Ankahi Daastaa - 4 in Hindi Love Stories by Akshay Tiwari books and stories PDF | अनकही दास्तां (शानवी अनंत) - 4

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अनकही दास्तां (शानवी अनंत) - 4

इश्क़ की वो पहली परछाई

"जहां दूरी भी एक रिश्ता बन जाती है...."


उस मुलाक़ात को अब कुछ हफ़्ते हो चुके थे।

दिल्ली की गर्मी बढ़ने लगी थी,
लेकिन मेरे दिल में एक अलग सी ठंडक थी --
शानवी की मुस्कान की ठंडक।

उस एक मुलाक़ात ने हमें बदला नहीं था,
पर हमारे बीच कुछ बदल ज़रूर गया था।
अब हम सिर्फ बातें नहीं करते थे,
हम एक-दूसरे की "जिंदगी का हिस्सा" बन चुके थे।


उसने पहली बार कहा --
"अनंत, जब तुमसे बात नहीं होती,
तो लगता है जैसे दिन पूरा नहीं हुआ।"

मैंने कुछ नहीं कहा उस पल….
बस चुप रहकर सुनता रहा --
क्योंकि उसकी ये बात,
मेरे लिए किसी इज़हार से कम नहीं थी।


अब हमारी बातचीत में
कभी चाय का ज़िक्र होता,
तो कभी बचपन की यादें।
मैं उसे अपने गांव की बातें बताता,
वो अपनी मां की बातें करती।

एक दिन उसने कहा --
"अनंत, कभी मेरे यहां आओ न…. छत्तीसगढ़ की सादगी तुम्हें पसंद आएगी।"

मैं मुस्कुराया --
"अगर तुम साथ हो,
तो दुनिया की हर जगह जन्नत है मेरे लिए।"


लेकिन…. जिंदगी सिर्फ कविताएं नहीं होती।

वो एक दिन आई ----
बहुत शांत, बहुत सहमी।

बोली ----
"अनंत, शायद मुझे कुछ समय के लिए सबकुछ छोड़ना पड़े…."

"क्यों?" -- मेरे दिल की धड़कन जैसे रुक गई।

"मेरे पापा की तबियत ठीक नहीं रहती….
मम्मी अकेली संभाल रही हैं।
मुझे उनकी मदद करनी है…. पढ़ाई भी ऑनलाइन ही जारी रखूंगी.…
शायद कुछ महीनों तक फोन भी न उठा पाऊं।"


उस पल लगा जैसे किसी ने
मेरी ज़िंदगी की किताब से
एक पन्ना फाड़ लिया हो।

मैं कुछ नहीं कह पाया।

लेकिन फिर मैंने खुद को संभालते हुए कहा --
"तुम्हारा परिवार तुम्हारी पहली ज़िम्मेदारी है,
मैं यहीं रहूंगा….शब्दों की छांव में, तुम्हारे इंतज़ार में।"
मै तुम्हारे कॉल का इंतेज़ार करूंगा और ये इंतेज़ार चाहे उम्र भर का ही क्यों ना हो,
और तुम परेशान मत होना मै तुम्हारे साथ हूँ तुम्हे किसी भी मदद की जरूरत पड़े बिना किसी संकोच के मुझे कॉल करना मै तुरंत आऊंगा।


उसने मेरी तरफ देखा --
"तुम बहुत अलग हो, अनंत।"


फिर वो चली गई….

न कोई तय तारीख़, न कोई वादा।

बस एक "फिर मिलेंगे" कहकर….


अब हर सुबह उसकी “गुड मॉर्निंग” नहीं आती थी,
ना हर रात “सो जाओ अब, बहुत देर हो गई है।”

मैं फिर से अपनी कविताओं में डूब गया….
लेकिन अब हर कविता में एक अधूरापन था।
मेरा ज्यादातर समय उसकी याद और उसकी फिक्र में गुजरता रहा, मै रोज़ सोचता था वो ठीक होगी कि नहीं
कही उसे मेरी जरूरत तो नहीं, मन में लाखों सवाल एक साथ उथल पुथल मचा रहे थे।

लेकिन मैं चाह कर भी कुछ नहीं कर सकता था उसकी मर्यादा को बनाए रखना मेरी जिम्मेदारी थी, उसने मुझसे वादा लिया था कि जबतक मैं तुम्हे कॉल नहीं करती तुम मुझे कॉल नहीं करोगे।

अब मेरा ज्यादातर समय ऐसे ही गुजरने लगा,
मैं उसकी पुरानी वॉइस रिकॉर्डिंग सुनता, 
उसके पुराने मैसेजेस को पढ़ता,
उसके भेजे हुए फूलों वाले स्टिकर्स को देखता,
और अपने आपको समझाता --

"इंतज़ार भी इश्क़ की एक शक्ल है।"

एक दिन…. उसने फिर मैसेज किया।

“अनंत…. मैं ठीक हूं।
बहुत कुछ बदल गया है….
लेकिन एक बात अब भी वैसी ही है --
मुझे आज भी तुम्हारी कविताएं सुकून देती हैं।”

उस एक लाइन ने
मेरे सीने में फिर से धड़कनों का गीत चला दिया।

शायद प्यार ऐसा ही होता है..

कभी पास आकर चुप हो जाता है,
तो कभी दूर जाकर बोल उठता है।

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