Shri Bappa Raval - 6 in Hindi Biography by The Bappa Rawal books and stories PDF | श्री बप्पा रावल - 6 - महाशिवरात्रि उत्सव

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श्री बप्पा रावल - 6 - महाशिवरात्रि उत्सव

पंचम अध्याय
महाशिवरात्रि उत्सव

मुहम्मद बिन कासिम सिंध को जीतने के अभियान पर निकल पड़ा। दस तालुकदारों ने सिंध के महाराज दाहिरसेन को सुल्तान अलहजाज का संदेश देते हुए सिंध से अपनी सारी सैनिक चौकियाँ हटा लीं। सिंध के नगर अलोर की घेराबंदी भी हटा ली गयी। साथ ही योजना के अनुसार सारे तालुकदारों को देबल के सूबेदार ज्ञानबुद्ध ने अपने नगर में छुपा लिया। पंद्रह हजार अरब सेना अलग-अलग टुकड़ियों में बँटकर सौदागर बनकर भारतवर्ष के कोने-कोने में फैलने लगी थी। वहीं मुहम्मद बिन कासिम भेष बदल बदलकर छुपते छुपाते भारतवर्ष में फैले अपने सारे सौदागर टुकड़ियों से मिलता रहा। धीरे-धीरे पाँच वर्ष बीत गये।

[पांच वर्ष उपरांत]
देबल का बंदरगाह
रात्रि के अंधकार में सागर तट पर लाल पगड़ी पहने एक व्यक्ति नौका से मछलियाँ निकालकर जल से भरे कनस्तरों में डाल रहा था। देखने में डील डौल शरीर के स्वामी उस पुरुष को देख कोई ना कहता कि वो कोई मछुआरा है, किन्तु उस अंधकार में ध्यान भी कौन देता। शीघ्र ही सैनिक की वेशभूषा में एक व्यक्ति उस मछुआरे के निकट आया। उसे देख मछुआरा क्षणभर को मुस्कुराया, “कहो ज्ञानबुद्ध, मेवाड़ की क्या खबर है ?”

“तीन मास का समय है हमारे पास। हम मेवाड़ और सिंध की संधि तोड़ सकते हैं।”

“कहो, मैं सुन रहा हूँ।”

“जैसा कि आप जानते हैं सिंध की सहायता के बदले सिन्धुराज मेवाड़ में हर वर्ष कर के साथ विभिन्न प्रकार के उपहार भिजवाते हैं। लगभग एक सहस्त्र लोगों का कारवां उन उपहारों को साथ लेकर मेवाड़ जाता है। तीन वर्षों से आपके जो लोग पूरे भारतवर्ष में भ्रमण करते हुए सिंध में आये थे, मैंने उनमें से पांच सौ लोगों को उस कारवां का सदस्य, बना दिया है।”

“तो सिंध के कारवाँ से वो तोहफे हासिल करने आता है, मेवाड़ का शहजादा सुबर्मन, है ना?”

“जी, हुजुर। मौक़ा पाते ही हमारे लोग सुबर्मन की हत्या कर देंगे जिससे सिंध और मेवाड़ में शत्रुता की संभावना बढ़ जायेगी।”

उस मछुआरे ने नौका से निकाली आखिरी मछली भी जल के कनस्तर में डाली, और अपने माथे का स्वेद पोछकर ज्ञानबुद्ध के निकट आया, “तरकीब तो सही है, देखते हैं काम आती हैं या नहीं। पर जब तक हम कामयाब नहीं होते और मेवाड़ और सिंध के बीच खटास नहीं आती, सिंध के किसी, वफादार परिंदे को भी हमारी मुहीम की खबर नहीं होनी चाहिए।”

“जो आदेश, हुजुर।” सहमति जताते हुए ज्ञानबुद्ध वहाँ से प्रस्थान कर गया।

अलोर (सिंधुदेश)
अखाड़े में शस्त्राअभ्यास करती दो युवतियाँ तलवारों और ढालों के सहारे एक-दूसरे को पछाड़ने का भरसक प्रयत्न कर रहीं थीं। कवच, धोती और केसरिया पगड़ी बाँधे तलवारों को विद्युत गति से भाँजती रूप रंग से सम्पन्न उन युवतियों की रेशम से चमकती आँखों में जो दृढ़ता दिख रही थी। उससे स्पष्ट प्रतीत हो रहा था कि वो इस शस्त्राभ्यास को लेकर कितनी समर्पित हैं।

कुछ ही समय में एक हष्ट पुष्ट युवक ने अखाड़े में आकर मूँछों पर ताव देते हुए द्वार पर लटका घंटा बजाया, “अभ्यास सत्र समाप्त हुआ।”

किन्तु उस घंटे को सुनकर भी वो दोनों युवतियाँ अभ्यास में लीन ही रहीं। मानों स्वयं की श्रेष्ठता सिद्ध करने को व्यग्र हों। यह देख द्वार के पास खड़े युवक ने भौहें सिकोड़ीं और कठोर स्वर में गर्जना की, “तुमने आदेश सुना नहीं?”

उस युवक की गर्जना सुन दोनों युवतियों के शस्त्र थम गये। अपने नेत्र झुकाये वो एक-दूसरे से दूर हटीं। क्रोध में वो युवक चलकर उन दोनों युवतियों के निकट आया, “सूर्यदेवी और प्रीमल देवी। अनुशासन भंग करने के आरोप में तुम दोनों को अगले तीन दिवस तक शस्त्रों को स्पर्श ना करने का दण्ड दिया जाता है।”

“ये.. ये तो अन्याय है। हमने बस दो क्षणों का विलंब ही तो किया है।” सूर्यदेवी ने झेंपते हुए कहा।

“हाँ, मैं तो बस इसे पछाड़कर तलवार रखने ही वाली थी, भ्राताश्री।” उसकी बाईं ओर खड़ी प्रीमल देवी ने भी एंठते हुए कहा। इस पर सूर्यदेवी ने उसे आँखें तरेरते हुए देखा।

वहीं उस युवक का स्वर कठोर हो गया, “युद्ध में हर एक क्षण और उस क्षण मिले सेनापति के आदेश का महत्व क्या होता है ये तुम दोनों अभी तक न समझ पायी, और स्वयं को योद्धाओं की श्रेणी में देखना चाहती हो? संभल जाओ, अन्यथा पिताश्री कभी तुम दोनों पर विश्वास नहीं करेंगे। और ऐसे में तुम्हारा रण में पदार्पण करने का स्वप्न अधूरा ही रह जायेगा।”

दोनों युवतियों के नेत्र लज्जा से झुक गये। युवक वहीं खड़ा उन्हें घूरता रहा। तभी एक सैनिक ने वहाँ आकर उसे प्रणाम किया, “युवराज जयशाह की जय हो। राजकुमार वेदान्त और राजकुमारी कमलदेवी महाराज के कक्ष में आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं।”

“दीदी और भैया ब्राह्मणाबाद से आ गये?” सूर्यदेवी और प्रीमलदेवी एक साथ चहक पड़ीं।

“तुम दोनों यहीं रुकोगी। दोपहर से पहले तुम्हें कमल से भेंट करने का अवसर नहीं मिलेगा।” कठोर स्वर में आदेश देकर जयशाह अखाड़े से बाहर निकला।

उसके जाने के उपरान्त सूर्यदेवी अपनी बहन की ओर मुड़ी, “तुम्हें वास्तव में लगता है तुम मुझे पराजित करने वाली थी?”

प्रीमल ने भी ऐंठते हुए अपनी तलवार म्यान में डालते हुए कहा, “अगली बार अवसर प्राप्त तो होने दो। देख लेंगे किसमें कितना बल है। पर अभी मैं कुछ और सोच रही हूँ।” “हाँ, कमल दीदी से भेंट करने के लिये दोपहर तक की प्रतीक्षा का आदेश तो मुझे भी स्वीकार नहीं है।” सूर्य ने भी सहमति जताई।

******

महाराज दाहिरसेन, राजकुमार वेदान्त और कमलदेवी कक्ष में रखे अपने-अपने आसनों पर मौन बैठे थे। युवराज जयशाह ने कक्ष में प्रवेश कर दाहिरसेन के चरण स्पर्श किये। उन सबके मुख पर उद्धविघ्नता का भाव देख जयशाह को तनिक आश्चर्य हुआ, “क्या बात है, पिताश्री?”

दाहिरसेन ने भौहें सिकोड़े कमलदेवी की ओर देखा, “पूछो अपनी लाडली बहन से। अपने विवाह को लेकर हठ पर अड़ी है।”

जय ने क्षणभर को मुँह फुलाई हुई कमलदेवी की ओर देखा, फिर वापस अपने पिता से प्रश्न किया, “किन्तु जहाँ तक मुझे ज्ञात है आपने तो कालभोज और कमलदेवी के सम्बन्ध के लिये अपनी सहमति दे दी थी।”

“प्रश्न सहमति का नहीं है, भ्राताश्री।” वेदान्त भी उठकर जय के निकट आया और कमलदेवी की ओर संकेत कर कहा, “कमल की हठ है कि कालभोज को विवाह प्रस्ताव भेजने से पूर्व वो स्वयं उसकी परीक्षा लेना चाहती है।”

यह सुन जय ने आश्चर्यभाव से अपनी बहन की ओर देखा, “तुम तो उसके पराक्रम और शिवभक्ति पर ही मोहित हुई थी न। तो फिर अब क्या उसके सामर्थ्य पर संदेह होने लगा क्या तुम्हें?”

कमल ने उठकर अपने नेत्रों में दिखती दृढ़ता लेकर कठोर स्वर में कहा, “माना वो एक महावीर और मेवाड़ के सम्मानित योद्धा हैं। किन्तु स्वयं एक शिवभक्त होने के कारण उनकी शिवभक्ति की परीक्षा लिये बिना मैं पूर्ण मन से उन्हें स्वीकार नहीं कर सकती। महाशिवरात्रि आने को है, तो मेवाड़ में परम शिव भक्त रूप में विख्यात कालभोजादित्य रावल के ज्ञान के परीक्षण का इससे उत्तम अवसर नहीं हो सकता।”

“और इसके लिये ये वहाँ भेष बदलकर जाना चाहती है।” दाहिरसेन ने खीजते हुए कहा, “कहती है अपने साथ सैनिकों को नहीं ले जायेगी। कौन सुरक्षा करेगा इसकी वहाँ?”

जय ने कुछ क्षण विचार किया फिर वेदान्त से कहा, “क्या तुम भेष बदलकर कमल की सुरक्षा कर पाओगे?” जय का ये प्रश्न सुन दाहिर और वेदान्त, दोनों ही हतप्रभ रह गये।

“तुम इसके लिये सहमति कैसे दे सकते हो, युवराज? अपनी बहन के जीवन का तुम्हें तनिक भी मोह नहीं ?” राजा दाहिर क्रोधित हो गये।

“प्रश्न मोह का नहीं परम्परा का है, पिताश्री। और स्वयंवर की प्रथा के अनुसार एक आर्य कन्या का ये अधिकार है कि वो विवाह से पूर्व अपने जीवनसाथी के व्यक्तित्व की परीक्षा ले सके।” कहकर जय वेदान्त की ओर मुड़ा, “और वैसे भी मुझे वेदान्त के पराक्रम पर पूर्ण विश्वास है।”

अपनी मुठ्ठियाँ भींच राजा दाहिर कुछ क्षणों के लिये मौन रहे। फिर अपने क्रोध को शांत कर उन्होंने अपनी पुत्री कमल की ओर देखा, “ठीक है, यदि युवराज जयशाह की स्वीकृति है, तो हमें भी कोई आपत्ति नहीं।” 

चहकते हुए कमल जयशाह के हृदय से जा लगी। राजा दाहिर और वेदान्त भी हँस पड़े।

वेदान्त ने आगे आकर कहा, “तो फिर निर्धन ब्राह्मणों का वेश उत्तम रहेगा। इस प्रकार मेवाड़ की भूमि पर तो कदाचित हम पर कोई आक्रमण नहीं करेगा।”

दाहिरसेन ने सहमति जताई। तभी सूर्यदेवी और प्रीमलदेवी भी कक्ष में आ गयीं और एक साथ बोलीं, “हम भी जायेंगे दीदी के साथ।”

उन्हें अकस्मात ही यूँ कक्ष में आया देख वहाँ उपस्थित सभी जन उनकी ओर मुड़े। दाहिरसेन ने आश्चर्यभाव से प्रश्न किया, “अब तुम्हें कहाँ जाना है?”

“मेवाड़।” सूर्य ने आगे आते हुए गर्व से कहा, “राजकुमारी कमल के होने वाले जीवनसाथी की परीक्षा लेने के इस अभियान पर हम भी उनकी रक्षिका बनकर जायेंगी।”

वेदान्त हँस पड़ा, “ये लोग रक्षिका बनेंगी?” उसके इस व्यवहार को देख कक्ष में उपस्थित सभी ने उसे घूरकर देखा, मानों वो कोई अपराधी हो। यह देख वेदान्त भी झेंप गया, उसकी हँसी विलुप्त हो गयी और उसने उन सभी को आश्चर्यभाव से देखा, “आप लोग ऐसे क्यों देख रहे हैं? कुछ अनुचित कहा क्या मैंने ?”

अगले ही क्षण प्रीमल ने विद्युत गति से तलवार म्यान से निकाली और वेदान्त के हिलने से पूर्व ही उसके कण्ठ पर टिका दी, “यदि आज्ञा हो तो हम अपने शस्त्रों के संताप का परिचय दें, भ्राताश्री?”

प्रीमल की गति और सूर्य के मुख पर छाए उन्माद को देख वेदान्त चकित रह गया। वहीं कमल अपनी दोनों बहनों के निकट आयी, “आज मुझे शस्त्रों में रूचि ना होने की बड़ी ग्लानि हो रही है।” उसके संकेत पर प्रीमल ने तलवार को वेदान्त की गर्दन पर से हटा लिया।

 “गति के साथ संतुलन और संयम भी, अद्भुत।” वेदान्त कुछ पग पीछे हटा, “एक नारी का ऐसा पराक्रम..?”

दाहिरसेन ने वेदान्त के कंधे थपथपाते हुए कहा, “अभी तुमने अपनी माता महारानी मैनाबाई की तलवार का स्वाद नहीं चखा पुत्र।”

“माताश्री की बात अलग है पिताश्री, उनसे तलवार लड़ाने का साहस कौन करेगा?” वेदान्त ने झेंपते हुए कहा।

हँसते हुए दाहिरसेन ने अपने ज्येष्ठ पुत्र जय की ओर देखा, “तुम अपनी पीढ़ी में ज्येष्ठ भी हो और योग्य भी। साथ ही कई वर्षों से तुम्हीं सूर्य और प्रीमल के साथ अलोर में निवास कर रहे हो। तो उनके सामर्थ्य का आँकलन कर ये निर्णय भी तुम्हीं करो।”

अपने पिता का कथन सुन जय, सूर्य और प्रीमल के निकट आया और उन्हें घूरकर देखा, “इनमें अनुशासन की बहुत कमी है, पिताश्री।”

यह सुनकर सूर्य और प्रीमल के साथ कमल का भी चेहरा उतर गया। राजा दाहिर और वेदान्त भी व्यग्रता से उसके निर्णय की प्रतीक्षा में थे। अपना स्वर कठोर कर जयशाह ने अपना निर्णय सुनाया, “इनका स्वप्न आपसे कंधे से कंधा मिलाकर युद्ध करने का है, पिताश्री। किन्तु ये अनुशासनहीनता इनका बहुत बड़ा दुर्गुण है। अभी तक तो मैं इनके इस दुर्गुण को दूर न कर पाया। अब बस यही आशा करता हूँ कि ये अभियान उन्हें जीवन का नया अनुभव देकर इन्हें थोड़ा अनुशासित होने के साथ संयम धारण करना सिखा सके।”

अपने ज्येष्ठ का निर्णय सुन तीनों बहनें चहक उठीं। वहीं जय ने सूर्य और प्रीमल को चेतावनी देते हुए कहा, “स्मरण रहे, निर्धन ब्राह्मण कन्याओं के वेश में जा रही हो, तो अपने क्रोध पे नियंत्रण रख शस्त्रों को तब तक बाहर न निकालना जब तक आवश्यक न हो। यही तुम दोनों के संयम की परीक्षा है। यदि इस बार तुम असफल हुई तो युद्ध में पदार्पण करने का अवसर कभी प्राप्त नहीं होगा।”

जय की लम्बी चौड़ी बातें सुन कमल झेंप सी गयी, “आप जाने से पूर्व ही इन पर इतने कठोर क्यों हो रहे हैं, भ्राताश्री?”

कमल के कटाक्ष पर जय मौन हो गया। वहीं राजा दाहिर ने कमल के निकट आकर समझाने का प्रयास किया, “युद्ध की विभीषिका बड़ी निर्मम होती है, पुत्री। रण के लिये सज होना हो तो केवल शारीरिक ही नहीं मानसिक पीड़ा के लिये भी स्वयं को तैयार करना आवश्यक है।”

“आप चिंतित मत होईये, पिताश्री। हम आपको निराश नहीं करेंगे।” सूर्य ने दृढ़ होकर अपने पिता के चरण स्पर्श किये, प्रीमल ने भी वैसा ही किया।

दाहिरसेन मुस्कुराये, “मैं भी इसी आशा से ब्राह्मणाबाद लौट रहा हूँ। तुम सबलोग अवश्य सफल होकर लौटो।”

******

मेवाड़ (नागदा ग्राम)
वृक्ष के नीचे खड़ा देवा बड़ी व्यग्रता से चहुं ओर दृष्टि घुमाये जा रहा था, “कहाँ लुप्त हो गया ये?” वहीं मेवाड़ का युवराज सुबर्मन जो कि अब एक बलिष्ठ और तेजवान युवक हो चुका था। वो भी चहुं ओर दृष्टि घुमाकर किसी की खोज में था, “स्मरण रहे, देवा। इस क्षेत्र में तनिक भी वायु नहीं बह रही। एक भी पत्ता गिरा तो कालभोज की पराजय निश्चित है।”

“हाँ, हाँ मैं भी इसी ताक में हूँ। किन्तु ये गया कहाँ ? कहने को वृक्षों पर कूद रहा है किन्तु किसी भी वृक्ष से कोई विशेष स्वर सुनाई नहीं दे रहा, जिससे उसकी स्थिति पता लग सके।” देवा और सुबर्मन दोनों चहुं ओर दृष्टि घुमाकर कालभोज की खोज में थे।

कुछ ही क्षणों में उन दोनों के सामने खड़े वृक्ष से कूदकर कालभोज उनके समक्ष आ खड़ा हुआ। कमर में केवल एक धोती बांधे रावल का वो भीमकाय शरीर वज्र की भाँति कठोर प्रतीत हो रहा था। मुख पर ऐसा तेज कि मानों स्वयं सूर्य की लालिमा उसकी आभा से मोहित होकर उस वीर पर अपना रंग चढ़ाने को व्यग्र हो रही हो। शरीर और मुख पर छाई दृढ़ता से बीस वर्ष की आयु में ही गुहिलवंश का वो चिराग कालभोजादित्य रावल एक अत्यंत बलाढ्य और पराक्रमी योद्धा प्रतीत हो रहा था। 

अपनी भुजाओं को फड़काते हुए कालभोज सुबर्मन और देवा के निकट आया, “बोलो, गिरा एक भी पत्ता?”

