Ghost village in Hindi Short Stories by Sunita books and stories PDF | भूतिया गाँव

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भूतिया गाँव

बिहार और झारखंड की सीमा

दोपहर – 3:40 बजे

सड़क से 6 किलोमीटर अंदर, धूलभरी पगडंडी पर

सियाराम का मोबाइल अब नेटवर्क से बाहर था।

जंगल के किनारे से गुजरती पगडंडी पर उसकी बाइक धच-धच की आवाज़ के साथ धीरे-धीरे आगे बढ़ रही थी। पहियों के नीचे सूखी पत्तियाँ चरमरातीं, और ऊपर सूरज किसी पुराने ब्लैक-एंड-व्हाइट फिल्म की तरह दिखता – धुंधला और बुझा-बुझा।

“छायाग्राम – 2 किलोमीटर”

एक जर्जर बोर्ड झुका हुआ था, जैसे अब खुद भी वहाँ नहीं रहना चाहता हो।

सियाराम ने गाड़ी रोक दी।

उसने गहरी सांस ली। यही तो गाँव था, जहाँ उसके दादा बचपन में उसे कहानियाँ सुनाया करते थे —

"एक गाँव जो कभी ज़िंदा था, फिर जिंदा लाशों से भर गया..."

वो मानता नहीं था उन बातों को। बस कुछ साल शहर में मेहनत की, और जब दादी की मौत की ख़बर आई, तो सोचा…

वापस जाकर पुराना घर देखूँ, शायद बेच ही दूँ।

पर छायाग्राम वैसा नहीं था, जैसा उसने सोचा था।

गाँव की पहली झलक

जैसे ही वो गाँव की सीमा में घुसा, हवा का रंग बदल गया।

पेड़ वही थे, मगर पत्तियाँ... जैसे वर्षों से हिली ही न हों।

घर – मिट्टी और खपरैल के – किसी ज़माने में शायद जीवन से भरे होंगे, पर अब दीवारों से जाले लटक रहे थे, और खिड़कियों में अंधेरा साँस लेता सा लगता था।

कोई बच्चा नहीं, कोई आदमी नहीं, न ही किसी चूल्हे से धुआं।

बस एक धीमी, नज़र न आने वाली सरसराहट…

जो कानों तक तो नहीं, पर आत्मा तक पहुँचती थी।

पुराना घर

सियाराम का घर गाँव के आखिरी सिरे पर था।

जैसे ही उसने दरवाज़ा खोला, धूल की एक परत उसके चेहरे पर उड़ गई।

भीतर सब कुछ वैसा ही था —

दादी की चादर तह की हुई, पूजा का कमरा, और वो पुरानी संदूक जिसमें बचपन के चिट्ठियाँ भरी थीं।

लेकिन दीवार पर कुछ नया था —

सिंदूरी रंग में लिखा एक वाक्य –

"आया है जो वापस, वो अब कभी लौटेगा नहीं…"

सियाराम ठिठक गया।

"ये किसने लिखा?"

उसने बुदबुदाकर कहा, पर जवाब में छत से एक हल्की "ठक" की आवाज़ आई —

जैसे कोई ऊपर चला गया हो।

गाँव का बुज़ुर्ग

शाम तक वो गांव में एक अकेले बुज़ुर्ग से मिला —

पंडित हरिनारायण।

पतले, सफ़ेद बाल, और आँखों में जली हुई बत्तियों की सी चमक।

"तू…सियाराम?"

"हाँ, दादी की मौत की खबर सुनकर आया। गाँव बहुत बदल गया है पंडित जी…"

बुज़ुर्ग मुस्कराया नहीं, बस बोला,

"गाँव नहीं बदला बेटा। जो बदल गए, वो लोग थे। इस गाँव से मुँह मोड़ लिया सबने। अब ये गाँव… सिर्फ़ रातों में जिंदा होता है।"

"मतलब?"

"आज अमावस है। आज की रात यहाँ किसी को बाहर नहीं निकलना चाहिए।"

सियाराम ने हँसकर कहा,

"अब भी वही डरावनी कहानियाँ?"

