूमि की मुक्ति के लिए बलिदान दिया। और राजा बनने के पच्चीस वर्षों के उपरान्त बादामी को वापस पाने के प्रथम चरण में हम सफल हुए हैं। आज पल्लवों के घर में घुसकर उनकी सबसे बड़ी शक्ति कांचीपुरम पर विजय प्राप्त कर हम अपने उद्देश्य में लगभग सफल हो चुके हैं। किन्तु जब तक हम बादामी के महल पर अधिकार नहीं करते, हमारे पिता और भ्राताओं का बलिदान सफल नहीं होगा। अब हृदय की ये अग्नि तो वहीं जाकर शांत होगी।”

“कांचीपुरम में परास्त होने के उपरान्त पल्लवों की सबसे बड़ी शक्ति धूमिल हो चुकी है, महाराज। बादामी की सेना को कांचीपुरम के युद्ध में लाकर नरसिंहवर्मन ने वैसे ही बहुत बड़ी भूल कर दी। आशा है वहाँ पहुँचकर हमें अधिक प्रतिरोध का सामना नहीं करना पड़ेगा।” नागादित्य ने विश्वास से भरकर कहा।

“मेरा तो सुझाव है कि हम कल प्रातः काल ही बादामी की ओर निकल पड़ें।” शिवादित्य ने भी अपनी सहमति की मुहर लगाई।

शीघ्र ही पगड़ी और कवच धारण किये एक योद्धा ने वहाँ आकर विक्रमादित्य को प्रणाम किया।

“सेनापति ‘भुजंगनाथ?’ आप इतनी रात गये यहाँ क्या कर रहे हैं ?” उसे देख विक्रमादित्य ने आश्चर्यपूर्वक प्रश्न किया।

“बादामी के विषय में एक बहुत ही आवश्यक सूचना देने आया हूँ, महाराज। वहाँ के समीकरण में बहुत बड़ा परिवर्तन आने को है। हमारा वहाँ जाना उचित नहीं होगा।” यह सुनकर तीनों योद्धा आश्चर्य में पड़ गये और उठकर भुजंगनाथ के निकट आये। विक्रमादित्य ने उससे कठोर स्वर में प्रश्न किया, “ये क्या प्रलाप कर रहे हो, भुजंगनाथ?”

“मेवाड़ की सेना बादामी की ओर चल चुकी है, महाराज। हमारे वहाँ पहुँचने पर पल्लव हमारे आगे भले ही समर्पण कर दें, किन्तु चित्तौड़ के परमारों की सेना का सामना करने का सामर्थ्य हममें नहीं है।”

भुजंगनाथ के मुख से परमारों का नाम सुनकर शिवादित्य और नागादित्य दोनों की मुट्ठियाँ भिंच गयीं। विक्रमादित्य ने क्षणभर में ही उन दोनों के मुख भाव को पढ़ लिया। अपने परिवार का नाश करने वाले शत्रु का नाम सुन किसी की भी भुजाएँ फड़क उठतीं। विक्रमादित्य ने उन दोनों का कंधा पकड़ स्वयं को नियंत्रित करने का संकेत दिया। दोनों गुहिलवंशियों ने कुछ क्षणों के लिये अपने नेत्र बंद कर लहू का घूँट पी लिया। तत्पश्चात विक्रमादित्य भुजंगनाथ के निकट गये, “कितनी दूर है मेवाड़ की सेना ?”

“उन्हें बादामी की सीमा में प्रवेश करने में सात दिवस के आसपास का समय लग सकता है, महाराज। इसलिए उचित यही होगा कि हम कांचीपुरम पर ही रुक जायें, और इसे ही अपनी राजधानी बना लें।” भुजंगनाथ ने सुझाव दिया।

“बहुत बड़ी मूर्खता होगी ये।” ये स्वर सुन चारों योद्धा पीछे पलटे। अश्व पर आरूढ़ हुआ एक वीर वहाँ पहुँच आया। उस अद्भुत कदकाठी वाले पुरुष की ओर देख भुजंगनाथ ने भी अपना मस्तक झुका लिया। शस्त्रों को अपने अश्व की पीठ पर टांग वो वीर चालुक्यराज विक्रमादित्य की ओर बढ़ा और उनके चरण स्पर्श किये, “अभियान सफल हुआ, पिताश्री। ममल्लापुरम में शासन कर रहे पल्लवराज नरसिंहवर्मन के पुत्र युवराज महेंद्रवर्मन अब हमारे बंदी हैं।”

“यशस्वी भव, युवराज विन्यादित्य।” आशीर्वाद देते हुए विक्रमादित्य ने अपने पुत्र को उठाकर गले से लगा लिया, “तुमने हमारे मार्ग की अंतिम बाधा भी दूर कर दी।” नागादित्य और शिवादित्य ने भी अपने युवराज का अभिनंदन किया।

“एक क्षण पिताश्री।” युवराज विन्यादित्य अपने पिता से आज्ञा लेकर भुजंगनाथ के निकट आये, “तो तुम चाहते हो कि हम परमारों से भय खाकर अपनी मातृभूमि का त्याग कर दें? जिसके लिये हम दशकों से संघर्ष कर रहे हैं ?”

युवराज के नेत्रों का संताप देख भुजंगनाथ के पसीने छूट गये, “मैंने तो बस सुझाव दिया है, महामहिम। निर्णय तो महाराज का है।”

युवराज विन्यादित्य अपने पिता सहित वहाँ उपस्थित दोनों गुहिल योद्धाओं की ओर मुड़े जिनके मुख पर अब भी एक शिकन तक न थी, “प्रतीत नहीं होता कि तुम्हारे अतिरिक्त कोई और परमारों से भयभीत है। महाराज का निर्णय मैं अंत में सुनूँगा। पहले मैं हमारे सबसे विश्वस्त गुहिलवंशी योद्धाओं की राय जानना चाहूँगा।”

उनका संकेत समझकर शिवादित्य आगे आया, “कांचीपुरम का युद्ध केवल पल्लवों की सैन्य शक्ति को दुर्बल बनाने के लिये किया गया था, महामहिम। चूंकि ये मातृभूमि पल्लवों की है इसलिये इसे चालुक्यों की राजधानी बनाने पर आये दिन विद्रोह का संकट बना रहेगा। हमारी योजना तो यही थी कि इन्हें परास्त कर यहाँ एक ऐसा शासक बिठाया जाये जो हमें संधि का वचन दे और जिसे यहाँ की प्रजा मन से अपना राजा स्वीकार कर सके। इसलिए सामने चाहें जो संकट आये, मैं बादामी की ओर प्रस्थान करने के समर्थन में हूँ।”

नागादित्य ने भी अपने ज्येष्ठ का समर्थन किया, “अब ये युद्ध आर या पार का होगा। मेरा सुझाव है कि कल ही कल हम पल्लवों के ऐसे शासक को कांचीपुरम के सिंहासन पर बिठायें जो हमसे संधि को सहमत हो। इसके उपरान्त हम पल्लवों और चालुक्यों की सम्मिलित सेना लेकर बादामी की ओर निकलें। अगर हम कल संध्या तक भी प्रस्थान करने में सफल हो गये तो मेवाड़ की सेना से एक दिन पूर्व बादामी के महल पहुँच जायेंगे।”

“किन्तु एक दिन में एक विश्वासपात्र व्यक्ति को ढूँढकर उसे कांचीपुरम के सिंहासन पर बिठाना और पल्लवसेना को अपने साथ ले जाने को मनाना कैसे सम्भव है?” विक्रमादित्य ने प्रश्न किया।

श्वास भरकर भुजंगनाथ को घूरते हुए नागादित्य ने कहा, “पल्लवों के राजा नरसिंहवर्मन का पुत्र महेंद्रवर्मन हमारा बंदी है। पल्लवों की आधी सेना के बदले हम उस महेंद्रवर्मन' को कांचीपुरम का सिंहासन सौंप देंगे।”

वो प्रस्ताव सुन भुजंगनाथ की अनायास ही हँसी छूट गयी। किन्तु शीघ्र ही सभी योद्धाओं ने उसे घूरकर देखा और वो तत्काल ही सहम गया। तत्पश्चात चालुक्य युवराज विन्यादित्य ने भी कुछ क्षण विचार कर सहमति जताते हुए कहा, “वर्षों के उपरान्त ऐसा अवसर आया है कि हमें अपनी , मातृभूमि वापस मिल सके। हमारे पास योग्यता की परीक्षा लेने का समय नहीं है। मुझे तो नागादित्य के इस सुझाव के अतिरिक्त और कोई मार्ग दिखाई ही नहीं पड़ता।” वो अपने पिता की ओर मुड़े, “आपकी क्या राय है, महाराज?”