सुबर्मन और देवा ने क्षणभर को एक-दूसरे को आश्चर्यभरी दृष्टि से देखा। सुबर्मन ने पंक्ति के सबसे पीछे खड़े वृक्ष की ओर देखा, “कुल इक्कीस वृक्षों पर दौड़ गये तुम, और हमें एक क्षण को भी आभास नहीं हुआ कि तुम कब किस वृक्ष पर थे।”

“तो फिर चुनौती में विजय किसकी हुई ?” कालभोज ने गर्व से कहा।

सुबर्मन कुछ कहता इससे पूर्व ही देवा रावल के निकट आया और उसके कंधे पर चिपके दो पत्ते निकाले और साथ में उसके पाँव पर चिपके पत्ते भी उठाये, “तुमने तो कहा था पत्ते भूमि पर नहीं गिरेंगे।”

“हम्म।” कालभोज की मुट्ठियाँ भिंच गईं, “थोड़ी सी चूक हो गयी बस।”

 वहीं सुबर्मन की दृष्टि अब भी वृक्षों पर ही थी, “तुम इसे चूक कहते हो? मैं तो अब भी यही सोच रहा हूँ कि क्या खाके तुमने ऐसा अद्भुत अभ्यास किया जो इतनी गति के साथ ऐसा अद्भुत संतुलन बनाया।”

अपने शरीर को एक वस्त्र से पोंछते हुए कालभोज मुस्कुराया, “बस रस्सियों को सही दिशा में फेंककर झूलना है। यदि आपके पास समय है तो आपको भी सिखा सकता हूँ।”

“वो सब छोड़ो।” देवा ने हस्तक्षेप करते हुए कहा, “तुम ये तो मानते हो न कि इस चुनौती में तुम परास्त हो गये ?” खीजते हुए कालभोज ने सहमति में सिर हिलाया। देवा की तो मानों बाँछें ही खिल गईं, उसने आगे आकर एंठते हुए कहा, “तो मेवाड़ के सेनापति महावीर कालभोजादित्य रावल, आज नदी पर जाकर अपने साथ हम सबके शस्त्र धोकर उन्हें पूजा के लिये तैयार करना आपका कार्य है।” दाँत पीसते हुए रावल देवा के निकट आया और उसके नेत्रों में देखते हुए कटाक्ष किया, “बस चार पत्तों से बच गये तुम। अन्यथा नदी के तट पर तुम ये कार्य कर रहे होते।”

“अब जो भी हो, परास्त तो तुम हो चुके हो। तो लग जाओ काम पर।” सुन्धवा ने धौंस जमाते हुए कहा।

पराजय स्वीकार कर श्वास भरते हुए कालभोज नदी की ओर बढ़ा। उसके जाते ही मानों देवा ने चैन की साँस ली. “मुझे तो लगा था सदैव की भाँति हर चुनौती में अजेय रहने वाला भोज इस बार भी विजयी हो जायेगा।” 

“और फिर तुम्हें तट पर जाकर सारे शस्त्र धोने पड़ते।” सुबर्मन की भी हँसी छूट गयी।

******

शस्त्रों का एक बड़ा सा गठ्ठर लिये कालभोज नदी के पास आया। गठ्ठर खोला तो उसमें केवल शस्त्र ही नहीं कवच और शिरस्त्राणों के भी कई गुच्छे थे। देवा की शरारत पर हँसते हुए कालभोज ने राख के प्रयोग से उन्हें स्वच्छ करना आरम्भ किया। अकस्मात ही उसकी दृष्टि उस शिरस्त्राण पर पड़ी जिसका प्रयोग उसने अपने जीवन के पहले युद्ध अर्थात सिंध के ब्राह्मणाबाद में हुए संग्राम में किया था। अपनी पालक माता देवी तारा द्वारा भेंट किया हुआ वो शिरस्त्राण उसके हृदय के बहुत निकट था। आज भी उस शिरस्त्राण के भीतर देवी तारा के चरणों पर लगे चंदन की डिबिया यूँ सटी हुयी थी मानों वो उसी का भाग बन चुकी हो। वो कुछ पल उस शिरस्त्राण को ही देखता रहा।

वहीं वृक्ष के पीछे से केसरिया रंग की सादी साड़ी पहने एक युवती ने उसे देखा। बड़ी जिज्ञासा से उस युवती ने रावल के हर कृत्य पर दृष्टि जमाई हुई थी। गले में रुद्राक्ष की माला और बिना कोई आभूषण धारण किए वो युवती कोई और नहीं सिंध के राजा दाहिरसेन की पुत्री राजकुमारी कमलदेवी थी जो अपने जीवनसाथी के व्यक्तित्व का परीक्षण लेने के उद्देश्य से मेवाड़ के नागदा ग्राम पहुँच आयी थी। वहीं सूर्य और प्रीमल दो भगवा कुर्ता और पगड़ी पहने अलग-अलग वृक्षों पर बैठे उन पर लगे फल तोड़कर खा रही थीं। तभी मुख पर लम्बी दाढ़ी, और माथे पर त्रिपुण्ड तिलक सजाये ब्राह्मण वेश धारण किये वेदान्त वस्त्रों का गठ्ठर उठाये कमल के निकट आया और वो गठ्ठर उसे थमा दिया, “जाओ, तुम भी थोड़ा प्रयास कर लो।”

“अरे आप भी साथ चलिए ना, मुझे वस्त्र धोने कहाँ आता है?” कमल झेंपते हुए बोली।

“तो सीखकर आना था न। स्वयं को परिस्थिति अनुसार ढालोगी नहीं, और चाहती हो महावीर कालभोजादित्य रावल की परीक्षा लेना ?” वेदान्त ने कटाक्ष करते हुए शस्त्र स्वच्छ करते हुए कालभोज की ओर देखा, “मैं यहाँ तुम्हारे रक्षण के लिये आया हूँ। एक बार भी यदि कालभोज ने मुझे देख लिया तो वो इतना मूर्ख नहीं जो दाढ़ी मूँछ लगा लेने से मुझे पहचानेगा नहीं। मैं जितना दूर रह सकूँ, रहूँगा।”

मुँह फुलाते हुए कमल ने वस्त्रों के गठ्ठर की ओर देखा और थोड़ा साहस एकत्र कर उसे उठाकर नदी की ओर जाने लगी। शस्त्रों को स्वच्छ कर कालभोज उन्हें तट पर रखे जा रहा था। घूँघट ओढ़े कुछ गज की दूरी पर कमल नदी के तट पर बैठी और वस्त्र धोने का प्रयास करने लगी। कालभोज का ध्यान क्षणभर को उसकी ओर गया, फिर वो पुनः अपने शस्त्र स्वच्छ करने लगा। अकस्मात ही कमल ने पत्थर पर गीले वस्त्र को पटका जिसके कारण उसके थोड़े छींटे भोज के मुख पर पड़े। भौहें सिकोड़े रावल ने कमल की ओर क्षणभर देखा फिर उसे अनदेखा कर पुनः अपने कार्य में लग गया। कुछ क्षण उपरान्त पुनः गीले वस्त्रों से उठे छींटे उसके मुख पर पड़े। खीजा हुआ कालभोज उठकर आया, किन्तु कमल को विचित्र ढंग से वस्त्र धोते देख उसकी हँसी छूट गयी, “क्या हुआ देवी, पहले कभी वस्त्र नहीं धोये क्या?”

कालभोज का स्वर सुन कमल को अपने हाथों में कंपन का आभास हुआ। उसने अपने घूँघट को थोड़ा और ऊपर किया। उसके प्रश्न का उत्तर देने में कमल के होंठ अब भी संकोच में थे। इतने वर्षों से जिस वीर को अपने स्वप्न का युवराज बनाया था आज वो उसके सामने खड़ा उससे प्रश्न कर रहा था। थोड़ा संकोच तो स्वाभाविक था। वहीं वृक्ष पर बैठी प्रीमल को इस प्रकार कमल का मौन रहना सहन नहीं हुआ। वो वृक्ष से कूदकर शीघ्र ही कालभोज के सामने आ गई। उसे ऐसा करते देख वेदान्त और सूर्य ने अपना सिर पीट लिया। वहीं प्रीमल कालभोज के निकट आकर बोली, “आपको मेरी बहन के वस्त्र धोने से कोई समस्या है ?”

“बहन?” कालभोज ने प्रीमल की ओर ध्यान से देखा, उसे ललाट पर त्रिपुण्ड लगाये देख अनुमान लगाना कठिन नहीं था, “आप लोग ब्राह्मण हैं ?”

“हाँ तो, यहाँ नागदा में ब्राह्मणों के आने पर प्रतिबंध है क्या ?” कहते हुए प्रीमल ने अपने हाथों में रखा फल चबाया।

“तुम जरा मौन रहोगी?” कठोर स्वर में कहती हुई कमल उठी और अपना घूँघट उठाकर कालभोज को देखा।

इतने वर्षों बाद अपने संभावित जीवनसाथी को देख क्षणभर के लिये कमल स्थिर सी होकर उसके नेत्रों में देखने लगी। कमल अत्यंत लावण्यमयी तो थी ही, साथ में कालभोज को भी उसका यूँ इस तरह देखना उसे भी हृदय में थोड़ा सा कंपन का अनुभव करा गया।

“मुझे मौन रहने को कह रही थी, और स्वयं ही मौन हो गयीं दीदी?” प्रीमल ने उसकी चुटकी ली।

स्वयं को संभालती कमल कुछ पग पीछे हटी। कालभोज भी क्षणभर को संकुचित हुआ फिर कमल से कहा, “ब्राह्मणों के आगमन से नागदा में भला किसी को क्या समस्या हो सकती है? मैं तो बस यूँ ही पूछ रहा था, क्योंकि समस्त मेवाड़ को ज्ञात है कि नागदा ग्राम अतिथियों, विशेषतः ब्राह्मणों का कितना भव्य स्वागत करता है।”

क्षणभर को कालभोज की ओर देख कमल इतराते हुए बोली, “तो क्या अब हम आपको स्वागत योग्य नहीं लगते?”

“मैंने ऐसा तो नहीं कहा।” कालभोज झेंप गया, “मैं तो बस आपके यहाँ आने का उद्देश्य जानने का इच्छुक हूँ। यदि हमें पहले ज्ञात होता, तो आपके भव्य स्वागत की तैयारी भी करते। और निसंदेह आपको इस प्रकार से वस्त्र नहीं धोने पड़ते।”

इस पर कमल निष्ठुर होकर बोली, “हम स्वावलम्बी स्वभाव के हैं। हमें अपना कार्य स्वयं करना आता है, आवभगत कराने में हमें कोई रुचि नहीं है।”

कालभोज ने मुस्कुराते हुए कटाक्षमय स्वर में कहा, “किन्तु जिस प्रकार आप वस्त्र धोने का प्रयास कर रही हैं, लगता तो नहीं कि आपने पहले कभी ये कार्य किया है।”

प्रीमल मन ही मन मुस्कुराने लगी। वहीं कालभोज का ये कटाक्ष सुन कमल ने भी झेंपते हुए कहा, “हाँ, मान लिया हमने ये पहले कभी नहीं किया। किन्तु यात्रा पर निकले हैं, तो ये कार्य भी सीखना ही होगा न। बस सुनने में आया था कि इस बार नागदा की महाशिवरात्रि बड़ी भव्य होने वाली है। तो सोचा सामान्य ब्राह्मणों की भाँति ही क्यों न दर्शन करें। हम तो भोले भण्डारी की कृपा के भिक्षुक मात्र हैं, किसी सुविधा की आवश्यकता नहीं हमें।”

कालभोज ने हाथ जोड़ विनम्र भाव से कहा, “यदि आप बाहर से आये आगंतुक न होते तो कदाचित मैं आपके कार्य में हस्तक्षेप न करता। किन्तु हम अतिथि देवो भवः के सिद्धांत का त्याग नहीं कर सकते। हम पर विश्वास करिये। मैं हरित ऋषि का शिष्य और मेवाड़ का सेनानायक कालभोजादित्य रावल आपका नागदा में स्वागत करता हूँ। हमारे गुरुदेव हरित ऋषि का आश्रम निकट ही है, मेरी इच्छा है कि आप वहाँ पधारें। कौन-कौन है आपके साथ?” 

प्रीमल ने पीछे कई गज दूर खड़े वेदान्त और वृक्ष पर बैठी सूर्य की ओर संकेत करते हुए कहा, “वो है हमारी बहन सूर्यदेवी जो वृक्ष पर बैठी हमारे भ्राताश्री की सुरक्षा कर रही है। और वो जो साधना में लीन हैं, वो हैं हमारे भैया, ऋषि विंधेश्वर।”

कालभोज ने दूर से ही विंधेश्वर बने वेदान्त को देखा। योजनानुसार वो पालथी मारे समाधि पर बैठा था। कालभोज ने उसे निकट जाकर देखने का प्रयास किया। तभी कमल ने उसका हाथ पकड़ उसे रोका, “रुक जाईये, भ्राताश्री की साधना में विघ्न डालना उचित नहीं।”

कालभोज ने क्षणभर को कमल के हाथ की ओर देखा। झेंपते हुए कमल ने अपना हाथ हटा लिया। दो क्षण को कालभोज को स्तब्ध देख प्रीमल मन ही मन मुस्कुरा दी।

अगले ही क्षण रावल ने स्वयं को संभाला और कमल से विनम्र भाव से कहा, “आपको ऐसा क्यों लगता है मैं उनकी साधना भंग कर दूँगा?”

“विवाद मत करिए। साधना के समय भ्राताश्री का आदेश रहता है कि कोई भी अपरिचित उनके आसपास न आये। इसलिए आप उन्हें छोड़िये, यदि अतिथि सत्कार की इतनी ही इच्छा है तो चलिए जहाँ आप हमें ले जा रहे थे।” कहते हुए कमल आगे बढ़ी। 

“अरे, किन्तु आपके भ्राताश्री वहाँ कैसे पहुँचेंगे?”

 “उसकी चिंता आप न करें।” कहते हुए कमल ने वृक्ष के ऊपर चढ़ी अपनी बहन सूर्य की ओर संकेत करते हुए कहा, “मेरी बहन सूर्य उन्हें वहाँ ले आएगी।” कमल आगे बढ़ती गई, साथ में प्रीमल को भी अपने पीछे आने का संकेत दिया।

“ठीक है, जैसी इच्छा।” कालभोज ने पुनः मुड़कर साधना में लीन वेदान्त की ओर देखा फिर उनके पीछे चल दिया।

उन्हें वहाँ से जाता देख नेत्र खोल वेदान्त ने चैन की श्वास भरी और समाधि से उठा। तभी एक हाथ ने उसके कंधे को स्पर्श किया। पलटकर वेदान्त ने सामने खड़े व्यक्ति की ओर देखा, ये कोई और नहीं मेवाड़ का युवराज सुबर्मन था जो उसे आश्चर्यभरी दृष्टि से देखे जा रहा था, “राजकुमार वेदान्त, आप यहाँ क्या कर रहे हैं ? वो भी इस ब्राह्मण भेष में?” सुबर्मन वेदान्त को एक दृष्टि में पहचान गया।

विचलित हुआ वेदान्त मौन खड़ा रहा। वहीं वृक्ष से कूदकर सूर्यदेवी भूमि पर आयी और उस पर कटाक्ष करते हुए कहा, “आपको तो भेष बदलने का भी सलीका नहीं है, भ्राताश्री। आप तो आश्रम से दूर ही रहिएगा।” सूर्य का कथन सुन सुबर्मन ने आश्चर्यभाव से प्रश्न किया, “अब बतायेंगे राजकुमार, ये सब क्या हो रहा है ?” “बताता हूँ युवराज सुबर्मन।” हार मानकर वेदान्त ने अपनी पूरी योजना विस्तार से बतानी आरम्भ की।

******

वही कालभोज कमल और प्रीमल को अपने साथ आश्रम में ले आया। प्रवेश द्वार को पार कर कमल ने उस भव्य आश्रम को देखा जहाँ सैकड़ों शिविर लगे हुए थे। यदि इतने मनुष्य कहीं और होते तो वो स्थान किसी बाजार या मेले जैसा प्रतीत होता जहाँ का शोर दूर-दूर तक सुनाई देता। किन्तु हरित ऋषि के इन शिष्यों के पदचाप इतने सुदृढ़ और केंद्रित थे कि आश्रम के भीतर आकर भी मनुष्य के हृदय को शांति ही मिले। तीन-तीन हवनकुंडों से उठते मंत्रोच्चारण पूरे वातावरण में सकारात्मक ऊर्जा का संचार करते प्रतीत हो रहे थे। कमल और प्रीमल दोनों ही ऐसे वातावरण को देख बहुत प्रभावित हुईं। बहुत दिनों की यात्रा के उपरान्त उन्हें ऐसे वातावरण का स्वाद मिला था जो हृदय पर शीतलता का लेप लगाये। कालभोज ने उन्हें भीतर आने का संकेत दिया और शीघ्र ही वो तीनों हरित ऋषि के शिविर में पहुँचे, जहाँ उन्हें ध्यान में लीन पाया।

अपने प्रिय शिष्य कालभोज की उपस्थिति के आभास मात्र ने कुछ ही क्षणों में हरित ऋषि को अपने नेत्र खोलने पर विवश कर दिया। कालभोज सहित कमल और प्रीमल ने भी उन्हें प्रणाम किया। जिसके उपरान्त कालभोज ने उनका परिचय देते हुए कहा, “ये दो ब्राह्मण कन्यायें, कमल और प्रीमल नागदा ग्राम मे महाशिवरात्रि के उत्सव के दर्शनों की इच्छा से आई हैं, गुरुदेव । इनके साथ इनके एक भाई, बहन और भी हैं, जो कुछ समय उपरान्त यहाँ पधारेंगे। यदि आपकी स्वीकृति हो, तो क्या हम इन्हें आश्रम के अतिथि क्षेत्र में स्थान दे सकते हैं ?”

हरित ऋषि ने क्षणभर दोनों कन्याओं की ओर देखा, और प्रीमल के हाथ की ओर संकेत कर कहा, “एक कन्या के इतने कठोर हाथ? प्रतीत होता है शस्त्रों से बड़ा प्रेम है तुम्हें।” हरित ऋषि मुस्कुराये, “ये हमारा सद्भाग्य है पुत्री, जो तुम लोगों के शुभ पग नागदा में पड़े।”

प्रीमल ने विनम्रतापूर्वक कहा, “आपका विश्लेषण उचित है, ऋषिवर। मुझे और मेरी बहन सूर्यदेवी को शस्त्रों से बहुत प्रेम है। किन्तु किसी अपरिचित को इतना सम्मान देकर उसे लज्जित न कीजिए, ऋषिवर।”

“तुम निसंदेह इस सम्मान के योग्य हो, पुत्री। और यदि तुम्हारी इच्छा हो तो मैं तुम्हें एक ऐसा कार्य भी सौंप सकता हूँ जिससे तुम स्वयं को भी इस सम्मान के योग्य समझो।” प्रीमल के मुख पर मुस्कान खिल गई, “आज्ञा दीजिए, ऋषिवर।”

“अपने अनुभव के आधार पर तुम्हारे हाथों की कठोरता को देख मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि तुम वर्षों से ये कार्य कर रही हो। तीन दिन के उपरान्त शिवरात्रि है और मेरी इच्छा है कि इन तीन दिनों में तुम नागदा ग्राम की उन कन्याओं की प्रेरणा बनों जिनकी शस्त्राभ्यास में रुचि है, किन्तु किसी कन्या को कभी शस्त्रों सहित ना देखने के कारण वो शस्त्रों को स्पर्श करने का आत्मविश्वास नहीं जुटा पाईं। कहो, क्या ऐसा कर पाओगी?”

प्रीमल ने गर्व से भरी मुस्कान लिये कमल की ओर देखा फिर उसकी दृष्टि कालभोज की ओर मुड़ी, “कदाचित यहाँ मुझे अपनी बहन की सुरक्षा की चिंता करने की कोई आवश्यकता नहीं। उसके लिये तो वीर कालभोज ही पर्याप्त हैं।” फिर उसकी दृष्टि हरित ऋषि की ओर गई और उनके निकट जाकर वो उनके समक्ष घुटनों के बल बैठकर उन्हें प्रणाम किया, “इस सुअवसर के लिये आपका बहुत-बहुत आभार, ऋषिवर। ये मेरा सद्भाग्य है जो आपने मुझे इस योग्य समझा। मैं अपने और अपनी बहन सूर्य की ओर से ये वचन देती हूँ कि आपकी आशाओं पर खरा उतरने का पूरा प्रयास करूँगी, आज्ञा दीजिए।”

हरित ऋषि ने हाथ उठाकर उसे आशीर्वाद का संकेत दिया। तत्पश्चात प्रीमल ने कालभोज की ओर देखा, “ध्यान रखिएगा दीदी का, आपके विश्वास पर छोड़कर जा रही हूँ।”

कालभोज ने झेंपते हुए सहमति में सर हिलाया। प्रीमल उस शिविर से प्रस्थान कर गयी, वहीं कालभोज ने संकोच भरी दृष्टि से अपने गुरु की ओर देखा।

“अतिथि की आशाओं का अनादर करना उचित नहीं, कालभोज।”

हरित ऋषि का सकारात्मक संकेत पाकर कालभोज का आत्मविश्वास मानों सुदृढ़ सा हो गया। वो कमलदेवी की ओर मुड़ा और उसे आगे बढ़ने का संकेत देते हुए कहा, “चलिए मैं आपको ग्राम की शेष स्त्रियों से मिलवा देता हूँ। आपका वहीं निवास करना उचित होगा।”

कालभोज के साथ एकांत में कुछ समय की यात्रा के विषय में विचार कर कमलदेवी मन ही मन प्रफुल्लित हो उठी। किन्तु साथ में हृदय के कोने में थोड़ी सी कंपन भी थी। वो कालभोज के साथ शिविर से बाहर आई और साथ में चलने लगी। कालभोज के मुख पर छाया आत्मविश्वास देख कमल के मन में चल रही संकोच की भावना भी समाप्त सी होने लगी। मार्ग में चलते हुए कमल ने तपाक से पूछा, “आपको ऐसा क्यों लगता है कि इस समय मेरा स्थान उन स्त्रियों के मध्य ही है?”

कालभोज थोड़ा झेंपा, फिर दृढ़ स्वर में बोला, “ऐसा प्रतीत नहीं होता कि आपको शस्त्रों में कोई रुचि है। देखा जाए तो मेरे गुरुदेव ने एक प्रकार से मुझे आपका अंगरक्षक ही नियुक्त किया है, तो मैं बस आपको वहीं ले जा रहा हूँ जहाँ आप हर प्रकार से सुरक्षित रहेंगी।”

“और यदि मैं वहाँ ना जाना चाहूँ तो ?” कमल ने एंठते हुए कहा।

“तो कहाँ जाना चाहती हैं आप?” कालभोज ने विस्मयपूर्वक प्रश्न किया।

कमल ने कुछ क्षण इधर-उधर देख विचार किया फिर कालभोज से बोली, “आपके गुरु ने आपको मेरा अंगरक्षक बनाया है न? सुना है अरावली के पर्वतों में बहुत से भव्य मन्दिर हैं। मेरी इच्छा उनके दर्शनों की है।”

“किन्तु तीन दिन पश्चात शिवरात्रि है और हमें बहुत सी व्यवस्था....।” इससे पूर्व कालभोज अपनी बात कहता तभी देवा ने उसे पीछे से आकर उसका कंधा पकड़ा और चहकते हुए कहा, “तुम उसकी चिंता मत करो, मित्र। सारा कार्य और व्यवस्था हम देख लेंगे।”

उसके यूँ अकस्मात अपने शरीर पर चढ़ आने पर कालभोज भी विस्मित रह गया, “अरे, तुम यहाँ कहाँ टपक पड़े ?” 

