भूल-14
विभाजन, पाकिस्तान और कश्मीर के मूल कारणों से बेखबर
द्वितीय विश्व युद्ध में ब्रिटिशों के युद्ध-प्रयासों के प्रति नेहरू (भूल#3,4) और कांग्रेस द्वारा समर्थन की कमी ने ब्रिटिशों को हिंदू-विरोधी और कांग्रेस-विरोधी बनाते हुए उन्हें मुसलमानों और ए.आई.एम.एल. की तरफ झुका दिया। वी.पी. मेनन ने ‘द ट्रांसफर अॉफ पावर इन इंडिया’ में लिखा—
“इसके अलावा युद्ध के प्रयास (द्वितीय विश्व युद्ध) के प्रति कांग्रेस के विरोध और वस्तुतः (मुसलिम) लीग के समर्थन ने ब्रिटिशों के मन में इस बात को भर दिया कि आमतौर पर हिंदू उनके दुश्मन थे और मुसलमान दोस्त; और इस बात की पूरी संभावना है कि विभाजन की नीति के उनके मूक, लेकिन प्रभावी समर्थन को और अधिक शक्ति प्रदान की होगी।” (वी.पी.एम.2/438/एल-8234)
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान नेहरू (भूल#3, 4) और कांग्रेस के साथ अपने कटु अनुभवों एवं मुसलिम लीग के साथ सकारात्मक अनुभवों और साथ ही कई अन्य प्रमुख रणनीतिक विचारों के आधार पर ब्रिटेन ने पाकिस्तान के निर्माण में एक निहित स्वार्थ विकसित कर लिया—(1) ब्रिटेन और पश्चिम ‘तेल और मध्य-पूर्व’ को अपने कब्जे में लेना चाहते थे और उन्हें लगा कि इसके लिए सीमावर्ती क्षेत्र के रूप में एक मुसलमान पाकिस्तान अधिक मुफीद रहेगा। (2) प्रस्तावित मुसलमान पाकिस्तान का शीर्ष नेतृत्व शीत युद्ध में उनका साथी बनने को तैयार था। (3) प्रस्तावित मुसलमान पाकिस्तान ब्रिटेन और पश्चिम को सैन्य ठिकाने उपलब्ध कराने के लिए तैयार था। (4) अपने वामपंथी, रूस समर्थक और सोशलिस्ट-वामपंथी समर्थक झुकाव के चलते नेहरू के शीत युद्ध में ब्रिटेन और पश्चिम के सहयोगी बनने की जरा भी संभावना नहीं थी। दुर्भाग्य की बात है कि गांधी और कांग्रेस के बाकी के नेतृत्व ने इस मसले पर अपना रुख स्पष्ट नहीं किया। दुर्भाग्यवश, ‘अंतरराष्ट्रीयतावादी और विदेशी मामलों के जानकार’ नेहरू ने जो कुछ भी व्यक्त किया, उसे कांग्रेसी भारत की विदेश नीति के रूप में अपना लिया गया।
डी.एन. पाणिग्रही ने अपनी पुस्तक ‘जम्मू ऐंड कश्मीर : द कोल्ड वॉर ऐंड द वेस्ट’ में लिखा है—
“क्लेमेंट एटली (ब्रिटेन पी.एम., 1945-51) ने अपने आधिकारिक और साथ-ही-साथ निजी पत्राचार में विशेष रूप से स्पष्ट किया है कि ‘मुसलमान विश्व’ के लिए कश्मीर का मसला इतना मुनासिब है कि उन्हें मध्य-पूर्व में ब्रिटिश हितों को ध्यान में रखते हुए इस मसले पर पाकिस्तान का समर्थन करना चाहिए। ...ब्रिटेन सहित बाकी पश्चिमी शक्तियों ने पाकिस्तान को ‘मुसलमान देश होने के चलते और मध्य-पूर्व के साथ उसकी निकटता के कारण अंतरराष्ट्रीय राजनीति में एक महत्त्वपूर्ण कारक’ माना। सर ओलाफ कैरो, एक आई.सी.एस. अधिकारी ...ने सन् 1949 मेंअपनी प्रभावशाली पुस्तक ‘वेल्स अॉफ पावर ः दि अॉयलफील्ड्स अॉफ साउथ वेस्टर्न एशिया, ए रीजनल ऐंड ग्लोबल स्टडी’ मेंमध्य-पूर्व की सुरक्षा में पाकिस्तान की संभावित भूमिका को लेकर एक लेख लिखा। उन्होंने तर्क दिया कि भविष्य में मध्य-पूर्व तेल विकास और दुनिया में अंतरराष्ट्रीय संबंधों की सबसे बड़ी कुंजी साबित होगा।” (पाणि/3)