विक्रमादित्य ने कुछ क्षण भौहें सिकोड़ विचार किया, “सम्भव है हमारे इस कदम से भविष्य में हम कांचीपुरम पर पूरी तरह से नियंत्रण खो दें। किन्तु मातृभूमि लौटने का इससे उचित अवसर नहीं मिलेगा।” कहते हुए विक्रमादित्य ने बारी-बारी से विन्यादित्य, नागादित्य और शिवादित्य के नेत्रों में देख उनके दृढ़ संकल्प का अनुमान लगाने का प्रयास किया, “यदि तुम तीनों को पूर्ण विश्वास है कि तुम वहाँ पहुँचकर एक दिन में मेवाड़ से युद्ध करने की तैयारी कर सकते हो, तो समय नष्ट न करो।”

“जो आज्ञा, महाराज।” तीनों ने एक साथ कहा। तत्पश्चात विक्रमादित्य ने भुजंगनाथ की ओर देख कठोर स्वर में कहा, “तुम जा सकते हो, भुजंगनाथ। आइंदा से अपनी मर्यादा भंग करने का प्रयास न करना।”

“क्ष.. क्षमा, महाराज।” भुजंगनाथ वहाँ से प्रस्थान कर गया।

विन्यादित्य के साथ दोनों गुहिलवंशी योद्धाओं ने महेंद्रवर्मन के शिविर की ओर प्रस्थान किया। उन दोनों के जाने के कुछ ही क्षणों के उपरान्त दो बालक वहाँ दौड़ते हुए आये और उन्होंने एक साथ विक्रमादित्य को पुकारा, “पितामह।”

दस वर्ष की आयु के प्रतीत हो रहे उन दोनों बालकों की ओर देख विक्रमादित्य का मन प्रफुल्लित हो उठा। दौड़ते हुए वो दोनों बालक अपने दादा से आ लिपटे। विक्रमादित्य ने प्रसन्न होकर अपने उन पौत्रों की पीठ सहलाई। तभी उनमें से छलांग मारकर उनकी बाजू पर लटक गया। दूसरे को खड़ा देख विक्रमादित्य ने कहा, “जयसिम्हा तो लटक गया, अब तुम्हें किस बात का संकोच है पुत्र ‘विजयादित्य’। आ जाओ, अभी तुम्हारे पितामह का भुजबल समाप्त नहीं हुआ।”

खिलखिलाते हुए विजयादित्य नाम का वो दूसरा बालक भी उनकी भुजा से लटक गया। उन दोनों को भुजा से उठाकर विक्रमादित्य ने उन्हें अपने कंधे पर बैठा लिया और हँसते हुए आगे बढ़े, “आज तुम दोनों अपने पितामह के साथ ही सोओगे। कल प्रातः काल ही हमें एक लम्बी यात्रा पर निकलना है।”

अपने दोनों पौत्रों को कंधे पर उठाकर चलते विक्रमादित्य को अकस्मात ही अपनी पीठ में पीड़ा का आभास हुआ। उनकी सिकुड़ती भौहें देख विजयादित्य ने प्रश्न किया, “आप ठीक तो हैं, पितामह?”

“हाँ, हाँ, मैं स्वस्थ हूँ। बस ये युद्ध की थकान है।” छाती चौड़ी कर विक्रमादित्य दोनों बालकों को अपने शिविर के निकट ले गये, उन्हें अपने कंधे से उतारा और उन्हें अंदर जाने का संकेत दिया।

उनके भीतर जाने के कुछ क्षणों उपरान्त विक्रमादित्य ने अपनी पीठ की ओर हाथ डाला, तो स्वयं के हाथों को रक्त से सना पाया। कदाचित उनका कोई घाव फट गया था, अकस्मात ही उनके बायें हाथ में कंपन भी आरम्भ हो गया। उन्होंने अपने उस हाथ को थामकर लम्बी और गहरी श्वास भरते हुए किसी प्रकार उस कंपन को नियंत्रित किया।

******

अर्धरात्रि का समय था। विन्यादित्य के साथ दोनों गुहिलवंशी भ्राता चालुक्य सैनिकों से घिरे एक शिविर के निकट पहुँचे। भीतर घुसने पर एक युवक को शय्या पर लेटे हुए पाया जिसके पाँव बेड़ियों से जकड़े हुए थे। नागादित्य ने उसकी ओर कदम बढ़ाया ही था कि उस युवक ने तपाक से कटार निकाल उस पर आक्रमण किया, नागादित्य बड़ी ही सफाई से बचा और उसकी कटार पकड़ उसे शय्या पर लिटाकर उसकी छाती को अपनी कोहनी से दबा दिया, “धीरज रखिये, युवराज महेंद्रवर्मन। हम आपको हानि पहुँचाने नहीं आये।” 

नागादित्य के बल के आगे स्वयं को विवश पाकर महेंद्र शांत हो गया। उसे छोड़कर नागादित्य पीछे आया। लम्बे केशों से युद्ध में मिले अपने मुख के घावों को छुपाये महेंद्रवर्मन ने विन्यादित्य की ओर घूरकर देखा, “अब क्या चाहिए तुम्हें, चालुक्य युवराज?” 

“संधि वार्ता की आशा लेकर आये हैं हम।”

विन्यादित्य के वचन सुन महेंद्र ने शय्या से उठकर मुट्ठियाँ भींचते हुए बाकि दोनों गुहिलवंशियों को भी घूरकर देखा, “युद्धबंदी से संधि ? ऐसी क्या विपदा आन पड़ी, युवराज विन्यादित्य?”

विन्यादित्य आगे आये और युवराज महेंद्रवर्मन के नेत्रों से उसकी मनोदशा को जाँचने का प्रयत्न किया, “विपदा कहिये या समय की माँग, सत्य तो यही है कि जो सुख अपनी मातृभूमि देती है वो संसार के सारे सुखों के आगे निरर्थक है। इसलिए हम आपके लिये एक प्रस्ताव लेकर आये हैं, पल्लव युवराज। पल्लवों की आधी सेना को हमारे समक्ष समर्पण करने का आदेश देकर बादामी के किले पर शासन करने वाले अपने प्रतिनिधि 'स्वयंभू' को हमारी राजधानी लौटाने का संदेश दीजिए। इसके एवज में हम आपको कांचीपुरम में अपना प्रतिनिधि स्वीकार करने के लिये सज हैं।”

क्षणभर को तो महेंद्र आश्चर्य में पड़ गया। फिर उसने युवराज से प्रश्न किया, “आपकी सेना तो बड़ी ही सरलता से स्वयंभू से बादामी का किला जीत सकती है। तो फिर इस शत्रु पर ये उपकार क्यों?”

“कहा न, ये बस समय की माँग है, युवराज। इसमें आपका भी लाभ है, और हमारा भी।”

“शत्रु के दासत्व में बंधने को मैं लाभ नहीं मानता, युवराज विन्यादित्य।”

“दासत्व नहीं, युवराज। पल्लवराज आप ही कहलायेंगे, और केवल कर देने के भागी होंगे।” चालुक्य युवराज ने उसे विश्वास दिलाने का प्रयास कीया।

“अर्थात कर प्राप्त करने के लिये आपके कुछ अधिकारी अपने सैन्यदलों के साथ हमारे राज्य में निवास करेंगे न?” श्वास भरते हुए महेंद्र शय्या पर बैठा और विन्यादित्य पर कटाक्ष करते हुए बोला, “बहुत बड़ी विवशता रही होगी आपकी, जो आप मुझसे संधि को आ गये। पहले मुझे पूर्ण सत्य से अवगत कराईये, फिर मैं अपना प्रस्ताव सुनाऊँगा।”

महेंद्रवर्मन का ये अहंकार देख विन्यादित्य की मुठ्ठियाँ भिंच गयीं। शिवादित्य ने उनके कंधे पर हाथ रख उन्हें धीरज धारण करने का संकेत दिया। वहीं महेंद्र उन्हें कटाक्षमय दृष्टि से देखता रहा, “विचार कर लीजिए, चालुक्य युवराज। क्योंकि मुझसे अधिक विवश तो आप लग रहे हैं।”

विन्यादित्य ने क्षणभर को अपने दोनों मित्रों की ओर देखा और उनकी सहमति का संकेत पाकर कहा, “चित्तौड़ से परमारों की सेना बादामी की ओर बढ़ रही है। इससे पूर्व कि बादामी पर परमारों का अधिकार हो जाये, हमें वहाँ पहुँचकर किले पर अधिकार करना होगा। एक बार बादामी का किला हमारे आधीन हो गया, फिर चित्तौड़ की सेना हम पर विजय प्राप्त नहीं कर पायेगी।”

“और आपको लगता है कि संकट समय में मैं अपने पिता के हत्यारे की सहायता करके उनके बलिदान का अपमान करूँगा।” दाँत पीसते हुए महेंद्र विन्यादित्य के निकट आया, “असम्भव। बल्कि मुझे तो प्रसन्नता है कि आप स्वयं मृत्यु के मुख में जा रहे हैं। मैं भला अपने शत्रुओं का रक्षक क्यों बनूँगा? मुझे तो कुछ दिन बंदी बने रहने का विचार अति उत्तम दिखाई पड़ता है।”

“एक बार पुनः विचार कर लो, महेंद्रवर्मन।” विन्यादित्य के स्वर में कठोरता आ गयी, “क्योंकि यदि हमारी विजय की संभावना नहीं हुई तो हम कांचीपुरम छोड़कर नहीं जायेंगे। कांचीपुरम चालुक्यों की राजधानी बन जायेगी और पल्लव वंश का अस्तित्व सदा-सदा के लिये मिट जायेगा।” कहते हुए विन्यादित्य ने नरसिंहवर्मन के उस पुत्र का कंधा पकड़ उसे शांति समझाने का प्रयास किया, “स्मरण रहे कि मातृभूमि सदैव आदरणीय होती है, ऐसा सुख कहीं और प्राप्त नहीं होता जो ये भूमि देती है। युद्ध की बलि वेदी रक्त पीये बिना शांत नहीं होती, युवराज। हर संग्राम न जाने दोनों पक्षों के कितने रणबांकुरों के प्राणों सहित उनके परिवार के सारे सुख लील जाता है। और आने वाले दिनों में न जाने कितने ऐसे संग्राम होते ही रहेंगे, और समरांगण का बलिकुठार न जाने कितने और शीश मांगेगा। हत्या नहीं हुई है तुम्हारे पिता की, एक न्याय पूर्ण द्वन्द करते हुए वीरगति पाई है महामल्ला नरसिंहवर्मन ने। यदि हर व्यक्ति तुम्हारी ही भाँति मन में निजी प्रतिशोध को लिये बैठा रहा, तो संसार में कभी शांति स्थापित नहीं हो सकेगी। अब चुनाव तुम्हारा है कि हाथ आये इस अवसर का लाभ उठाते हुए तुम अपने रणवीरों के बलिदान को सार्थक बनाकर उनके शौर्य को मान देना चाहते हो या अपने अहंकार में समग्र पल्लव वंश को अंत की ओर ले जाते हो।”

महेंद्रवर्मन ने कुछ क्षण विचार किया, फिर दाँत पीसते हुए बोला, “आप भी तो अपने पूर्वज महाराज पुलकेशी की मृत्यु के प्रतिशोध के लिये ही हमसे युद्ध करते आये हैं। फिर आप किस मुख से मुझे प्रतिशोध पर प्रवचन दे रहे हैं?”