इससे पूर्व देवा कोई उत्तर देता सुबर्मन ने भी वहाँ आकर उसकी बात का समर्थन किया, “देवा उचित कह रहा है, भोज। तुम गुरुदेव की आज्ञा का उल्लंघन नहीं कर सकते।”

अपने दोनों मित्रों की विचित्र प्रतिक्रिया देख कालभोज को भी विस्मय हुआ, “ये तुम दोनों को अकस्मात ही क्या हो गया?”

वहीं कमल भी अपरिचित युवकों का इस प्रकार का व्यवहार देख थोड़ी सी विचलित हो गई। उसे विचलित देख सुबर्मन को भी आभास हो गया कि कमल को उसका व्यवहार भाया नहीं। वो चंद पग पीछे हटा और देवा को संकेत करते हुए पूरे आत्मविश्वास से कहा, “इसमें अनुचित क्या है? हम तो बस तुम्हारी सहायता कर रहे हैं जिससे तुम बिना किसी विघ्न गुरुदेव की आज्ञा का पालन कर सको।” इतना कहकर वो देवा की ओर मुड़ा, “शीघ्र चलो, अभी शिवरात्रि की बहुत तैयारी करनी है।”

देवा ने मुस्कुराते हुए कालभोज को देखा फिर सुबर्मन के साथ हो चला। वहीं रावल की सिकुड़ी हुयी भौहें देख कमल ने झेंपते हुए कहा, “यदि आपकी इच्छा नहीं है, तो मैं ऋषिवर से कहकर अपना कुछ और प्रबंध कर लूँगी।”

“अरे नहीं, मैं बस..। बात ये है कि अपने इन मित्रों को मैंने, पहले कभी ऐसे विचित्र व्यवहार करते हुए नहीं देखा। बस इसलिए ये स्थिति जो है, वो थोड़ी....समझ नहीं आई।”

कमल ने विनम्र भाव से कहा, “किन्तु यदि मेवाड़ के सेनापति को यूँ मेरे अंगरक्षक बने रहकर मुझे मन्दिरों के दर्शन कराने का कार्य तुच्छ और अशोभनीय लग रहा हो, तो कृपा करके मुझे ग्राम की शेष स्त्रियों के साथ छोड़ दें। मैं वहाँ से अपनी सुरक्षा की व्यवस्था स्वयं कर लूँगी।”

यह सुन कालभोज के मुख पर भी मुस्कान आ गई, “संसार के ऊँचे से ऊँचे पद वाला व्यक्ति ना गुरु की आज्ञा को टाल सकता है, ना ही अतिथि सत्कार से पीछे हट सकता है। मेरे मन में तो कभी संकोच आया ही नहीं था। वैसे भी आपकी बहन प्रीमलदेवी ने बड़े विश्वास के साथ आपको मेरे संरक्षण में छोड़ा है, तो कृपा करके मेरे साथ आईये।” श्वास भरते हुए कालभोज दक्षिण की ओर संकेत करते हुए आगे बढ़ा। कमल उसके पीछे चल पड़ी।

******

शीघ्र ही कालभोज कमल को लेकर भील स्त्रियों के निवास स्थान पर पहुँचा और उसे भीतर जाने का संकेत कर स्वयं किसी द्वारपाल की भाँति बाहर खड़ा हो गया। वहीं उस स्थान से लगभग तीस गज दूर वृक्ष के तनों के पीछे से तीन मुख कौतूहलवश कालभोज की ओर दृष्टि जमाए हुए थे। ये कोई और नहीं सुबर्मन और देवा के साथ सिन्ध का राजकुमार वेदान्त था, जो अब भी दाढ़ी लगाए साधु वेश में था।

सुबर्मन ने वेदान्त के कंधे पर हाथ रख कहा, “दोनों साथ में कुछ समय बितायें, इसका प्रबंध तो हो गया,कुमार। किन्तु राजकुमारी कमलदेवी किस प्रकार की परीक्षा लेना चाहती हैं? और आगे की योजना का कुछ सोचा है आपने?”

अपनी नकली दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए वेदान्त ने संशयपूर्वक कहा, “कमल के मन में क्या चल रहा है, ये अनुमान लगाना असम्भव है। वो कालभोज की परीक्षा कैसे लेने वाली है, कदाचित ये उसके अतिरिक्त और किसी को ज्ञात नहीं होगा।”

“फिर हम भला उनकी सहायता कैसे करेंगे?” देवा ने उससे प्रश्न किया।

“ये तो मेरे लिए भी एक प्रश्न है।” वेदान्त भी हताश सा होकर विचारमग्न हो गया। तीनों अगले कुछ क्षणों तक वृक्ष के पीछे से ही कालभोज पर दृष्टि जमाये रहे।

सुबर्मन ने झेंपते हुए कहा, “हमें शीघ्र ही कोई योजना बनानी होगी।”

“प्रयास भी मत कीजिएगा।” एक कन्या का स्वर सुन वो तीनों पीछे मुड़े, शस्त्र थामे योद्धा की वेशभूषा में अपने सामने खड़ी कन्या को देख वेदान्त विचलित हो उठा, “प्रीमल?”

सुबर्मन और देवा एक-दूसरे को संकेत कर थोड़ा पीछे हट गये। प्रीमल वेदान्त के निकट आई और भौहें सिकोड़ती हुई बोली, “तो आपने इन्हें भी अपनी योजना में सम्मिलित कर लिया, भ्राताश्री?”

वेदान्त ने झेंपते हुए कहा, “पर ये महावीर कालभोज के मित्र हैं. और हमारी सहायता कर रहे हैं...।” 

सुबर्मन ने हस्तक्षेप करते हुए कहा, “वो भी कालभोज को बताए बिना।” श्वास भरते हुए वो प्रीमल के निकट आया और उसके नेत्रों में देखकर दृढ़ स्वर में बोला, “आप चिंतित मत होईये, राजकुमारी। विश्वास कीजिए, अपने मित्र को राजकुमारी कमलदेवी का सत्य बताकर हम उनके आत्मसम्मान को चोट नहीं पहुँचने देंगे।”

सुबर्मन का दृढ़ता से भरा वो स्वर और नेत्रों से झलकते हुए सत्य की आभा देख प्रीमल उसके सामने कुछ और न बोल पाई। वो दो क्षण मौन खड़ी ही उसके नेत्रों में देखती रह गई। लड़खड़ाते हुए स्वर में उसने बोलने का प्रयास किया, “आप.. आपका परिचय?”

उसका ये काँपता स्वर सुन वेदान्त ने नेत्र फैलाकर सुबर्मन की ओर देखा, “अद्भुत, जो कार्य आज तक बालपन से कोई न कर पाया वो मेवाड़ के युवराज सुबर्मन ने कर दिखाया।” कहते हुए वो सुबर्मन के निकट आया, “जीवन में पहली बार राजकुमारी प्रीमल देवी का स्वर लड़खड़ाया है, मित्र।”

उसकी ठिठोली सुन प्रीमल के मुख पर भी लाज भरी मुस्कान आ गई। वहीं सुबर्मन ने भी क्षणभर प्रीमल की ओर देखा फिर स्वयं को नियंत्रित करते हुए कहा, “इस समय हमारा प्रमुख उद्देश्य कालभोज और राजकुमारी कमलदेवी का मेल कराना है। तो कदाचित हमें उसी पर ध्यान देना चाहिए।”

प्रीमल को भी ऐसा प्रतीत हुआ मानों अकस्मात ही उसकी चेतना लौट आई हो। वेदान्त ने उसे मनाने का प्रयास किया, “युवराज सुबर्मन उचित कह रहे हैं, प्रीमल। हमें ये ज्ञात करना होगा कि कमल किस प्रकार से कालभोज की परीक्षा लेने वाली है।”

प्रीमल ने सुबर्मन की ओर देखते हुए कहा, “क्यों? क्या मेवाड़ के युवराज को अपने मित्र पर विश्वास नहीं कि वो मेरी बहन की परीक्षाओं पर खरे उतर पाएंगे।”

“प्रश्न विश्वास का नहीं है, राजकुमारी।” सुबर्मन ने सुदृढ़ होकर प्रीमल के नेत्रों में देखा, “ये तो सम्भव ही नहीं है कि हरित ऋषि का सर्वश्रेष्ठ शिष्य कालभोजादित्य रावल राजकुमारी कमल की किसी परीक्षा में विफल हो जाए। हमारा प्रयास बस ये है कि जिस प्रकार आपकी बहन के हृदय में मेरे मित्र भोज के प्रति जो प्रेम के पुष्प खिलें हैं उसी प्रकार उसे भी अपने हृदय में राजकुमारी के प्रति प्रेम का आभास हो। यदि ये हो जाए तो उनके सम्बन्ध का सौन्दर्य कई गुना बढ़ जायेगा।”

“आपके तर्क तो वास्तव में बहुत विचारणीय हैं, युवराज।” सुबर्मन के नेत्रों का आत्मविश्वास देख प्रीमल को जीवन में प्रथम बार ये भान हुआ कि किसी पर अपना हृदय हारने का आभास कैसा होता है। इस बार तो प्रीमल के साथ-साथ स्वयं सुबर्मन भी कुछ क्षण उसे निहारता रह गया।

वहीं देवा ने खाँसने का अभिनय करते हुए उनका ध्यान भंग किया। श्वास भरते हुए सुबर्मन ने प्रीमल से प्रश्न किया, “तो क्या आप इस कार्य में हमारी सहायता करेंगी ?”

प्रीमल ने सिर हिलाकर सहमति का संकेत दिया, “मुझे इतना ज्ञात है कि कमल किस प्रकार से वीर कालभोज की परीक्षा लेने वाली है। आगे की योजना उसी के अनुसार बनानी चाहिए।”

 वो चारों कुछ समय तक योजना पर विचार विमर्श करते रहे।

वहीं कुछ समय पश्चात स्नान आदि करके कमल बाहर आई। केसरिया वस्त्रों को धारण किये कमल के बदन से फूटती चंदन की सुगंध ने कई गज दूरी से ही कालभोज को सम्मोहित सा कर दिया। उसकी दृष्टि सिंध की राजकुमारी की ओर घूमी, अप्सरा समान कमलदेवी का वो लावण्य कदाचित देवताओं और ऋषियों को भी उनका तप भंग करने पर विवश करने का सामर्थ्य रखता था। कालभोज के हृदय में भी तनिक झंकार उठी, किन्तु अगले ही क्षण उसने आँखें मूँदी, और अपने गुरु के आदेश अनुसार रक्षक धर्म का मान रखते हुए अपनी दृष्टि झुका ली। वहीं कमल उसके निकट आई, “तो सर्वप्रथम कौन से मन्दिर की ओर उस जाना है ?”

“अरावली की पहाड़ियों में मन्दिरों की कमी नहीं है, देवी। बस ध्यान रखिएगा, आपके पाँव न दुख जायें।” कमल ने भौहें सिकोड़ीं, “तो आपको ब्राह्मण कन्याएँ इतनी दुर्बल प्रतीत होती हैं?”

“प्रश्न दुर्बलता का नहीं, संकरीले मार्ग का है। और अतिरिक्त पादुकाएँ ले लेंगी तो उत्तम होगा।”

कमल ने सहमति का संकेत दिया और वापस पादुकायें लेने भीतर गई।

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शीघ्र ही कमर में एक तलवार के साथ, पीठ पर तीरों से भरे तरकश और कंधे पर धनुष उठाये कालभोज ने ब्राह्मण का भेष धारण किये राजकुमारी कमलदेवी के साथ अरावली के संकरीले मार्गों पर चढ़ाई आरम्भ की। उसे पूरी तरह शस्त्रों से सुसज्जित देख कमल के मन में भी बहुत से प्रश्न उठ रहे थे और अंततः उसने पूछ ही डाला, “मन्दिरों में इतने सारे अस्त्रों की क्या आवश्यकता है?”

“इन पहाड़ियों में घने वन भी बहुत हैं, देवी। वन्यपशुओं का संकट बना रहता है। इसलिए कुछ सूक्ष्म तीर भी रखने आवश्यक थे, जिससे उन्हें मूर्छित किया जा सके या डराकर भगाया जा सके।” कहते हुए कालभोज चलता गया।

उसका संतोषजनक उत्तर सुन संकरीले मार्ग पर चलते हुए कमल विचारमग्न थी कि वो कालभोज की बुद्धि का परीक्षण कैसे ले। कुछ ही क्षणों में मन्दिरों से घंटे की ध्वनि गूँजना आरम्भ हुई।

“ये मन्दिर अवश्य ही महादेव का है।” कमल ने अनुमान लगाने का प्रयास किया।

“उचित अनुमान लगाया देवी, बड़े तीक्ष्ण कर्ण हैं आपके जो कोसों की ऊँचाई पर स्थित मन्दिर के घंटे की गूंज से पहचान लिया।” कालभोज के मुख पर मुस्कान सी छा गई, “एक निष्ठावान भक्त को ही शिव की उपस्थिति का ऐसा आभास हो सकता है।”

वहीं अपने कदम बढ़ाते कमल ने निराशा भरे स्वर में कहा, “किन्तु मुझे अपनी भक्ति की निष्ठा पर संदेह है।” “ऐसा क्यों?” 

“भक्ति को लेकर कई बार मन में बहुत से प्रश्न उठते हैं, कभी-कभी संदेह होता है कि हम उचित कर रहे हैं या नहीं।”

“यदि मन में प्रश्न उठ रहे हों, तो किसी से साझा अवश्य करना चाहिए। क्या पता आपके किसी प्रश्न का उत्तर मेरे पास भी मिल जाये।”

“ठीक है, यदि आपको रुचि है, तो मेरे एक प्रश्न का उत्तर दीजिये। किसी निर्जीव पत्थर या मूर्ति में अपने ईष्ट को देखना कहाँ तक तर्कसंगत है?”

कालभोज मुस्कुराया, “आप पहली नहीं है जिसने ये प्रश्न उठाया है। किन्तु इसका उत्तर देने से पूर्व मैं ये जानना चाहूँगा कि आपके मन में प्रथम बार ये प्रश्न आया क्यों?”

“गुरुओं से उपनिषद का एक श्लोक सुना था 'सर्व खल्विदं ब्रह्म',अर्थात सृष्टि की हर एक वस्तु में ईश्वर का वास है चाहें वो सजीव हो या निर्जीव। तब से लेकर आज तक मन में प्रश्न तैर रहा था कि यदि ये सत्य है तो किसी पत्थर की मूरत में अपने आराध्य को देखना क्या मूर्खता नहीं है ?”

“आपने अभी कहा कि ईश्वर का वास निर्जीव वस्तु में भी है।” कालभोज मुस्कुराया, “और अब आप उन्हें मूर्ख कह रहीं हैं जो एक निर्जीव वस्तु पर अपनी आस्था केन्द्रित करते हैं ?”

कमल थोड़ी सकपका गयी, “मैं कुछ समझी नहीं।” मुस्कुराते हुए कालभोज ने अपने नेत्र बंद किये और उसके मुख से एक मधुर वाणी फूट पड़ी, “यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयार्चितुमिच्छति। तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम्।” कहकर वो कमल की ओर मुड़ा, “अध्याय सात, ज्ञान विज्ञान योग के इस बीसवें श्लोक में वासुदेव श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो-जो सकाम भक्त जिस-जिस देवता के स्वरूप को श्रद्धा से पूजना चाहता है, उस-उस भक्त की श्रद्धा को मैं उसी देवता के प्रति स्थिर करता हूँ। जैसी जिसकी भक्ति वैसी उसकी पूजा, कोई मूर्ति में ईश्वर देखता है, कोई वृक्ष में, कोई गऊ माता और नदी में, तो कोई अपने जीवन के कर्तव्य निर्वहन को ही पूजा मानता है। अब आप मेरे एक प्रश्न का उत्तर दीजिये कि आप विशेषतः किसकी पूजा करती हैं?”

“महादेव की।”

“उसका कोई विशेष कारण?”

“सति के वियोग में जब महादेव ने अपनी दो जटायें धरा पर फेंकी, तो उनसे उत्पन्न हुए वीरभद्र और भद्रकाली के भयावह रूप केवल और केवल शिव शंभू के भीषण क्रोध का प्रमाण ही तो थे। वो क्रोध जो सिद्ध करता था कि महादेव के हृदय में सति के प्रति प्रेम की पराकाष्ठा क्या थी। जिसका संताप प्रजापति दक्ष और उनकी समस्त सेना सहित अनेकों देवताओं को भी झेलना पड़ा। उसके उपरान्त न जाने कितने समय तक शिवशम्भू सति के जले हुए शव को लिए आकाश पाताल में विचरण करते रहे, और अंत में श्री हरि ने अपने सुदर्शन से उस शव के इक्यावन टुकड़े किये जिससे इक्यावन स्थानों पर शक्तिपीठ की स्थापना हुई। और महादेव के प्रेम में वो समर्पण था कि उन्होंने उन इक्यावन शक्तिपीठों की रक्षा के लिए भी भैरव का अवतार लिया। महादेव के जीवन की ये कथा मेरे मन को उनके प्रति अपार आदर से भर देती है, जो वास्तविक प्रेम की एक परिभाषा हैं। ऐसा चरित्र तो निसन्देह पूजा के योग्य है।”

“तो आपकी भक्ति का कारण प्रभु का माता सति के प्रति प्रेम और समर्पण का भाव है, या कह लीजिए कि उनके जीवन चरित्र की कथा का एक भाग है।”

“हाँ, निसन्देह।”

“अब मेरे एक प्रश्न का उत्तर दीजिए, कि क्या ये सम्भव है कि किसी भी कालखण्ड में समाज के हर वर्ग, हर मनुष्य, हर बालक को ग्रंथ, वेद पुराण, उपनिषद आदि का ज्ञान दिया जा सके ?”

कुछ क्षण विचार कर कमल ने कहा, “यदि प्रयास किया भी जाये, तो हर बालक या मनुष्य इन चीजों में रुचि ले, ये सम्भव नहीं।”

“उचित कहा आपने, और किसी भी मनुष्य की बाल्यावस्था सबसे नाजुक समयावधि होती है जब उसके जीवन को किसी भी दिशा में मोड़ा जा सकता है। इसलिए उन्हें उचित संस्कार देना बहुत आवश्यक होता है ताकि वो समय आने पर अपने जीवन में विषम परिस्थितियों में उचित निर्णय ले सकें।”

कालभोज ने कहना जारी रखा, “इस विषय में वासुदेव श्रीकृष्ण ने स्वयं गीता के तीसरे अध्याय कर्म योग के इक्कीसवें श्लोक में कहा है, 
“यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः। 
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।।”
अर्थात हमारे इतिहास के महापुरुषों के आचरण से प्रेरणा लेकर ही वर्तमान का मनुष्य अपने व्यक्तित्व के निर्माण का प्रयास करता है। और इससे प्रेरणा का स्त्रोत होता हैं उनकी जीवन गाथाएँ, जो केवल ग्रंथों में ही नहीं अपितु स्मारकों के रूप में, मन्दिरों के रूप में, पूर्वजों के मुख से निकली लोक कथाओं के रूप में अपना अस्तित्व बनाये हुए हैं।”

“अर्थात यदि मन्दिर न हुए तो ये कथाऐं धीरे-धीरे लुप्त हो जायेंगी? क्या वास्तव में ऐसा सम्भव है ?” कमल के मुख पर अब भी संशय का भाव था।

श्वास भरते हुए पर्वतों की ओर देख क्षणभर विचार कर कालभोज ने प्रश्न किया, “क्या लगता है आपको इस संसार में मानव रूप में सर्वोच्च आदर्श स्थापित करने वाला व्यक्तित्व कौन है?”

