Ghostly Journey in Hindi Short Stories by Sunita books and stories PDF | भूतिया सफर

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भूतिया सफर

स्थान: बरेली का एक वीरान रेलवे स्टेशन

समय: रात 2:20 बजे

घड़ी की टिक-टिक अब जैसे कान में सुराख़ कर रही थी।

रात दो बजे के बाद का समय और वो स्टेशन — बरेली जंक्शन का पुराना प्लेटफॉर्म नंबर 13 — जहां अब कोई ट्रेन नहीं रुकती थी।

रघुवीर ने सिगरेट का आख़िरी कश लिया, और पैरों से जूते उतारकर बेंच पर चढ़ गया।

उसे इस शहर से कोई वास्ता नहीं था।

बस किसी से भागना था।

और कहीं पहुंचना था।

कहां?

उसे खुद नहीं पता।

उसके हाथ में एक पुराना कटा-फटा टिकट था, जिस पर लिखे थे:

"शंकर एक्सप्रेस – प्लेटफॉर्म 13 – कोच D3 – रात 2:45"

उसने कई बार पूछा था, ये ट्रेन है कहाँ? किसी को जानकारी नहीं थी।

टिकट खिड़की पर बूढ़ा बाबू आंखें झुकाकर बस यही बोला था –

“जो इसे लेके जाता है, वो लौट कर नहीं आता।”

और फिर कान में फुसफुसा दिया –

“2:45 की ट्रेन, मौत की गाड़ी है। सोच ले।”

रघुवीर को परवाह नहीं थी।

क्योंकि पीछे छूटा उसका अतीत, उसके लिए खुद मौत से बदतर था।

2:42 AM

एक ज़ोर की सीटी ने नींद तो नहीं, पर चेतना झकझोर दी।

दूर से एक भाप छोड़ती पुरानी स्टीम इंजन ट्रेन आ रही थी।

हां, स्टीम इंजन — जो अब रेलवे म्यूज़ियम में भी नहीं मिलते।

ट्रेन का रंग... धुंध में गुम था।

जैसे किसी ने राख को सीला दिया हो।

हर कोच की खिड़कियां ढंकी थीं, पर्दे अंदर से हिल रहे थे — लेकिन हवा नहीं थी।

"शंकर एक्सप्रेस"

बोर्ड पर लिखा था – वही नाम, जो टिकट पर था।

लेकिन उस पर एक और लाइन उभर आई –

“अंतिम यात्रा के लिए स्वागत है…”

रघुवीर बिना ज़्यादा सोचे कोच D3 की ओर बढ़ा।

दरवाज़ा बिना हाथ लगाए ही खुल गया।

अंदर अजीब सी ठंड थी — एसी नहीं, कब्रिस्तान जैसी ठंड।

बर्थें खाली थीं।

दीवारों पर पुराने फ़ोटो टंगे थे — पर चेहरों की आंखें फटी हुई थीं, जैसे कोई डर का चरम भोग चुका हो।

उसने अपनी सीट पकड़ ली — lower berth, नंबर 13.

हाँ, फिर वही नंबर। 13।

3:05 AM

ट्रेन धीरे-धीरे चलने लगी।

बाहर कुछ दिखाई नहीं देता था, जैसे स्टेशन ही धुंध में डूब चुका हो।

कुछ देर में रघुवीर को एहसास हुआ –

ट्रेन में और भी लोग हैं।

कुछ बूढ़े, कुछ जवान।

सब चुप।

कोई किसी से बात नहीं कर रहा था।

एक आदमी रघुवीर के सामने वाली बर्थ पर बैठा था — सफ़ेद कुरता, लाठी, और एक छोटी सी तिज़ोरी उसके पास थी।

उसने एक बार आंखें उठाईं…

और फिर वापस सिर झुका लिया।

रघुवीर ने हिम्मत कर पूछा —

“कहां जा रहे हो बाबा?”