“कांचीपुरम तुम पल्लवों की सबसे बड़ी शक्ति थी और इसे पराजित करके ही तुम्हें दुर्बल बनाया जा सकता था ताकि बादामी को समर्पण के लिये विवश किया जा सके। तो हमने जो भी किया, अपनी मातृभूमि को पाने के लिये किया, तुम्हारी इस भूमि में हमें कोई रुचि नहीं है।”

विन्यादित्य का तर्क सुन महेंद्र कुछ क्षण मौन हो गया। फिर श्वास भरते हुए अपना निर्णय सुनाया, “यदि आपको अपनी मातृभूमि से प्रेम है, तो हमें भी अपनी स्वतंत्रता अत्यंत प्रिय है। इस युद्ध में पराजित होने के पारितोषक के रूप में मैं पल्लवराज बनकर आपको अपनी आधी सेना सौंपने के लिये तैयार हूँ। किन्तु शत्रु का आधिपत्य या उससे कोई भी सम्बन्ध रखना, हमें स्वीकार नहीं। पल्लवों का सत्तर सहस्त्र का सैन्य दल अगले दस वर्षों तक आपकी सहायता करेगा। उसके उपरान्त हमारी सेना हमारे पास लौट आएगी। उसके अतिरिक्त हमारा और आपका कोई सम्बन्ध नहीं होगा। यदि आपको ये प्रस्ताव स्वीकार है तो ठीक, अन्यथा मैं बंदीगृह चलने को तैयार हूँ।”

विन्यादित्य की तनी हुई भौहें देख नागादित्य ने उनके कान में धीरे से कहा, “इस युवराज की हठ पर विजय पाने का समय हमारे पास नहीं है, महाराज। हमें सेना की आवश्यकता है।”

नागादित्य का सुझाव मान चालुक्य युवराज ने कुछ क्षणों तक महेंद्रवर्मन को घूरा, “ठीक है युवराज महेंद्रवर्मन। यदि आप अपने कथन को निभाने का वचन देते हैं तो हम आपको पल्लवराज के रूप में स्वीकार करने को सज हैं।”

महेंद्र ने भी आगे आकर दृढ़ता पूर्वक कहा, “दिया वचन। इस आशा के साथ कि आने वाले कुछ दशकों तक पल्लवों और चालुक्यों में शांति बनी रहेगी। आज सिंहासन पर विराजमान होते ही मैं अपनी सेना को आपके साथ कूच करने का आदेश दे दूँगा और साथ ही स्वयंभू को बादामी का किला लौटाने का भी संदेश भेज दिया जायेगा।”

विनम्रतापूर्वक कहे महेंद्र के ये वचन सुन विन्यायादित्य ने अपनी कटार निकाली और आगे बढ़कर महेंद्रवर्मन के पैरों की बेड़ियाँ काट डालीं, “हमें भी यही आशा है कि कम से कम हमारी पीढ़ी में ये शांति बनी रहे। शीघ्र ही आपका राजतिलक होगा।”

******

सूर्योदय होने को था। महाराज विक्रमादित्य के साथ उनके पुत्र विन्यादित्य और शेष दोनों गुहिलवंशी शिष्य नदी के तट के निकट सूर्यवंदना में लीन थे। पूजन समाप्त होने के उपरान्त शिवादित्य और विन्यादित्य तो प्रस्थान कर गये किन्तु विक्रमादित्य ने नागादित्य को हाथों से संकेत करते हुए कहा, “तुम तनिक तट पर ही रुको, नागादित्य। कुछ वार्ता करनी है।”

सहमति जताते हुए नागादित्य वहीं रुक गया। सूर्य की ओर देख अंतिम अर्घ देकर चालुक्यराज नदी से बाहर आये और तट पर नागादित्य के साथ ही बैठ गये, “परमारों का नाम सुनकर रक्त में उबाल तो बहुत आया होगा तुम्हारे, क्यों?”

नागादित्य ने मुस्कुराते हुए कहा, “आया तो था, महाराज। किन्तु वर्षों से आपके साथ जो संयम धारण करने का अभ्यास किया है उस विद्या का अपमान कैसे कर सकता था?”

चालुक्यराज के मुख पर भी मुस्कान खिल गयी थी, “स्मरण है हमें जब बारह वर्ष पूर्व तुम लोग हमारे पास आये थे। उस समय हम भी छुप-छुप कर कन्दराओं में जीने को विवश थे। तुम दोनों बालक तो जैसे सद्भाग्य बनकर आये थे हमारे लिए। तुम्हारे आते ही हमने अपना पहला नगर जीतकर वहाँ शासन जमाया और सम्मान से जीना आरम्भ किया। फिर वहीं विन्यादित्य का विवाह हुआ और दोनों की शिक्षा का आरम्भ भी। फिर छोटे-छोटे नगरों को जीतते -जीतते बारह वर्ष यूँ ही बीत गये और हम अपनी मातृभूमि को पुनः प्राप्त करने के समीप आ पहुँचे। पहले तुम्हारे भ्राता शिवादित्य ने कई युद्धों में हमारी विजय पताका फहराई और आज तुमने अपने पहले ही युद्ध में अद्भुत पराक्रम का प्रदर्शन किया। यदि तुम दोनों नहीं होते तो कदाचित हम पिता पुत्र के लिए ये स्वप्न पूर्ण करना सम्भव नहीं होता।”

“हमें भी तो अपने जीवन को सार्थक बनाना ही था। और अपने शरणदाता के स्वप्न पूर्ति में सहायता करने से उत्तम मार्ग और क्या हो सकता था?”

“तर्क तो उचित है तुम्हारा।” श्वास भरते हुए विक्रमादित्य जल धारा की ओर देखने लगे। अपने महाराज रूपी गुरु को उदविघ्न हुआ देख नागादित्य ने एक कंकड़ का एक टुकड़ा उठाया और उसे जल में कुछ यूँ फेंका की वो तीन छपाक मारता हुआ आगे जाकर डूब गया।

उस कंकड़ की ओर देख नागादित्य ने कहा, “स्मरण है महाराज, आप बालपन में कहा करते थे कि स्थिर हुए जलाशय का जल एक न एक दिन विषैला अवश्य हो जाता है। वहीं जिस नदी की धारा लगातार बहती रहे वो न जाने तुम कितने ही विषैले पौधों से गुजर जाये उसके विष को ग्रहण नहीं करती। हाँ उन पौधों को कुछ क्षणों के लिये स्वच्छ अवश्य कर देती है।”

विक्रमादित्य ने मुस्कुराते हुए कहा, “मनुष्य का मन भी इसी प्रकार का होता है। वो प्रतिशोध हो, क्रोध हो या कोई और दुर्गुण। यदि परिस्थतियों का एक से अधिक दृष्टिकोण से विचार किये बिना उसका मन एक ही कटुता पर स्थिर हो गया, तो स्थिरता का वो विष उसके मन सहित उसके समूचे अस्तित्व को निगलने की क्षमता रखता है। वहीं जिस वीर का मन एक ही स्थिति को भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण अनुसार परखकर निर्णय लेने की क्षमता रखता हो, वो भले ही असफल हो जाये, किन्तु उसका मन कभी उसके अस्तित्व से द्रोह नहीं करता और ऐसे वीर का आत्मविश्वास शेष मनुष्यों से कहीं अधिक होता है। ऐसे विचारों वाला मनुष्य सदा अपने लोगों के पास रहकर उन्हें जीवन की सार्थकता का ही अनुभव करवाता है, भले ही वो लोग कितने ही निराशावादी क्यों न हों।”

नागादित्य ने सहमति जताते हुए कहा, “साथ ही ज्ञान अर्जित करने के संदर्भ में भी कुछ ऐसा ही कहा जा सकता है। यदि कोई भी मनुष्य जीवन के किसी भी पड़ाव पर ये मान ले कि वो ज्ञानी हो चुका है तो उसकी स्थिरता से जन्में अहंकार का वो विष उसे निगल जायेगा। वहीं वो स्वयं को अज्ञानी समझ जल की धारा के समान किसी भी दिशा में जाकर ज्ञान अर्जित करने का प्रयास करे, तो क्या पता मार्ग में मिलने वाले कितने ही निरर्थक जीवन को प्रकाश से भर दे। ज्ञान का स्त्रोत तो कोई भी हो सकता है, आखिर सुमित्रा नंदन ने भी तो अंत समय में दशानन से ज्ञान अर्जित किया ही था।”

“हाँ, ये भी सत्य है।” गुरु विक्रमादित्य मुस्कुराये, “किन्तु इस समय मेरा मन्तव्य केवल दृष्टिकोण पर चर्चा करने का है।”

“आप चिंतित मत होईये, गुरुदेव।” नागादित्य ने दृढ़तापूर्वक कहा, “इस समय हमारे जीवन का एक ही उद्देश्य है, और वो है आपको बादामी के सिंहासन पर बैठाना। अपने साथ मैं अपने ज्येष्ठ भ्राता शिवादित्य की ओर से भी वचन देता हूँ, कि मेवाड़ के परमारों से हमारा निजी प्रतिशोध इस उद्देश्य को प्रभावित नहीं करेगा।”

“तुम्हारे समर्पण का मैं सम्मान करता हूँ, वत्स नागादित्य। किन्तु मेरे शासन के दिन अब समाप्त हुए।” 
“अर्थात?” नागादित्य ने आश्चर्यभाव से प्रश्न किया, “आप ऐसा कह सकते हैं?”