“निसंदेह अयोध्या नरेश मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्रीराम। असत्य पर सत्य की सबसे बड़ी विजय की महागाथा है रामायण।”

“तो मान लीजिए समूचे भारतवर्ष में प्रभु श्रीराम के मन्दिर समाप्त हो जाते हैं। उनकी कथाऐं केवल ग्रंथों और पूर्वजों के वचनों तक ही सीमित रह जाती है। अब न जाने कितने मनुष्य ऐसे होते हैं जो अपने जीवन में आई हर पीड़ा का दोष ईश्वर पर डाल देते हैं। इनकी रुचि न ग्रंथों में होती है और ना ही किसी लोककथा में। ऐसे लोग अपने हृदय की पीड़ा को शांत करने के लिये ईश्वर को कटु वचन कहते रहते हैं, ईश्वर के अस्तित्व को ही नकारते हैं। इनमें से कुछ तो नास्तिक हो जाते हैं, किन्तु कई लोग पथ भ्रष्ट भी हो जाते हैं। तो जिन मनुष्यों की रुचि ग्रंथों में नहीं है, और वो अपने जीवन के कठिन समय में उन आदर्श चरित्रों की केवल प्रचलित लोक कथाओं के प्रचार मात्र से ही अपने जीवन को प्रेरित करने का प्रयास करते हैं। ये पथ भ्रष्ट लोग उन श्रद्धालुओं के जीवन में आई पीड़ा को उलाहना देकर उन्हें भी प्रभावित करेंगे। ऐसे में धीरे-धीरे ईश्वर के साथ-साथ इतिहास में विभिन्न आदर्शों की स्थापना करने वाले मनुष्यों का भी अस्तित्व ना मानने वालों की संख्या बढ़ती चली जायेगी।”

इस पर कमल ने एक और प्रश्न उठाया, “किन्तु नास्तिक होना अपराध तो नहीं। यदि प्रभु श्रीराम को एक मनुष्य मानकर भी उनके जीवन से प्रेरणा ली जाये, तो व्यक्ति का चरित्र उत्तम बन सकता है।”

“अवश्य बन सकता है। एक सच्चा नास्तिक जो ईश्वर को नहीं मानता, वो अपने अनुभवों की नौका में बैठकर अपने जीवन के सागर में यात्रा आरम्भ करते हुए अपनी नौका की दिशा स्वयं निश्चित करता है। ऐसे व्यक्ति को भी सम्मान के योग्य माना गया है क्योंकि वो उसका अपना निजी चुनाव है। और अगर ऐसा नास्तिक मनुष्य यदि ग्रंथों और वेदों के अध्ययन के उपरान्त अपने तर्कों और तथ्यों को आधार बनाकर ईश्वर पूजन का विरोध करता है तो हमें उसके तर्कों का स्वागत करना चाहिए।”

कालभोज ने अपना कथन जारी रखा, “किन्तु यदि कोई मनुष्य वेदों, ग्रंथों के अध्ययन के बिना, मूर्ति पूजन के विज्ञान को समझने का प्रयास किये बिना, संसार में विभिन्न आदर्शों की स्थापना करने वाले पात्रों को काल्पनिक बताकर और अपने जीवन की पीड़ा का दोष ईश्वर पर मढ़कर जनमानस को भ्रमित करने का प्रयास करता है, ऐसा व्यक्ति निंदा के योग्य है। क्योंकि उसे संसार में केवल पीड़ा दिखाई देती है और वो अन्य मनुष्यों को भी उसी पीड़ा का भागी बना देता है।”

कालभोज ने कुछ क्षण का विराम लिया, वहीं संकरीले मार्ग पर कठिनाई से अपने कदम बढ़ाते हुए कमल ने कहा, “मुझे तो अब भी नास्तिकत्व में ऐसा कोई विशेष अवगुण दिखाई नहीं देता।”

“किन्तु मनुष्य जाति का एक अवगुण अवश्य है, और एक प्रकार से कह लीजिये वो सगुण भी है, और वो है उसकी जिज्ञासा।” कहते हुए कालभोज बढ़ता रहा, “हमारे अस्तित्व को लेकर हमारे मन में अनंत प्रश्न उमड़ते रहते हैं। और इन प्रश्नों के चलते पिछली कुछ सदियों में मनुष्यों ने अपने रचयिता को लेकर बहुत सी निजी धारणायें बनायीं और उन्हें लगता है कि उन्हीं की धारणा श्रेष्ठ और सत्य है बाकी सब मिथ्या। और इस श्रेष्ठता को सिद्ध करने और अपना सत्य दूसरों पर थोपने के लिए रक्त बहाए गए। स्वयं को श्रेष्ठ सिद्ध करने की ये क्षुदा मानव मात्र के मस्तिष्क से कभी नहीं जाने वाली। मनुष्य में ये दुर्गुण सृष्टि के आरम्भ से है और रहेगा। ऐसा नहीं है कि हमारी मान्यताओं में कोई खोट नहीं, ऐसे कई अन्धविश्वासी रीति रिवाज हो सकते हैं जो आने वाले समय में मानव समाज के लिए बेड़ियाँ बन जायें, उनके लिए संकट उत्पन्न करें। किन्तु श्रेष्ठता सिद्ध करने के बढ़ते अंधकार को रोकने के लिए एकता की आवश्कता होगी। और यही नास्तिकत्व का सबसे बड़ा दुर्गुण है, कि जब तक विज्ञान मनुष्य के अस्तित्व के हर प्रश्न का उत्तर नहीं देता, वो लोगों में किसी संकट के प्रति एकता नहीं ला सकता। जब तक वो दिन नहीं आता, एक नास्तिक के विचार उत्तम हो सकते हैं, पर वो विचार निर्दोषों के जीवन नहीं बचा सकते। क्योंकि युद्ध टालने का भरसक प्रयास करना हमारा कर्तव्य अवश्य है, परन्तु संकट समय आने पर हमें किसी एक पक्ष का चुनाव तो करना ही होगा।”

“पूर्वजों के पराक्रम और महान कार्यों की कथाऐं एक ऐसा शस्त्र होती हैं जो मानव समाज की रक्षा के लिये बहुत आवश्यक है। प्रभु श्रीराम अपने पिता महाराज दशरथ के वचन का मान रखने के लिये चौदह वर्ष का वनवास स्वीकार करते हैं, सिद्धदाता गणेश संसार की सात परिक्रमा की प्रतियोगिता में अपने भ्राता कार्तिकेय से विजय होने के लिये महादेव और माता पार्वती की परिक्रमा करते हैं। उनकी ये कथाऐं लाखों मनुष्यों को अपने माता-पिता का आदर करने की प्रेरणा देने का कार्य करती हैं।”

कालभोज ने कहना जारी रखा, “महाभारत की कथा प्रदर्शित करती है कि कोई कितनी भी बड़ी पुण्यात्मा हो, यदि अधर्म का समर्थन किया तो दण्ड सुनिश्चित है। साथ ही ये महागाथा जीवन के सबसे बड़े तथ्य को हमारे समक्ष रखती है कि सबसे महत्वपूर्ण कर्म है उचित समय पर उचित चुनाव करना। साथ ही हमें ये भी ज्ञात होता है कि अपनी अंतरात्मा का स्वर सुनकर निर्णय लेना कितना आवश्यक है।”

श्वास भरकर कालभोज ने आगे कहा, “रामायण का पवित्र ग्रंथ हो या महाभारत का महाकाव्य, दोनों से हमें ये प्रेरणा मिलती है कि सत्य परेशान हो सकता है, पराजित नहीं। सत्य के पथ पर चलने वाला कोई भी मनुष्य जब अपने जीवन की पीड़ा और कठिनाइयों को देखकर निराश होता है, तो वो ग्रंथों और वेदों का अध्ययन करने वाला हो या न हो, यदि वो अपने इन पूर्वजों की कथाओं को सत्य मानता है तो ये उसकी प्रेरणा अवश्य बनती हैं। क्योंकि कथाओं का मोल तभी है जब मनुष्य उन्हें सत्य अर्थात अपना इतिहास माने, अन्यथा काल्पनिक कथाओं से कोई भी मनुष्य जुड़ाव महसूस नहीं कर सकता। अब जरा विचार कीजिए कि यदि मन्दिर नष्ट हुए, मूर्तियाँ नष्ट हुईं, तो वेद, ग्रंथ में रुचि न रखने वाले जाने कितने ऐसे मनुष्य होंगे जो अपने जीवन के कष्टदायी अनुभवों को आधार बनाकर सम्भव है कि श्रीराम के और अन्य पात्रों के चरित्र को ही नकार दें। अपने साथ हुए अन्याय को समस्त संसार पर होता अत्याचार बताकर ये कहें कि असल जीवन में जहाँ पूरे संसार में हर ओर कोई न कोई पीड़ित है, वहाँ श्रीराम जैसे आदर्श चरित्र का होना किसी भी कालखण्ड में सम्भव ही नहीं था। ऐसा आदर्श चरित्र हो ही नहीं सकता इसलिए हमें भी उनसे प्रेरणा लेने की आवश्यकता नहीं है। ऐसे तो समाज ही धीरे-धीरे दूषित हो जाएगा।”

“और जैसा कि हम जानते हैं महाभारत के युद्ध में मानवों द्वारा किये दिव्यास्त्रों के अनन्य दुरुपयोग के कारण न जाने कितने युद्ध ग्रंथों को उनकी पहुँच से दूर कर दिया गया। ना ही आज के इस युग में किसी योद्धा में दैवीय शक्तियों का आवाहन करने का सामर्थ्य है। आपको अनुमान है कि इस एक तथ्य का लाभ उठाकर हमारे पूर्वजों की कथाओं को नकारने के उद्देश्य से कितनी भ्रांतियाँ फ़ैलाई जा सकती हैं। ऐसे में तो हमारे सभी देवी देवताओं के अस्तित्व पर ही प्रश्न चिन्ह खड़ा हो जाएगा, सारी कथाओं को भी लोग काल्पनिक बताने लगेंगे। इस असत्य को तथ्य का भ्रमित रूप देकर वो वेदों, ग्रंथों को भी मिथ्या कहने लगेंगे और पूर्वजों को मिथ्याचारी। इस प्रकार वो संसार के अनेकों मनुष्यों को भ्रमित करने का प्रयास करेंगे। जिसका परिणाम ये होगा कि हमारी इस भारत भूमि के आदर्श चरित्रों की कथाओं तक का अस्तित्व मिटना आरम्भ हो जायेगा।”

कालभोज की बातों का सिंध की राजकुमारी के मन मस्तिष्क सहित हृदय पर भी गहरा प्रभाव पड़ा था, “उचित कहा आपने। कोई भी संतान अपने पिता और पूर्वजों के दिखाए पदचिन्हों को देखते हुए ही बड़ी होती है, और युवावस्था में अपनी बुद्धि कौशल अनुसार अपना मार्ग चुनती है। यदि उदाहरण के रूप में प्रस्तुत करने को कोई आदर्श चरित्र न हो, तो अधिकतर मनुष्यों का जीवन दिशाहीन हो जायेगा। क्योंकि एक निष्ठावान नास्तिक तो अनुभवों के आधार पर अपने जीवन की बागडोर संभालकर बढ़ते चले जायेंगे। किन्तु हर मनुष्य में इतना आत्मविश्वास हो, ये सम्भव नहीं। विभिन्न विषम परिस्थितियों में पूर्वजों के किये संघर्षों की कथा ही मानव समाज को अपने जीवन में आई विपरीत परिस्थितियों से लड़ने की प्रेरणा देती है। सत्य कहा आपने, यदि मन्दिरों की रक्षा न की गई, तो पूर्वजों की कथाओं के अस्तित्व के साथ हमारी संस्कृति और आदर्श भी संकट में पड़ सकते हैं।”

“निसंदेह। मानव जीवन का एक बहुत बड़ा और कटु सत्य है, कि हर कालखण्ड में कोई ना कोई ऐसा चरित्र अवश्य आता है जो अपनी विचार धारा को श्रेष्ठ मानकर उसे दूसरों पर थोपने का प्रयास करता है। यदि वास्तविक इतिहास का ज्ञान ना हो, तो कोई विदेशी आक्रांता आकर हमें ये विश्वास दिला सकता है कि हमारे पूर्वज दुर्बल थे और हमारी नींव ही कमजोर है, और उन विदेशियों की विचारधारा श्रेष्ठ है। और हम स्वयं को दुर्बल समझकर उनके दास्ताव को ही अपना प्रारब्ध और सद्भाग्य मानने लगेंगे।” कालभोज ने श्वास भरते हुए आगे कहा, “और जैसी वर्तमान परिस्थियाँ बन रही हैं, ऐसा होना संभव है। उन अरबी आक्रान्ताओं कि यही विचारधारा है, हमारे भारतवर्ष को लूटना, स्वयं का माना हुआ सत्य दूसरों पर थोपना, और जो उनके धर्म को ना माने वो या तो उनका दास होगा, या शत्रु।”

चलते हुए कालभोज आगे कुछ कहता इससे पूर्व ही झाड़ियों में छिपा एक चीता कमल पर झपटने के लिये उछला। उसकी गति का आभास होते ही कालभोज ने तत्काल धनुष पर एक सुईनुमा तीर चढ़ाया और उस चीते की गर्दन के ठीक दो अंगुल नीचे लक्ष्य कर संधान किया। अगले ही क्षण वो चीता भूशायी होकर धरती पर गिरा और उसका एक पाँव सुन्न सा पड़ गया। कालभोज ने धनुष को वापस कंधे पर टाँगा और कहा, “और यदि प्रकृति की हर सजीव और निर्जीव वस्तु में ईश्वर का वास हो सकता है। तो समादर्शीना के सिद्धांत को मानकर मूर्तियों में भी तो ईश्वर को देखा जा सकता है।” श्वास भरते हुए कालभोज ने आगे चलते हुए कहा, “विपरीत परिस्थितियों में जब भी कोई मनुष्य दुर्बल पड़ने लगता है तो उसकी शक्ति केवल तीन चीजों पर आधारित होती है, उसका स्वयं का आत्मविश्वास, पूर्वजों की कथाऐं या फिर धर्म ग्रंथों के आधार पर बनाए गये वो जीवन नियम जो उसका आत्मबल बढ़ाने का कार्य करते हैं। किन्तु वो नियम समय और समाज के परिवेश अनुसार परिवर्तित होते रहने चाहिए अन्यथा वो पैरों की बेड़ियाँ बन जायेंगे। इसलिए यदि संस्कृति का नाश होने लगा तो समाज के अधिकतर लोग कहीं किसी और रूप में सहायता की खोज करने लगेंगे, बाहर से आए विदेशियों के धर्म को अपनाने लगेंगे। जिसके विषय में वासुदेव ने कर्म योग के पैंतीसवें श्लोक में स्पष्ट कहा है 
“श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्। 
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।।”
“अर्थात दूसरों के धर्म को भली-भाँति अनुसरण करने की अपेक्षा स्वधर्मं का दोष-पूर्ण ढंग से पालन करना भी अधिक कल्याणकारी होता है। दूसरे के धर्मानुसार कर्तव्य का अनुसरण करने से भय उत्पन्न होता है, अपने कर्तव्य का पालन करते हुए मृत्यु भी श्रेयस्कर है। दूसरे के धर्म को अपनाना मनुष्य की दुर्बलता का प्रतीक है।”

श्वास भरते हुए कालभोज ने एक बांस की कुछ लकड़ियाँ तोड़ी और कमल की ओर मुड़ा, “इस विषय पर मेरे गुरुदेव हरित ऋषि ने मुझे जितना ज्ञान दिया था वो तो मैंने आपको समझा दिया। अब ये बाँस की कुछ लकड़ियाँ अपने पास रखिये। आगे का मार्ग थोड़ा अधिक संकरीला है, पर एक कोस की चढ़ाई पर महादेव के भव्य मन्दिर के दर्शन हो जायेंगे।”

“अवश्य।” कमल ने बांस की छड़ी लेकर अभी पहला पग बढ़ाया ही था कि उस छड़ी के मुड़ने के कारण उसका संतुलन थोड़ा सा बिगड़ा। कालभोज ने उसका हाथ थाम उसे संभाला, अकस्मात ही दोनों की दृष्टि एक-दूसरे से आ मिलीं। तभी दो क्षण उपरान्त ही कालभोज के नेत्र बड़े हो गये, मानों किसी संकट से सतर्क हुआ हो। उसने तत्काल ही तरकश में से एक तीर निकाला और आकाश की ओर लक्ष्य किया। दो हाथ लम्बा एक गोला आकाश की ऊँचाइयों से उन्हीं की ओर बढ़ा चला आ रहा था। उसे किसी का आक्रमण जान कालभोज ने उस गोले की ओर तीर छोड़ा, वो गोला आकाश में ही कालभोज और कमल के सर से ठीक ऊपर फटा। और उसके फटते ही भोज के नेत्र आश्चर्य से फैल गये वहीं कमल के मुख पर मुस्कान छा गई। कागज के बने उस गोले से निकलने वाले सूरजमुखी के पुष्पों ने उन दोनों को कुछ यूँ अलंकृत किया मानों वो कोई नवविवाहित जोड़ा हों।

वहीं पहाड़ों में स्थित वनों में अनेकों वृक्षों के बीच से सुबर्मन, देवा, वेदान्त के साथ प्रीमल और सूर्यदेवी कालभोज और कमल का पीछा करते हुए अलग-अलग वृक्षों के पीछे छिपते छिपाते उन पर दृष्टि जमाए हुए थे। सूर्य और प्रीमल एक ही वृक्ष के पीछे छिपी थीं। कालभोज और कमल को पुष्प में नहाया देख सूर्य के मन में प्रश्न उठा, “तुमने पुष्पों से भरा गोला फेंकने के लिये यही समय क्यों चुना?”

“ज्यादा कुछ नहीं, जब कमल दीदी पादुकाओं से भरा झोला लेने भीतर गईं थी, तो मैंने उनसे सीधे-सीधे बात कर ली।”

यह सुनकर सूर्य आश्चर्यचकित रह गईं, “अर्थात दीदी को हमारी योजना का पता है ?”

“ये योजना असल में मैंने दीदी के साथ मिलकर ही बनाई थी। किसी से कहना मत, अन्यथा तुम्हारी सेहत के लिये अच्छा नहीं होगा। उन युवकों को भी मैंने बस यही कहा है कि जब भी मैं संकेत करूँ, उन पर पुष्पों से भरे गोले फेंके जायें। या ये कह लो कि जब भी मुझे दीदी का संकेत मिलेगा मैं उन्हें ऐसा करने को कहूँगी।”

“दीदी का संकेत? मैं समझी नहीं।” सूर्य अब भी संशय में थी।

“समझना क्या है। मेवाड़ के सेनापति कालभोज दीदी की प्रथम परीक्षा में सफल हुए तो उन्होंने मुझे उनका हाथ थाम संकेत भेज दिया। फिर मैंने युवराज सुबर्मन को पुष्प से भरे हुए गोले फेंकने का संकेत दे दिया।” सूर्यदेवी अब भी शंका में थी, “मेरी तो अब भी कुछ समझ नहीं आ रहा।”

“तो अधिक बुद्धि लगाने की आवश्यकता ही क्या है ? बस मेरे संकेत पर कार्य करती रहो।” प्रीमल वृक्षों के मार्ग से छुपते छुपाते आगे बढ़ी, और बीस गज दूर खड़े-खड़े वेदान्त, सुबर्मन और देवा को अपने पीछे आने का संकेत दिया।

इधर कालभोज अब भी अपने शरीर पर फैले सूरजमुखी के पुष्पों को निहार रहा था। उसे विचारमग्न देख कमल ने प्रश्न किया, “क्या हुआ वीरवर? आप विचलित जान पड़ रहे हैं।”

पुष्प की उन कलियों को अपने शरीर से झाड़ते हुए कालभोज ने कंधे उचकाये, “कुछ विशेष नहीं, बस प्रतीत होता है कोई अठखेली करना चाहता है। आप दूसरी छड़ी ले लीजिए, चढ़ाई थोड़ी कठिन है।”

“अवश्य।” मुस्कुराते हुए कमल ने एक और छड़ी उठाई और कालभोज के साथ संकरीले पहाड़ों पर चढ़ने लगी।

चढ़ाई करते हुए कमल ने एक और प्रश्न किया, “वैसे आप मूर्ति पूजन के विज्ञान की भी बात कर रहे थे? तनिक विस्तार से तो बताईये।”

कालभोज ने मुस्कुराते हुए कमल की ओर देखा, “मुझे ऐसा क्यों प्रतीत हो रहा है कि आप मेरा परीक्षण लेने का प्रयास कर रही हैं? इसके पीछे आपका कोई विशेष उद्देश्य ?”

कमल को उत्तर देने में पहले तो संकोच हुआ, फिर वो दृढ़तापूर्वक बोली, “हम तो बस वार्ता से इस दुर्गम मार्ग को सरल बनाने का प्रयास कर रहे थे। कहीं ऐसा तो नहीं कि आप हमें संदेह की दृष्टि से देख रहे हैं?”

“नहीं, नहीं। ऐसा नहीं है।” कमल की सिकुड़ी हुई भौहें देख कालभोज को भी भान हो गया कि ये प्रश्न उस ब्राह्मण कन्या को रास नहीं आया, “आप तो रुष्ट हुई प्रतीत हो रही हैं। यदि हमसे कोई भूल हुई तो हम क्षमा चाहते हैं।”

“आपको क्षमा माँगने की आवश्यकता नहीं है।” मुट्ठियाँ भींचते हुए कमल ने साहस जुटाकर सत्य प्रकट करने का निर्णय ले लिया, “क्योंकि हमारा मन्तव्य महादेव के परमभक्त मेवाड़ के महायोद्धा कालभोजादित्य रावल के ज्ञान की परीक्षा लेने की ही थी।”

कालभोज को थोड़ा आश्चर्य हुआ, “प्रतीत होता है कि आप यहाँ आने से पहले भी मेरे विषय में जानती हैं।” “आपको आपके सारे प्रश्नों के उत्तर मिलेंगे, वीरवर। किन्तु अंत में, जब हम आपके सारे उत्तरों से संतुष्ट हो जाएंगे।” कहते हुए कमल आगे बढ़ी।

कमल की विचित्र वाणी सुन कालभोज कुछ क्षण वहीं खड़ा रहा। कमल ने पीछे मुड़कर उसे टोका, “आपने तो कहा था आप अतिथि का सम्मान करते हैं। तो उसी अतिथि के कुछ प्रश्नों के उत्तर देकर उसका मान नहीं रख सकते?”

कालभोज कुछ क्षण शांत खड़ा रहा, फिर उसे अपने गुरु हरित ऋषि को दिए वचन का स्मरण हुआ और वो कमल के पीछे चल पड़ा।

पुनः कुछ दूर तक चढ़ाई करने के उपरान्त कमल ने उनसे प्रश्न किया, “तो क्या आप मेरे प्रश्न का उत्तर देना चाहेंगे, वीरवर?”

“यदि ये एक अतिथि की मांग है तो क्यों नहीं। किन्तु इस प्रश्न का उत्तर देने से पूर्व मैं भी आपसे एक प्रश्न करना चाहूँगा।”

“मैंने आपको कहा न, अंत में मैं स्वयं ही आपके सभी प्रश्नों के उत्तर दूँगी।”

“नहीं..मैं अपने विषय में कोई प्रश्न नहीं कर रहा। मैं बस ये जानना चाहूँगा कि क्या आप मानती है कि हमारा शरीर पंचतत्वों अर्थात पृथ्वी, जल, वायु, आकाश और अग्नि से निर्मित हुआ है?”