"नहीं बेटा, अब कहानियाँ नहीं रहीं… अब सिर्फ़ हादसे हैं। और जो हादसा हुआ था आज से सत्रह साल पहले, वो आज फिर दोहराया जाएगा।"

17 साल पुरानी रात

पंडित हरिनारायण ने धीमे स्वर में बताया –

“अमावस की रात थी। पूरे गाँव में नक़ाबपोश लोग आए थे।

कहते हैं कि वो इंसान नहीं थे।

जिसने भी उनका चेहरा देखने की कोशिश की, उसकी आँखें बाहर आ गईं।

और अगले दिन… पूरे गाँव में 72 लोग लापता थे।

कभी नहीं मिले।”

“और आपने देखा था ये सब?”

“नहीं। मैंने सिर्फ़ एक आवाज़ सुनी थी उस रात…

एक औरत की चीख —

जो हवा के साथ-साथ हड्डियों तक उतरती थी।”

रात का पहला घड़ी

सियाराम ने सोचा, सब बेकार की बातें हैं।

वो अपने घर लौटा, चाय बनाई, और संदूक में पुराने कागज़ देखने लगा।

एक डायरी मिली, जिस पर लिखा था –

"दादी – अंतिम अमावस से पहले"

पहला ही पन्ना पढ़ते ही उसकी आँखें फैल गईं –

"अगर ये डायरी किसी ने पढ़ी है, तो समझ ले कि वो छायाग्राम में फँस चुका है।

पिछली अमावस के बाद मैंने छत के ऊपर कुछ देखा था —

एक चेहरा, जो इंसान का नहीं था।

उसकी गर्दन नहीं थी, मगर वो बोलता था – मेरी आवाज़ में।

मैं कई रातें उसके साथ जागती रही…

और अब वो कहता है, कि अगली अमावस को तुम्हें भी लाना होगा…"

सियाराम ने झट से डायरी बंद कर दी।

उसने अपने चारों ओर नज़र दौड़ाई —

कमरा शांत था।

बहुत ज़्यादा शांत।

“ठक… ठक… ठक…”

छत से फिर वही आवाज़।

इस बार वो उठा।

टॉर्च लेकर छत की सीढ़ियाँ चढ़ने लगा।

“किसी जानवर की आवाज़ होगी,”

उसने खुद से कहा।

मगर जैसे ही उसने छत का दरवाज़ा खोला —

हवा का झोंका उसके चेहरे पर गिरा… और टॉर्च बुझ गई।

वो पलटा, लेकिन दरवाज़ा अब बंद हो चुका था।

अंधेरे में, छत पर…

वो अकेला नहीं था।

किसी की साँस… उसकी साँस के साथ चल रही थी।

छत पर परछाइयाँ

सियाराम ने आँखें गड़ा दीं।

और वहाँ — छत के कोने में —

एक आकृति खड़ी थी।

बिल्कुल स्थिर।

कंधे तक लंबा, काले कपड़े में लिपटा। चेहरा नहीं दिखता था।

और फिर —

उस आकृति ने बोला,

“आख़िरी बार पूछते हैं – लौटेगा या रहेगा?”

“कौन हो तुम?”

सियाराम ने काँपती आवाज़ में कहा।

“जो लौटे थे… पर जा नहीं सके।”

और फिर… पूरी छत पर कई आकृतियाँ उभर आईं।

हर कोने से, दीवारों से, नीम के पेड़ से…

सिर्फ़ परछाइयाँ। और उनमें से एक… दादी की आवाज़ में बोली –

“अब देर हो चुकी है, सियाराम।”

रात – 12:01 बजे

छायाग्राम – पुराना कुआं, गाँव का सबसे नीचा हिस्सा

सियाराम की आँख खुली तो समझ नहीं पाया कि वो जागा है या अब भी उसी छत के डरावने भ्रम में कैद है।