“कैरो के इस कथन का प्रमुख जोर इस बात पर था कि तेल के लिए होनेवाली प्रतिस्पर्धा शक्तियों के भविष्य के रिश्तों को तय करेगी और यह भी कि ‘मध्य-पूर्व की तुलना में यूरोप पर सोवियत रूस के हमले का खतरा बहुत कम था। उन्होंने दूसरा तर्क यह दिया कि पाकिस्तान इस क्षेत्र में एक रणनीतिक स्थिति में होने के अलावा एक मुसलमान देश भी है और इसलिए इस बात की अधिक संभावना है कि वह मध्य-पूर्व के क्षेत्र में भारत के मुकाबले ब्रिटिश हितों की रक्षा अधिक बेहतरी से करेगा।” (पाणि./24-5)
प्रथम विश्व युद्ध के बाद से ही ब्रिटेन के लिए भारत की उपयोगिता वाणिज्यिक लाभ उठानेवाले एक बाजार के रूप में कम थी और युद्ध एवं रक्षा के क्षेत्र के साथ-साथ अपने साम्राज्य को बनाए रखने तथा सुरक्षित रखने में अधिक थी। छावनी के रूप में भारत और अपनी ब्रिटिश भारतीय सेना के जरिए ब्रिटेन ने एशिया के अन्य देशों को नियंत्रित किया। वह भारत में कम-से- कम एक मजबूत आधार तैयार किए बिना अपने दो सदी पुराने साम्राज्य को एकदम से छोड़ने की जहमत नहीं उठा सकता था। बस, इसके बाद से ही पाकिस्तान की योजना को अमली जामा पहनाया गया।
पश्चिम मध्य-पूर्व और हिंद महासागर की ओर कम्युनिस्ट रूस और चीन की विस्तारवादी महत्त्वाकांक्षाओं पर लगाम लगाना चाहता था। ऐसा कैसे किया जाए? इसके लिए रूस और चीन से लगनेवाले क्षेत्रों का उनके प्रभाव में होना आवश्यक है, जो कि रूस और जम्मू कश्मीर से लगता उत्तर-पश्चिमी भारत है। पाकिस्तान कम्युनिस्टों के साथ चल रहे शीत युद्ध में पश्चिम का सहयोगी बनने को तैयार था, इसलिए वह जम्मू-कश्मीर के साथ उनकी रणनीति के लिए महत्त्वपूर्ण था; जबकि भारत, जिसके पश्चिम-विरोधी मत, रूस के प्रति नेहरूवादी झुकाव और अहिंसा को लेकर दृढ़ निश्चय को देखते हुए उसके सैन्य मामलों में पश्चिम का साथ देने तथा उनके साथ गठबंधन करने की बहुत कम, या कहें तो नगण्य, संभावना थी। इसके अलावा, सैन्य मामलों में सहयोग के पाकिस्तान के वादे के चलते ब्रिटिश सैन्य प्रतिष्ठान भी उसके बेहद मजबूत अधिवक्ता बन गए थे। असल में, ब्रिटेन और अमेरिका ने पाकिस्तान को हमेशा रूस के खिलाफ चारे के रूप में इस्तेमाल किया; इसलिए वे हमेशा इस डर से उसके समर्थन में खड़े होते हैं कि कहीं वह विफल न हो जाए।
नरेंद्र सिंह सरीला अपनी पुस्तक ‘द शैडो अॉफ द ग्रेट गेम : द अनटोल्ड स्टोरी अॉफ इंडियाज पार्टीशन’ में ब्रिटिश सेना प्रमुखों की एक रिपोर्ट का हवाला देते हैं—