नागादित्य की पीठ थपथपाते चालुक्यराज मुस्कुराये, “मेरा शरीर अब थक चुका है, पुत्र। घाव भरने की क्षमता भी कम हो गयी और रक्त की धमनियाँ भी थमना आरम्भ हो गयीं हैं।”

“ये..ये आप क्या कह रह हैं, गुरुदेव ?” नागादित्य भावुक सा हो गया।

“अरे चिंता मत करो, मृत्यु निकट नहीं है। किन्तु अब शक्ति क्षीण होने लगी है, इसलिए मेरी इच्छा है कि मेरे पुत्र विन्यादित्य के सिंहासन पर विराजने के उपरान्त तुम दोनों शासन संभालने में उसका साथ दो। मेरा अब बस एक ही कार्य है कि जब तक मैं जीवित हूँ, अपने विवेक अनुसार तुम सबका मार्गदर्शन करने का प्रयास करूँगा।”

 “अर्थात आप पुनः गुरु के पद पर आसीन होंगे?” श्वास भरते हुए नागादित्य ने जल की ओर देखा, “लगा नहीं था कि इतनी शीघ्र ये समय भी आ जाएगा। खैर अभी तो हमारे सामने परमारों की चुनौती है।”

“हाँ, बस शिवादित्य को नियंत्रण में रखने का प्रयास करना। उसका क्रोध अक्सर उसके मन पर हावी हो जाता है।” कहते हुए चालुक्यराज ने तट पर रखे पत्ते को उठाकर उसे यूँ ही देखने लगे।

वहीं नागादित्य कदाचित अब तक अपने गुरु के मुखभावों को पढ़ना सीख गया था, “आप कुछ और भी कहना चाहते हैं।”

श्वास भरते हुए गुरु विक्रमादित्य ने उस पत्ते को नदी में रखते हुए कहा, “इच्छा तो बस इतनी है कि कुछ भी करने से पूर्व तुम दोनों ये स्मरण अवश्य रखना कि तुम्हारे गुरुदेव ने अपना पूरा जीवन इसी एक क्षण की प्रतीक्षा में बिताया है।”

“ये बात हम दोनों न कभी भूलें हैं, ना कभी भूलेंगे।” नागादित्य ने दृढ़तापूर्वक कहा।

******

अश्व पर आरूढ़ हुआ एक सैनिक घने अंधकार में वनों को पार करता हुआ समतल मैदान में आया, जहाँ लगे हुए शिविरों की गिनती करना लगभग असम्भव प्रतीत हो रहा था। शिविर के रक्षक सैनिकों को देख उस सैनिक ने गुलाबी ध्वज निकालते हुए लहराया।

“महाराज का गुप्तचर है, जाने दो।” एक रक्षक सैनिक ने दूसरे से कहा। शीघ्र ही रक्षकों ने उस सैनिक का मार्ग खाली किया और उसे अपने नरेश के शिविर की ओर जाने का संकेत किया।

शिविर पहुँचकर उस सैनिक ने भीतर प्रवेश किया तो मेवाड़ नरेश मानमोरी को मदिरा का आनंद लेते हुए पाया। उस सैनिक को देख मानमोरी ने अपने मुख पर जल के छींटे मारे और उसके निकट आये, “क्या संदेश है भुजंगनाथ का?”

“चालुक्यों की सेना कल संध्या तक बादामी के किले में पहुँच जायेगी, महाराज। सेनापति भुजंगनाथ का संदेश है कि ऐसी स्थिति में चालुक्यों पर विजय प्राप्त करना सम्भव नहीं। उचित होगा कि आप मेवाड़ लौट जायें।”

उस सैनिक का संदेश सुन मानमोरी की मुट्ठियाँ क्रोध से भिंच गयीं। वो उस सैनिक की ओर बढ़े, “कहीं ऐसा तो नहीं कि उस भुजंगनाथ को मेरे दिये वचन पर अविश्वास है, कि बादामी में परमारों के प्रतिनिधि के रूप में सिंहासन पर वही विराजमान होगा। या फिर ऐसा तो नहीं कि अकस्मात ही उसके मन में मातृभूमि के प्रेम का उफान उठ गया हो।”

“सेनापति भुजंगनाथ की मंशा में कोई परिवर्तन नहीं आया है, महाराज। वो यही सुनिश्चित करने में लगे हुए थे कि चालुक्यसेना कांचीपुरम में ही रहे, किन्तु वे सफल न हो सके। अब समस्या ये है कि चालुक्यों और पल्लवों में हुए युद्ध और पल्लवों की पराजय के उपरान्त उनमें संधि हुई, जिसके उपरान्त पल्लवों का सत्तर सहस्त्र का सैन्यदल चालुक्यों के साथ आ रहा है।”

उस सैनिक की बात सुन मानमोरी ने अपने क्रोध को शांत करने का प्रयास किया और अपना मद उतारने के लिये पुनः अपने मुख पर जल के छींटे मारे, “हमारी सैन्य संख्या फिर भी चालुक्यों से अधिक है।” अपने मुख पर मुस्कुराहट लिये मानमोरी उस सैनिक की ओर बढ़े, “किन्तु मातृभूमि का प्रेम ही ऐसा होता है जो एक वीर की नसों में इतना शौर्य भर दे कि उसके मन से मृत्यु का भय निकल जाये। इसलिये यदि युद्ध हुआ तो परिणाम कदाचित हमारे पक्ष में ना हो।”

“मेरे लिये क्या आदेश है, महाराज?” उस सैनिक ने प्रश्न किया।

“संदेश सुना दिया न? बस तुम्हारा कार्य हो गया। भुजंगनाथ से कहो मैं शीघ्र ही उसे परिस्थिति के अनुसार अपनी योजना का संदेश भिजवाऊँगा।” कहते हुए मानमोरी ने उसे जाने का संकेत किया।

उस सैनिक के जाने के उपरान्त सन्देश भिजवाकर मानमोरी ने अपने सेनापति को अपने शिविर में बुलवाकर उसे आदेश दिया, “इतनी दूर आकर मेवाड़ की सेना लौटकर अपना अपमान नहीं करवा सकती। चालुक्यराज विन्यादित्य को हमारा संदेश दो।”

******

बादामी का महल
संध्या होने को थी। अपने कारवां के साथ चालुक्य युवराज विन्यादित्य स्थिर खड़े महल के द्वार को निहार रहे थे, “बड़ी भव्य जान पड़ती है हमारी जन्मभूमि।”

वहीं लगभग चार दशक के उपरान्त उस द्वार को देख विक्रमादित्य के नेत्रों में नमी सी आ गयी, “आज हमारे कुल के लाखों वीरों का बलिदान सफल हुआ।” अपने अश्व से उतर वो उस द्वार के निकट आये।

विन्यादित्य के साथ शिवादित्य और नागादित्य ने भी चालुक्यराज का अनुसरण किया और द्वार के निकट आकर खड़े हो गये। नगाड़ों की ध्वनि के साथ जैसे ही द्वार खुला, विक्रमादित्य ने श्रद्धापूर्वक चौखट पर अपना मत्था टेका, जिसका अनुसरण शेष तीनों योद्धाओं ने भी किया। “चालुक्यराज विन्यादित्य की जय हो।” सहस्त्रों वीरों की गर्जना के मध्य चारों योद्धाओं का पुष्पवर्षा से भव्य स्वागत हुआ।

शीघ्र ही छोटे से समारोह में एक सौ आठ ब्राह्मणों के मंत्रोंच्चारण के आशीर्वाद का कवच धारक चालुक्यराज विक्रमादित्य ने बड़े गर्व से अपने पुत्र विन्यादित्य के मस्तक को स्वर्णजड़ित मुकुट से अलंकृत किया। अपने उस वीर वंशज की जय जयकार सुन ऐसा जान पड़ा मानों उनकी आखिरी इच्छा पूर्ण हो गयी हो। पैंसठ वर्ष की आयु तक अपने मन मस्तिष्क और शरीर को सुदृढ़ बनाये गुरु विक्रमादित्य चैन की श्वास भरते हुए सिंहासन के निकट स्थित आसन पर विराजमान हो गये और अपनी दृष्टि में अपार संतोष का भाव लिये राजसभा के लोगों की ओर देखने लगे। नये महाराज को सिंहासन पर आसीन हुआ देख लगभग सभी सभासदों के मुख पर प्रसन्नता छाई दिखाई पड़ रही थी। वहीं चालुक्यराज पर पुष्प वर्षा करते हुए नागादित्य की दृष्टि सेनापति भुजंगनाथ के मुख पर छाई निराशा का कारण ज्ञात करने का प्रयास कर रही थी।

कुछ ही क्षणों उपरान्त एक सैनिक ने सभा में प्रवेश किया, “मेवाड़ का संदेशवाहक भेंट करने का इच्छुक है, महाराज।”

यह सुनकर विन्यादित्य की दृष्टि शिवादित्य की ओर मुड़ी। शिवादित्य ने उन्हें आश्वस्त करते हुए कहा, “शत्रु का सैन्य शिविर अभी सौ कोस से भी अधिक दूर है, महाराज। उनकी चाल अपेक्षा से धीमी थी। चिंता की कोई बात नहीं है। हमारी सेना को सज के लिए पर्याप्त समय है हमारे पास।”

विन्यादित्य ने सैनिक को संदेशवाहक को भीतर लाने का संकेत किया।

कुछ ही समय में संदेशवाहक नए चालुक्यराज के राज दरबार में प्रस्तुत हुआ और अपने हाथ में थमा पत्र खोल पढ़ना आरम्भ किया।