कमरे की दीवारों पर परछाइयाँ नहीं थीं।

सिर्फ़ एक बुझी हुई बाती, और उसके भीतर बचा डर – धीमा, मगर सजीव।

पर कुछ था जो बदला-बदला लगा…

खिड़की खुली थी।

उसने याद किया —

वो तो बंद करके सोया था।

वो जो खिड़की से झाँकता है

खिड़की के बाहर अंधेरा था।

सामने नीम का पेड़, और उसके नीचे एक आकृति खड़ी थी।

इस बार वह आकृति चलने लगी —

धीरे-धीरे, टेढ़े क़दमों से।

सियाराम ने दरवाज़ा बंद कर लिया।

पीछे की साँस तेज़ हो गई। उसके गले से एक सूखी आवाज़ निकली —

“ये सपना नहीं है…”

गाँव का कुआँ – गौरांग कुआँ

सुबह गाँव के पुराने हिस्से में गया —

वहाँ, जहाँ गौरांग कुआँ है।

कुएं के पास अब कोई नहीं जाता।

लोग कहते हैं,

“जो वहाँ पानी देखने गया, उसने अपना अक्स खो दिया।”

कुएं की ईंटें काई से ढकी थीं, लेकिन बीचों-बीच कुछ उभरा था —

एक नक़्शा, जो खून से खींचा गया लगता था।

सियाराम झुका।

उसे कुएं के भीतर से किसी के बोलने की आवाज़ आई —

"सुन रहा है?"

उसने चौंक कर ऊपर देखा, पर कोई नहीं था।

आवाज़ फिर आई, इस बार भीतर से —

"नीचे आ जा… सब यहीं हैं।"

पंडित हरिनारायण की चेतावनी

वह भागता हुआ पंडित जी के पास पहुँचा।

“पंडित जी, वो कुएं से आवाज़ आई…”

बुज़ुर्ग ने माथा पकड़ा।

“तेरे दादी ने भी वही आवाज़ सुनी थी। उसी के बाद से उसका चेहरा बदल गया था। वो बोलती तो थी, पर उसकी आँखों में कोई और झाँकता था।”

“क्या मतलब?”

“गौरांग कुआँ, आत्माओं का द्वार है।

जो वहाँ झाँकता है, उसका अक्स वो ले जाते हैं। और बदले में कुछ भेजते हैं — पर वो तू नहीं होता…”

अमावस की तैयारी

गाँव अब भी वैसा ही शांत था, लेकिन एक सन्नाटा अब हवा में काँपता हुआ महसूस होता।

पेड़ झुकते नहीं थे, पत्तियाँ गिरती नहीं थीं —

जैसे सब देख रहे हों…

इंतज़ार कर रहे हों।

सियाराम ने एक बच्ची को देखा —

एक झोपड़ी के पास बैठी थी, बाल उलझे हुए।

"यहाँ कोई है?" उसने पुकारा।

बच्ची मुस्कराई।

उसकी आँखें नहीं थीं —

सिर्फ़ दो काले गड्ढे, जिनसे धुआं उठता था।

“तू आया है ना? अब नहीं जाएगा।”

उसकी आवाज़ बुज़ुर्ग जैसी थी।

वो चीखता हुआ पीछे हट गया।

और तभी आसमान से एक काली चिड़िया उसके सिर के ऊपर से उड़ती हुई निकली —

उसके परों से राख झड़ रही थी।

रात की पुकार

अमावस की रात थी।

बिलकुल काली। चाँद कहीं नहीं था।

गाँव में हर घर की खिड़कियाँ बंद थीं, मगर उन खिड़कियों के पीछे कोई साँस ले रहा था।

शायद इंसान नहीं।

सियाराम ने अपने घर की छत पर दीपक जलाया —

पर वो दीपक अपने-आप बुझ गया।

और फिर…

शंख की आवाज़।

कहीं दूर से, जंगल की तरफ़ से।

ये वही ध्वनि थी, जो 17 साल पहले सुनी गई थी।

सियाराम छत पर खड़ा रहा, काँपता हुआ।

और तब… वो आए।

नक़ाबपोश

काले कपड़े, सफ़ेद नक़ाब, कंधे झुके हुए,

और पैरों के नीचे कोई छाया नहीं।

गाँव की हर गली में वो घूम रहे थे —

दरवाज़ों की कुंडियाँ बजाते, खिड़कियाँ खड़खड़ाते,

और कहते –

"जिसने आँखें खोलीं, वो लौट नहीं सकेगा…"