“निसंदेह, क्रोध में या किसी और कारण से शरीर का बढ़ता तापमान अग्नि की उपस्थिति को दर्शाता है, हमारा श्वास लेना ही वायु तत्व का प्रमाण है, पृथ्वी पर उपजने वाले अन्न खाकर हमारे शरीर का पृथ्वी तत्व शांत होता है। जल से हमारे शरीर का दो तिहाई भाग ढका हुआ है। आकाश तत्व से बने वातावरण के द्वारा ही हमारी बोली एक स्थान से दूसरे स्थान पर स्थानांतरित होती है। तो इस तथ्य में तो कोई संदेह है ही नहीं।”

कालभोज ने हस्तक्षेप करते हुए कहा, “और वो एक चीज़ जो इन सभी पाँच तत्वों को प्रभावित करने का सामर्थ्य रखती है वो है स्पंदन ऊर्जा जो मुख्यतः ध्वनि तरंगों से उत्पन्न होती है। इसी में तो मूर्ति पूजन का विज्ञान निहित है।”

“अर्थात?” कमल ने आश्चर्यभाव से प्रश्न किया।

प्रतिउत्तर में कालभोज ने पर्वत की ओर मुख करके गर्जना की, “हर हर महादेव।” वीर कालभोज की उस हुंकार की प्रतिध्वनि कई क्षणों तक पर्वतों से टकराकर वातावरण को महादेव की अनुकंपा से अलंकृत करती रहीं।

तत्पश्चात वो कमल की ओर मुड़ा, “हर ध्वनि की एक प्रतिध्वनि भी होती है और उस प्रतिध्वनि को उत्पन्न करने वाले धातुओं से ही हमारे मन्दिरों में मूर्तियों तथा स्मारकों का निर्माण होता है। चाहें वो इन पहाड़ों से काटे गए पत्थर हों, स्वर्ण हो या फिर और कोई धातु जो इन ध्वनि तरंगों की प्रतिध्वनि उत्पन्न कर सकें।”

“ऐसा क्यों?”

“क्योंकि ये संसार कर्म प्रधान है। हम ईश्वर की भक्ति स्वयं की मन की शांति और तृप्ति के लिए करते हैं, किसी फल की आशा के लिए नहीं। और हमारे मंत्रों की रचना ही इस प्रकार की गयी है कि स्मारकों और मूर्तियों के समक्ष बैठकर जब हम उन मंत्रों का ऊँचे स्वरों में उच्चारण करते हैं, तो हमारे उस स्वर की तरंगे उन स्मारकों से टकराकर प्रतिध्वनियाँ बनकर चारों दिशाओं में फैलने के साथ-साथ उसका कुछ अंश हमारे स्वयं के शरीर से भी टकराता है। ये स्पंदन तरंगे हमारे शरीर में उपस्थित पंचतत्वों को प्रभावित कर हममें एक सकारात्मक ऊर्जा के बहाव को उत्पन्न करने में सहायता करता है। तो इस प्रकार हम स्वयं के साथ चहुं ओर के वातावरण में भी इस साकरात्मक ऊर्जा को बहाने का प्रयास करते हैं।”

“क्या ध्वनि में इतनी शक्ति होती है?” कमल ने शंका जताई।

“क्यों नहीं। ध्वनि की शक्ति साकरात्मक भी हो सकती है और नकारात्मक भी। यदि हम बाघ का उदाहरण लें, कहने को तो उसकी दहाड़ कोसों दूर तक सुनाई देती है, किन्तु उस ध्वनि में बहुत सी ऐसी विशेष आवृतियाँ भी होती हैं जो हम मनुष्यों को सुनाई नहीं देती, और वो विशेष आवृतियाँ (infra red frequency) इतनी शक्तिशाली होती हैं कि उससे निकट खड़े पशुओं को लकवा तक मार जाता है। प्राचीन काल में जब ग्रीक योद्धाओं का राज्य छोटे-छोटे गुटों में बँटा होता था, वहाँ अश्वों की कमी होती थी, तो शत्रु के आक्रमक अश्वों का सामना करने के लिए अक्सर वो ऊँची दहाड़ वाले सिंह और बाघों का उपयोग करते थे, जिससे निकट आये शत्रु के अश्वों की शक्ति मंद हो जाये या उन्हें लकवा मार जाये। अत्याधिक ध्वनि से लोगों की हृदय गति भी रुक सकती है। वहीं इसका साकरात्मक साक्ष्य हमें मन्दिरों में देखने को मिलता है, उन मंत्रों में देखने को मिलता है जिनकी संरचना इस प्रकार की गयी है कि वो हमारे शरीर के पंचतत्वों को प्रभावित कर उसमें साकरात्मक ऊर्जा का संचार करे और हमारे मन को शांत करे।”

चढ़ाई करते-करते कालभोज और कमल शिवमन्दिर के द्वार तक पहुँच आये थे। द्वार पर ही स्थापित शिवलिंग को देख कालभोज ने कहा, “हर मनुष्य के लिए सकरात्मकता का उद्देश्य और भाव भिन्न हो सकता है। शिव शंभू के प्रतीक इस शिवलिंग से प्राप्त की हुई ऊर्जा का अंश ही मुझे हर विषम परिस्थितियों में डटकर खड़े रहने की शक्ति देता है।”

इतना कहकर कालभोज ने शिवलिंग को दण्डवत प्रणाम किया और फिर उठकर कमल को मन्दिर में प्रवेश करने का संकेत दिया। मन्दिर में पग रखने से पूर्व कमल ने पलटकर कालभोज की ओर देखा, “बस एक आखिरी प्रश्न।”

“कहिए।”

“शिविलिंग पर दूध चढ़ाने का भला क्या अभिप्राय है ?”

कालभोज मुस्कुराया, “आपके इस अंतिम प्रश्न का उत्तर आपको महाशिवरात्रि के पावन अवसर के दिन ही मिलेगा।”

“तो फिर हमारी मंशा का ज्ञान भी आपको उसी दिन होगा।”

“स्वीकार है, देवी।” कहते हुए कालभोज ने कमल को पुनः मन्दिर में प्रवेश करने का संकेत दिया, “आप दर्शन कर आईए। मैं यहीं आपकी प्रतीक्षा करता हूँ।”

सहमति जताकर कमल ने शिव मन्दिर के भीतर प्रवेश किया। मन्दिर के द्वार पर खड़े कालभोज ने चहुं ओर दृष्टि घुमाई, “कहाँ छुपकर बैठे हैं ये सुबर्मन और देवा?” विभिन्न वृक्षों की ओर दृष्टि घुमाते हुए कालभोज सतर्क रहने का प्रयास कर रहा था, “इस बार मैं उनकी अठखेली का आखेट नहीं बनने वाला।”

वहीं मन्दिर के निकट के वृक्ष पर बैठी सूर्यदेवी ने फल चबाते हुए दूसरी डाली पर बैठी प्रीमल से प्रश्न किया, “क्या हुआ दूसरा संकेत मिला या नहीं ?”

प्रीमल भी स्वयं संशय में थी, “दीदी ने कहा था कि यदि वो मन्दिर में वीर कालभोज का हाथ पकड़ उनके साथ प्रवेश करेंगी तो उन पर गुलाब के पुष्पों की वर्षा का प्रबंध करना होगा। ऐसा तभी होना था जब दीदी अपनी ली हुई परीक्षा से संतुष्ट होकर स्वयं हरित ऋषि के उस शिष्य के समक्ष अपने हृदय की बात कह देतीं, किन्तु कदाचित वीर कालभोज परीक्षा में सफल नहीं हुए।”

“ये तो सम्भव ही नहीं है।” वृक्ष के नीचे खड़े सुबर्मन को प्रीमल की ये उलाहना सहन नहीं हुयी, “वीर कालभोज शस्त्रविद्या के साथ-साथ ज्ञान और वाकचातुर्य में भी निपुण हैं। वो किसी परीक्षा में विफल हो ही नहीं सकते।”

प्रीमल ने झेंपते हुए प्रश्न किया, “आप पुरुषों में इतना अहंकार क्यों भरा होता है?”

“ये अहंकार नहीं अपने मित्र के प्रति विश्वास है। कदाचित मैं इस सम्बन्ध के मोल को शब्दों में नहीं समझा सकता। सम्भव है कि सबकुछ देवी कमल की योजनानुसार न हुआ, क्या पता कोई और ही प्रसंग उत्पन्न हो गया हो।”

“जो भी हो, अब तो समय ही बताएगा कि वीर कालभोज सफल हुए या नहीं। कर लेते हैं थोड़ी और प्रतीक्षा।” प्रीमल ने डाल पर बैठे ही एंठते हुए कहा।

एक प्रहर उपरान्त कमल मन्दिर से बाहर आयी और कालभोज के साथ पहाड़ों से नीचे की ओर जाने लगी। प्रीमल ने पुनः कटाक्ष करते हुए कहा, “प्रतीत होता है दीदी को नागदा से निराश होकर ही लौटना पड़ेगा।”

उस कटाक्ष का कोई उत्तर दिए बिना सुबर्मन बस मुस्कुराता रहा।

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[महाशिवरात्रि का दिन]
सूर्य की किरणों का प्रकाश अभी गगन के चहुं ओर फैलने को शेष ही था, किन्तु उसकी प्रथम आभा के साथ ही ढोल नगाड़ों के मधुर स्वरों ने समग्र नागदा के वातावरण को प्रफुल्लित करना आरम्भ कर दिया। नृत्य करते सहस्त्रों मनुष्य को देख ऐसा लगा मानों उनके हृदय में उत्पन्न हुई झंकार उन्हें महादेव और माँ पार्वती के सान्निध्य का ही अनुभव करवा रही थी। उनका उल्लास देख ऐसा प्रतीत हो रहा था मानों वो विवाह की वर्षगांठ नहीं मना रहे स्वयं ही महादेव और माँ पार्वती के विवाह में सम्मिलित होने जा रहे हों। इसी हर्षोल्लास में वो सहस्त्रों मनुष्य मदमस्त होकर पर्वतों के बीच बनाए मार्ग से चढ़ाई करते हुए ऊपर की ओर जा रहे थे।

किन्तु अकस्मात ही टोली की दिशा परिवर्तित होते देख अपनी बहनों प्रीमल और सूर्य के साथ चलती कमल ने आश्चर्यभाव से कहा, “मन्दिर तो उत्तर की ओर है। तो ये समस्त भक्तजन पूर्व की ओर क्यों चढ़ने लगे ?”

प्रीमल और सूर्य भी आश्चर्य में थी, किन्तु जब उसका ये प्रश्न वेदान्त के कानों में पड़ा तो उसने चुटकी लेते हुए कहा, “तुम बस अपने अंतिम प्रश्न के उत्तर की प्रतीक्षा करो, कमल। अब यहाँ से केवल तुम्हें कालभोजादित्य रावल की शिवभक्ति का प्रमाण ही मिलेगा। बस देखती जाओ।”

प्रीमल ने झेंपते हुए वेदान्त से कहा, “अब आप लोग मिलकर कौन सी खिचड़ी पका रहे हैं?”

“हम क्या खिचड़ी पकाएंगे, मैं तो अब तक कालभोज से नहीं मिला। किन्तु प्रश्नों की भ्रांतियां कहाँ रूकती हैं ?”

अपने गले में नगाड़ा टाँगे उसे बजाते हुए सुबर्मन ने भी आगे आकर वेदान्त का समर्थन किया, “आज के दिन कोई योजना, कोई क्रीड़ा नहीं। आप सब मिलकर बस इस पावन त्योहार का आनंद लीजिए।” नगाड़ा बजाते हुए सुबर्मन देवा के साथ आगे बढ़ा।

उनके पीछे चलते हुए सूर्य ने कमल से प्रश्न किया, “शिवलिंग पर दुग्ध से अभिषेक क्यों किया जाता है? इसका तथ्यात्मक उत्तर तो मुझे भी ज्ञात नहीं। आपको विश्वास है कि वीर कालभोज आपके इस प्रश्न का उत्तर दे पायेंगे?”

“मन्दिर में उनके मुख पर जिस प्रकार का आत्मविश्वास देखा था, उससे प्रतीत तो यही होता है।”

इस पर प्रीमल ने हस्तक्षेप करते हुए कहा, “आप तो उनसे कुछ अधिक ही आशा लगाए बैठी हैं, दीदी। मैं तो कहूँगी हृदय को कठोर रखिएगा, कहीं उनके असफल होने पर आपको धक्का न लग जाए।”

तभी नगाड़ा बजाते हुए सुबर्मन प्रीमल के निकट आया, “हम पुरुषों के प्रति आपकी इस उलाहना का कोई विशेष कारण है या फिर नागदा की भूमि ही आपको रास नहीं आयी? कबसे देख रहा हूँ आपका मन उखड़ा हुआ सा ही है।”

सूर्य और कमल मुस्कुराते हुए आगे बढ़ीं। वहीं प्रीमल ने झेंपते हुए सुबर्मन से प्रश्न किया, “तो आप इतने दिन से बस मेरे मुखभावों पर ही ध्यान दे रहे थे?”

“क्यों? आपका सौन्दर्य आपकी दीदी से कम तो नहीं ? आकर्षित कर ही लेता है ?” सुबर्मन ने एक श्वास में कह दिया।

प्रीमल पहले तो क्षणभर के लिए घबराई, फिर अगले ही क्षण ताव दिखाते हुए बोली, “आप मुझे रिझाने का प्रयास तो नहीं कर रहे?”

सुबर्मन निसंकोच मुस्कुराया, “हम्म, वैसे, प्रयास तो कुछ ऐसा ही है। यदि आपका हृदय जीतने के लिए भी किसी परीक्षा की कसौटी से गुजरना हो तो बताईये? हम पीछे नहीं हटेंगे।”

प्रीमल के मुख पर मुस्कान खिल आयी, वो बिना कुछ कहे अपनी बहनों के साथ जा मिली। सुबर्मन उसे मुस्कुराते देखता ही रह गया। प्रीमल ने एक बार पलटकर उसे नगाड़ा बजाते देखा, हृदय में प्रेम के फूटे हुए अंकुरों की झंकार लिए वो लजाते हुए अपनी बहनों के साथ ही चलने लगी।

“प्रीमल के मुख पर ऐसी मुस्कान ?” उसे देख सूर्यदेवी आश्चर्य में पड़ गयी।

कमल ने भी प्रीमल का मुखभाव पढ़ लिया, “हम्म, वैसे ये बात तो मुझे भी समझ नहीं आयी? तुम्हें भी कोई भा गया नागदा ग्राम में ?”

“आप लोग भी न।” लजाते हुए प्रीमल ने मुख घुमा लिया।

भक्तों के पर्वत पर चढ़ाई करते हुए नगाड़ों का स्वर और तीव्र हुआ और शीघ्र ही समस्त भक्तजन पाँच गज की ऊँचाई पर स्थित चट्टान के निकट पहुँचे जिसके ठीक ऊपर एक श्वेत धोती और कंधे पर जनेऊ धारण किए हुए वीर कालभोज उस चट्टान के ऊपर स्थापित की हुयी एक आकृति को निहार रहा था। नीले रंग के विकराल रेशमी वस्त्र से ढकी दस गज ऊँची उस आकृति के समक्ष सभी भक्तजन एकत्र हो रहे थे। कालभोज भक्तजनों की ओर पलटा, माथे पर त्रिपुण्ड तिलक लगाए उस महावीर को देख ऐसा प्रतीत हो रहा था मानों वो इस विशेष उत्सव के लिए चंदन के सागर में डूबकी लगाकर आया हो। क्षणभर को कमल और कालभोज की दृष्टि एक-दूसरे से आ मिली और दोनों के मुख पर मुस्कान खिल गयी। उसके मुख पर छाया आत्मविश्वास देख कमल भी आश्वस्त हो गयी कि शीघ्र उसे उसके प्रश्नों के उत्तर मिल जायेंगे।

वहीं नगाड़ों की धुन में अकस्मात ही सुरों का परिवर्तन हुआ, और उसके साथ ही शेष भक्तजन दोनों ओर से किनारे हटकर मार्ग बनाने लगे। उस मध्यमार्ग से मेवाड नरेश मानमोरी हाथ में दूध भरा मटका लिए अपने सभासदों के साथ पधार रहे थे। भक्तजनों ने मेवाड़ नरेश के जयकारे लगाने आरम्भ किये। मानमोरी के निकट आते ही कालभोज ने उन्हें प्रणाम किया। मेवाड़राज ने उस आकृति का ढका आवरण हटाने का संकेत दिया।

कालभोज उस आकृति की ओर पलटा, उसके निकट जाकर अपना सर झुकाते हुए प्रणाम किया और उस आकृति पर ढके नीले रंग के रेशमी वस्त्र को हटाना आरम्भ किया। वस्त्रों के हटते ही उस भव्य शिवलिंग को देख भक्तजनों के मुख से फूट पड़ा, “वीर कालभोजादित्य रावल की जय।”

कालभोज के जयकारे नागदा की जनता के उसके प्रति अपार प्रेम का प्रमाण दे रहे थे। उसके जयकारों की गूंज मेवाड़ नरेश मानमोरी से कहीं अधिक प्रतीत हो रही थी। मानमोरी के कलेजे पर तो साँप लोट रहा था किन्तु उन्होंने कोई प्रतिक्रिया देना उचित नहीं समझा। वो कालभोज के आमंत्रण पर अपना दूध से भरा मटका लिये हुए चट्टान के ऊपर आये।

इधर कमल को भी अपने आसपास नागदा वासियों की वार्ता सुनाई दी।

“अद्भुत कलाकृति का प्रदर्शन किया है वीरवर कालभोज ने।”

 “हाँ, भैया। मेवाड़ के सेनापति होने का दायित्व निभाते पाँच वर्षों में अकेले चट्टानों को काटकर ऐसा भव्य शिवलिंग बनाना किसी साधारण मनुष्य के वश का नहीं है।”

नागदावसियों की बातें सुन कमल भी विस्मित रह गयी। वहीं कालभोज के आग्रह पर मानमोरी ने अपने हाथ में थमे मटके के दूध से शिवलिंग को नहलाना आरम्भ किया।

“हर हर महादेव।” वीर कालभोज के साथ-साथ समस्त भक्तजनों ने गर्जना आरम्भ की। तत्पश्चात सुबर्मन ने भी एक बड़ा सा दूध से भरा मटका उठाया और उसे कालभोज के हाथ में दिया।

 ॐ नमः शिवाय का जाप करते हुए कालभोज ने उस दूध से भरे मटके को शिवलिंग पर उड़ेला। शीघ्र ही कमल सहित कुछ भक्तों की दृष्टि शिवलिंग से बहते हुए दूध पर पड़ी जो महादेव की उस आकृति से होते हुए ठीक नीचे के एक छेद में जा रही थी।

“ये दूध जा कहाँ रहा है?” कौतुहलवश कमल अपनी बहनों को लेकर आगे बढ़ी और दस गज दाईं ओर जाकर देखा तो पत्थरों को खोदकर ही बनाया हुआ एक गहरा कुआँ पाया जो अत्यंत स्वच्छ था। शिवलिंग के स्थान से कुछ दूरी पर तीन अंगुल छोटी सुरंग से होता हुआ दूध उसी कुएँ में गिर रहा था। वहीं कुएँ से ठीक दस गज दूर कई लोग बड़े बड़े बर्तनों में मेवे और लावे कूट रहे, कुछ पुरुष नारियल तोड़ रहे थे, कुछ स्त्रियाँ शहद और कुछ दही फेंट रही थीं।

“तो यहाँ चर्णामृत बनाई जा रही है?” अनुमान लगाकर मुस्कुराते हुए कमल ने कालभोज की ओर देखा जो शिवलिंग के निकट खड़ा सभी भक्तजनों को शिवलिंग को दुग्ध स्नान कराने में सहायता कर रहा था।

सुबर्मन भी ढोल बजाता हुआ उनके निकट से गुजरा, और गर्व से भरकर कमलदेवी की ओर देखा, “देख ली हमारे मित्र की कलाकृति, राजकुमारी ?”

कमल की दृष्टि कालभोज पर ही टिकी रही, “निसंदेह, वीर कालभोज एक उच्च कोटि के शिल्पकार भी हैं । किन्तु मैंने उनसे एक प्रश्न किया था जिसका उत्तर उनके मुख से सुने बिना मैं कोई निर्णय नहीं ले सकती।”

“ये भी ठीक है ।” मुस्कुराते और ढोल बजाते हुए सुबर्मन प्रीमल के निकट आया, “आपको महादेव को दूध से स्नान कराने की इच्छा नहीं हो रही, कुमारी?”

प्रीमल ने एंठते हुए कहा, “यदि आपकी इतनी ही इच्छा हो रही है, तो पहले आप ही क्यों नहीं चले जाते, युवराज ?”

“चले अवश्य जाते। किन्तु महादेव की उस आकृति को अलंकृत करने आप भी हमारे साथ चलें और यदि हम साथ में शिव पार्वती का आशीर्वाद प्राप्त करें तो कैसा रहेगा?”