बिना देखे जवाब आया —

“जहां तुम भी जाओगे। मौत की छांव में।”

3:17 AM

ट्रेन का पहला ठहराव —

स्टेशन का नाम था: "तर्पण घाट"

लेकिन बाहर कोई प्लेटफॉर्म नहीं, सिर्फ़ धुंध में खड़े लोग।

उनके चेहरे साफ नहीं थे।

लेकिन रघुवीर ने देखा — एक और यात्री नीचे उतरा।

और भीड़ में मिल गया।

फिर वो ट्रेन में वापस नहीं आया।

सीटी बजी और ट्रेन फिर चल पड़ी।

अब उसके अंदर सर्दी और अंधेरा और गहराने लगा।

3:32 AM

ट्रेन के लाउडस्पीकर से पहली बार आवाज़ आई।

“यात्रियों से अनुरोध है कि अपनी आत्मा संभालें। अगला पड़ाव — स्मृति घाट।”

रघुवीर सिहर गया।

उसका मोबाइल डेड हो चुका था।

खिड़की के बाहर अब कोई पेड़, कोई रास्ता नहीं दिखता था — सिर्फ़ काली नदियां, जैसे अतीत की गलियों में बहता दुःख।

कोच D3 की लाइटें एक बार फिर बुझ गईं।

अब वो सामने वाला बूढ़ा भी नहीं था।

बस उसकी छोटी तिज़ोरी वहीं पड़ी थी।

रघुवीर ने देखा — उस पर खून के निशान थे।

और एक पुर्जा चिपका था —

“जिन्होंने अपने अपराध साथ लाए, वे अगले स्टेशन पर उतरेंगे।”

3:47 AM

ट्रेन में झटके लगे।

किसी ने अचानक चिल्ला कर कहा —

“कोच D3 का दरवाज़ा मत खोलना!”

पर दरवाज़ा अपने आप खुल गया…

और अंदर धुआं भर गया।

सभी यात्री अब बर्थ से उतर चुके थे।

कोई भी बात नहीं कर रहा था — सब के सब ट्रान्स में थे।

रघुवीर चिल्लाया —

“कौन हो तुम लोग? ये ट्रेन है या भूतों की बारात?”

कोई जवाब नहीं मिला।

एक गूंगी चीख हवा में घुली —

और वो अगला स्टेशन आ गया।

4:00 AM

स्टेशन का नाम: “शून्य”

हाँ, बोर्ड पर सिर्फ़ इतना लिखा था — 0

ना कोई प्लेटफॉर्म, ना लाइट, ना जीवन।

रघुवीर को अपने अंदर कुछ काँपता महसूस हुआ।

उसे अपने बीते साल याद आए —

वो चोरी, वो झूठ, वो जिसने ज़िंदगियाँ तबाह कीं।

क्या यही ट्रेन उसे उसकी सज़ा दिलाने आई थी?

और तभी एक साया उसके सामने आया —

कपड़े वही, जैसा वो आदमी था जिसने कभी आत्महत्या की थी उसकी वजह से।

साया बस बोला —

“अब तेरा स्टेशन आ गया है... उतर।”

रघुवीर की आँखों से अंधेरा उतरने लगा।

ट्रेन रुक गई।

दरवाज़ा खुला…

और धुंध से एक हाथ निकला…

(एक मनहूस स्टेशन, जहाँ घड़ी की सुई कभी नहीं हिलती… और उतरने वाला कभी लौटता नहीं…)

समय: 4:15 AM

स्थान: एक नामहीन प्लेटफॉर्म… लेकिन रघुवीर की टिकट पर लिखा था – प्लेटफॉर्म 13

ट्रेन के दरवाज़े अब खुल चुके थे।

सामने घना कोहरा और मिट्टी की महक — जैसे कहीं दूर कोई चिता बुझी हो।

रघुवीर के सामने जो हाथ निकला था, वो अब गायब हो चुका था।

लेकिन उसकी कँपकँपी अब भी उसके शरीर में थी।

चार यात्री उतर चुके थे।

उनमें से दो अब भी प्लेटफॉर्म पर खड़े थे, लेकिन... उनकी आँखों में पुतलियाँ नहीं थीं।

रघुवीर का मन हुआ कि वो वापस अंदर भाग जाए,

लेकिन तभी ट्रेन की लाइटें एकाएक बुझ गईं।

एक आहट आई – जैसे किसी ने उसके ठीक पीछे धीरे से “नाम” लेकर पुकारा हो।

“रघुवीर...”