सियाराम का दरवाज़ा भी खटका।

उसने साँस रोकी।

कई मिनट बीते।

और फिर —

दरवाज़े की दरार से दादी की आवाज़ आई —

“बेटा, प्यास लगी है… कुएं तक ले चल…”

पर वो जानता था, ये दादी नहीं थी।

धुएँ में चेहरा

वो घर से भागा, गलियों से होता हुआ मंदिर तक पहुँचा —

जहाँ एक आख़िरी दीप जल रहा था।

लेकिन मंदिर की मूर्तियाँ ढंकी हुई थीं,

उन पर लाल रंग के छींटे थे।

पंडित हरिनारायण वहीं थे —

आँखें बंद, और मुँह से एक मंत्र निकाल रहे थे:

"ॐ भूर्भुवः स्वः... अग्नि में छाया लौटे, प्रकाश से न डरे..."

सियाराम ने काँपते हुए पूछा,

“क्या यही बचने का उपाय है?”

पंडित जी ने आँख खोली —

“अब कुछ नहीं बचेगा। तू सिर्फ़ देख… क्या खो गया है।”

एक पल – जब आत्मा फिसलती है

सियाराम ने मंदिर की ज़मीन पर कुछ उभरा देखा —

अपना नाम।

और उसी के नीचे —

"गौरांग कुएं में उतर चुका है…"

“मैं… मैं तो वहाँ गया ही नहीं था…”

पंडित जी की आँखें भर आईं —

“तू जब पहली बार गाँव में घुसा, तभी तेरा अक्स पीछे रह गया था बेटा। अब जो देख रहा है, वो तू नहीं है।”

सियाराम की धड़कनें धीमी होने लगीं।

उसके हाथ पारदर्शी हो रहे थे।

“मैं… मिट रहा हूँ?”

“नहीं,” पंडित जी बोले —

“तू बदल रहा है। अब तू भी वही बन जाएगा… जो बाकी बन चुके हैं।”

अगली सुबह जैसी कोई सुबह नहीं थी।

सूरज निकला नहीं, सिर्फ़ हल्का नीला अंधेरा पूरे गाँव पर पसरा हुआ था —

जैसे आसमान ने आँखें तो खोली हों, पर दिन बनने से इनकार कर दिया हो।

सियाराम अब एक नींद से जगा था —

पर वो नींद वैसी नहीं थी जैसी इंसान लेते हैं।

उसका शरीर थका हुआ था, पर आत्मा हल्की…

बहुत हल्की।

आईना और धुंधली शक्ल

घर की पुरानी अलमारी में टँगा आईना अब वैसा नहीं रहा था।

सियाराम जब उसके सामने खड़ा हुआ, तो उसने खुद को नहीं देखा।

उसने देखा… तीन शक्लें।

पहली – एक बच्चा, जिसकी आँखों से खून बह रहा था।

दूसरी – एक नक़ाबपोश औरत, जिसके होंठ सिल दिए गए थे।

और तीसरी… वो खुद, पर उसकी आँखें अंदर की ओर घुसी हुई थीं।

उसने ज़ोर से चीखा —

आईना खुद ब खुद गिर गया।

काँच चटक कर ज़मीन पर फैल गए।

हर टुकड़े में... वो तीनों शक्लें अब भी झलक रही थीं।

पंडित जी की आख़िरी बात

सियाराम पंडित हरिनारायण के पास पहुँचा।

मंदिर अब वीरान था, लेकिन द्वार पर एक आखिरी दीया जल रहा था —

किसी तरह से टिके हुए।

अंदर पंडित जी नहीं थे।

केवल दीवार पर सिंदूरी अक्षरों में लिखा हुआ एक वाक्य मिला:

“जो कुएं तक जाता है, वो लौटता नहीं — वो बदल कर आता है।

अगर वो लौटे, तो पहचानना मत।**”