कमल और सूर्य दोनों मुस्कुरा दीं। वहीं प्रीमल ने भौहें सिकोड़े दृढ़तापूर्वक कहा, “आप कहना क्या चाहते हैं?” सुबर्मन ने अपने कंधे से ढोल उतारा और प्रीमल के नेत्रों की ओर देखा, “घुमा फिराकर बात करने में मुझे कोई रुचि नहीं है। यदि आप दुग्ध स्नान कराने हमारे साथ आयीं, तो हम समझ जायेंगे कि हमारे हृदय में जो भाव आपके लिए उत्पन्न हुआ है, उसका आभास आपको भी हो चुका है।”

प्रीमल स्थिर खड़ी सुबर्मन को देखती रही। सुबर्मन ने भी एक सीधे-सीधे अपने हृदय की बात कह दी, “प्रेम करने लगे हैं आपसे।” उसने अपने निकट रखा एक दूध से भरा मटका उठाया, “जा रहे हैं हम महादेव का आशीर्वाद लेने। यदि आप इस मटके में भरे दूध के खाली होने से पहले नहीं आयीं, तो हम आपका संकेत समझ जायेंगे और इस रुद्राभिषेक के समाप्त होने के उपरान्त आपके समक्ष पुनः कभी नहीं आयेंगे।”

“अरे किन्तु..।” प्रीमल कुछ और कहती इससे पूर्व ही सुबर्मन मटका लेकर शिवलिंग की ओर बढ़ गया।

कमल ने उसे चेताते हुए कहा, “एक प्रश्न ने हमें तो समय दे दिया है, किन्तु तुम्हारे पास समय बहुत कम है। शीघ्र निर्णय लो।”

मुट्ठियाँ भींचते हुए प्रीमल व्यग्रता से सुबर्मन को शिवलिंग की ओर जाता देखती रही। वहीं कालभोज चलकर दूध से भरते हुए कुएँ के निकट आया और मेवे और लावे भूनते हुए हलवाइयों को संकेत किया वो मेवे और लावे दूध में डालें। इसी दौरान कमल और कालभोज की दृष्टि भी एक-दूसरे से आ मिली। मुस्कुराते हुए कमल ने भी दूध से भरा मटका उठाया और महादेव को स्नान कराने आगे बढ़ी। वहीं महाराज मानमोरी भी शिवलिंग स्थापित चट्टान से नीचे उतर रहे थे। कालभोज से एकटक दृष्टि मिलाए कमल को आभास ही नहीं हुआ कि कब एक पत्थर के टुकड़े से उसका पाँव टकराया और उसने अपना संतुलन खो दिया। अकस्मात ही अपने समक्ष आई कन्या को देख मानमोरी ने उसे संभालने का प्रयास किया, वहीं कमल के हाथ से घड़ा छूटा और सीधा मेवाड़ नरेश की छाती पर गिरकर फूटा।

मानमोरी को पहले तो बहुत क्रोध आया, किन्तु जैसे ही उनकी दृष्टि कमल के लावण्यमयी रूप पर पड़ी, उस रूप की शीतलता ने उनके क्रोध की समस्त अग्नि को निगल लिया।

“क्षमा, क्षमा महाराज।” कमल ने घबराते हुए मानमोरी के समक्ष अपने हाथ जोड़ लिये।

मानमोरी ने अपनी छाती पर फैला दूध मुस्कुराते हुए कहा, “कोई बात नहीं कन्या।” वो अपने साथ चल रहे महामंत्री की ओर मुड़े, “महामंत्री, कन्या से भूल हो गयी। कृपया इनके लिए दूध से भरा एक और मटका ले आईए।”

मेवाड़ नरेश का ऐसा विनम्र स्वभाव देख उनके साथ आये सभासद भी कुछ क्षण के लिए चकित रह गए। किन्तु कमल को देख महामंत्री जी को मानमोरी की मंशा समझते हुए देर न लगी। मानमोरी का संकेत समझ उन्होंने दूध का एक नया मटका मँगवाया और उसे कमल के हाथ में दिया गया। महाराज को धन्यवाद करती हुई कमल अन्य भक्तजनों के साथ पंक्ति में लगकर शिवलिंग की ओर बढ़ी। मानमोरी मुस्कुराते हुए अपने महामंत्री के निकट आये, “तनिक ये ज्ञात करो कि ये कन्या कौन है और कहाँ से आई है।”

इधर रुद्राभिषेक करते हुए सुबर्मन के मटके का दूध समाप्त होने को था इससे पूर्व ही प्रीमल ने वहाँ आकर उस मटके को हाथ लगाया। दोनों ने एक-दूसरे की ओर दृष्टि डाली, उनके मुख पर खिलती मुस्कान ने उनके प्रेम पर मुहर लगाना आरम्भ कर दिया था।

उन्हें साथ देख कमल के मुख पर भी मुस्कान खिल गयी और वो शिवलिंग की ओर बढ़ी। महादेव की उस आकृति के समीप जाकर ॐ नमः शिवाय का जाप करते हुए कमल ने रुद्राभिषेक किया और शिवलिंग को प्रणाम करते हुए पीछे हटी। पंक्ति में खड़े अन्य भक्तजन भी शिव शंभू का आशीर्वाद लेने आगे बढ़े, वहीं कमल चलते हुए कुएँ के निकट आयी जहाँ कालभोज बड़ी करछी थामें उस कुएँ के दूध और उसमें पड़े मेवों को घोल रहा था। 

“महादेव को यूँ दूध से अलंकृत कर उस दूध का चर्णामृत बनाने की परंपरा तो भारत के कई मन्दिरों में है। किन्तु ये हमारे प्रश्न का उत्तर नहीं हुआ।”

कमल के इस कटाक्ष को सुन करछी चलाते हुए कालभोज मुस्कुराया, “तो आपने मेरे इस कर्म को ही मेरा उत्तर मान लिया, देवी?”

“अभी तक आपने कोई और उत्तर तो दिया नहीं, तो मैं और क्या समझूं?”

“आपको स्मरण है कि महादेव के दुग्ध अभिषेक की परंपरा के पीछे की कथा क्या है?” कालभोज अपनी करछी चलाता रहा।

“निसंदेह। जब सागर मंथन से निकले विष को शिव ने धारण किया तो उनके शरीर में हो रही अनियंत्रित जलन को शांत करने के लिए देवताओं के आग्रह पर महादेव ने दूध ग्रहण किया जिससे उनकी जलन शांत हुई और उनका कण्ठ सदैव के लिए नीला पड़ गया। तभी से महादेव के दूध से रुद्राभिषेक की परंपरा का आरम्भ हुआ।” 

“हाँ, ये सत्य तो है। किन्तु इस परंपरा के आरम्भ होने के पीछे कुछ वैज्ञानिक तथ्य भी हैं।” कहते हुए कालभोज ने शहद फेंट रही स्त्रियों को उसे दूध में डालने का संकेत दिया, “जब श्रावण के महीने में लहलहाती घास में अत्यधिक नमी के कारण उनमें छोटे-छोटे कीट लगना आरम्भ हो जाते हैं, तो उन पौधों को सेवन करने वाले पशुओं के दूध में भी दोष आना आरम्भ होता है। उस एक महीने में पाया दूध हमारे स्वास्थ्य के लिए अच्छा नहीं होता, और एक निश्चित मात्रा का दूध यदि गऊ से न निकाला जाए तो उसके भी रोगग्रस्त होने की संभावना होती है, तो उनका दूध निकालना भी आवश्यक है। और ऐसे दूध को एक प्रकार से विषाक्त माना जा सकता है, और महादेव तो स्वयं ही मानवजाति के भाग का विष धारण करने के लिए जाने जाते। तो इसी प्रकार श्रावण मास में महादेव हमारे भाग का ये विषाक्त दूध स्वयं ग्रहण करके हमें अनुग्रहित करते हैं। ये भी एक तथ्य है जिसने शिवलिंग को दुग्ध से स्नान कराने की परंपरा को बढ़ावा दिया।” करछी चलाते हुए कालभोज ने अन्य लोगों को कुएँ के दूध में दही डालने का संकेत दिया। 

कमल उसके उत्तर से कुछ सीमा तक संतुष्ट हुई, किन्तु कालभोज के मुखभाव देख उसने अनुमान लगाने का प्रयास किया, “प्रतीत होता है आपका उत्तर अभी समाप्त नहीं हुआ ?”

“उचित कहा आपने। क्योंकि इस रुद्राभिषेक के पीछे एक और तथ्य है, और इसका जुड़ाव स्पंदन ऊर्जा के उसी मूर्ति पूजन विज्ञान से है जिसके विषय में हमने उस दिन भी चर्चा की थी। बात बहुत सीधी सी है कि किसी भी गीली धातु के द्वारा हमारे मंत्रों के उच्चारण की प्रतिध्वनि उत्पन्न करना कहीं अधिक सरल होता है और वो ऊर्जा अधिक मात्रा में भी उत्पन्न होती है। यदि हम जल से रुद्राभिषेक करें तो वो शिवलिंग पर अधिक समय तक नहीं टिकेगा और शीघ्र ही सूख जायेगा, वहीं यदि हम वसे से युक्त पदार्थ यानि घी, तेल अथवा दूध से महादेव की इस आकृति का अभिषेक करें तो लम्बे समय तक उसमें नमी बनी रहेगी। और वैसे भी एक प्रकार से देखा जाए तो वसे से युक्त ये पदार्थ ही ऐसे कई स्मारकों की रक्षा भी करते हैं।”

“वो कैसे?” कमल ने आश्चर्यभाव से प्रश्न किया।

“क्योंकि संसार के सभी मन्दिरों में स्थापित किए हुए शिवलिंग अथवा कोई भी प्रतिमा किसी योग्य शिल्पकार अथवा धातुओं के विशेषज्ञ तो निर्मित नहीं करते न। कई स्थानों पर तो भक्तजन अपनी श्रद्धा से ही कभी मिट्टी का अथवा किसी और प्रकार के दुर्बल पत्थरों से ही शिवलिंग का निर्माण कर देते हैं। ऐसे में ये वसे से युक्त इन पदार्थों के संपर्क में आकर उन भक्तजनों की बनायी महादेव की वो आकृतियां वातावरण में होते परिवर्तन के अनुसार चटकने से बची रहती हैं, उनमें दरारें आने की संभावनायें घटती चली जाती हैं।”

“अद्भुत।” कमल विस्मित सी थी, “इन अंतिम दो तथ्यों के विषय में तो मुझे भी कोई ज्ञान नहीं था।” कालभोज मुस्कुराया, “हरित ऋषि का शिष्य हूँ मैं देवी। ये समस्त ज्ञान उन्हीं की कृपा प्रसाद है।” श्वास भरते हुए कालभोज ने करछी चलाते हुए अपने माथे पर आया पसीना पोछते हुए कमल से प्रश्न किया, “अब आप बताइये देवी, मेरी परीक्षा लेने के पीछे आपका क्या अभिप्राय था?”

उस प्रश्न को सुनकर कमल क्षणभर को थोड़ी घबराई, फिर मुट्ठियाँ भींचते हुए साहस जुटाकर बोली, “आपका नाम बहुत सुना था मैंने वीर कालभोजादित्य रावल। चूंकि मैं स्वयं भी शिव शंभू की भक्त हूँ, मेरे जीवन की एक प्रबल इच्छा थी कि मैं महादेव के किसी परमभक्त को ही वर के रूप में चुनूँगी। बस इसीलिए आपकी वीरता और भक्ति का बखान सुने ये ब्राह्मण कन्या नागदा चली आयी।”

कालभोज ने क्षणभर को कमल पर दृष्टि डाली, “किन्तु मेवाड़ का ये सेनापति सिंध की राजकुमारी कमलदेवी के प्रेम के योग्य नहीं है, देवी।”

भोज के मुख से वो शब्द सुन कमल हतप्रभ रह गयी, “ये आपको कैसे..?”

 “जिस दिन पहली बार आपसे भेंट हुयी थी उसी दिन दूर बैठे मैंने साधना का अभिनय करते संत का भेष बनाए राजकुमार वेदान्त को पहचान लिया था। आप तीनों को कभी देखा भले नहीं किन्तु आपके विषय में सुना तो पहले भी था। पहले मैं आपकी मंशा से अनभिज्ञ था। किन्तु उस दिन वो पुष्प वर्षा व्यर्थ में तो नहीं हुई होगी।”

कमल ने भौहें सिकोड़ीं, “अर्थात आपको हमारी मंशा का भी अनुमान हो गया था?”

“आपने हमारी भक्ति की परीक्षा लेनी चाही, और महादेव के भक्त कभी परीक्षा से पीछे नहीं हटते। किन्तु ये भी सत्य है देवी कि सिंध की राजकुमारी का मेवाड़ नरेश के एक दास से यूँ विवाह करने की इच्छा जताना शोभा नहीं देता।”

कालभोज के झुके हुए नेत्र और निराशा से भरा स्वर सुन कमल दो क्षण को मौन रही। फिर साथ में महादेव की आराधना करते हुए सुबर्मन और प्रीमल की ओर देखते हुए कहा, “तो युवराज सुबर्मन मेवाड़ नरेश के पुत्र हैं इसलिए प्रीमल और उनका प्रेम फलित हो सकता है, किन्तु मैं अपने इच्छित वर से केवल इसलिए दूर हो जाऊँ क्योंकि वो एक समय नागदा के युवराज थे और अब उनका राज्य उनके पास नहीं रहा?”

कमल के इस तर्क के आगे कालभोज मौन हो गया। इस पर कमल ने निकट आकर उसके नेत्रों में देखते हुए कहा, “हमारे पिता को तो इस सम्बन्ध में कोई त्रुटि दिखाई नहीं देती, फिर आप क्यों पीछे हटने का प्रयास कर रहे हैं?”

कालभोज ने श्वास भरते हुए कहा, “आपके पिता ने तो सिंध में जातिवाद की परंपरा खत्म की थी, राजकुमारी। मुझे ज्ञात है वो हर मनुष्य की योग्यता अनुसार ही उसका सम्मान करते हैं।”

“हमारे संस्कार ही वही हैं, वीरवर। हम योग्य का सम्मान करते हैं, धनवान का नहीं। आज आप यदि हमारा प्रेम निवेदन अस्वीकार भी करते हैं तो भी हम वचन देते हैं कि आपके प्रति हमारे मन में जो सम्मान है, वो कभी कम नहीं होगा।”

कालभोज के मुख पर क्षणिक मुस्कान आयी, किन्तु वो अब भी मौन था।

कमल ने भी सुबर्मन की भाँति कालभोज को चेतावनी देते हुए कहा, “हर निवेदन की एक समय सीमा होती है, वीरवर। कल सूर्य की पहली किरण के साथ ही हम नागदा से सिंध की ओर निकलने को तैयार होंगे। सूर्योदय की पहली घड़ी तक हम साबरमती के तट पर आपकी प्रतीक्षा करेंगे, विचार करके निर्णय लीजिएगा।”

इतना कहकर कमल वहाँ से प्रस्थान कर गयी। कालभोज कुछ क्षण वहीं स्थिर खड़ा रहा, फिर उसने वापस करछी घुमाते हुए चर्णामृत बनाने की क्रिया सम्पन्न की और शीघ्र ही प्रसाद वितरण भी आरम्भ किया।

******

रात्रि का अंधकार छाना आरम्भ हो चुका था। महाराज मानमोरी अपने शिविर में व्यग्र होकर टहल रहे थे कि तभी महामंत्री ने भीतर प्रवेश किया।

“कुछ पता चला उस कन्या के विषय में ?” मानमोरी ने व्यग्रतापूर्वक प्रश्न किया।

“बाहर से आयी एक यात्री मात्र है, महाराज। ब्राह्मण परिवार की है और अपनी दो बहनों और एक भाई के साथ नागदा की शिवरात्रि का उत्सव देखने नागदा आयी है। कल पौ फटते ही उसका परिवार यहाँ से प्रस्थान कर जायेगा।”

 “कुछ ज्ञात है इस समय वो कहाँ मिलेगी ?"

मानमोरी की वासना से भरी दृष्टि देख महामंत्री ने उन्हें सुझाव देने का प्रयास किया, “बालिका है महाराज, और महज एक यात्री भी। इसका परिणाम विघातक हो सकता है।”

मानमोरी ने भौहें सिकोड़ते हुए कहा, “तो अब आप हमें भयभीत करने का प्रयास कर रहे हैं, महामंत्री जलसंघ?”

जलसंघ ने विवश होकर अपनी दृष्टि झुका ली। मानमोरी ने उसे घूरते हुए कहा, “मुझे वो कन्या चाहिए। ज्ञात नहीं तो पता करो वो इस समय कहाँ है। मैं पूरी रात्रि जागा ही हुआ हूँ। वो कन्या नागदा छोड़कर नहीं जानी चाहिए।” चेतावनी देते हुए मानमोरी ने निकट में रखा मदिरा का पात्र उठाया और एक ही घूँट में उसे खाली कर दिया।

“जो आज्ञा, महामहिम।” अपने राजा को क्रोध में देख महामंत्री जलसंघ सर झुकाये उस शिविर से प्रस्थान कर गये।

अर्धरात्रि के उस काल में कालभोज और कमल दोनों का हृदय अत्यंत विचलित था। कालभोज भी अपने शिविर के बाहर टहलते हुए गहन विचारों में खोया हुआ था। वहीं कमल भी बार-बार करवटें ले रही थी मानों बस प्रतीक्षा में ही हो कि कब सूर्योदय हो और साबरमती के पवित्र तट पर कालभोज और उसका सामना हो। व्यग्रता में उससे रहा नहीं गया। अभी ब्रह्ममहूर्त आरम्भ भी नहीं हुआ था कि कमल अपने शिविर में उठकर बैठ गयी। अपने भाई बहनों को गहन निद्रा में देख उसने उन्हें उठाना उचित नहीं समझा और सीधे साबरमती की ओर ही चल पड़ी।

कुछ ही समय में वो नदी के तट पर पहुँची और मौन धारण कर चंद्रमा के प्रकाश को निहारने लगी। उस अर्ध चंद्र की शीतलता मानों उसके मन की आशा में आशा की किरण जगा रही थी कि उसका नागदा आने का उद्देश्य अवश्य सफल होगा। इसी आशा में वो नदी के तट पर ही बैठी रही।

ब्रह्ममहूर्त अर्थात सूर्योदय से ठीक पहले का प्रहर आरम्भ ही हुआ था कि एक पुरुष का स्वर उसके कर्णों को छू गया, “इतनी अंधकारमय रात्रि को यहाँ क्या कर रही हो, कन्या?”

उस स्वर को सुन कमल अकस्मात ही चौंक गयी और मुड़कर अपनी दायीं ओर देखा तो मेवाड़ नरेश मानमोरी को अपने समक्ष खड़ा पाया। उसने उठकर मानमोरी को प्रणाम किया, “वो क्षमा महाराज, मैं बस यूँ ही..।”

मानमोरी ने हस्तक्षेप करते हुए कहा, “कोई बात नहीं। पर ऐसे रात्रि में यूँ अकेले बाहर निकलना संकटकारी हो सकता है। कोई रक्षक नहीं है तुम्हारे पास?”

कमल ने अब भी अपनी दृष्टि झुकाई हुई थी, “मेरा शिविर यहाँ से बस पचास गज की दूरी पर ही है महाराज। यदि मैं संकट में हुई तो मेरे भाई बहन तत्काल ही मेरी रक्षा को यहाँ आ जायेंगे।”

“ये भी उचित है।” मानमोरी ने भी कुछ क्षण विचार किया और अपने कंधे उचकाये कमल से कहा, “तुम वही कन्या हो न जिसने अपना दूध का घड़ा हमारी छाती पर फोड़ दिया था?”

“उस कृत्य के लिए मैं अब भी लज्जित हूँ महाराज, कृपा करके मुझे क्षमा..।”

“नहीं, तुम्हें, तुम्हें क्षमा माँगने की आवश्यकता नहीं है, कन्या। तुम तो पहली ही दृष्टि में हमें भा गयी थी।”

मानमोरी के उन शब्दों को सुन कमल को थोड़ी असहजता का आभास हुआ। साथ ही साथ उसे ये भी अनुमान लग गया कि महाराज मानमोरी मदिरा के मद में चूर हैं, “आप.. आप कहना क्या चाहते हैं, महाराज?”

“ये प्रस्ताव है मेवाड़ नरेश मानमोरी का, कि क्या तुम्हें हमसे विधिपूर्वक विवाह करके मेवाड़ की छोटी रानी बनना स्वीकार है?”

आयु में स्वयं से दोगुने से भी अधिक पुरुष से इस प्रकार का प्रस्ताव पाकर कमल की असहजता और भी बढ़ गयी। उसने हाथ जोड़कर विनयपूर्वक कहा, “क्षमा, क्षमा करें, महाराज। किन्तु मैं मन ही मन किसी और की हो चुकी हूँ, और उन्हीं से विवाह करने की इच्छुक हूँ।”

यह सुनकर मानमोरी की भौहें तन गयीं, मुट्ठियाँ भींचते हुए मेवाड़ नरेश ने किसी तरह अपने क्रोध को नियंत्रित करते हुए प्रश्न किया, “कौन है वो ?”