वो पलटा — कोई नहीं था।

लेकिन उसकी टिकट अब बदल चुकी थी।

पहले लिखा था –

“शंकर एक्सप्रेस – कोच D3 – सीट 13”

अब लिखा था –

“प्लेटफॉर्म 13 – परीक्षण आरंभ”

4:22 AM

प्लेटफॉर्म पर एक पुराना स्टेशन मास्टर बैठा था, जिसकी आँखें सफ़ेद थीं, लेकिन होंठ हिल रहे थे।

उसने धीरे से कहा –

“हर आत्मा को अपना बोझ खुद उठाना पड़ता है। प्लेटफॉर्म 13 पर समय नहीं चलता...

यहाँ सिर्फ़ पछतावे चलते हैं।”

रघुवीर ने देखा — घड़ी की सुई 4:22 पर अटक गई थी।

उसने जेब से मोबाइल निकाला — कोई नेटवर्क नहीं।

और समय… वही 4:22

एक पुराना केबिन दिखाई दिया —

स्टेशन मास्टर का ऑफ़िस, दरवाज़ा खुला था।

रघुवीर अनजाने ही भीतर चला गया।

भीतर दीवारों पर तस्वीरें टंगी थीं — हर तस्वीर में एक यात्री, जो डर से आँखें मूँद चुका था।

एक फ़ाइल पड़ी थी — पीले कागज़, काला स्याही…

और हर फ़ाइल के आगे लिखा था –

“आत्मा संख्या: #47 | गुनाह: धोखा, चोरी, विश्वासघात”

रघुवीर के हाथ काँप उठे।

एक फ़ाइल उसके नाम की भी थी।

4:31 AM

ट्रेन अब भी वहीं खड़ी थी — मगर अब हर कोच के शीशों में चेहरे झाँक रहे थे।

चेहरे जो इंसान जैसे थे, लेकिन आँखें नहीं थीं।

रघुवीर भागने लगा —

लेकिन प्लेटफॉर्म का अंत नहीं आया।

उसने सीढ़ियाँ देखीं — उतरते ही एक और प्लेटफॉर्म आया।

वहां एक टेबल पड़ी थी — उस पर चार चीज़ें रखी थीं:

एक टूटी चाबी

एक जली हुई चिट्ठी

एक खिलौना ट्रक

और एक कटी हुई उंगली

हर वस्तु का कोई ना कोई पछतावा था —

किसी ने किसी को धोखा दिया था, किसी ने जलाया था, किसी ने ज़हर दिया था…

लेकिन सबसे ऊपर लिखा था —

“जो अपनी गलती नहीं मानते, वे यहाँ से कभी नहीं जाते।”

4:38 AM

एक आवाज़ गूंजी — स्टेशन पर ध्वनि यंत्र चालू हुआ

“शंकर एक्सप्रेस, अब प्लेटफॉर्म 13 से रवाना होगी…

जो यात्री उतर चुके हैं, वे अपने समय में फँस चुके हैं…”

रघुवीर भागा — ट्रेन की ओर।

लेकिन कोच D3 का दरवाज़ा अब भी खुला था… अंदर सिर्फ़ धुंध और गूंजती चीखें थीं।

वो चिल्लाया —

“मैंने क्या किया है? मैं क्यों फँसा हूँ यहाँ?”