नीचे मिट्टी में खून की एक रेखा थी —

जैसे कोई कुछ खींचता हुआ गया हो…

गौरांग कुआँ – नीचे की ओर

सियाराम फिर उस कुएं के पास गया।

अब वहाँ हवा नहीं थी।

उसने झाँका — अंदर काली, गाढ़ी, गीली परछाइयाँ थीं…

जैसे कोई देख रहा हो… उसे घूर रहा हो।

और तभी एक रस्सी ऊपर उठी —

कुएं के भीतर से।

कोई उसे बुला रहा था।

वो झिझका। मगर एक अदृश्य खिंचाव उसे नीचे खींचने लगा।

वो रस्सी थामी, और नीचे उतर गया।

कुएं के नीचे की दुनिया

यह कोई सामान्य कुआँ नहीं था।

नीचे उतरते ही उसकी सांस धीमी हो गई।

चारों ओर की दीवारें साँस लेती थीं —

हाँ, साँस — दीवारों से सीलन की नहीं, किसी ज़िंदा चीज़ की गंध आ रही थी।

हर कदम पर दीवारों पर कुछ लिखा हुआ था —

पुरानी लिपियों में।

"शापित छाया – 1173"

"गर्भ की कोख से जिसने पुकारा, वो ही खून से सना हुआ जन्म पाया।"

और दीवारों से झरता पानी नहीं था —

खून था।

उसकी हथेली पर गिरा — गर्म, और चिपचिपा।

घंटियाँ और गूँज

कुएं के नीचे एक बड़ा सा चबूतरा था —

जिसके बीचोंबीच एक घंटी टँगी थी।

बिलकुल वैसी, जैसी मंदिरों में होती है —

पर इस पर लिखा था:

"एक बार बजा, तो आत्मा जागेगी।

दो बार बजा, तो छाया जागेगी।

तीन बार… तो वो जो कभी मरा नहीं…"

सियाराम ने एक बार बजाया —

“ठन…nn…”

आवाज़ गहराई में समा गई।

फिर अपने आप दूसरी बार बजा —

“ठन…nn…”

और कुएं की दीवारें कांपने लगीं।

कई परछाइयाँ अब उसके इर्द-गिर्द घूमने लगीं —

काली, लंबी, और आँखों के बिना।

और तीसरी बार…

बिना उसके छुए, घंटी बज गई।

वो जो कभी मरा नहीं

धीरे-धीरे सामने की दीवार खिसकने लगी —

पीछे एक कोठरी खुली, जहाँ से धुआं और कड़कती चीखों की आवाज़ आ रही थी।

और फिर वो आया।

वो — नक़ाबपोश नहीं, लेकिन इंसान भी नहीं।

उसका चेहरा गूंथा गया था —

जैसे कई चेहरों को एक साथ सिल दिया गया हो।

उसके हाथ उल्टी दिशा में मुड़े हुए थे, और पैरों के पास घुंघरू थे —

जो बिना हिले बज रहे थे।

वो बोला नहीं, पर सियाराम के मन में एक वाक्य गूंजा —

"अब तू मेरी तरह बन चुका है। अब तू नया दरवाज़ा बनेगा।"

पलटना – और पहचानना

सियाराम ने भागने की कोशिश की।

पर पीछे से किसी ने उसकी गर्दन थामी।

उसने पलट कर देखा —

पंडित हरिनारायण।

लेकिन उनकी आँखें अब सफेद थीं, और चेहरे पर कोई रेखा नहीं।

"तू पूछ रहा था, मैं कहाँ गया था?

यहीं… उसी कुएं में उतर गया था तेरे पहले।

अब तू भी यहीं रहेगा।"

“नहीं! मुझे जाने दो!”

"जाना था तो गाँव ही क्यों आया?