यह प्रश्न सुन कमल कुछ क्षण मौन रही। इस पर मानमोरी का स्वर कठोर हो गया, “बताओ कन्या, कौन है वो? ये मेवाड़ नरेश का आदेश है?” कोई और चारा न देख कमल को कहना पड़ गया, “मेवाड़ के सेनापति कालभोजादित्य रावल।”

कालभोज का नाम सुन मानमोरी का तो जैसे नाखून से लेकर सर जल गया। उनके जलते हुए हृदय ने उनके कानों में विष घोलना आरम्भ कर दिया, “युद्ध में विजय हमारी और जयकारे उसके। शिवरात्रि पर भी सबसे ऊँचे जयकारे कालभोज के ही लगे। और अब ये कन्या भी कालभोज को ही..।” उन कुंठित विचारों की अग्नि में सुलगते हुए मानमोरी मौन खड़ी कमल की ओर मुड़े, “यौवनावस्था में मन अक्सर भटक जाता है, कन्या। किन्तु उसका अर्थ ये नहीं कि तुम मेवाड़ की इस भूमि पर खड़ी होकर यहाँ के नरेश मानमोरी का आदेश टालो। तुम हमारी छोटी रानी बनकर रहोगी।” कहते हुए मानमोरी ने झटके से कमल का हाथ पकड़ लिया।

अकस्मात ही कमल के झुके हुए नेत्रों में अग्नि धधकने लगी, “सावधान मेवाड़ नरेश, आपको अनुमान भी नहीं कि आपने अग्नि की किस ज्वाला पर हाथ डाला है। भस्म हो जाओगे।”

मानमोरी ने निसंकोच होकर कमल को वासना भरी दृष्टि से देखा, “तुम्हारा ये निरंतर विरोध ही तुम्हारे यौवन के आनंद को कई गुना बढ़ा देगा कन्या। सम्मान से चलोगी तो छोटी रानी बन जाओगी, यदि अपमान करती रही तो भोगदासी बनाकर रखा जायेगा तुम्हें। चलो हमारे साथ।”

मानमोरी कमल को खींचकर ले जाने लगे। सिंध की उस राजकुमारी ने स्वयं को छुड़ाने का भरसक प्रयास किया, किन्तु मानमोरी की पकड़ अत्यंत कठोर थी। कमल ने पुनः मेवाड़ नरेश को चेतावनी देने का प्रयास किया, “यदि वीर कालभोज आ गये तो आप स्वयं के प्राण बचाते फिरेंगे, महाराज।”

“वो मेरा सेनापति है। तुम्हें वास्तव में लगता है कि वो मेरे विरुद्ध खड़ा होगा?” उसकी चेतावनी पर हँसते हुए मानमोरी उसे खींचकर ले जाते रहे।

“सावधान मेवाड़ नरेश।” गर्जता हुआ स्वर सुन मेवाड़ नरेश पीछे मुड़े तो तलवार संभाले एक बलिष्ठ मनुष्य को अपने समक्ष खड़ा पाया, “भीलराज बलेऊ ? अब तुमपे क्या विपदा आन पड़ी?”

“आपको देख ऐसा प्रतीत नहीं होता आप अपनी पूरी तरह अपनी चेतना में है, महाराज। ये दुष्कृत्य आपको शोभा नहीं देता। उचित यही होगा कि आप इस कन्या का हाथ छोड़कर अपने शिविर लौट जायें।”

“मौन रहो मूर्ख।” मानमोरी चीख पड़े, “ये कन्या हमारे हृदय को तभी भा गयी थी जब प्रातः काल पूजन समारोह में हमने इसे देखा था। इसलिए अब ये हमारी है।”

मानमोरी का हठ सुन भीलराज बलेऊ के म्यान से उनकी तलवार निकल आयी, “ये कन्या केवल नागदा की अतिथि है, और हम अपने अतिथि का अपमान सहन नहीं करेंगे। आप इसकी इच्छा के विरुद्ध इसे यहाँ से नहीं ले जा सकते।”

मानमोरी की भौहें तन गईं और उन्होंने भी कमल का हाथ छोड़ अपनी तलवार निकाली, “तुम्हें लगता है कि थोड़ी सी मदिरा पीकर मैं इतना शिथिल हो जाऊँगा कि तुमसे द्वन्द न कर पाऊँ?”

भीलराज ने एक बार उन्हें चेताने का प्रयास किया, “मैं अब भी कह रहा हूँ, महाराज। शिविर लौट जाईए, आपका मद उतर जाने के उपरांत हम शांत मन से इस पर चर्चा कर लेंगे।”

“तुच्छ भील।” मानमोरी अपनी तलवार संभाले आगे बढ़े, प्रतिउत्तर में बलेऊ को भी उनका वार रोकने के लिए तलवार उठानी ही पड़ी।

मदिरा के नशे में चूर होकर भी मानमोरी के प्रहारों में अब भी बहुत शक्ति थी। भीलराज बलेऊ को उनका वार संभालने के लिये पूरी शक्ति लगानी पड़ रही थी। वहीं कमल ने वहाँ से भागने के स्थान पर स्थिर खड़े रहने का निर्णय लिया और सूर्य के उदय होने की प्रतीक्षा में आकाश की ओर दृष्टि डाली, “शीघ्र आईये कालभोज। हमें आपकी प्रतीक्षा है।”

बलेऊ और मानमोरी की तलवारों के टकराव के स्वरों ने निकट के शिविर में लेटे लोगों की निद्रा भंग करनी आरम्भ कर दी। वहीं द्वन्द में अकस्मात ही बलेऊ को एक अवसर प्राप्त हुआ और उसने तलवार घुमाते हुए मानमोरी की कमर पर लक्ष्य किया, मेवाड़ नरेश ने बचने का प्रयास किया किन्तु पीछे हटकर भी वो स्वयं को बचा नहीं पाए और वो तलवार उनके वस्त्र फाड़ते हुए उन्हें गहरा घाव दे गयी। कुपित हुए मानमोरी ने सीधी लात से बलेऊ की छाती पर वार कर उसे पीछे हटाया और दौड़कर नदी के पास गये। बलेऊ से वो घाव पाकर मानों मानमोरी के अहम को चोट लगी थी। मदिरा का नशा उतारने के लिए उन्होंने अपने मुख पर जल के छींटे मारने आरम्भ किये। कुछ सीमा तक अपनी चेतना वापस पाए मानमोरी ने पुनः अपनी तलवार सीधी की और बलेऊ की ओर दौड़े।

कुपित हुए मानमोरी के प्रहार इस बार बलेऊ पर भारी पड़ने लगे। तलवारों के टकराव का स्वर सुन कालभोज, सुबर्मन, प्रीमल, सूर्य, देवा और वेदान्त सहित अनेकों भील और मेवाड़ से आये अतिथि तट के निकट एकत्र होने लगे। सभी के मुख पर आश्चर्य का भाव था और अब भीलराज बलेऊ का बल मानमोरी के समक्ष क्षीण होता दिखाई दे रहा था।

मानमोरी ने अपने भीषण प्रहारों से भीलराज के कंधे, भुजा, कमर और जांघ पर गहरे घाव किए। बिना कारण जाने किसी ने भी दो योद्धाओं के द्वन्द में हस्तक्षेप करना उचित नहीं समझा। कमल को वहाँ पहले से खड़ा देख कालभोज उसके निकट गया, “तुम इस विषय में कुछ जानती हो?”

भौहें सिकोड़ते हुए कमल ने क्रोध में भरकर कहा, “आपके महाराज ने अपनी वासना की क्षुदा शांत करने के लिए हमारी इच्छा के विरुद्ध हमारा हरण करने का प्रयास किया। भीलराज ने ही यहाँ आकर मेरा रक्षण किया। आप इसी अधर्मी राजा के दास होने की बात कह रहे थे?”

कमल के उन वचनों को सुन कालभोज की नसें फड़कने लगीं। मानमोरी की ओर मुड़ते हुए उसके हाथ और माथे की भी कई नसें उभरकर दिखने लगीं।

मेवाड़ नरेश के अगले प्रहार ने बलेऊ को निशस्त्र कर दिया, किन्तु इससे पूर्वं वो भीलराज को कोई क्षति पहुँचाते कालभोज ने उनका हाथ पकड़ते हुए क्रोध में भरकर उन्हें चेतावनी दी, “पीछे हट जाईए, मामाश्री।”

कालभोज के नेत्रों में छिपा क्रोध देख सुबर्मन भी आश्चर्य में पड़ गया, “ये क्या कर रहे हो, कालभोज?” कालभोज ने क्रोध में भरकर सुबर्मन को घूरा, “उचित यही होगा कि आप इस विवाद से दूर रहें, युवराज।”

अपने मित्र के नेत्रों में धधकती ज्वाला देख स्वयं सुबर्मन भी सकपका गया, जीवन में प्रथम बार उसने कालभोज का ऐसा व्यवहार देखा था।

मानमोरी को पीछे हटता न देख क्रोध में अपनी भवें ताने भोज ने पुनः चेतावनी दी, “मैं अब भी कहूँगा महाराज, आपके लिए उचित यही होगा कि यहाँ से प्रस्थान कर जाईये।”

मानमोरी ने अपने चहुं ओर देखा। कालभोज को उनका हाथ पकड़े देख वहाँ उपस्थित हर व्यक्ति यहाँ तक कि उनका अपना पुत्र भी उन्हें संदेह की दृष्टि से देख रहा था।

अपमान का ये घूँट पीकर मानमोरी ने अपना हाथ छुड़ाया और चंद पग पीछे हटे, “इस कन्या पर हमारी दृष्टि आज सुबह से ही है। किन्तु ये कहती है कि इसे तुमसे प्रेम है।” कहते हुए मानमोरी ने अपनी तलवार संभाली और अपने हठी स्वभाव का परिचय देते हुए कहा, “अब ये कन्या किसी एक की ही होगी। और इसका निर्णय हमारी तलवारें करेंगी।”

कालभोज ने कमल की ओर देख कहा, “ये कन्या कोई वस्तु नहीं हैं मामाश्री, जो आप इसे शस्त्रों के बल पर जीत लेंगे। इसका अपना एक व्यक्तित्व है, अपनी इच्छा है..।”

“किन्तु मुझे ये चुनौती स्वीकार है।” कमल ने हस्तक्षेप करते हुए कहा, “इस दुष्ट राजा ने हमारे सम्मान पर हाथ डाला है। उठाइए तलवार और दण्ड दीजिए इसे, वीर कालभोज।”

कमल की घोषणा सुन निकट खड़ी प्रीमल ने अपनी तलवार उठाई और उसे कालभोज की ओर उछाला। कालभोज ने उस तलवार को संभाला और मानमोरी को घूरकर देखा। वहीं मानमोरी ने नदी के तट के निकट जाकर पुनः अपने मुख पर जल के छींटे मारे और उठकर कालभोज के निकट आये। तत्पश्चात तलवार संभालते हुए उन्होंने मन में दबे हुए विषयुक्त वचन कहने आरम्भ किया, “आज और इसी क्षण से मैं तुम्हें अपने सेनापति के पद से निष्काषित करता हूँ। आज से तुम एक स्वतंत्र योद्धा हो, इसलिए तुम्हारे पास भी अब संकोच का कोई कारण नहीं होना चाहिए। क्योंकि मैं नहीं चाहता कि मेरी विजय पर कोई ये कहे कि कालभोज अपने महाराज का मान रखने के लिए परास्त हो गया। वर्षों से मेरी और मेवाड़ की हर विजय का श्रेय तुम लेते आये हो, कालभोज। आज सिद्ध हो जाएगा कि तुम इस श्रेय के योग्य भी थे या नहीं। स्मरण रहे, ये द्वन्द हम दोनों में से किसी एक के अंत तक चलता रहेगा।” 

मानमोरी के वो वचन सुन कमल का तो मन जैसे प्रसन्न ही हो गया, जैसे उसकी कोई बड़ी मनोकामना पूर्ण हो गयी हो। वहीं उस घोषणा के उपरान्त कालभोज ने तलवार पर अपना कसाव बढ़ाया, “धन्यवाद महाराज मानमोरी। अब आपने मुझे वो अधिकार दे दिया कि मैं स्वतंत्र होकर सिंध की राजकुमारी कमलदेवी के अपराधी को दण्डित कर सकता हूँ।”

“सिंध की राजकुमारी..?” मानमोरी ने आश्चर्यभाव से कमल की ओर देखा।

वहीं कमल का गर्व से ऊँचा उठा मस्तक देख वहाँ उपस्थित अन्य जन भी हतप्रभ रह गया।

“ये तो हमसे बड़ी भूल हो गयी।” मानमोरी ने कमल की ओर दृष्टि डाली और मन ही मन बुदबुदाए। किन्तु अब दी गयी चुनौती से पीछे हटना मेवाड़ नरेश के अहंकार को स्वीकार नहीं था। वो अपने प्रण पर अडिग रहे, “भले ही ये सिंध की राजकुमारी ही क्यों न हो। जब हमने एक बार इस कन्या से विवाह करने का संकल्प ले लिया तो अब पीछे हटने का प्रश्न ही नहीं उठता। तो बिना विलंब किए द्वन्द का आरम्भ करो, वीर कालभोज।”

“जैसी आपकी इच्छा, मामाश्री।” कालभोज ने तलवार संभाले आकाश की ओर देखा। सूर्यनारायण की पहली किरण ने रात्रि के अंधकार का नाश आरम्भ कर दिया था।

उस पहली किरण के फूटने के साथ ही कालभोज ने सिंहनाद करते हुए मेवाड़ नरेश की ओर दौड़ लगाई।

अपने अहंकार को बचाए रखने के उद्देश्य से मानमोरी ने भी सावधान होकर उसका प्रहार रोका और बायीं ओर हटकर अपने प्रतिद्वंदी की कमर पर मुष्टिका का प्रहार कर उसे स्वयं से दूर हटाया। मानमोरी को भी ज्ञात था कि वो हरित ऋषि के सर्वश्रेष्ठ शिष्य से द्वन्द कर रहे हैं, जिसमें तनिक सी भी असावधानी प्राण घातक हो सकती थी। उनकी पैनी दृष्टि केवल कालभोज के पैरों और नेत्रों पर जमी हुई थी।

भोज वापस उनकी ओर मुड़ा और अपने कंधे की ओर आता मानमोरी का प्रहार रोक उनकी छाती पर मुष्टिका मार उन्हें भूमि पर गिरा दिया। मेवाड़ नरेश तत्काल ही सावधान होकर भूमि से उठे और अपनी तलवार नचाते हुए प्रतिद्वंदी के अगले प्रहार की प्रतीक्षा करने लगे। दोनों पुनः एक-दूसरे की ओर दौड़े, किन्तु इस बार कालभोज ने चकमा देते हुए अपने दायें हाथ में थमी तलवार बायें में उछाली और मानमोरी की तलवार के प्रहार से बचते हुए उनकी जंघा पर गहरा घाव कर दिया। उसकी चपलता से चकमा खाए मानमोरी ने बस क्षणभर को ही अपनी जंघा पर हाथ डाला फिर संभलकर पलटे और उसके अगले प्रहार से बचते हुए उसकी बायीं भुजा पर वार कर गहरा घाव किया। कुपित हुए कालभोज ने अगले प्रहार को स्वयं तक पहुँचने ही नहीं दिया अपितु मानमोरी का वो हाथ ही पकड़ लिया जिसमें उन्होंने तलवार थाम रखी थी।

उस वीर गुहिल की तलवार को अपनी ओर बढ़ता देख मानमोरी ने भी उसका हाथ पकड़ लिया। अब प्रश्न बल का ही था कि कौन अपने पंजों का कसाव बढ़ाकर अपने प्रतिद्वंदी की तलवार छुड़ा सकता है। शक्ति प्रदर्शन के इस दांव में दोनों योद्धाओं ने एक-दूसरे की तलवारे थामें हुए हाथों पर कसाव बढ़ाना आरम्भ किया। किन्तु इसमें सफलता कालभोज को ही मिली, उसने मानमोरी के पंजे के ठीक नीचे की नस पर दबाव बनाया। कराहते हुए मानमोरी ने अपनी तलवार छोड़ दी। अगले ही क्षण उसने मेवाड़ नरेश के मुख पर मुष्टि का भीषण प्रहार किया, मुख से रक्त उगलते मानमोरी धरती पर गिर पड़े। और इससे पूर्व वो संभलते कालभोज ने अपनी तलवार उनके कण्ठ पर टिका दी, “आप पराजित हुए मेवाड़ नरेश।”

मानमोरी ने चहुं ओर दृष्टि घुमाकर देखा, अधिकतर उपस्थित जन उन्हें हेय दृष्टि से देख रहे थे। ये अपमान मानमोरी से सहन नहीं हुआ और उन्होंने कालभोज कि आँखों में देख उसे चेतावनी देते हुए कहा, “यही उपयुक्त समय है वीर कालभोज, अंत कर दो मेरा। क्योंकि यूँ अपमानित करके मुझे जीवित छोड़ा तो तुम्हारे साथ समस्त नागदावासियों को भी इसका विघातक परिणाम भोगना पड़ सकता है। विचार करके निर्णय लेना।”

कालभोज ने अपनी तलवार उनके कण्ठ के और निकट लायी, “आप द्वन्द में परास्त हो चुके हैं, तो नियमानुसार आप ऐसा..।”

“मैंने पहले ही कहा था, भोज। ये द्वन्द हममें से किसी एक के अंत के उपरान्त ही समाप्त होगा, इसलिए जब तक तुम मेरा वध नहीं कर देते, तुम्हारी विजय सम्भव नहीं। उचित यही होगा कि साहस जुटाकर पूरी शक्ति से ऐसा वार करो कि पुनः तुम्हें तलवार उठाने की आवश्यकता ही नहीं पड़े।”

मानमोरी की ओर देख क्षणभर को कालभोज के हाथ शिथिल से पड़ गये। मानमोरी ने हँसते हुए कटाक्ष किया, “क्या हुआ, वीर गुहिल ? रण में एक वार से बड़े-बड़े महावीरों को धराशायी करने वाले कालभोजादित्य रावल को आज शत्रु के प्राण लेने में भय लग रहा है? स्मरण रहे, तुम्हारा ये संकोच सहस्त्रों के प्राण लील सकता है। इसलिए मुझे जीवित छोड़ने की भूल न करना।”

कालभोज ने अपने निकट उपस्थित मनुष्यों की ओर देखा, उनमें से अधिकतर के नेत्रों में मानमोरी के लिये घृणा ही दिखाई दे रही थी, मानों संकेत दे रहे हों कि शीघ्र से शीघ्र मानमोरी का अंत कर देना ही उचित है। कालभोज ने क्षणभर को अपनी तलवार पीछे की और मानमोरी के रक्त से सने मुख की ओर देखा जिन पर लेश मात्र भी भय दिखाई नहीं दे रहा था, “यदि आपकी वीरगति प्राप्त करने की इच्छा इतनी प्रबल है, तो आज मैं आपको इस जीवन के भार से मुक्त करता हूँ।”

कालभोज ने अपनी तलवार ऊपर की, किन्तु इससे पहले वो मानमोरी की गर्दन पर चलती सुबर्मन दौड़ता हुआ वहाँ आया और अपने मित्र का हाथ पकड़ लिया। सुबर्मन के व्यथित हुए नेत्रों में देख कालभोज उससे कुछ कह न पाया। आखिर पुत्र के समक्ष उसके पिता की हत्या करने जा रहा था वो, तो पुत्र को तो उनके रक्षण को आना ही था। किन्तु सुबर्मन के नेत्रों में भी क्रोध नहीं अपितु क्षमायाचना का भाव दिखाई दे रहा था, “ये मेरे पिता हैं, कालभोज।”

कालभोज ने स्वयं के क्रोध को नियंत्रित कर सुबर्मन से प्रश्न किया, “यदि ये यहाँ से जीवित गए तो अनेकों प्राण संकट में पड़ सकते हैं।”

“ऐसा कुछ नहीं होगा, मैं वचन देता हूँ आज के उपरान्त मेवाड़ नरेश नागदा में अपने पग नहीं रखेंगे।” कहते हुए सुबर्मन मानमोरी की ओर मुड़ा, “और यदि उन्होंने मेरे इस वचन का मान नहीं रखा, तो वो जीवन पर्यंत अपने इस पुत्र को देख नहीं पायेंगे।”

कालभोज ने अपनी तलवार नीचे की। एक वृक्ष के तने का सहारा लेकर राजा मानमोरी भूमि से उठे और सुबर्मन की ओर बढ़े, “ये तुमने उचित नहीं किया, पुत्र।” उन्होंने नागदा वासियों की ओर दृष्टि डालते हुए अपने पुत्र के कंधे पर हाथ रखा, “मेरा वीरगति को प्राप्त होना आवश्यक था पुत्र। इस अपमान के साथ जीवित रहना बहुत दुष्कर होने वाला है।”

“अभी आपका जीवन अधिक आवश्यक है, पिताश्री। समय आपके सारे घाव भर देगा।” कठोर स्वर में कहते हुए सुबर्मन सिंध की राजकुमारी कमल के निकट गया और हाथ जोड़कर उसके समक्ष घुटनों के बल बैठ गया, “मेरे पिता से बहुत बड़ी भूल हुयी है, देवी। मैं जानता हूँ किसी भी नारी के लिए ये सरल नहीं होगा किन्तु फिर भी आपसे मेरी विनती है कि यदि सम्भव हो तो मेरे पिता को क्षमा करने का प्रयास कीजिएगा।”

एक क्षण को तो सुबर्मन की विनती देख कमल का हृदय पसीजा, किन्तु अगले ही क्षण उसकी दृष्टि मानमोरी की ओर पड़ी जो उसका मन कठोर कर गयी, “व्यक्ति को अपने कर्मों का उत्तरदायित्व स्वयं लेना चाहिए, युवराज। हमें भी इस विवाद को आगे बढ़ाने में कोई रुचि नहीं है। किन्तु हमसे क्षमादान और सम्मान की अपेक्षा ना ही रखें तो उचित होगा।”

