कड़ाके की ठंड थी। जनवरी की सर्द रात में कोहरा इतना घना था कि सड़क पर कुछ मीटर आगे तक कुछ दिखाई नहीं देता था। रमेश और उसकी पत्नी सुनैना अपनी पुरानी मारुति 800 में नैनीताल की ओर जा रहे थे। दोनों ने कुछ दिन की छुट्टी ली थी, ताकि शहर की भागदौड़ से दूर, पहाड़ों की शांति में समय बिता सकें। रमेश ने कार का हीटर चालू किया हुआ था, लेकिन फिर भी ठंड उनके कपड़ों को भेदकर हड्डियों तक उतर रही थी।
"रमेश, तुम्हें यकीन है ना कि हम सही रास्ते पर हैं?" सुनैना ने थोड़ा घबराते हुए पूछा। उसकी आवाज में बेचैनी थी।
"हाँ, सुनैना, जीपीएस तो यही बता रहा है। बस, ये कोहरा थोड़ा परेशान कर रहा है। थोड़ा धीरे चलाना पड़ रहा है," रमेश ने जवाब दिया, उसकी नजरें सड़क पर टिकी थीं। जीपीएस की नीली स्क्रीन पर एक पतली-सी लाइन थी, जो उन्हें नैनीताल की ओर ले जा रही थी। लेकिन कोहरे की वजह से सड़क के किनारे की रेलिंग और पेड़ भी धुंध में गायब हो रहे थे।
रात के करीब 11 बज चुके थे। सड़क सुनसान थी। दूर-दूर तक कोई गाड़ी, कोई इंसान नहीं। सिर्फ उनकी कार के इंजन की हल्की-सी आवाज और बाहर की सन्नाटे भरी खामोशी। सुनैना ने रेडियो ऑन किया, लेकिन वहाँ से सिर्फ सनसनाहट की आवाज आई। "लगता है यहाँ सिग्नल नहीं है," उसने बड़बड़ाते हुए रेडियो बंद कर दिया।
कुछ देर बाद, जीपीएस ने अचानक बीप की आवाज की और स्क्रीन पर एक नया रास्ता दिखाई देने लगा। "रास्ता बदलें, दाएँ मुड़ें," मशीन की ठंडी आवाज गूँजी। रमेश ने भौंहें सिकोड़ीं। "ये क्या? अभी तो सीधा रास्ता दिखा रहा था।" उसने कार धीमी की और सड़क के किनारे एक छोटी-सी गलियों जैसी सड़क पर नजर डाली।
"रमेश, इस रास्ते पर मत जाओ। ये तो जंगल की ओर जा रहा है," सुनैना ने कहा, उसकी आवाज में डर साफ झलक रहा था।
"अरे, जीपीएस गलत नहीं हो सकता। शायद ये कोई शॉर्टकट है," रमेश ने हल्के से हँसते हुए कहा, लेकिन उसकी हँसी में आत्मविश्वास की कमी थी। उसने कार को दाएँ मोड़ लिया।
नया रास्ता और भी संकरा था। दोनों तरफ घने पेड़ थे, जिनकी टहनियाँ सड़क पर झुकी हुई थीं। कोहरा इतना घना था कि हेडलाइट्स की रोशनी भी कुछ फीट आगे तक ही जा पा रही थी। सुनैना की साँसें तेज हो रही थीं। "रमेश, मुझे अच्छा नहीं लग रहा। ये जगह... ये जगह ठीक नहीं है।"
"बस थोड़ा और, सुनैना। जीपीएस कह रहा है कि हम आधे घंटे में नैनीताल पहुँच जाएँगे," रमेश ने कहा, लेकिन उसकी आवाज में भी अब हल्की-सी घबराहट थी।
तभी, कार की हेडलाइट्स में कुछ दिखा। सड़क के बीच में एक आकृति खड़ी थी। रमेश ने अचानक ब्रेक मारा। कार रुकी, और दोनों की नजरें उस आकृति पर टिक गईं। कोहरे के बीच, एक औरत खड़ी थी। उसका चेहरा साफ नहीं दिख रहा था, लेकिन उसके लंबे, उलझे हुए बाल और फटे हुए कपड़े साफ नजर आ रहे थे। वह बिल्कुल स्थिर थी, जैसे कोई मूर्ति।
"ये... ये कौन है?" सुनैना ने फुसफुसाते हुए पूछा। उसकी आवाज काँप रही थी।
"पता नहीं... शायद कोई स्थानीय औरत है। शायद उसे मदद चाहिए," रमेश ने कहा और हल्के से हॉर्न बजाया। लेकिन वह औरत टस से मस नहीं हुई। उसने सिर उठाया, और कोहरे के बीच उसकी आँखें चमकीं—दो चमकदार, सफेद बिंदु, जैसे कोई जानवर।