ये छायाग्राम नहीं… ये वो जगह है, जहाँ भूले हुए लोग जीते हैं।"

ऊपर की ओर रास्ता बंद

सियाराम ने कुएं की दीवार पर रस्सी पकड़ी और ऊपर चढ़ने की कोशिश की।

पर दीवार अब कीचड़ से सनी थी —

और हर पकड़ पर, कोई हाथ पीछे से खींच लेता।

उसकी उँगलियों से खून बहने लगा।

साँसें टूटने लगीं।

पर तभी —

दीवार से एक खटका हुआ।

ऊपर से किसी ने झाँका —

एक नया चेहरा।

और वो चेहरा सियाराम का था।

"अरे! ये मैं तो बाहर हूँ?"

"नहीं। तू बाहर नहीं…

अब वो बाहर है जो तुझे अंदर लाने आया था।"

"तो मैं कौन हूँ?"

"अब तू 'वो' है… जिसे कोई नहीं पहचानता, और जो पहचान लिया जाता है, उसका चेहरा बदल जाता है।"

रात – 3:13 बजे

छायाग्राम – कुएं के ऊपर, लेकिन सन्नाटे के भीतर

गाँव अब भी वहीं था,

पर अब वो गाँव जैसा नहीं रहा।

हर गली, हर घर और हर छत एक जैसे लगने लगे थे —

जैसे सब पर एक जैसी छाया चढ़ चुकी हो।

और सबसे अजीब बात —

अब किसी को याद नहीं था कि सियाराम कौन है।

गाँव में नया चेहरा

वो जो अब सियाराम की शक्ल में था —

गाँव में लोगों से मिल रहा था, बात कर रहा था।

बिलकुल वैसा ही जैसे कोई गुमशुदा लौट आया हो।

लेकिन उसकी चाल… उसकी मुस्कान… उसकी आँखें…

किसी ने ध्यान नहीं दिया कि वो सियाराम था, पर फिर भी नहीं था।

“तू अब गाँव का हिस्सा है,” एक बुज़ुर्ग ने कहा,

“कभी मत जाना। जो गया, वो मिट गया…”

पंडित हरिनारायण की राख

मंदिर अब उजड़ा पड़ा था।

भीतर एक कोना था, जहाँ बस राख की ढेरी थी —

काले रंग की।

उसके पास रखी लकड़ी की तख्ती पर सिंदूरी अक्षरों में लिखा था:

“हरिनारायण अब आत्मा नहीं, छाया है।

जो पूछे, उसे जवाब मत देना।”

वहीं बगल में एक नया नाम खुदा था —

“सियाराम (2025 – अनिश्चित)”

अंतिम परछाईं

गाँव में एक जगह थी — "निशब्द चौक", जहाँ कोई नहीं जाता था।

पर उस रात, वहाँ धुआँ इकट्ठा हो रहा था।

चारों ओर पेड़ झुकने लगे।

हवा बहने नहीं लगी, साँस लेने लगी।

सियाराम — जो अब सियाराम नहीं था — वहाँ गया।

और उस चौक के बीचोंबीच, उसे वो दिखाई दिया —

असली सियाराम।

नंगे पाँव, मैले कपड़े, चेहरा धूल से सना, और आँखें बुझी हुई।

पर अब भी वो ज़िंदा था।

भूलने की शुरुआत

असली सियाराम ने नक़ली सियाराम की तरफ़ देखा।

उनकी आँखें मिलीं, और दोनों कुछ पल तक एक-दूसरे को देखते रहे।

फिर असली सियाराम बोला —

“तू कौन है?”

नक़ली मुस्कराया —

“अब तू ये सवाल पूछता है? जब तू खुद जवाब नहीं बन पाया?”

“मुझे याद है… मैं भागा था, नीचे गया था…”

“हाँ। और जब तू ऊपर आया, दरवाज़ा बंद हो चुका था।

अब तू सिर्फ़ एक स्मृति है —

और स्मृतियाँ गाँव में ज़्यादा दिन नहीं टिकतीं।”

