Chandrvanshi - 6 - 6.3 in Hindi Mythological Stories by yuvrajsinh Jadav books and stories PDF | चंद्रवंशी - अध्याय 6 - अंक 6.3

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चंद्रवंशी - अध्याय 6 - अंक 6.3


राजकुमारी संध्या आज शाम के समय, वही खिड़की पर रोज़ की तरह आकर खड़ी है। लेकिन, आज उसकी नज़र डूबते सूरज की ओर है और उसे देखकर ऐसा ही लग रहा था कि वह उस डूबते सूरज की नज़रों से सुर्यांश को ढूंढ रही है। थोड़ी ही देर में संध्या की आंखों से आंसुओं की धारा बहने लगी। उस समय चंद्रमा आकाश में ऊपर आ चुका था और जैसे अपनी बेटी को रोता देखकर मन ही मन पीड़ित होता हो, वह भी लाल हो गया। चंद्रमा से और देखा नहीं गया तो उसने बादलों की चादर अपने चारों ओर ओढ़ ली और वह भी सुर्यांश को ढूंढने लग गया।
सुर्यांश इस समय घाटी से दूर स्थित चंद्रमंदिर पहुँच चुका था। वहाँ सिपाहियों की गश्त थी। उसे उन सिपाहियों के मुखिया के पास जाना था। इसलिए उसने एक सिपाही को बुलाया और पूछा, “मुझे आयूं से मिलना है।” सिपाही ने सिर हिलाकर हाँ में उत्तर दिया और चल पड़ा।
फिर वह सिपाही के पीछे सुर्यांश भी चल पड़ा। दो बड़े और भड़कीले रंगों के तंबू थे जिनके ठीक बीच में एक छोटा और पूरी तरह सफेद तंबू था। सिपाही उसकी बाहर खड़े दो पहरेदारों से बात करने गया। तब तक सुर्यांश वहीं खड़ा रहा। थोड़ी देर में पहरेदार तंबू के अंदर गया और फिर सुर्यांश को अंदर आने को कहा।
तंबू के अंदर आयूं था, जो इस समय मंदिर के बाहर तैनात सिपाहियों का मुखिया है। मंदिर के अंदर के अंगरक्षक स्वतंत्र थे। इसलिए वे राजा या राजकुमार के सिवा किसी और की आज्ञा नहीं मानते। आयूं तंबू में प्रवेश करते सुर्यांश को देखकर खड़ा हुआ और उसे गले मिलने के लिए आगे बढ़ा। सुर्यांश भी आयूं को देखकर खुश हुआ और दोनों गले मिले।  
“सुर्यांश, मेरे भाई, मेरे मित्र, तुझे देखकर बहुत आनंद हुआ और दुख भी।”  
“दुख?”  
“हाँ! सुर्यांश, मुझे भी कल ही पता चला कि हमारे गुरुजी अब इस दुनिया में नहीं रहे।” आयूं बोला।
सुर्यांश उस बात को और न बढ़ाते हुए राजकुमार मदनपाल के बारे में पूछता है, “मैंने सुना है कि मदनपाल आज रात मंदिर में है। क्या ये बात सही है?”  
सुर्यांश की बात सुनकर आयूं बोला, “हाँ, राजकुमार मदनपाल यहीं है और हमें भी मंदिर की रक्षा के लिए बुलाया गया है।”  
“आज की रात मैं यहीं बिताऊँगा और सुबह मंदिर का द्वार खुलते ही मैं मदनपाल से मिलूँगा।” सुर्यांश बोला।
मंदिर के अंदर मदनपाल उस वृद्ध सिपाही के साथ यज्ञ कुंड के पास जाकर उस गुफा का द्वार देख रहा था। मदनपाल ने उस सिपाही से सवाल किया, “तुम कितने वर्षों से इस मंदिर की रक्षा कर रहे हो?”  
सिपाही का उत्तर सीधा और हल्का था, “राजकुमार, मेरे पिता की मृत्यु के बाद से ही मैं इस मंदिर का मुख्य अंगरक्षक हूँ।”  
“क्या कभी इस मंदिर पर आक्रमण हुआ है?”  
“जी नहीं, राजकुमार।”  
“तो मेरे पिता इस मंदिर को लेकर इतने चिंतित क्यों हैं?”  
“क्योंकि अब उन्हें ज्ञात हो गया है कि मंदिर पर हमला होगा और वह हमला छोटा नहीं बल्कि आक्रमण होगा।” सिपाही राजा से ज्यादा जानने वाला प्रतीत हो रहा था।  
“मतलब मंदिर के धन की जानकारी किसी को तो है?” मदनपाल बोला।  
“हाँ।”
रात गहराते ही एक समूह जंगल में घूम रहा था। जिसमें सात आदमी थे। जिनके हाथ में मशालें थीं, लेकिन जली हुई केवल दो ही थीं। उनमें से एक रास्ता दिखा रही थी और दूसरी पैरों के निशान छुपाने के लिए पत्ते ढूंढ रही थी। मतलब यह कि सात में से चार व्यक्ति अपने काम में लगे हुए थे। बीच में चल रहे तीन में सबसे बीच में आदम था। उसके दाएँ चंद्रहाट्टी का प्रधान चल रहा था। (जिसने जंगिमल से युद्ध हारने के बदले खाड़ी में मौजूद अपार सोना जंगिमल को मिलेगा और चंद्रहाट्टी उसे सौंपेगा—इस शर्त पर समझौता किया था)। आदम की बाईं ओर दास चल रहा था।
“राजकुमार, मैंने सुना है कि राजा को भी खाड़ी के सोने की जानकारी हो गई है?” दास बोला।  
“हाँ, तो, हो ही जाए... तेरे जैसे कायरों को साथ लेकर युद्ध लड़ने जाएँगे तो जीतने वाले तो हैं नहीं।” आदम बोला।  
“लेकिन राजकुमार, खाड़ी तो हम जीत ही चुके थे, साथ ही रक्षक भी हमारे बन चुके थे। लेकिन कहाँ से वो वैभवराज आ धमका और हमारी जीत को हार में बदल दिया।” दास अपने मुँह पर चादर ठीक करते हुए बोला।  
“अब तो वो काँटा भी उखाड़ फेंका।” प्रधान बोला।  
“हाँ लेकिन तेरे राज्य में वैभवराज जैसे सिपाहियों की कोई कमी नहीं है।” आदम बोला।  
“इसीलिए तो मुझे तुम्हारी मदद चाहिए। नहीं तो अकेला ही चंद्रहाट्टी जीत लूँ।” प्रधान बोला।  
“परंतु वैभवराज को मारा किसने?” दास बोला।  
“और कौन, उसी के प्रधान ने।” आदम बोला और सभी हँसने लगे।
उनके साथ चल रहे चार सिपाहियों में से एक सुर्यांश का आदमी था। जो ये सारी बातें जान गया था।