और तब, स्टेशन की सबसे दूर वाली बेंच पर बैठा एक आदमी उठा।

चेहरा झुलसा हुआ… पर परिचित।

वो रमेश था।

रघुवीर का पुराना दोस्त… जिसने एक बार उस पर भरोसा किया था… और रघुवीर ने धोखा देकर उसके नाम पर कर्ज़ ले लिया था।

वो कर्ज़ रमेश चुका ना सका… और आत्महत्या कर ली।

अब वो बोला —

“तेरे गुनाह, टिकट से बड़े हैं।

प्लेटफॉर्म 13, तुझे सज़ा देने आया है।”

4:45 AM

वातावरण बदलने लगा।

अब घड़ी की सुई चल रही थी… उलटी दिशा में।

ट्रेन की सीटी बजी — पर ध्वनि मानव नहीं, रूहों की चीख जैसी थी।

रघुवीर को अब कोई रास्ता नहीं सूझा।

आसमान पर बादल नहीं, सिर्फ़ एक अंधा सूरज था — जो रोशनी नहीं, परछाई देता था।

उसने कोच में चढ़ने की कोशिश की —

पर दरवाज़ा खुद ही बंद हो गया।

एक आवाज़ भीतर से गूंजी —

“तू अपनी सज़ा पूरी किए बिना जा नहीं सकता।”

अब प्लेटफॉर्म की ज़मीन भी काँप रही थी।

नीचे से जैसे हज़ारों अस्थियाँ रेंग रही थीं।

4:55 AM

अचानक स्टेशन मास्टर फिर प्रकट हुआ।

उसने कहा —

“एक रास्ता है…

पछतावे के साथ अगर तू वो सब देख सके, जो तूने दूसरों को दिखाया — तो शायद प्लेटफॉर्म तुझे जाने देगा।”

रघुवीर ने सिर झुकाया।

और स्टेशन की ज़मीन पर एक दरार खुली —

एक अंधा कमरा, जिसमें दीवारें नहीं थीं, सिर्फ़ दृश्य।

उसने देखा — रमेश की माँ रो रही थी…

उसकी बीवी ने रघुवीर को कोसा था…

एक मासूम बच्चा बिना स्कूल फीस के घर लौट आया था…

ये सब उस एक गुनाह की चेन थी।

5:00 AM

रघुवीर बेहोश हो गया।

जब आँखें खुलीं, वो वापस कोच D3 में था।

ट्रेन चल रही थी…

सामने एक नई टिकट पड़ी थी:

“कोच D3 – अगले स्टेशन: चीखों की धड़कनें”

उसने एक गहरी साँस ली…

और महसूस किया — कोच में अब कोई अकेला नहीं था।

पीछे से किसी ने फिर पुकारा —

“रघुवीर...”

(जहाँ बर्थ की सिलवटों में रूहें छिपी हैं… और दरवाज़ा खुलते ही गुनाह चीख़ बन जाते हैं)

समय: सुबह 5:07 बजे

स्थान: शंकर एक्सप्रेस – कोच D3

मौसम: धुंध, नमी और एक रुक-रुककर धड़कता अंधकार

रघुवीर ने जैसे ही आँखें खोलीं, उसे अपनी साँस भारी महसूस हुई।

ट्रेन अब पहले से तेज़ दौड़ रही थी।

हर झटका जैसे हड्डियों में डर घोल देता था।

कोच D3 अब पहले जैसा नहीं था —

दीवारों का रंग राखी हो चुका था, खिड़कियों के शीशे अंधे हो चुके थे,

और सबसे डरावनी बात...

हर बर्थ से धीमी-धीमी सिसकियों की आवाज़ें आ रही थीं।

5:10 AM

रघुवीर अपनी सीट पर बैठा था, लेकिन बगल की बर्थ पर किसी के साँस लेने की आवाज़ थी —

गहरी, ठंडी और रुक-रुककर...