गाँव की आत्मा

पूरा गाँव धीरे-धीरे उस चौक की ओर खिंचने लगा।

बिना आवाज़ के, बिना शब्दों के।

हर चेहरा खाली, हर आँख अधूरी।

वे सब चारों ओर घेरा बनाकर खड़े हो गए —

सियाराम को बीच में छोड़कर।

और फिर किसी ने गाना शुरू किया —

एक धुन, जो न lullaby थी, न मंत्र।

बस एक धीमी लय, जो सीधे दिल में उतरती थी।

गाँव अब बोल रहा था —

“जो लौटा, वो लौट नहीं सकता।

जो रुका, वो रह नहीं सकता।

अब तू बीच में है — और ये जगह नहीं बचने देती।”

वो लकीर

चौक के बीच ज़मीन पर एक लकीर उभरी —

सिंदूरी, जैसे किसी ने ताज़ा खून से खींची हो।

उस लकीर के इस पार सियाराम, उस पार सियाराम जैसा दिखने वाला।

वो दोनों खड़े रहे।

फिर नक़ली सियाराम ने हाथ बढ़ाया —

“चाहे तो मैं तुझे ले सकता हूँ।

चाहे तो तू सब भूल सकता है।

गाँव तुझे अपना लेगा… जैसे बाकी सबको लिया।”

असली सियाराम ने कहा —

“अगर मैं भूल जाऊँ, तो मैं रह जाऊँगा।

अगर याद रखूँ, तो मिट जाऊँगा।

तो क्या… यही दो रास्ते हैं?”

सच – जो गाँव ने छिपाया था

तभी एक औरत की चीख़ हवा में गूँजी।

वही पुरानी चीख — जो सत्रह साल पहले गूँजी थी।

फिर बच्चियों की हँसी, फिर साँप के फुफकारने जैसी आवाजें।

पूरा चौक घूमने लगा —

घरों की दीवारें एक के बाद एक ध्वस्त होने लगीं।

गाँव अब खुद को उजागर कर रहा था।

हर घर के नीचे एक गड्ढा था — जैसे क़ब्र।

हर पेड़ की जड़ में कोई छिपा था — जैसे कैद आत्मा।

हर कुएं से किसी की हँसी आती थी — जैसे वहाँ अब भी कोई खेल रहा हो।

सियाराम ने ज़ोर से चिल्लाया —

"ये गाँव नहीं, एक भूल है।

एक ऐसा सपना, जो जागते में भी आता है!"

अंतिम चुनाव

नक़ली सियाराम बोला —

“तो क्या चुनेगा तू?”

“मैं वो चुनूँगा… जो मुझे मिटा दे, पर मुझे बना दे।”

फिर उसने आगे कदम बढ़ाया —

लकीर को पार करने के लिए।

पर तभी…

गाँव चिल्लाया — “नहीं!!”

हवा रुक गई।

घंटियाँ उल्टी बजने लगीं।

और ज़मीन फटने लगी —

सियाराम उसी लकीर पर खड़ा था… और फिर गायब हो गया।

सुबह – जो आई, पर देर से

सुबह की पहली किरण छायाग्राम पर गिरी।

लोग उठे — वैसा ही गाँव, वैसी ही गलियाँ।

मगर अब कोई “सियाराम” नहीं था।

न वो जो नक़ली था, न वो जो असली।

मंदिर की दीवार पर एक नया नाम लिखा था:

"सियाराम – जो बीच में फँसा था।

अब वो चौक का रखवाला है।

उससे सवाल मत पूछना।"

छायाग्राम – अब भी वहीं है

जो लोग इस गाँव के बारे में सुनते हैं,

उन्हें लगता है कि ये एक लोककथा है।

पर जो लोग “उसी नक्शे” के उस कोने तक पहुँचे हैं,

जहाँ लिखा होता है –

“यहाँ पहले कुछ था…”

वहाँ आज भी एक धूलभरी पगडंडी जाती है,

और अंत में एक टूटा-सा बोर्ड…

जिस पर लिखा है —

“छायाग्राम – स्वागत है तुम्हारा।”

🕯️ अंत

"कुछ गाँव नहीं मिटते,

वे बस लोगों को मिटा देते हैं..."

नमस्कार!

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चैनल का नाम है: Horror Story Hindi  with Sujata Sood

आपका साथ मेरे लिए हौसला है। धन्यवाद! 👻🕯️