चालुक्यों के नए नरेश विन्यादित्य को परमार राज मानमोरी का प्रणाम। आपके सिंहासन आरूढ़ होने की सूचना तो हर जगह फैल चुकी है। वैसे आपको भी तो सूचना मिल ही गयी होगी कि चित्तौड़ की सेना आपके साम्राज्य की सीमा में प्रवेश कर चुकी है। हमारी आपसे कोई निजी शत्रुता नहीं है अपितु हम तो बादामी को उसके दुर्बल शासक स्वयंभू से मुक्त कराने आये थे। किन्तु हमारे वहाँ पहुँचने से पूर्व ही आपने बादामी पर अधिकार कर लिया। अब हमारी विडंबना ये है कि एक बार मेवाड़ की सेना किसी राज्य की सीमा में प्रवेश कर जाये तो वहाँ से युद्ध किए बिना खाली हाथ लौटकर अपनी प्रजा के समक्ष लज्जित तो नहीं हो सकती। और ये बात हमें भी ज्ञात है कि युद्ध हुआ तो भीषण नरसंहार होगा। तो कोई तो बीच का उपाय निकालना आवश्यक है। इसलिए हमारा प्रस्ताव है कि हम विजयपुरा में भेंट करके इस समस्या का कोई हल निकालें। आप अपनी सुरक्षा के लिये जितनी चाहें उतनी बड़ी सैन्य टुकड़ी ला सकते हैं, हमें कोई आपत्ति नहीं होगी। यदि आप प्रस्ताव को स्वीकार नहीं करते हैं, तो हमें अपने आत्मसम्मान की रक्षा के लिये बादामी के किले पर आक्रमण करना होगा। —नरेश मानमोरी,मेवाड़।

दूत ने अपना संदेश समाप्त किया और पत्र को वापस मोड़ा। चालुक्यराज मुट्ठियाँ भींचे गहन विचारों में लीन हो गये।

“संदेश का सीधा सा अर्थ यही है कि महिष्कपुर के कुछ राज्य हमारे सुपुर्द कर दो। इस प्रस्ताव को स्वीकार करना हमें दुर्बल सिद्ध कर देगा।” गुरु विक्रमादित्य क्रोध में थे।

“गुरुदेव सत्य कह रहे हैं, महाराज। मेवाड़ नरेश के आगे झुकना मुझे भी उचित जान नहीं पड़ता।” शिवादित्य ने भी गुरु विक्रमादित्य का समर्थन किया।

किन्तु नागादित्य के विचार कुछ और ही थे, “और यदि प्रजा को ये ज्ञात हुआ कि नये महाराज ने सिंहासन पर विराजते ही शांति का प्रस्ताव मिलने के उपरान्त भी उन्हें युद्धाग्नि में झोंक दिया, तो उन पर क्या प्रभाव पड़ेगा?”

चालुक्यराज ने भी कुछ क्षण विचार कर नागादित्य का समर्थन किया, “तर्क तो उत्तम है, पिताश्री। शांति का प्रस्ताव मिलने पर यदि हमने उसका प्रयास किये बिना ही युद्ध का शंखनाद किया तो कदाचित विजित होने पर भी प्रजा हमारा सम्मान नहीं करेगी।”

यह सुनकर गुरु विक्रमादित्य अपने पुत्र के निकट आये, “दशकों उपरान्त हम अपनी मातृभूमि लौटे हैं। स्मरण रहे कि हमारी सैन्यसंख्या भले ही उनसे कम हो, किन्तु युद्ध का प्रसंग उत्पन्न होने पर हम अब भी परमारों को परास्त करने की क्षमता रखते हैं।”

चालुक्यराज अपने सिंहासन से उठकर नीचे आये और अपने पिता के चरण स्पर्श किये, “आपका आशीष मुझे विफल नहीं होने देगा, पिताश्री। विश्वास रखिए, मैं मानमोरी को अपनी मातृभूमि का एक छोटा सा टुकड़ा भी नहीं ले जाने दूँगा। आज्ञा दीजिए।”

गुरु विक्रमादित्य ने गर्व से छाती फुलाकर अपने पुत्र की पीठ थपथपाई, “विजयी भव।”

******

विजयपुरा की रणभूमि
समतल मैदान में चालुक्यों और मेवाड़ की सेनाओं की एक-एक टुकड़ी लगभग तीन सौ गज की दूरी पर तैयार खड़ी थी। चालुक्यराज से भेंट करने जाने से पूर्व मानमोरी का सैन्यअधिपति उनके निकट आया, “सूचना पक्की है महाराज। भुजंगनाथ ने कहलवाया है कि दोनों गुहिलवंशी योद्धा सेनाओं की टुकड़ी लिए छोटे-छोटे राज्यों पर नियंत्रण पाने गये हैं, वो यहाँ उपस्थित नहीं हैं।”

मुस्कुराते हुए मानमोरी ने तीन सौ गज दूर खड़े चालुक्यराज की ओर देखा, “फिर तो युद्ध में हमारी विजय की संभावना अधिक है। चलो तनिक वार्ता का प्रयास तो कर लें चालुक्यराज से।” परमारराज अकेले ही आगे बढ़े।

राजा मानमोरी को अकेले आते देख चालुक्यों की ओर से महाराज विन्यादित्य भी अकेले ही बढ़े और सेनाओं के मध्य आये। दोनों राजाओं ने क्षण भर को एक-दूसरे को देखा फिर प्रणाम किया।

“कहिये महाराज मानमोरी, क्या प्रस्ताव है आपका?” विन्यादित्य ने विनम्र भाव से प्रश्न किया।

“जैसा कि हमने कहा था कि यहाँ तक आकर रिक्त हाथ लौटना सम्भव नहीं। तो हमारा प्रस्ताव ये है कि इस युद्ध को टाला जाये और चूंकि हम विजयपुरा तक आ चुके हैं, तो यहाँ तक की भूमि हमारे सुपुर्द की जाये।” मानमोरी ने एक श्वास में कह दिया।

चालुक्यराज का स्वर गंभीर हो गया, “हम अब भी आपको इस भूमि से खदेड़ने की क्षमता रखते हैं, महाराज मानमोरी। तो कोई ऐसा प्रस्ताव दीजिए जो स्वीकार किया जा सके। महिष्कपुर चालुक्यों की भूमि है और रहेगी।”

यह सुन मानमोरी ने कटाक्षमय स्वर में कहा, “अभी तो आपने पूरे महिष्कपुर को जीता भी नहीं और अधिकार जमाना आरम्भ भी कर दिया। पिछले चालीस वर्षों में न जाने कितने छोटे-छोटे टुकड़ों में बँट चुका है आपका ये राज्य।”

“बल से या बुद्धि से, भूमि के उन सारे टुकड़ों पर हम शीघ्र ही जोड़ लेंगे, मेवाड़ नरेश। उसकी चिंता आप न करें। हम बस इतना कर सकते हैं कि अपनी सेना को यहाँ लाने तक आपकी जितनी भी संपत्ति व्यय हुई है उतना स्वर्ण हम आपको दे सकते हैं।” 

मानमोरी की मुट्ठियाँ भिंच गयीं, “भिक्षुक नहीं हैं हम, चालुक्यराज। भूमि को जीतने आये हैं, धन से हमें संतोष प्राप्त नहीं होगा।”

“तो आने वाली रक्तगंगा के लिये सज हो जाईये।” अपना निर्णय सुनाकर विन्यादित्य कुछ पग पीछे हटे।

“उसकी आवश्यकता नहीं पड़ेगी, चालुक्यराज।” अगले ही क्षण मानमोरी ने अपनी कमर पट्टिका में छिपी एक कील निकालकर विन्यादित्य की ओर चलाई जो उनके संभलने से पूर्व ही उनकी जंघा में जा घुसी। अकस्मात ही अपना संतुलन खोकर वो भूमि पर बैठ गये।

मानमोरी के इस छल को देख दोनों सेनाओं के योद्धा चकित रह गये। म्यान से तलवार निकाले मेवाड़ नरेश विन्यादित्य की ओर बढ़े। चालुक्यराज ने भी तत्काल ही तलवार संभाली और बड़ी कठिनाई से अपने ऊपर हुआ प्रहार रोका, “तुम क्षत्रिय कुल पर कलंक हो, मानमोरी।”

“व्यर्थ का प्रयास मत कीजिए, चालुक्यराज। शीघ्र ही मूर्छा आप पर हावी हो जायेगी और आपके अंत के उपरान्त आपकी सेना का मनोबल यूँ ही ध्वस्त हो जायेगा।” मानमोरी ने लड़खड़ाते हुए विन्यादित्य को पीछे धकेला।

चालुक्यराज के नेत्रों के आगे अंधकार सा छाने लगा। फिर भी उन्होंने मानमोरी का प्रहार रोकने का प्रयास किया, परन्तु इस बार उनकी तलवार हाथ से छूट गयी। किन्तु इससे पूर्व मानमोरी विन्यादित्य पर अगला प्रहार करता वायु गति से आते हुए एक भाले ने कपट संग्राम का मार्ग अपनाने वाले उस मेवाड़ नरेश की तलवार के दो टुकड़े कर दिये।

सामने की ओर मुड़कर देखने पर मानमोरी ने अश्व पर आरूढ़ हुए शिवादित्य को गर्जना करते हुए पाया, “मेवाड़ नरेश ने छल किया, आक्रमण।”

“अब ये कौन है?” मानमोरी को शिवादित्य की पहचान नहीं थी।

बीस गज पीछे दौड़ते हुए मानमोरी ने भी अपनी सेना को आक्रमण का आदेश दिया। दोनों सेनायें प्रचंड आंधी की भाँति शस्त्रों की झंकार के साथ रक्त की प्यास लिये दौड़ पड़ीं। वहीं भूमि पर बैठे अपनी चेतना खो रहे विन्यादित्य को देख मानमोरी ने इसे एक सुनहरे अवसर के रूप में देखा। जैसे-जैसे सेनायें निकट आती गयीं मानमोरी ने इसे अवसर मान अपना भाला उठाया और विन्यादित्य की ओर चला दिया। किन्तु तभी एक ढाल वायु में चक्र की भाँति घूमते हुए आयी और मेवाड़ नरेश के उस भाले की दिशा को परिवर्तित कर दिया।