जैसे कोई अभी-अभी मिट्टी से निकला हो।

उसने धीमे से गर्दन घुमाई —

वहाँ कोई नहीं था।

लेकिन तकिये पर एक हाथ की छाप थी — गीली और गाढ़े खून जैसी।

ट्रेन के स्पीकर से फिर वही निर्जीव आवाज़ गूंजी:

“D3 कोच — आत्मा परीक्षण कक्ष।

कृपया अपने गुनाह की गूंज का सामना करें।

आगे बढ़ने की अनुमति उसी को मिलेगी, जो अपनी चीख़ सुन सके…”

रघुवीर का गला सूख गया।

और तभी कोच का लाइट एक बार फिर झपका —

जब लाइट वापस आई, सामने की चार बर्थों पर चार अजनबी बैठे थे।

एक बूढ़ा दरोगा — जिसकी आँखों में खोखलापन था

एक किशोर — जिसके गले में जली हुई रस्सी थी

एक व्यापारी — जो लगातार कुछ गिन रहा था, जैसे सिक्के

और… एक बिल्कुल खाली बर्थ, जिस पर बस एक नाम लिखा था — "रघुवीर"

5:18 AM

बूढ़ा दरोगा उठ खड़ा हुआ और बोला —

“तू जानता है, ये ट्रेन तुझे कहाँ ले जा रही है?”

“तेरे अतीत के उन हिस्सों में, जो तूने मिटा दिए थे…

लेकिन जिन्हें हमने देखा है…”

“हम?” — रघुवीर की आवाज काँपी।

किशोर लड़के ने मुस्कुराकर कहा —

“मैं हूँ उसका मासूम जो तूने झूठे केस में फँसाया था…

याद है? उस रात तुझे पैसे चाहिए थे…

और तूने पुलिस से मिलकर मुझे बलात्कारी बना दिया।”

रघुवीर अब काँपने लगा।

उसके पैर जम नहीं रहे थे।

5:23 AM

अब कोच के पर्दे हिलने लगे — बिना हवा के।

हर बर्थ से कोई “नाम” पुकारता —

कभी धीमे से, कभी चीख़ में।

फिर व्यापारी खड़ा हुआ और अपनी उंगलियों पर सिक्के घुमाते हुए बोला —

“मेरा बेटा अस्पताल में मर गया…

क्योंकि तूने दवाई की खेप ब्लैक में बेची थी।”

“एक आदमी की जान की कीमत सिर्फ़ दस हज़ार थी तेरे लिए।”

अब रघुवीर ने देखा — कोच की हर दीवार पर चेहरे उभर आए थे —

जैसे दीवारें जीवित हों, और उनके अंदर कैद आत्माएं बाहर झाँक रही हों।

5:29 AM

अचानक कोच का एक हिस्सा काँपा —

और सामने रखे मिरर में रघुवीर ने खुद को देखा।

पर उसमें उसका चेहरा नहीं था।

वो रमेश था…

वो लड़का था…

वो व्यापारी था…

वो सब थे…

और सब चीख़ रहे थे।

“हम तेरे भीतर हैं अब।”

5:33 AM

स्पीकर फिर गूंजा —

“रघुवीर, अंतिम परीक्षण अब आरंभ होता है।”

“प्रवेश – कोच D3 का छुपा दरवाज़ा”

पीछे से एक अलार्म जैसी ध्वनि आई — और कोच की दीवार खुल गई।

वहाँ एक अंधा गलियारा था —

जिसमें कोई रोशनी नहीं, लेकिन हर पाँच कदम पर एक आवाज़ आती थी:

“मैं मरा था तेरे लालच से।”

“मैं टूटा था तेरे धोखे से।”

“मैं जला था तेरे पाप से।”

“अब तू चीखेगा हमारे साथ।”

रघुवीर उस गलियारे में चल पड़ा।

हर कदम के साथ उसका वजन बढ़ता गया —

मानो आत्माओं ने उसकी हड्डियों को पकड़ रखा हो।

5:39 AM

गति धीरे-धीरे बढ़ रही थी।

अब ट्रेन खुद भी काँप रही थी —

जैसे रास्ता नहीं बचा, मंज़िल सामने है।

फिर वो आया — एक और दार्शनिक सा वाक्य स्पीकर से:

“D3 – Decision 3

मौत या पछतावा

तू क्या चुनेगा?”