“पाकिस्तान का इलाका (पश्चिमी पाकिस्तान या भारत का उत्तर-पश्चिम) भारतीय उपमहाद्वीप में रणनीतिक रूप से सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है और हमारी अधिकांश सामरिक आवश्यकताओं की पूर्ति की जा सकती है, वह भी सिर्फ पाकिस्तान के साथ एक समझौते के जरिए।” (सार/28) (डीजी/17)
ब्रिटिशों को जब एक बार इस बात का अहसास हो गया कि भारत आजादी के बाद उन्हें सैन्य सहयोग के लिए इनकार कर देगा तो वे पाकिस्तान के पक्ष में चले गए, जो उनका प्यादा बनकर उनका पूरा सहयोग करने के लिए और मध्य-पूर्व एवं हिंद महासागर के क्षेत्र को सुरक्षित करने में उनकी मदद के लिए बिल्कुल तैयार बैठा था। इसके अलावा, ब्रिटिश सेना और नौकरशाही के पाकिस्तान के प्रति सहायक होने का एक और कारण यह था कि उन्हें वहाँ पर पद एवं रोजगार की पेशकश की जा रही थी।
“फील्ड मार्शल लॉर्ड मॉण्टगोमेरी ने दलील दी कि अगर पाकिस्तान, विशेष रूप से उत्तर- पश्चिमी राष्ट्रमंडल के साथ बना रहता है तो वह एक बेहद शानदार परिसंपत्ति होगा। उत्तर-पश्चिमी भारत में पहले से मौजूद सैन्य अड्डे, हवाई क्षेत्र और बंदरगाह अनमोल साबित होंगे।” (डीजी/16-17)
ब्रिटेन को उस सूरत में कोई दिक्कत नहीं होती, अगर उन्हें इस बात का भरोसा होता कि भारत (अविभाजित भारत) आजादी के बाद उनके सहयोगी के रूप में काम करेगा। अगर वे उन मुद्दों को लेकर आश्वस्त महसूस करते, जो उनके राष्ट्रीय और विदेश नीति के हितों के लिए महत्त्वपूर्ण साबित होते, तो न तो विभाजन होता और न ही जम्मू-कश्मीर वाली गड़बड़। आखिर नेहरू के समाजवाद और सोवियत के समर्थन में झुकाव से भारत को क्या हासिल हुआ? कुछ भी नहीं। भारत की अर्थव्यवस्था गर्त में चली गई और अंतरराष्ट्रीय मामलों में किसी ने भी भारत को गंभीरता से नहीं लिया। वह नेहरू का समाजवाद और सोवियत संघ के प्रति झुकाव ही था, जिसने ब्रिटेन और पश्चिमी देशों, जिनमें अमेरिका भी शामिल था, को भारत के खिलाफ कर दिया, जिसका नतीजा विभाजन की त्रासदी और कश्मीर की समस्या के रूप में सामने आया।
अगर भारतीय नेतृत्व थोड़ा भी समझदार होता, जो अंतरराष्ट्रीय मामलों और ब्रिटेन व पश्चिम के निहित स्वार्थों और उनकी तेल एवं शीत युद्ध की रणनीति के प्रति पर्याप्त प्रबुद्ध होता तो वे इतने चतुर और सावधान होते कि अपने सहयोग को लेकर ब्रिटेन, अमेरिका और बाकी के पश्चिम को आश्वस्त करते (लेकिन व्यावहारिक रूप में वास्तव में वही किया गया, जो आजादी के बाद भारत के सर्वोत्तम राष्ट्रीय हित में था)। लेकिन बहरहाल, भारत के लिए बाजारोन्मुख अर्थव्यवस्था और पश्चिम-समर्थक होना समाजवादी और रूस-समर्थक (जैसे कि नेहरू थे) होने के मुकाबले कहीं अधिक फायदेमंद था। लेकिन जब आप राजनीतिक नेता होने के बावजूद अपने बहुमूल्य व स्वतंत्रता के बाद के महत्त्वपूर्ण मुद्दों, जिनमें अर्थव्यवस्था, गरीबी और समृद्धि, आंतरिक और बाह्य सुरक्षा तथा विदेश नीति शामिल हैं, पर विचार-विमर्श के काम में जोर देने के बजाय जेल तथा उसके बाहर सूत कातने, पोषण और स्वदेशी दवाओं के साथ प्रयोग करने और सत्य के साथ उपवास करते हुए और अहिंसा का पाठ पढ़ाते हुए बिता देते हैं तो क्या उम्मीद की जा सकती है? नरेंद्र सिंह सरीला ने उपयुक्त ही लिखा है—