झल्लाहट में फुंफकारते हुए मानमोरी ने दृष्टि घुमाकर देखा। चालुक्यों का एक सैनिक मेवाड़ी सेना के योद्धाओं के प्रहार से बचता हुआ मानमोरी की ओर बढ़े चले आ रहा था। हाथ में भाला लिये उस सैनिक ने भूमि पर गिरी ढाल उठाई और अपने सामने आये एक मेवाड़ी योद्धा का कण्ठ छेदकर आगे दौड़ा।

“अब यही दिन देखना शेष रह गया था कि एक सैनिक का इतना साहस हो गया कि वो मेवाड़ नरेश को चुनौती देने आ रहा है।” मन में ये तीखा विचार लिये अपने सामने आये एक चालुक्य योद्धा का मस्तक उतारते हुए मानमोरी ने अपने एक सैन्यअधिपति को उस सैनिक की ओर संकेत करते हुए कहा, “वो सैनिक कुछ अधिक ही उतावला हो रहा है। संभालो उसे।”

उस सैनिक का यूँ उतावला होकर महाराज की ओर दौड़ता देख वो सैन्यअधिपति भी मुस्कुराया और अपने सैनिकों को उसे घेरने का संकेत दिया। तीन मेवाड़ी सैनिक एक साथ उसकी ओर दौड़े। भूमि पर बैठे विन्यादित्य को भी चालुक्य सैनिकों की एक टुकड़ी घेरकर पीछे ले जाने लगी। यह देख राजा मानमोरी अपनी सेना का एक विशाल भाग लेकर उसी ओर बढ़ा।

वहीं मेवाड़ के उस सैन्यअधिपति ने उस विशिष्ट चालुक्य सैनिक पर अभी कुछ क्षण दृष्टि जमाई ही थी कि उन तीनों मेवाड़ी सैनिकों के शव गिराता हुआ वो वीर चालुक्य उस सैन्यअधिपति के अश्व की ओर उछला। उस चालुक्य योद्धा के पहले ही प्रहार में उस सैन्यअधिपति के कवच में दरार पड़ गयी। अपने अहंकार में शत्रु को दुर्बल मान मेवाड़ का वो सैन्यअधिपति अश्व से गिर पड़ा। हड़बड़ाकर उठते हुए उस सैन्यअधिपति ने अभी तलवार संभाली ही थी कि उस चालुक्यसैनिक का भाला उसके कण्ठ को चीर गया।

इधर शिवादित्य भी अपनी छोटी सी अश्वारोही टुकड़ी लेकर मानमोरी के विशाल दल पर टूट पड़ा। वहीं कुछ चालुक्य सैनिक लगभग मूर्छित हो चुके विन्यादित्य को उठाकर पीछे ले जाते रहे। यह देख मानमोरी ने अपना धनुष उठाया और उसी दिशा में अपने धनुर्धरों के साथ बाणों की बौछार कर दी। चालुक्यों के कई सैनिक घायल होकर भूमि पर गिरने लगे। दो बाण विन्यादित्य के भी कंधे और जांघ में आ लगे। अपनी सफलता को आश्वस्त मान मानमोरी ने अपने धनुर्धरों को संकेत कर और बाण चलवाये। किन्तु तभी मेवाड़ के सैन्य अधिपति का अंत करने वाला वो चालुक्य योद्धा एक लम्बी सी ढाल लिये मार्ग में आया और विन्यादित्य की ओर आने वाले लगभग सारे बाण रोक लिये। शिवादित्य भी अपना अश्वारोही दल लिये मानमोरी के चारों ओर घेराव बनाकर खड़े धनुर्धरों पर टूट पड़ा।

इसी बीच मेवाड़ नरेश की दृष्टि शत्रु के रक्त में स्नान किये उस विशिष्ट चालुक्य सैनिक की ओर पड़ी। मेवाड़ नरेश ने उसकी ओर ध्यान से देखा। उसके मुख पर किसी बाघ की भाँति काले रंग की कई पट्टियाँ पुती हुई थीं और वो नेत्र मानमोरी को यूँ घूर रहे थे मानों जन्मों से उसके रक्त के प्यासे हों, “ये कोई साधारण सैनिक नहीं हो सकता।”, “उसकी गर्जना सुन और मेवाड़ी योद्धाओं पर उसका प्रकोप देख ये अनुमान लगाना कठिन नहीं था।

शिवादित्य के नेतृत्व में आये चालुक्य योद्धाओं ने जो शवों का अंबार लगाकर मेवाड़ की सेना का जो मानमर्दन किया उससे मानमोरी को भी ये आभास हो गया कि अतिआत्मविश्वास के कारण सेना का आगे से नेतृत्व करना कितना संकटकारी हो सकता है। उसने उसी क्षण पीछे लौटकर सेना के मध्य से ही उसका नेतृत्व करने का निश्चय किया और रणभूमि में खड़े एक अश्व की ओर दौड़ उसे नियंत्रित किया, “एक क्षण और मिल जाता तो विन्यादित्य का अंत करके मैं चालुक्यों को जीत लेता। समझ नहीं आता चालुक्य अकस्मात ही इतने हावी कैसे हो गये?”

मन में भिन्न-भिन्न संभावनाओं का विचार कर मानमोरी उस अश्व की धुरा खींचकर अपनी सेना की ओर बढ़ चला। किन्तु अभी राजा मानमोरी का अश्व बीस गज ही दौड़ा था कि वो अपना संतुलन खोकर गिर पड़ा। अश्व से गिरकर भूमिसत हुए मानमोरी ने पलटकर देखा तो उसी चालुक्य सैनिक को दस गज दूर खड़ा पाया जिसने उस अश्व के पैर में फंदा डालकर उसे गिराया था। कुपित हुए मेवाड़ नरेश ने भी म्यान से तलवार और भूमि पर गिरी ढाल उठाई और भौहें सिकोड़ते हुए उसे घूरने लगे। उस चालुक्य योद्धा ने रक्त में सना अपना शिरस्त्राण निकालकर भूमि पर गिराया और अपने मुख पर लगे शत्रु के रक्त सहित उस पर पुती हुई काली पट्टियाँ भी पोछ डालीं। भाला संभाले वो वीर मानमोरी की ओर बढ़ने लगा।

“महामहिम नागादित्य की जय हो।”

उस वीर के लिये चालुक्य सेना की इस जयघोष को सुन मानमोरी अचम्भित से रह गये, “गुहिलवंशी नागादित्य? ये.. ये कैसे सम्भव है?”

उस चालुक्य योद्धा ने मुस्कुराते हुए मानमोरी पर कटाक्ष किया, “क्या हुआ मेवाड़ नरेश? आपको तो भुजंगनाथ ने ये सूचना दी थी ना कि हम गुहिलवंशी इस युद्ध में भाग नहीं लेंगे। हम तो कदाचित महिष्कपुर के छोटे मोटे राज्यों पर नियंत्रण पाने के लिये गये थे, है न?”

मानमोरी की मुट्ठियाँ क्रोध से भिंच गयीं, “तो भुजंगनाथ पकड़ा गया और तुमने ही..।”

“सही अनुमान लगाया, मेवाड़ नरेश। हम दोनों भाईयों को अनुपस्थित जान आपने सोचा कि छल से महाराज विन्यादित्य को घायल कर आप हमारी सेना का मनोबल तोड़ ये युद्ध जीत लेंगे। यहीं आपसे भूल हो गयी और आप मेरे समक्ष आ खड़े हुए।”

मानमोरी ने भी ढाल और तलवार पर पकड़ मजबूत करते हुए अपने कंधे उचकाये, “कदाचित कांचीपुरम की विजय के उपरान्त तुम दोनों भाईयों की वीरता की जो कथाएँ भारतवर्ष में फैल रही हैं, उससे तुम्हारा गुमान कुछ अधिक ही बढ़ गया है। किन्तु स्मरण रहे, मैं किवंदन्तियों में विश्वास नहीं रखता।”

“कथाओं का बखान मैं भी नहीं करता। किन्तु ये स्मरण अवश्य रखियेगा कि दस वर्ष पूर्व परमारों ने जो हमारे पूर्वजों के साथ किया वो हम भूले नहीं हैं। वर्षों पहले बही वो रक्त की धाराएँ मेरी एक-एक भुजा में प्रलय संताप बनकर आप पर टूटेगी, मेवाड़ नरेश।” भाले को चक्र की भाँति नचाते और गर्जना करते हुए नागादित्य मानमोरी की ओर दौड़ा।