"रमेश, प्लीज, चलो यहाँ से!" सुनैना ने लगभग चीखते हुए कहा।
रमेश ने कार को रिवर्स करने की कोशिश की, लेकिन इंजन अचानक बंद हो गया। उसने चाबी घुमाई, लेकिन कोई फायदा नहीं। कार स्टार्ट नहीं हुई। "ये क्या हो रहा है?" उसने घबराते हुए कहा।
तभी, वह औरत धीरे-धीरे उनकी ओर बढ़ने लगी। उसका चलना सामान्य नहीं था। वह हवा में तैरती हुई-सी लग रही थी। उसकी हरकतें जर्की थीं, जैसे कोई कठपुतली जिसके तार कोई और खींच रहा हो। सुनैना ने दरवाजा लॉक करने की कोशिश की, लेकिन लॉक काम नहीं कर रहा था।
"रमेश, कुछ करो!" सुनैना की आवाज में अब आतंक था।
रमेश ने फिर से चाबी घुमाई, और इस बार इंजन चालू हुआ। उसने कार को तेजी से रिवर्स किया, लेकिन जैसे ही उसने पीछे मुड़ा, हेडलाइट्स में वही औरत फिर से दिखी—इस बार कार के ठीक पीछे। "ये कैसे...?" रमेश का गला सूख गया।
सुनैना अब चीख रही थी। "वो यहाँ कैसे आ गई? रमेश, चलो यहाँ से!"
रमेश ने कार को तेजी से आगे बढ़ाया, लेकिन सड़क अब और भी संकरी हो गई थी। पेड़ों की टहनियाँ कार के शीशों को खरोंच रही थीं, और हर खरोंच की आवाज सुनैना के दिल में सुई की तरह चुभ रही थी। जीपीएस अब पूरी तरह से बंद हो चुका था। स्क्रीन पर सिर्फ सनसनाहट थी।
तभी, कार की हेडलाइट्स में एक पुराना, जीर्ण-शीर्ण घर दिखा। वह सड़क के किनारे खड़ा था, जैसे कोहरे में से अचानक प्रकट हुआ हो। उसकी खिड़कियाँ टूटी थीं, और छत पर काई जमी थी। घर के बाहर एक पुराना लकड़ी का साइनबोर्ड था, जिस पर कुछ लिखा था, लेकिन अक्षर इतने धुंधले थे कि पढ़ा नहीं जा सका।
"रमेश, रुक जाओ। शायद यहाँ कोई मदद मिल सकती है," सुनैना ने कहा, लेकिन उसकी आवाज में यकीन नहीं था।
"इस जगह पर? सुनैना, ये घर तो सालों से खाली लगता है," रमेश ने जवाब दिया। लेकिन कार अब फिर से बंद हो चुकी थी। इंजन ने एक बार फिर धोखा दे दिया।
कोई चारा नहीं था। दोनों को कार से उतरना पड़ा। ठंड इतनी थी कि उनकी साँसें हवा में बादल बन रही थीं। सुनैना ने रमेश का हाथ कसकर पकड़ लिया। "मुझे डर लग रहा है," उसने फुसफुसाया।
"बस, थोड़ा और। शायद यहाँ कोई फोन सिग्नल मिल जाए," रमेश ने कहा, लेकिन उसकी आवाज में भी डर था।
दोनों धीरे-धीरे उस घर की ओर बढ़े। जैसे ही वे करीब पहुँचे, दरवाजा अपने आप खुल गया। कोई हवा नहीं थी, फिर भी दरवाजे की चरमराहट ने उनके रोंगटे खड़े कर दिए। अंदर अंधेरा था, लेकिन कोने में एक हल्की-सी रोशनी टिमटिमा रही थी, जैसे कोई मोमबत्ती जल रही हो।
"हैलो? कोई है?" रमेश ने आवाज लगाई, लेकिन जवाब में सिर्फ सन्नाटा था। सुनैना ने उसका हाथ और कसकर पकड़ लिया।
अंदर का माहौल और भी ठंडा था। दीवारों पर पुराने फोटो फ्रेम्स लटके थे, लेकिन चेहरों को देख पाना मुश्किल था। हर फोटो में चेहरों पर धब्बे थे, जैसे किसी ने उन्हें खरोंचकर मिटा दिया हो।
तभी, एक कमरे से हल्की-सी फुसफुसाहट की आवाज आई। सुनैना रुक गई। "रमेश, सुना तुमने?"