अपने पुत्र को यूँ कमल के आगे घुटनों पर बैठा देख मानमोरी दाँत पीसते हुए कालभोज के निकट आये, “घृणा है मुझे तुमसे, तुम्हारे समग्र गुहिलवंश से। भूल की मैंने जो तुम जैसे आस्तीन के सर्प को अपने निकट रखा, बस ये मानकर कि वो मेरी बहन का पुत्र है। रक्त तो तुममें आज भी उन गुहिलों का ही दौड़ रहा है न, और शत्रु का रक्त रंग दिखा ही देता है।” क्रोध में श्वास भरते हुए मानमोरी ने स्वयं को घेरे हुए नागदा वासियों की ओर देखा, “किन्तु आज मैंने वो भूल सुधार ली। सेनापति का पद तो तुमसे छिन ही चुका है, तो भूल से भी चित्तौड़ की भूमि पर अपना पग रखने का साहस न करना। आशा है हमारी कभी पुनः भेंट न हो, और तुम्हारे लिए यही उचित भी होगा।” क्रोध में मानमोरी सुबर्मन की ओर मुड़ा, “चलो यहाँ से पुत्र, यदि तुम भी पुनः नागदा लौटकर आये तो वो मेवाड़ नरेश का अपमान ही होगा। और फिर मैं तुम्हारे वचन का मान नहीं रखूँगा। आज के उपरान्त इन सबसे हमारा कोई सम्बन्ध नहीं। मैं शिविर में तुम्हारी प्रतीक्षा करूँगा।” मुँह फेरकर राजा मानमोरी वहाँ से प्रस्थान कर गये।

मेवाड़ नरेश के मन में अपने पिता के प्रति इतनी गहन घृणा देख कालभोज के मन में और भी नए प्रश्न उमड़ने लगे थे।

इधर कमल से क्षमा प्रार्थना करने के उपरान्त सुबर्मन प्रीमल के निकट आया और उसका हाथ स्पर्श करने का प्रयास ही किया था कि प्रीमल ने अपना हाथ पीछे कर लिया, “क्षमा करें, युवराज। किन्तु मेरी बहन पर कुदृष्टि डालने वाले की पुत्रवधू बनकर उसका सम्मान करना मुझे मान्य नहीं।”

प्रीमल के इस निर्णय को सुन कमल भी विचलित हो उठी। उसने निकट आकर उसे समझाने का प्रयास किया, “अधीरता में मूर्खता मत करो, प्रीमल। तुम्हारा सम्बन्ध युवराज सुबर्मन से जुड़ रहा है, और मेरे विचार से इनके व्यक्तित्व में कोई दोष नहीं है। मेरे कारण यदि ये पवित्र सम्बन्ध टूट गया तो मैं स्वयं को कभी क्षमा नहीं कर पाऊँगी।”

“आपने तो कोई अपराध किया ही नहीं फिर स्वयं को क्षमा करने का प्रश्न ही कहाँ उठता है।” कहते हुए प्रीमल के नेत्रों में भी नमी आ गयी, “मैं एक योद्धा हूँ, दीदी। और आपने मेवाड़ नरेश को क्षमा किया हो या नहीं, किन्तु मेरी बहन की अस्मत पर हाथ डालने वाला वो पापी जब भी मेरी दृष्टि के समक्ष आयेगा तो मेरी भुजाएँ उसका मस्तक उतारने को फड़क उठेंगी। और निसंदेह युवराज सुबर्मन ऐसा नहीं चाहेंगे।” अपनी नम आँखें लिये प्रीमल ने सुबर्मन के नेत्रों को देख उसके मन को टटोलने का प्रयास किया, “हाँ, यदि युवराज सुबर्मन वास्तव में हमसे प्रेम करते हैं, तो अपना पद और राज्य त्यागकर हमारे साथ चल सकते हैं। अपने सामर्थ्य अनुसार यदि वो मुझे एक समय का भोजन भी देंगे तो भी मैं उनके साथ निवास कर लूँगी।”

अपनी मुट्ठियाँ भींचे सुबर्मन ने अपनी भावनाओं को नियंत्रित करने का प्रयास किया, “आपका प्रेम अत्यंत पवित्र है, राजकुमारी। किन्तु ये पुत्र अपने पिता से विमुख नहीं हो सकता। यदि उन्होंने नागदा में ना प्रवेश करने के मेरे वचन का मान रखा है, तो मुझे भी उनका सम्मान रखना होगा।”

सुबर्मन के वो वचन सुन प्रीमल को ऐसा लगा जैसे उसके हृदय में किसी ने कटार उतार दी हो। उसने अपने अश्रु पोछते हुए कठोर स्वर में कहा, “तो फिर उचित है, आज के उपरान्त हमारे समक्ष आकर हमारे हृदय को पुनः छलनी करने का प्रयास न करिएगा।”

अपने मुख पर पीड़ा से भरी मुस्कान लेते हुए सुबर्मन पीछे मुड़ा और गंभीर स्वर में कहा, “आशा है किसी दिन आप मेरी विवशता समझ पायेंगी, राजकुमारी। मेवाड़ का युवराज केवल एक पद नहीं अपितु एक बड़ा उत्तरदायित्व भी है जिसे त्यागा नहीं जा सकता। और अब मेरा एक ही कर्म है कि मैं अपने पिता का साथ दूँ, और उन्हें नागदा पर आक्रमण कर निर्दोष मनुष्यों के प्राण लेने के पाप कर्म से बचाए रखूँ।”

हृदय पर भावनाओं का भारी बोझ लिये सुबर्मन कालभोज के निकट आया, जहाँ भोज की दृष्टि में उसने अपने प्रति तनिक भी द्वेष न पाया। दोनों एक-दूसरे के हृदय से जा लगे। उन्हें यूँ गले मिलते देख देवा भी वहाँ आया और उस आलिंगन का भाग बन गया।

तत्पश्चात सुबर्मन चलकर साबरमति की उस पवित्र नदी के तट के और निकट आया और वहाँ से एक मुट्ठी मिट्टी उठाकर अपने कमर में बंधे झोले में रख लिया और कालभोज और देवा के निकट आया, “सरकंडों से मिट्टी खोदकर महल बनाने के दिन समाप्त हुए, मित्रों। अब विदा लेने का समय आ गया है।”

कालभोज को भी आभास हो चुका था कि कदाचित सुबर्मन से ये उसकी अंतिम भेंट है। उसने मुस्कुराने का प्रयास किया, “किन्तु अब भी आप मेरी वृक्षों पर दौड़ने की विद्या से वंचित हैं, युवराज।”

“हाँ, मैं उसका कड़ा अभ्यास अवश्य करूँगा। और देख लेना यदि कभी पुनः हमारी भेंट हुई तो उस विद्या में तुमसे श्रेष्ठ बनकर दिखाऊँगा।”

“पर भेंट हुई तो न?” देवा ने चुटीले संवाद को गंभीर बना दिया।

सुबर्मन ने अपने दोनों मित्रों की ओर देखते हुए भारी मन से कहा, “मेरा तो प्रयास शांति का ही होगा। तुम भी बस यही आशा करो कि कोई ऐसा प्रसंग उत्पन्न न हो जो हमें एक-दूसरे के विरुद्ध रण में खड़ा कर दे।”

“हमारा भी यही प्रयास रहेगा, युवराज। चिंता मत करिए, हमें मेवाड़ पर आक्रमण करने में कोई रुचि नहीं है।”

कालभोज के वचन सुन सुबर्मन मुस्कुराया, “मैंने कहा न भोज, मिट्टी के महल बनाने के दिन समाप्त हुए। भविष्य में कब इस भारत भूमि में कौन सा राजनीतिक परिवर्तन आएगा और वो तुम्हें किस पक्ष में खड़ा करेगा ये तुम भी नहीं जान सकते।” कहते हुए उसने कालभोज की पीठ थपथपाई, “तुम हरित ऋषि के दिखाए मार्ग पर चलते रहो। मैं अपने सामर्थ्य अनुसार शांति का प्रयास करता रहूँगा।”

मुस्कुराते हुए सुबर्मन पलटा और जाने के ठीक पूर्व प्रीमल की ओर देखा, “आपके साथ बिताए एक दिन की स्मृतियाँ जीवनभर हमारे साथ रहेंगी राजकुमारी। आगे चलकर जीवन में और कोई भी आये, किन्तु वो आपका स्थान नहीं ले पाएगा। आज्ञा दीजिए।” हाथ जोड़ प्रणाम कर सुबर्मन ने साबरमति का वो तटस्थल छोड़ दिया।

सुबर्मन के जाने तक तो प्रीमल ने स्वयं को संभाला हुआ था, किन्तु उसके दृष्टि से ओझल होते ही मानों उसके नेत्रों ने अश्रुओं पर से नियंत्रण खो दिया। वो कमल से लिपट कर रोने लगीं। नागदावासी उस स्थान को खाली करते हुए धीरे-धीरे जाने लगे। कालभोज भी चलकर कमल के निकट आया, “ये हमारे लिए बहुत लज्जा की बात है राजकुमारी, जो हम समय पर अपने अतिथि के रक्षण को नहीं पहुँच सके।” कालभोज को वहाँ आया देख प्रीमल ने अपने अश्रु पोछे और कमल की ओर देख मुस्कुराने का प्रयास करते हुए उससे थोड़ी दूर हुई ताकि वो कालभोज से वार्ता कर सके।

प्रीमल के जाने के उपरान्त कमल भोज की ओर मुड़ी, “आप नहीं आये तो क्या हुआ, आपके नागदा में वीरों की कमी कहाँ है। भीलराज बलेऊ ने मेरा रक्षण कर नागदा की इस पवित्र माटी पर महापाप होने से बचा लिया। और इसके लिए मैं भीलराज के साथ-साथ नागदा की इस माटी की भी आभारी हूँ जिसने ऐसे वीरों को जन्म दिया जो स्वयं अपने अधिपति मेवाड़ नरेश के विरुद्ध शस्त्र उठा सकें।”

कालभोज ने मुड़कर भीलराज बलेऊ की ओर देखा जो नदी के तट पर बैठे अपने घावों पर जल छिड़क रहे थे। मुस्कुराते हुए कालभोज वापस कमल की ओर मुड़ा, “मैं आपका संकेत समझ रहा हूँ, राजकुमारी। वैसे मैं तो अब मेवाड़ नरेश के दासत्व से मुक्त हो चुका हूँ।”

“इसलिए तो हम अब तक यहाँ खड़े आपके निर्णय की प्रतीक्षा कर रहे हैं।” कमल ने एंठते हुए कहा, “अन्यथा इतना कुछ होने के उपरान्त तो अब तक हमें सिंध की ओर निकल जाना चाहिए था।”

कालभोज मुस्कुराया, “जब प्रकृति ने स्वयं मेरी हर विवशता को समाप्त करने का प्रसंग उत्पन्न कर दिया, तो मैं भला पीछे हटकर आपके प्रेम का अपमान कैसे कर सकता हूँ?” कालभोज कमल के और निकट आया, “एक वर्ष के भीतर उचित समय आने पर मैं स्वयं सिंध आऊँगा।”

“किन्तु ये एक वर्ष की प्रतीक्षा क्यों ?” कमल ने विचलित होकर प्रश्न किया।

“क्योंकि इस समायावधि में मुझे सिंध की सुरक्षा सुनिश्चित करनी है। वर्षों से भारतवर्ष का रक्षाकवच यानि सिंध सुरक्षित है क्योंकि अरब आक्रान्ताओं के मन में हिन्दसेना की अखण्डता का भय है। किन्तु आज जो मेवाड़ नरेश का अपमान हुआ है, मुझे भय है कि इस अखण्ड सेना के खण्डित होने की संभावना बढ़ गयी है। ये तो निश्चित है कि आज जो कुछ हुआ उसके उपरान्त महाराज मानमोरी मुझे तो हिन्दसेना का भाग बना हुआ नहीं देखना चाहेंगे। इस एक बात को लेकर सिंध, कन्नौज और मेवाड़ नरेश में खटास उत्पन्न हो सकती है। इसलिए मैं अपनी ओर से चालुक्यों से सहायता माँगने का प्रयास करूँगा कि यदि कभी मेवाड़ नरेश स्वयं को हिन्दसेना से अलग कर लें, तो ऐसे में चालुक्यों की शक्ति उस अखण्ड सेना का बल बन सके।”

कालभोज के वो वचन सुन कमल के मुख पर संतोष का भाव था, “जैसी आपकी इच्छा। आप अपने कर्तव्य का निर्वहन करिए, और जितना चाहें समय लीजिए। मुझे बस आपकी सहमति चाहिए थी, और अब तो मैं अनंतकाल तक आपकी प्रतीक्षा करने को सज हूँ।”

भोज ने मुस्कुराते हुए कमल का हाथ अपने हाथों में लिया, क्षणभर को तो कमल के हाथ में हुई कंपन की तरंगे सीधा उसके हृदय को छू गईं। उसकी मुस्कान देख भोज ने उसके मुख पर हाथ फेरते हुए आश्वस्त किया, “बस एक वर्ष का समय, वचन देते हैं इससे अधिक प्रतीक्षा नहीं करवाएंगे आपको?”

कमल पहले तो थोड़ी लजाई फिर बलेऊ की ओर संकेत कर कहा, “यदि आपको आपत्ति न हो तो हमारी ओर से भीलराज को धन्यवाद अवश्य कहिएगा।”

कालभोज के मुखभाव गंभीर हो गया। कमल ने उसका हाथ थाम समझाने का प्रयास किया, “हमें आपके और उनके मध्य के मतभेदों के विषय में भलीभाँति ज्ञात है, वीरवर। पर जाने क्यों हमारा हृदय यही कहता है कि उनकी नीयत में कोई खोट नहीं है।” इस बार कमल का हाथ भी कालभोज के मुख पर आया, “इतने वर्षों के उपरान्त भी आपने कभी भीलराज को शस्त्रों से स्पर्श करने का प्रयास नहीं किया, इसका कोई तो कारण होगा न?”

कालभोज ने बिना कुछ कहे मुड़कर बलेऊ की ओर देखा। तभी कमल ने उसे पुनः समझाने का प्रयास किया, “हृदय में उगे शूलों को या तो शस्त्रों द्वारा रक्त पीकर नष्ट किया जा सकता है अथवा उनसे उमड़ रही अग्नि को प्रेम और क्षमा का शीतल जल ही बुझा सकता है। किन्तु इन दोनों में से किसी एक का चुनाव करना बहुत आवश्यक है। अन्यथा वो शूल हृदय को अनंतकाल तक छलनी करते ही रहेंगे।”

कालभोज का गला भर आया और उसने कमल को सिर हिलाकर सहमति का संकेत दिया। कमल ने उसके मुख पर हाथ फेरा, “अब हमारे जाने का समय हो गया है। प्रतीक्षा रहेगी आपकी।” वो पीछे हटी और यात्रा की तैयारी करने शिविर की ओर बढ़ी।

इसके उपरान्त निकट खड़ा वेदान्त भी कालभोज के निकट आया। उसकी लम्बी दाढ़ी और बाल देख अकस्मात ही कालभोज की भी हँसी छूट गयी। झेंपते हुए वेदान्त ने स्वयं की ढकी हुई लम्बी दाढ़ी और मूँछ निकाल फेंकी, “तो आपने हमें पहले दिन ही पहचान लिया था ? फिर भी आप मौन रहे?।”

“हाँ, मुझे आप लोगों के मन्तव्य का कोई ज्ञान नहीं था तो मैंने मौन रहना ही श्रेयस्कर समझा।”

“हाँ, ये भी उचित है।” मुस्कुराते हुए वेदान्त का स्वर सहसा ही गंभीर हो गया, “मैंने सुना आपने सिंध के विषय में कमल से क्या कहा। क्या वास्तव में मेवाड़ नरेश ऐसा कर सकते हैं ?”

“जहाँ तक मैं उन्हें जानता हूँ वो आज नहीं तो कल कोई न कोई अनिष्ट अवश्य करेंगे। इसलिए हमें हर विषम परिस्थिति के लिए तैयार रहना चाहिए।”

“तो इसका अर्थ है हमें भी अपने गुप्तचर दलों को पहले से अधिक सतर्क कर देना चाहिए ?”

“पिछले पाँच वर्षों से अरब आक्रांता शांत बैठे हैं। जहाँ तक मैंने बगदाद के सुल्तान अलहजाज के विषय में सुना है, वो मौन रहने वालों में से नहीं है। अगर मेवाड़ नरेश ने कोई मूर्खता की तो वो अलहजाज इसका लाभ उठाने का प्रयास अवश्य करेगा।”

“तो कदाचित अब हमें शीघ्रताशीघ्र सिंध की ओर निकलना चाहिए, आज्ञा दीजिए। अपने बहनोई की बारात की प्रतीक्षा रहेगी हमें।” भोज को प्रणाम करते हुए वेदान्त वहाँ से प्रस्थान कर गया।

वेदान्त के वहाँ से जाने के उपरान्त कालभोज की दृष्टि भीलराज बलेऊ पर पड़ी, जो नदी के जल से अपने घावों को स्वच्छ करने के उपरान्त वहीं बैठे उस पर हल्दी का लेप लगा रहा था। भोज चलकर उसके निकट आया और बगल में बैठा, “कमल का रक्षण कर आज पुनः आपने मुझ पर एक उपकार किया है, भीलराज। मैं वास्तव में आपका आभारी हूँ।”

पाँच वर्षों में पहली बार कालभोज के मुख से अपने लिए वो मधुर स्वर सुन भीलराज के नेत्रों में भी नमी आ गयी। बोलते हुए उनका गला भर आया, “भीलराज होने का कर्तव्य निभा रहा था, भोज। इससे अधिक कहने को और कुछ नहीं है मेरे पास।”

“हाँ, वो तो मैं वर्षों से देख रहा हूँ कि आपके पास मुझसे कुछ कहने के लिए होता ही नहीं।” कालभोज ने भी अपने शरीर पर लगे घावों की पीड़ा को साबरमती के छींटों से शांत करने का प्रयत्न किया फिर बलेऊ को शांत देख पुनः प्रश्न उठाया, “चलिए इस बात को कुछ क्षण के लिए भूल जाते हैं कि आपने मेरे पिता की हत्या क्यों की। किन्तु वर्षों से मुझे शरण देकर मेरी रक्षा करने के पीछे आपका क्या उद्देश्य था? आज तक इसमें आपका कोई निहित स्वार्थ तो मुझे दिखाई नहीं दिया। ऐसा कौन सा सत्य है जिसे प्रकट करने के स्थान पर आप मेरे तात शिवादित्य की तलवार के समक्ष मृत्यु स्वीकार करने में भी नहीं हिचके ?”

“समय हम सबकी किसी न किसी प्रकार से परीक्षा लेता रहता है, वीर कालभोज।” कहते हुए भीलराज बलेऊ तट से उठा, “कभी-कभी हमें स्वयं भी ये अनुमान नहीं होता कि जीवन का कौन सा पेचीदा पड़ाव हमारी कैसी परीक्षा ले रहा है। कुछ उत्तर कदाचित तुम्हें स्वयं खोजने होंगे।” बलेऊ पलटकर जाने लगा।

“रुकिए भीलराज।” उसे टोकते हुए कालभोज भी तट से उठकर बलेऊ के निकट आया और क्षणभर उसके नेत्रों की ओर देखा, “जब तक मुझे अपने पिता की मृत्यु के सत्य का भान नहीं था मैं आपका एक पिता की भाँति सम्मान किया करता था। और क्यों न करता, यदि देवी तारा ने मेरा पालन पोषण किया तो भीलराज होने के नाते मुझे रक्षण तो सदैव आप ही ने दिया। भले ही कथाएँ ये कहती हों कि आप महाराज नागादित्य के हत्यारे हैं, किन्तु आज अपने और अपने पिता के प्रति जो घृणा मैंने मेवाड़ नरेश के नेत्रों में देखी, उसका अंश मात्र भी कभी आपके मुख मंडल पर दिखाई नहीं दिया।” अपने माथे का स्वेद पोछते हुए भोज ने दृढ़ होकर कहा, “मैं नहीं जानता आपकी क्या विवशता है, जो मुझे कभी सर्वाधिक सम्मान देने वाले भीलराज वर्षों से मुझसे दृष्टि मिलाने का साहस नहीं कर पा रहे हैं। किन्तु सत्य यही है कि पिछले पाँच वर्षों से मैं केवल आपके नेत्रों में पश्चाताप ही देखता आ रहा हूँ। सत्य छिपाने के पीछे आपकी क्या विवशता है मैं नहीं जानता, किन्तु आज मैं आपको वचन देता हूँ कि मैं जीवन में पुनः आपसे ये प्रश्न नहीं करूँगा।”

कालभोज के वो वचन सुन भीलराज अत्यंत भावुक हो गये। उनके नेत्रों में देख कालभोज उनके निकट आया और बलेऊ के कंधे पर हाथ रख कहा, “नागदा नरेश महाराज नागादित्य की हत्या के अपराध के लिए मैं आपको क्षमा करता हूँ, भीलराज। और ये आशा करता हूँ कि भविष्य में आप पुनः मुझसे दृष्टि नहीं चुराएंगे।”

बलेऊ के मुख पर ऐसी मुस्कान खिली मानों उसके वर्षों की इच्छा पूरी हो गयी हो, उसने मुस्कुराते हुए कालभोज की पीठ थपथपाई, “मैं तुमसे शीघ्र ही मिलता हूँ।” इतना कहकर भीलराज वहाँ से प्रस्थान कर गये।

बलेऊ की उस प्रसन्नता का रहस्य कालभोज की भी समझ में नहीं आया। वो आश्चर्य में खड़ा उन्हें जाता हुआ देखता रहा।