रघुवीर चिल्लाया —

“मैं पछतावा चुनता हूँ!!”

“मैंने जो किया, वो गलत था…

मैं लौटना चाहता हूँ…

सब कुछ स्वीकार करने…”

5:45 AM

एक सफेद रोशनी चारों ओर फैली।

कोच D3 फिर शांत हो गया।

हर सिसकी रुक गई।

हर चेहरा दीवार से पीछे चला गया।

रघुवीर अपनी सीट पर बेसुध गिर गया।

एक टिकट हवा में तैरते हुए उसके हाथ में आ गिरी।

“Final Stop: अंतिम स्टेशन – जब रूहें उतरती हैं”

Return Access: Permitted upon Redemption

5:49 AM

एक आख़िरी आवाज़ आई —

“कोच D3 का निर्णय पूरा हुआ।

यात्री रघुवीर अंतिम स्टेशन की ओर बढ़ सकता है…

वहाँ वह खुद से मिल पाएगा — अगर साहस हुआ।”

ट्रेन की रफ्तार बढ़ने लगी।

(यहाँ कोई प्लेटफॉर्म नहीं, यहाँ कोई दरवाज़ा नहीं… बस एक सामना होता है — अपने ही डर और गुनाहों से)

समय: 6:05 AM

स्थान: शंकर एक्सप्रेस – अंतिम कोच, D3

गंतव्य: स्टेशन ‘निष्कलंक’ (पर ये नाम केवल उन्हीं को दिखता है, जो पछताते हैं)

रघुवीर अब शांत बैठा था — जैसे कई जन्मों की थकान उसके चेहरे पर उतर आई हो।

ट्रेन अब भी तेज़ दौड़ रही थी, लेकिन अब खिड़की के बाहर कोई अंधकार नहीं था।

बल्कि सिर्फ़ सफेद उजास, जो दिखता तो था — पर छूता नहीं था।

वो उजाला जिसे देखना भी डरावना था, क्योंकि वो मन की गहराई तक उतरता था।

6:09 AM

कोच D3 अब पहले जैसा नहीं रहा।

बर्थें गायब थीं।

पूरे कोच में बस एक लंबा रास्ता था — सीधा, संकरा… और अंत में एक दरवाज़ा।

दरवाज़े पर लिखा था –

“निष्कलंक – केवल वे उतरें, जो अपनी सज़ा स्वीकार कर चुके हों”

रघुवीर धीमे-धीमे वहाँ तक चला।

हर कदम पर आवाजें थीं — लेकिन अब वे रोती नहीं थीं, सिखाती थीं।

“हर पाप का अंत तभी है, जब उसकी स्वीकृति मन से हो।”

“माफी देना आसान नहीं… लेकिन खुद को माफ़ करना और भी कठिन है।”

“गुनाह करने से बड़ा बोझ… उसे छिपाना होता है।”

रघुवीर की आँखों में आँसू थे।

अब डर नहीं था — एक अधूरी शांति थी… जिसे पाने के लिए वो जल रहा था।

6:14 AM – दरवाज़ा खुला।

पर वो दरवाज़ा कहीं बाहर नहीं जाता था —

वो खुला सीधे उसके अतीत में।

हवा जैसे पलट गई —

और वो अब एक ऐसे कोच में था जहाँ सब कुछ 30 साल पुराना था।

एक वापसी… बीते कल की ओर।

सामने वही स्कूल… वही क्लासरूम…

जहाँ उसका पहला झूठ लिखा गया था —

जब उसने अपने दोस्त का नाम चोरी में लिखा, जिससे दोस्त स्कूल से निकाल दिया गया।

वही रमेश… वही मासूम चेहरा।

रघुवीर ने उस दृश्य को छूने की कोशिश की —

लेकिन वो एक धुंध था।

अचानक, वो दृश्य टूट गया — और अगला उभरा।

दृश्य 2 – दवाई की खेप

एक अस्पताल।

उसका छोटा भाई… जो दवा न मिलने से तड़प रहा था।

और वह खुद — पैसे कमाने की हवस में दवा ब्लैक करता हुआ।

उसके हाथों में नोट थे… लेकिन सामने उसका भाई मर चुका था।

वो चिल्लाया —

“बस! बंद करो ये सब!! मैं जानता हूँ मैं दोषी हूँ!”