मानमोरी ने प्रथम प्रहार में ही नागादित्य का भाला काटने का प्रयत्न किया, किन्तु उस गुहिल योद्धा ने बड़ी चपलता से अपना भाला घुमाया और मेवाड़ नरेश की ठोड़ी पर चोट की। मानमोरी का संतुलन कुछ क्षण के लिये बिगड़ा जिसका लाभ उठाकर नागादित्य ने उनकी छाती पर पंजा मार उन्हें भूमिसत कर दिया। अगले ही क्षण उसका भाला मानमोरी की छाती की ओर बढ़ा, किन्तु समय रहते मानमोरी ने उस संकट को भांप लिया और तत्काल ही अपनी तलवार घुमाकर उस भाले का ऊपरी भाग काटकर नागादित्य के पाँव पर प्रहार किया। वो गुहिल योद्धा स्वयं को संभाले कुछ पग पीछे हटा इतने में मेवाड़ नरेश को संभलने का अवसर मिल गया। शत्रु को तलवार सहित उठता देख नागादित्य ने तत्काल ही भूमि पर गिरी एक तलवार उठाई और तीव्रगति से मेवाड़ नरेश की ओर दौड़ते हुए उनके प्रहार से बचा, उनकी जंघा पर पाँव से प्रहार कर उन्हें कुछ पग झुकाया और तलवार की मुट्ठी से पुनः उनकी ठोड़ी पर भीषण वार कर उनका जबड़ा हिला दिया। इस बार मानमोरी को संभलने का अवसर तक नहीं मिला और उस गुहिल योद्धा की मुष्टि के प्रहार ने उनके शिरस्त्राण में दरार उत्पन्न करते हुए मस्तक में भारी चोट की। चक्कर खाकर मानमोरी भूमि पर गिर पड़े। उनके नेत्रों के समक्ष अंधकार सा छाने लगा। नागादित्य उनके निकट गया और अपने प्रतिद्वंदी की छाती पर पाँव रख तलवार उनके कण्ठ पर टिकाई। मेवाड़ नरेश का मुख देख उस गुहिलवंशी को केवल अपने परिवारजनों की मृत्यु का स्मरण हो रहा था, मन में तीव्र इच्छा हो रही थी कि उसी क्षण वो उनका अंत कर दे।

नागादित्य को संशय में देख शत्रुओं का मस्तक उतारते शिवादित्य ने उसे टोका,“देख क्या रहे हो, नाग? इस नराधम का वध करके अंत करो इस युद्ध को।”

मूर्छा में जाते मानमोरी को देख नागादित्य ने अपनी तलवार पीछे करते हुए कहा, “इसने चालुक्यराज के साथ छल किया है, ज्येष्ठ। ये उनका अपराधी है, इसलिए उचित यही होगा कि महाराज विन्यादित्य स्वयं इसे दण्डित करें।” कहते हुए उसने लहू का घूँट पीते हुए अपनी तलवार वापस म्यान में डाली, “वैसे भी इस प्रकार मूर्छित योद्धा का वध करना उचित नहीं।”

शिवादित्य ने कुछ क्षण दाँत पीसते हुए मूर्छित हो चुके मानमोरी को घूरा, फिर सहमति में सिर हिलाते हुए सैनिकों को आदेश दिया, “बंदी बना लो मेवाड़ नरेश को।” 

चार सैनिकों ने मिलकर भारी बेड़ियाँ लाईं और मानमोरी को बांधने लगे। वहीं दोनों गुहिलवंशियों के विजयनाद का बिगुल बजाते ही मेवाड़ की सेना पीछे हटने लगी। युद्ध समाप्ति की घोषणा कर दोनों भाईयों ने कुछ क्षण तक क्रोध में भरकर बंदी बने मानमोरी को घूरा फिर सैनिकों को उसे लेकर आने का आदेश दिया।

******

संध्या होने को थी। मूर्छा से लौट चुके कुपित विन्यादित्य विजयपुरा के अपने शिविर में बैठे अपनी तलवार पर हाथ फेर रहे थे। उनकी तनी हुयी भौहें उनका क्रोध स्पष्ट प्रदर्शित कर रहीं थीं। तभी गुरु विक्रमादित्य ने शिविर में प्रवेश किया। उन्हें अकस्मात वहाँ आया देख चालुक्यराज भी चकित रह गये, “पिताश्री, आप यहाँ ? आपके युद्ध के घाव अब भी भरे नहीं है। आपको विश्राम की आवश्यकता है।”

“आना पड़ा पुत्र, क्योंकि परिस्थितियों में बहुत बड़ा परिवर्तन आ गया है। तुम्हारा एक निर्णय भारतवर्ष का परिदृश्य बदल सकता है।”

“मैं समझा नहीं, पिताश्री।” 
 “मेवाड़ नरेश ने हमारे साथ बहुत बड़ा छल किया है, किन्तु इसके उपरान्त भी तुम्हें उन्हें प्राणदान देना होगा।”

गुरु विक्रमादित्य का कथन सुन चालुक्यराज अचम्भित रह गये, “ये.. ये आप क्या कह रहे हैं, पिताश्री ? आपको ज्ञात है कि...।”

“यही न कि उसने तुम्हें छल से मूर्छित करके तुम्हारी हत्या करने का प्रयास किया? मुझे सूचना मिल चुकी है।”

“फिर भी आप..।” चालुक्यराज को अपने नेत्रों पर विश्वास नहीं हो रहा था, “और यदि अपने साथ हुए छल को मैं भुला भी दूँ। तो मैं उन गुहिलवंशी वीरों को क्या उत्तर दूँगा, जिन्हें वर्षों के उपरान्त अपने परिवारजनों के हत्यारों में से एक को दण्ड देने का अवसर प्राप्त हुआ है। वर्षों से उन्होंने प्रतीक्षा की है। नागादित्य रण में ही उस मानमोरी का अंत कर सकता था, किन्तु मेरे प्रति किये अपराध के कारण उसने मेवाड़ नरेश को मेरा सम्मान रखने के लिये छोड़ दिया। क्षमा करें पिताश्री, किन्तु ये आदेश देकर आप मुझे बहुत बड़े धर्मसंकट में डाल रहे हैं।”

“समझने का प्रयास करो, पुत्र विन्यादित्य। एक बहुत विकराल संकट भारतवर्ष की ओर बढ़ने वाला है। यदि हमने अभी से प्रयास आरम्भ नहीं किया, तो परिणाम बहुत विघातक सिद्ध होगा। तुम्हें स्वयं ही अपने मित्रों को इस यथार्थ से परिचित भी कराना होगा और समर्थन के लिये मनाना भी होगा।”

******

खुले मैदान में बेड़ियों में बंधे मानमोरी और उसके मुख्य सैन्य अधिपतियों को घसीटते हुए लाया गया। उनके साथ चालुक्यों से द्रोह करने वाला सेनानायक भुजंगनाथ भी बेड़ियों में बंधा बैठा हुआ था। उन सभी को सैकड़ों चालुक्य योद्धाओं ने घेर रखा था। शिवादित्य और नागादित्य क्रोध भरी दृष्टि से मानमोरी को ही घूरे चले जा रहे थे।

शीघ्र ही सहस्त्रों योद्धाओं के जयघोष के मध्य महाराज विन्यादित्य उस मैदान में आये। गुरु विक्रमादित्य भी उनके साथ ही खड़े थे। मानमोरी के निकट आकर चालुक्यराज ने बारी-बारी से अपने गुहिलवंशी मित्रों की ओर देखा जो कदाचित इसी प्रतीक्षा में व्यग्र खड़े थे कि कब वो मेवाड़ नरेश को दण्डित करने की घोषणा करें, और कब वर्षों से उनके हृदय को कुरेद रहे घावों पर प्रतिशोध का लेप लग जाये।

मानमोरी को घूरते हुए चालुक्यराज भुजंगनाथ की ओर बढ़े जो स्वयं बहुत भयभीत बैठा था, “क्षमा, क्षमा, महाराज। मैं लालच में भ्रमित हो गया था। पर मैंने अंत में तो अपनी स्वामीभक्ति दिखाई न, महाराज। मैंने ही तो मेवाड़ नरेश को ये मिथ्या सूचना दी कि गुहिलवंशी वीर इस युद्ध में भाग नहीं लेंगे। बस इसी एक सद्कार्य के लिये मुझे पर दया कर दें, महाराज।”

“भय की विवशता में किया सद्कार्य पारितोषक का अधिकारी नहीं होता, भुजंगनाथ। तुम्हारा अपराध मेवाड़ नरेश से कहीं अधिक संगीन है। स्वजनों से द्रोह का केवल एक ही दण्ड है, मृत्यु।” विन्यादित्य ने अपनी तलवार घुमाई और अगले ही क्षण भुजंगनाथ का कटा मस्तक उनकी तलवार को रक्तरंजित करते हुए भूमि पर गिर गया।

रक्त के वो छींटे अपमान का ग्रास बनकर मानमोरी के भी मुख पर पड़े। विन्यादित्य को बिना संकोच भुजंगनाथ का अंत करते देख दोनों गुहिलवंशियों के नेत्रों में चमक सी आ गयी। कदाचित उन्हें मानमोरी के अंत का विश्वास हो चला था। वहीं मेवाड़ नरेश क्रोध में बेड़ियों से बंधे मौन अवस्था में चालुक्यराज को घूरे जा रहे थे।

चालुक्यराज उनके समक्ष घुटनों के बल बैठे, “बड़े व्यग्र जान पड़ रहे हैं, मेवाड़ नरेश। जब छल करने से पूर्व नहीं सोचा तो दण्ड से भयभीत क्यों हो रहे हैं, आप?”

मानमोरी ने कठोर स्वर में कहा, “रण में उतरने वाले को मृत्यु का भय नहीं होता, चालुक्यराज। यदि होता तो मैं आगे खड़ा होकर अपनी सेना का नेतृत्व ना कर रहा होता।”

मानमोरी का ये प्रलाप सुन चालुक्यराज की हँसी छूट गयी, “बड़े आश्चर्य की बात है, मेवाड़ नरेश। इतना घृणित छल करने के उपरान्त तुम अब भी अपनी वीरता का बखान करने में लगे हुए हो। अपनी सेना के समक्ष ये स्वीकार करने में ये लज्जा आती है न कि यदि तुम्हें गुहिलवंशियों के युद्ध में भाग लेने का ज्ञान होता तो अपने लाखों योद्धाओं को कटवाकर भी तुम सामने न आते। उस पर भी तुमने मुझे छल से मूर्छित करने का प्रयास किया, हम्म?” झल्लाते हुए चालुक्यराज कुछ पग पीछे हटे।

मानमोरी ने दृष्टि घुमाकर बंदी बने अपने सैन्य अधिपतियों की ओर देखा जिनकी दृष्टि में उन्हें अपने लिये कोई सम्मान नहीं दिखा। कुपित हुए मेवाड़ नरेश ने विन्यादित्य की ओर देखा, “तो फिर विलंब किस बात का है, चालुक्यराज ? उठाओ अपनी तलवार और समाप्त कर दो मेरे जीवन की इहलीला।”

विन्यादित्य ने लहू का घूँट पीकर तलवार पर अपनी पकड़ मजबूत की और क्रोध में भरकर मानमोरी की ओर घुमाई, जिससे उसकी बेड़ियाँ कटकर गिर गयीं, “राष्ट्र और संस्कृति की सुरक्षा ने विवश कर दिया, मानमोरी। अन्यथा इसी क्षण तुम्हारा कटा हुआ मस्तक भूमि पर गिरा मिलता।”

चालुक्यराज को तलवार नीची किये देख गुहिलवंशी योद्धा हतप्रभ रह गये। मानमोरी भी आश्चर्य में भरकर भूमि से उठ खड़े हुए। विचलित हुआ शिवादित्य चालुक्यराज के निकट आया, “ये आप क्या कर रहे हैं, महाराज? इस अपराधी को आप जीवित कैसे छोड़ सकते हैं ?”