“लेकिन भारतीय नेता अहंकार, असंगतता, अकसर खराब राजनीतिक निर्णय और विदेशी मामलों तथा रक्षा से जुड़े सवालों के प्रति अरुचि जैसी सदियों पुरानी भारतीय कमजोरियों से ही त्रस्त रहे।” (सार/405)
“इतने लंबे समय तक ब्रिटिश शक्ति के साए में रहने और फिर उसके बाद अहिंसक संघर्ष पर ध्यान केंद्रित करने के चलते भारतीय नेता स्वतंत्रता के करीब आने पर हमारे हिंसक विश्व के शक्ति-संतुलन के खेल का सामना करने के लिए जरा भी तैयार नहीं थे। अन्य देशों के उद्देश्यों और इरादों के प्रति उनकी ऐतिहासिक उदासीनता ने चीजों को और अधिक दुष्कर बना दिया। वे पाकिस्तान संबंधीिब्रटिशों की योजना के पीछे के असल कारणों को देखने और पहचानने में (नेहरू के एक अंतरराष्ट्रीयतावादी और विदेशी मामलों के जानकार होने के दावे के बावजूद) और फिर सुधारात्मक कदम उठाने में बिल्कुल विफल रहे।” (सार/406)
“वर्ष 1946 के अंत तक वे (भारतीय नेता) पैंतरेबाजी करने में इस हद तक व्यस्त हो गए थे कि अगर सरदार पटेल आगे न बढ़े होते और ‘एक अंग को कटवाने’ का फैसला न लिया होता, जैसाकि वे कहते हैं और ब्रिटेन को संतुष्ट न करते तो भारत के विखंडन की पूरी संभावना थी, क्योंकि ब्रिटेन ने बड़ी रियासतों को आजादी की घोषणा के उनके प्रयासों का समर्थन करने के साथ ही उनमें सैन्य ठिकाने तैयार करने की पूरी तैयारी कर ली थी।” (सार/406)
1935 का भारत सरकार अधिनियम और डोमिनियन स्टेटस
हालाँकि स्थितियाँ स्पष्ट रूप से इतनी निराशाजनक नहीं थीं, जैसाकि ऊपर वर्णित किया गया है कि अगर कांग्रेस के नेतृत्व ने, विशेषकर गांधी और नेहरू के पास, 1935 के भारत सरकार अधिनियम को तैयार करनेवाले गोलमेज सम्मेलनों में सक्रिय रूप से भाग लेने की दूरदृष्टि होती, ताकि वे इसे भारत की आवश्यकताओं के अधिक अनुकूल बनवा पाते और इसके प्रावधानों को बुद्धिमानी से इस्तेमाल कर इसके तुरंत बाद चुनाव आयोजित करवाते, सफलतापूर्वक चुनी हुई सरकार चलाते और यह दिखावा करने कि आजादी को ‘लड़कर’ पाया गया है, एक दशक बाद सन् 1947 में डोमिनियन स्टेटस पाने के बजाय उसे भारत के लिए उसी समय हासिल कर लेते।
माधव गोडबोले ने लिखा—
“कांग्रेस कई वजहों के चलते इस अधिनियम (1935 के भारत सरकार अधिनियम) के विरोध में थी। लॉर्ड बटलर ने ‘नेहरू मेमोरियल म्यूजियम ऐंड लाइब्रेरी’ (एन.एम.एम.एल.) में अपने मौखिक इतिहास प्रतिलेख में कहा है कि नेहरू ने यह कहते हुए जी.ओ.आई. ऐक्ट-1935 के बारे में निहायत अतिशय टिप्पणी करते हुए इसे ‘गुलामी का एक चार्टर’ तक कह दिया था।”...