“मुझे अब भुगतना है… मुझे बाहर निकालो इस सफ़र से!”

6:27 AM

अब एक और दरवाज़ा खुला।

इस बार वह खुद एक अदालत में खड़ा था।

कोई जज नहीं, कोई वकील नहीं — सिर्फ़ आत्माएं।

हर आत्मा उसके खिलाफ़ गवाही दे रही थी —

उनकी आँखों में आँसू नहीं थे… बस खालीपन था।

आख़िर में, एक बच्चा खड़ा हुआ — और बोला:

“हमने तुझे माफ़ नहीं किया…

लेकिन अगर तू खुद को माफ़ कर सका — तो शायद तू मुक्त हो पाएगा।”

6:35 AM

अब ट्रेन रुक चुकी थी।

एक हल्की आवाज़ हुई —

ट्रेन की सीटी नहीं, शंख जैसी कोई ध्वनि…

रघुवीर उठा — और देखा, कोच का दरवाज़ा खुल चुका था।

बाहर एक नितांत शांत जगह थी।

ना स्टेशन, ना लोग।

बस एक मैदान, एक बड़ा सा पीपल का पेड़… और उसके नीचे एक पत्थर, जिस पर लिखा था:

“यहाँ वे रुकते हैं, जो लौटना नहीं चाहते।”

लेकिन तभी हवा में एक पुकार गूंजी —

“रघुवीर!”

पीछे देखा —

वही स्टेशन मास्टर खड़ा था।

अब उसकी आँखें चमक रही थीं — जैसे अंधेरे के भीतर भी वह देख सकता हो।

“तेरे पास दो रास्ते हैं…”

“या तो तू यहीं रुक जाए — हमेशा के लिए।

या उस दरवाज़े से बाहर निकल जाए — वापस ज़िंदगी में।”

“लेकिन अगर गया, तो तेरे गुनाह तुझे हर पल याद दिलाएंगे —

तुझे इंसान बनकर जीना होगा, रूह बनकर नहीं।”

6:44 AM – अंतिम चुनाव

रघुवीर कुछ देर चुप खड़ा रहा।

फिर उसने मैदान में पड़ी एक चाकू जैसी चीज़ उठाई —

और अपनी हथेली पर खुद का नाम लिखा।

“रघुवीर – दोषी”

ये स्वीकार अब उसकी पहचान थी।

उसने स्टेशन मास्टर की तरफ देखा… और कहा:

“मैं लौटूंगा…

अपने अपराधों की सज़ा खुद दूँगा — हर उस चेहरे को ढूँढकर, जिसे मैंने तोड़ा।”

स्टेशन मास्टर मुस्कुराया —

और धीरे से सिर झुकाकर बोला:

“तो जाओ… लेकिन याद रखना, मौत की गाड़ी लौट भी सकती है।”

6:49 AM

रघुवीर आँखें खोलता है —

वो किसी प्लेटफॉर्म पर है।

भीड़ है। ट्रेनें हैं।

सामान्य दुनिया।

उसका शरीर काँप रहा है, लेकिन ज़िंदा है।

एक भिखारी पास बैठा है, पूछता है —

“बाबू, कौन सी ट्रेन से आए हो?”

रघुवीर चुप रहता है।

और फिर धीमे से जवाब देता है —

“एक ऐसी ट्रेन से, जो ज़िंदगी वापस लौटाती है…

लेकिन किराया आत्मा से वसूलती है।”

🔚 कहानी समाप्त: “मौत की गाड़ी – अंतिम स्टेशन से पहले”

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