***

“विनय... विनय...!” रोम ने गाड़ी रोकते हुए कहा।  
“अ... अ... अ...” करता विनय आगे पढ़ने के लिए एक पेज पलट ही रहा था कि, रोम ने उसका हाथ पकड़कर कहा,  
“हम हॉस्पिटल पहुँच गए। चलो, अब बहुत पढ़ लिया।”
श्रुति मैडम और माही दोनों नीचे उतर गए थे। विनय ने देखा और उसने किताब नीचे रख दी। हॉस्पिटल इतना सुरक्षित नहीं था कि अगर किसी बड़े व्यक्ति को मार दिया जाए तो कोई भी सबूत हाथ आ सके। कोई सिक्योरिटी गार्ड भी इतना सक्षम नहीं था। एक युवा गार्ड था, उसे हॉस्पिटल के पीछे आने वाले जानवरों को भगाने में लगा दिया गया है।
विनय काउंटर पर जाकर बंगाली भाषा में बोला, “जॉर्ज की लाश कहाँ है?”  
काउंटर पर बैठी महिला भी बंगाली में बोली, “उसे पोस्टमार्टम विभाग में रखा गया है। वहाँ जाने से पहले हाथ में ग्लव्स पहनना और मुँह पर मास्क लगाना अनिवार्य है।”
अब सभी जॉर्ज की लाश के पास पहुँचे। रोम और माही दोनों एक साथ थोड़ी दूर पीछे खड़े हो गए। विनय और श्रुति आगे जाकर जॉर्ज की लाश के पास खड़े हुए। लाश से थोड़ी बदबू आ रही थी। विनय ने पीछे खड़ी माही की ओर देखा और उससे लाश की सही पहचान करने को कहा। माही आगे आ गई। लाश पर ढकी चादर को पेट तक खोल दिया गया। लाश इतनी बुरी तरह से सूजी हुई थी कि पहचानना मुश्किल था। माही को देखते ही ज़ोर से चीख निकल गई।
विनय डॉक्टर के पास गया और पूछा, “डॉक्टर! लाश की पहचान कैसे हुई?”  
डॉक्टर ने कहा, “लाश की पहचान उसके पर्स और उसके साथ मिले कुछ दस्तावेज़ों से की गई है।”  
“साथ में मिले दस्तावेज़?”  
“हाँ।”  
“वो दस्तावेज़ कहाँ हैं?” पीछे से आकर श्रुति बोली।  
“हॉस्पिटल के पास ही हैं।” डॉक्टर बोला।  
डॉक्टर ने दस्तावेज़ मंगवाकर दे दिए और हॉस्पिटल के कागज़ों पर माही तथा श्रुति के हस्ताक्षर लिए। फिर डॉक्टर ने लाश और सारे दस्तावेज़ उन्हें सौंप दिए।
माही के पापा भी वहाँ आ पहुँचे। माही ने अपने पापा को सारी बात बताई और कहा, “पापा! ये अंकल जॉर्ज नहीं है। ये तो कोई ढोंगी है। इसके लिए आँसू न बहाइए। इसे तो यहीं छोड़कर चलते हैं।”
तभी माही को रोकते और समझाते हुए उसके पापा ने कहा, “अग्निदान सबसे बड़ा पुण्य है बेटा। जब भगवान राम, सीता को पाने के लिए रावण से युद्ध कर रहे थे, तब राक्षसों की मृत्यु के बाद उनका विधिपूर्वक और आदर-सम्मान के साथ अग्निसंस्कार किया गया। उसके ही फलस्वरूप रावण का सगा भाई विभीषण लंका छोड़कर भगवान श्रीराम की शरण में आया। जिसने रावण को हराने में मदद की।”
इसके बाद माही ने अपने पापा की बात मानी और सभी ने विधिपूर्वक उसका अग्निसंस्कार किया और उस मृतदेह को अग्निदान माही के पापा ने दिया।

***