“1936 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अपने अध्यक्षीय भाषण में नेहरू ने कहा था—मौजूदा परिस्थितियों में हमारे पास नई प्रांतीय विधानसभाओं के लिए चुनाव लड़ने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। एक तरफ हमें जहाँ इन विधानसभाओं का उपयोग अपने उस कार्यक्रम को आगे बढ़ाने के लिए करना चाहिए, वहीं हमें इन साम्राज्यवादी निकायों के बीच गतिरोध पैदा करके उन्हें खत्म करना चाहिए।”
“बाद में 10 नवंबर, 1966 को नेहरू मेमोरियल लेक्चर देते हुए बटलर ने कहा, ‘लेकिन आनेवाले दिनों में नेहरू ने मुझे बताया कि यह (जी.ओ.आई. अधिनियम-1935) पुराने और नए के बीच एक जैविक लिंक साबित हुआ।’ जैसाकि ‘अॉक्सफोर्ड हिस्टरी अॉफ इंडिया’ कहती है, ‘भारत सरकार अधिनियम को पारित किए जाते समय समकालीन अनिश्चितता और देशभक्ति की आकुलता की धुंध इसके गुणों पर हावी थी; लेकिन बारह साल बाद नए स्वतंत्रता अधिनियम को काफी हद तक सन् 1935 की अवधारणा को विकसित और पूर्ण करनेवाले के रूप में देखा गया।’...
“लॉर्ड माउंटबेटन ने एन.एम.एम.एल. में अपने मौखिक इतिहास प्रतिलेख में उल्लिखित किया है कि ‘अगर जी.ओ.आई. अधिनियम-1935 को स्वीकार (कांग्रेस द्वारा पूर्ण रूप से) कर लिया जाता तो देश के विभाजन से बचा जा सकता था।’ माउंटबेटन के अनुसार, गांधी ने सन् 1944 में जेल से रिहा होने के बाद वायसराय वेवेल के सामने स्वीकार किया था कि उन्हें इस अधिनियम को पूरी तरह से पढ़ने का समय जेल में रहने के दौरान ही मिला। ‘अगर उनके (गांधी) पर इसे पढ़ने का पहले ही समय होता तो उन्होंने इसे स्वीकार करने की सिफारिश की होती।’ माउंटबेटन ने जी.ओ.आई. अधिनियम-1935 को ‘ब्रिटिश भारत की संभवतः सबसे बड़ी एकल विधायी उपलब्धि’ कहा है।...
एच.वी. हॉडसन ने कहा है, “यह बिल्कुल वही अधिनियम था, जिसके अंतर्गत अपेक्षाकृत कम संशोधनों के साथ सत्ता पूरी तरह से ब्रिटिश से भारतीय हाथों में स्थानांतरित हो गई थी और इस प्रकार संशोधन किए जाने के बाद इसने तीन साल तक स्वतंत्र भारत के कामकाजी संविधान के रूप में कार्य किया।’ ...कांग्रेस द्वारा जी.ओ.आई. अधिनियम-1935 के जोरदार विरोध के बावजूद भारत द्वारा अपनाए गए नए संविधान में इसके बड़े हिस्से को शामिल कर लिया गया।
एस.एस. गिल कहते हैं, “भारत के संविधान ने एक प्रकार से बेहद बदनाम किए गए जी.ओ.आई. अधिनियम-1935 को इस हद तक निगल लिया था कि उसके 235 खंडों को उसमें शामिल किया गया। पुराने नियमों, अधिनियमों और प्रक्रियाओं का संपूर्ण न्यायिक और प्रशासनिक ढाँचा भी थोक में अपना लिया गया था।” (एम.जी.2/एल-2088-2135)