"हाँ... शायद हवा है," रमेश ने कहा, लेकिन उसका चेहरा पीला पड़ चुका था।
वे उस कमरे की ओर बढ़े। वहाँ एक पुराना दर्पण था, जिसका कांच धूल से भरा था। दर्पण के सामने एक छोटी-सी मेज थी, जिस पर एक मोमबत्ती जल रही थी। लेकिन मोमबत्ती की लौ स्थिर थी, जैसे हवा का कोई असर ही न हो।
सुनैना ने दर्पण की ओर देखा, और उसका दिल जोर से धड़का। दर्पण में उसका और रमेश का प्रतिबिंब नहीं था। उसकी जगह, वही औरत थी, जो सड़क पर दिखी थी। उसका चेहरा अब साफ दिख रहा था—सफेद, बिना आँखों वाला चेहरा, जिसके मुँह से काला, चिपचिपा तरल टपक रहा था।
सुनैना चीख पड़ी। रमेश ने उसे खींचकर पीछे किया, लेकिन तभी कमरे का दरवाजा जोर से बंद हो गया। मोमबत्ती की लौ बुझ गई, और अंधेरे में सिर्फ उस औरत की फुसफुसाहट सुनाई दे रही थी। "मुझे छोड़ दो... मुझे छोड़ दो..."
रमेश ने दरवाजा खोलने की कोशिश की, लेकिन वह टस से मस नहीं हुआ। सुनैना अब रो रही थी। "हम यहाँ क्यों आए? ये क्या जगह है?"
तभी, फर्श पर कुछ रेंगने की आवाज आई। रमेश ने अपनी जेब से फोन निकाला और उसकी टॉर्च जलाई। रोशनी में उन्होंने देखा कि फर्श पर दर्जनों छोटे-छोटे हाथ रेंग रहे थे—बिना शरीर के, सिर्फ हाथ, जो उनकी ओर बढ़ रहे थे।
"रमेश!" सुनैना चीखी, और दोनों ने दीवार की ओर पीठ टिका दी। लेकिन दीवार भी अब ठंडी और चिपचिपी लग रही थी, जैसे वह साँस ले रही हो।
रमेश ने आखिरी हिम्मत जुटाई और अपनी पूरी ताकत से दरवाजे पर लात मारी। दरवाजा टूट गया, और दोनों बाहर की ओर भागे। लेकिन बाहर का नजारा और भी भयानक था। कोहरा अब इतना घना था कि कुछ दिखाई नहीं दे रहा था। उनकी कार गायब थी। सिर्फ वही जीर्ण-शीर्ण घर था, जो अब और भी बड़ा और डरावना लग रहा था।
तभी, सुनैना ने रमेश का हाथ छोड़ दिया। "रमेश!" उसने चीखा, लेकिन उसकी आवाज दूर से आ रही थी। रमेश ने चारों ओर देखा, लेकिन सुनैना गायब थी।
"सुनैना! तुम कहाँ हो?" रमेश चिल्लाया, लेकिन जवाब में सिर्फ वही फुसफुसाहट थी। "मुझे छोड़ दो..."
रमेश भागता रहा, लेकिन हर बार वह उसी घर के सामने पहुँच जाता। कोहरा, सन्नाटा, और वो औरत—वह अब हर जगह थी। उसकी आँखें, उसका चेहरा, उसकी फुसफुसाहट।
सुबह होने पर कोहरा छँटा। नैनीताल की सड़क पर रमेश की कार खाली पड़ी थी। स्थानीय लोगों ने पुलिस को बुलाया। कार के अंदर सिर्फ रमेश का फोन मिला, जिसकी स्क्रीन पर एक फोटो थी—रमेश और सुनैना की सेल्फी, लेकिन उनके पीछे वही औरत थी, जिसका चेहरा धुंधला था।
पुलिस ने जंगल में सर्च किया, लेकिन न रमेश मिला, न सुनैना। स्थानीय लोग उस सड़क से बचते थे। वे कहते थे कि वहाँ एक पुराना घर है, जो कोहरे में दिखता है। और जो भी उस घर के पास जाता है, वो कभी वापस नहीं आता।