विन्यादित्य ने उसे समझाने का प्रयास किया, “अरब की सेनाओं ने सिंधुदेश को घेरना आरम्भ कर दिया है।

पिछले कई वर्षों से सिंध के महाराज महावीर दाहिरसेन ने अपने बलबूते पर उन्हें रोका हुआ है। किन्तु अब वो भी कुछ किले हार चुके हैं, जिसके कारण अरबी सेना के सिंध पर हावी होने की संभावना बढ़ती जा रही है। उन्होंने मेवाड़ सहित कई राज्यों को सहायता का संदेश भेजा है, अर्थात स्थिति विकट है। यदि सिंध पराजित हो गया तो अरबियों के लिये भारतवर्ष में सेंध लगाने का मार्ग सदा-सदा के लिये खुल जायेगा।”

“तो इसमें समस्या क्या है? मेवाड़ नरेश का वध करने के उपरान्त हम चित्तौड़ पर अधिकार कर सकते हैं। उसके उपरान्त हम सिंध नरेश की सहायता को भी जा सकते हैं।” शिवादित्य ने तर्क दिया।

विन्यादित्य अपने दोनों गुहिलवंशी मित्रों के साथ थोड़ा पीछे आये और धीमे स्वर में वार्ता आरम्भ की, “हमारी लगभग आधी सेना तो पल्लवों की दी हुयी है जो दस वर्षों में लौट जायेगी। और अभी तक तो पूरे महिष्कपुर पर नियंत्रण पाने में हमें ना जाने कितना समय लगेगा, और चित्तौड़ के किले पर अधिकार करने की बात कर रहे हो जिसे इस कालखण्ड में लगभग अभेद्य माना जाता है? और यदि किसी स्थिति में यदि मेवाड़ नरेश के प्राणों के बदले हम चित्तौड़ के किले को प्राप्त करने का प्रयास करें तो क्या ये कायरता नहीं होगी? और यदि ऐसा कर भी लें तो एक सेना को अपने ध्वज तले युद्ध करने के लिये उनका विश्वास जीतना आवश्यक होता है। क्या ऐसी स्थिति में मेवाड़ की सेना हम पर विश्वास करके पूर्ण मनोबल से हमारे ध्वज तले युद्ध कर पायेगी?” 

अपने क्रोध को पीकर नागादित्य ने स्थिर होने का प्रयास किया और चालुक्यराज का समर्थन करते हुए कहा, “मैं महाराज की बात से सहमत हूँ, ज्येष्ठ। इस समय राष्ट्र की रक्षा अधिक अनिवार्य है। मानमोरी का अभी तक कोई उत्तराधिकारी जन्मा नहीं है। यदि मेवाड़ नरेश की यहाँ मृत्यु हो जाती है, तो निसंदेह सत्ता को लेकर पूरे मेवाड़ में कई लोगों के मन में लालच समा जायेगा। जगह-जगह विद्रोह भड़केंगे, और इस समय भारतवर्ष की सबसे शक्तिशाली सैन्यशक्ति माना जाने वाला मेवाड़ भूमि के कई टुकड़ों में बँटकर दुर्बल हो जायेगा।”

“तुम भी नाग.... ।” लहू का घूँट पीकर शिवादित्य मानमोरी के निकट आया और उसे घूरकर देखा, “मुझे तो आश्चर्य हो रहा है कि युद्ध में इस प्रकार का घृणित छल करने वाले इस असुर प्रवृति के राजा पर आप लोग विश्वास कैसे कर सकते हैं कि ये भारतवर्ष का रक्षक बन सकता है। क्या सिंधुदेश के राजा ने केवल इसे ही सहायता का संदेश भेजा है ?”

“हमारे पास और कोई मार्ग नहीं है, ज्येष्ठ।” नागादित्य भी मानमोरी के निकट आया, “छोटे-छोटे राज्य अधिकतर अपने स्वार्थ अथवा भय के कारण कदाचित अरबों के विरुद्ध जाने को तैयार न हों। इसलिए मेवाड़ का सिंधु देश की सहायता को जाना अति आवश्यक है।”

मानमोरी ने श्वास भरते हुए अपनी बेड़ियाँ उतारीं और मुस्कुराते हुए विन्यादित्य की ओर देखा, “तो आप चाहते हैं कि मैं सिंधुदेश की सहायता करूँ, इसलिए मुझे जीवनदान दे रहे हैं?”

मुट्ठियाँ भींचकर चालुक्यराज मानमोरी के निकट आये, और अपनी भावनाओं को नियंत्रित करते हुए बोले, “आपको भी उनकी सहायता विनती का संदेश अवश्य प्राप्त हुआ होगा, महाराज मानमोरी। स्मरण रखिएगा, कि यदि सिंध का , किला ढहा तो आपका चित्तौड़ भी अरबों से सुरक्षित नहीं रहेगा।”

“हमारी सुरक्षा की चिंता आप न करें, महाराज विन्यादित्य। संसार की सर्वशक्तिशाली सेना भी चित्तौड़ के किले को नहीं भेद सकती। किन्तु यदि आप राष्ट्र की रक्षा के लिये अपने सबसे बड़े शत्रु को क्षमादान दे सकते हैं, तो हम भी भारतवर्ष की सुरक्षा के लिये सिंधुराज दाहिरसेन की सहायता अवश्य करेंगे।” मानमोरी ने दृढ़तापूर्वक कहा।

कुपित हुआ शिवादित्य अजगर की भाँति फुंफकारता हुआ वहाँ से प्रस्थान कर गया। उसे जाते हुए देख मानमोरी ने कहा, “किन्तु हमारी इच्छा है कि जब तक मेवाड़ की सेना इस युद्ध में हैं, चालुक्य अरबों के विरुद्ध इस युद्ध में भाग नहीं लेंगे।”

नागादित्य की मुठ्ठियाँ क्रोध से भिंच गयीं। मानमोरी ने उसके निकट जाकर उसके नेत्रों में देखा, “आपके शिविर में हमारे सबसे बड़े शत्रुओं का वास है, चालुक्यराज। इसलिए आप मेरी इस विनती का कारण तो समझ ही गये होंगे, क्यों?”

झल्लाहट में नागादित्य पीछे हट गया। विन्यादित्य की भी मन ही मन इच्छा यही हो रही थी कि वो उसी क्षण मानमोरी के टुकड़े-टुकड़े कर डालें। गुरु विक्रमादित्य ने अपने पुत्र के कंधे पर हाथ रख उसके क्रोध को शांत करने का प्रयास किया। राष्ट्ररक्षा के आगे चालुक्यराज ने अपने भीतर सुलग रही अग्नि को पी लिया।

मानमोरी ने उनके मस्तक पर चढ़े क्रोध का विश्लेषण करते हुए अनुमान लगाया, “प्रतीत होता है कि इन गुहिलवंशियों ने आपके मन में भी बाल्यकाल से हमारे प्रति विष ही भरा है, चालुक्यराज। इसलिए उचित यही होगा कि हमारे मार्ग सदैव के लिये अलग ही रहें। अन्यथा क्या पता क्रोध में आपके योद्धा हमें क्षति पहुँचा दें, या अपनी सुरक्षा के लिये किसी दिन हम अरबों के स्थान पर आप पर ही प्रहार करने लगें।”

मानमोरी ने आगे बढ़कर चालुक्यराज की ओर देखा, “आपने हमें ये अवसर दिया है राष्ट्र की सुरक्षा के लिए। किन्तु साथ में आपने हमें चालुक्यनगरी से खाली हाथ लौटाकर अपनी प्रजा के समक्ष अपमानित होने का उपहार भी दिया है। चिंता न करें, हम वचन देते हैं हम सिंध की सहायता अवश्य करेंगे। और जब तक हम सिंध को विदेशी आक्रमणकारियों से पूरी तरह सुरक्षित नहीं कर देते, हम पुनः आपकी इस मातृभूमि में प्रवेश नहीं करेंगे। किन्तु सिंध की सुरक्षा सुनिश्चित करने के उपरान्त क्या होगा, उस पर कोई वचन नहीं देते हम।”

चालुक्यराज ने क्रोध में ही सही किन्तु स्थिति की विकटता को समझकर सहमति में सिर हिलाया। साथ ही अपने सैनिकों को मेवाड़ के युद्ध बंदियों को मुक्त करने का संकेत दिया।

उन सभी के मुक्त होने के उपरान्त मेवाड़ नरेश ने चालुक्यराज को प्रणाम करते हुए कहा, “आशा करता हूँ शीघ्र ही रण में हमारी पुनः भेंट हो।”

विन्यादित्य ने मुस्कुराकर छाती चौड़ी करते हुए कहा, “प्रतीक्षा रहेगी आपकी, मेवाड़ नरेश। हम आपको यहीं इसी रण में मिलेंगे।”