भूल-20
बिना शर्त जम्मू व कश्मीर के विलय को सशर्त बना दिया
क्या जम्मूव कश्मीर के लिए महाराजा हरि सिंह द्वारा हस्ताक्षर किया गया ‘विलय का अनुबंध’ अन्य रियासतों से अलग था और क्या इसमें कुछ विशेष प्रावधान शामिल किए गए थे? नहीं। विलय का अनुबंध सभी रियासतों के लिए आदर्श और समान था। इसमें किसी भी शासक के लिए शर्तों में कुछ भी जोड़ने या फिर घटाने का कोई प्रावधान नहीं था। इसे बिना किसी बदलाव के हस्ताक्षर करना आवश्यक था।
अपने हस्ताक्षरित ‘विलय के अनुबंध’ को मानक प्रारूप (जैसा कि अन्य सभी रियासतों के लिए भी था) में संलग्न करते हुए महाराजा हरि सिंह ने 26 अक्तूबर, 1947 को भारत के गवर्नर जनरल माउंटबेटन को लिखा—
“मेरे राज्य की मौजूदा स्थितियाँ जैसा रूप ले रही हैं और स्थिति की गंभीरता के मद्देनजर मेरे पास भारतीय डोमिनियन से सहायता माँगने के अलावा और कोई रास्ता नहीं है। स्वाभाविक रूप से, मेरे राज्य के भारत के डोमिनियन में विलय हुए बिना माँगी गई सहायता नहीं भेज सकते। मैंने तदनुसार ऐसा करने का फैसला लिया है और मैं आपकी सरकार द्वारा स्वीकृति के लिए विलय का अनुबंध संलग्न कर रहा हूँ।” (जग/86)
जम्मूव कश्मीर के संबंध में इस बात पर फिर से जोर देना महत्त्वपर्णू है—(क) हस्ताक्षर किया गया विलय का अनुबंध बाकी की रियासतों द्वारा हस्ताक्षर किए गए अनुबंध से बिल्लकु भी भिन्न नहीं था; (ख) हरि सिंह ने इस पर बिना शर्त हस्ताक्षर किए थे; और (ग) गवर्नर जनरल लॉर्ड माउंटबेटन ने उसे बिना शर्त के स्वीकार किया था। अर्थात् यह पूरी प्रक्रिया उस प्रक्रिया से जरा भी अलग नहीं थी, जो उन बाकी 547 रियासतों पर लागू की गई थी, जिन्होंने भारत में विलय किया था (कृपया ध्यान दें कि 562 में से बाकी 14 रियासतों ने पाकिस्तान के साथ विलय किया था)।
हालाँकि, एक बिल्कुल अलग पत्र के जरिए माउंटबेटन ने हरि सिंह को सलाह दी थी कि विलय जम्मूव कश्मीर के लोगों की अधिकार सीमा के अधीन है (चौकोर कोष्ठक में दी गई टिप्पणियाँ लेखक आर.के.पी. की हैं)—
“मेरी सरकार [जरा सोचिए कि एक ब्रिटिश जो ब्रिटेन और पाकिस्तान के हितों को पूरा कर रहा था, उसमें इतनी धृष्टता (नेहरू की बदौलत) थी कि वह स्वतंत्रता के बाद की भारत सरकार को ‘मेरी सरकार’ कहने का दुस्साहस कर सके!] ने महाराज द्वारा उल्लिखित की गई विशेष परिस्थितियों को देखते हुए जम्मूव कश्मीर रियासत के भारत के डोमिनियन में विलय को स्वीकार करने का फैसला लिया है। अपनी उस नीति के तहत, जिसमें किसी भी राज्य के मामले में जहाँ विलय का विषय किसी भी रूप में विवादों के घेरे में हो, विलय का फैसला उस राज्य के निवासियों की इच्छा के अनुसार तय किया जाए। यह मेरी सरकार की इच्छा है कि जैसे ही कश्मीर की कानून-व्यवस्था काबू में आती है और उसकी जमीन को घुसपैठियों से खाली करवा लिया जाता है, राज्य के विलय के फैसले को जनमत-संग्रह के आधार पर तय किया जाए।” (ए.डब्ल्यू./114) (जग./86)
गौर करने वाली बात यह है कि महाराजा ने विलय के लिए कोई शर्त नहीं रखी थी। वास्तव में, यहाँ तक कि शेख अब्दुल्ला, जो भारत में विलय के पक्ष में थे, ने कभी इस शर्त का विरोध नहीं किया, बल्कि वे तो इसे चाहते ही बिना शर्त के थे, ताकि कोई अनिश्चितता न बनी रहे।
माउंटबेटन को ऐसा पत्र लिखने का अधिकार किसने दिया? विलय को सशर्त बनानेवाले वे कौन थे? क्या वे अभी भी ब्रिटिश हितों की रक्षा करनेवाले ब्रिटिश भारत के वायसराय थे या फिर वे स्वतंत्र भारत के गवर्नर जनरल थे? नेहरू ने विरोध क्यों नहीं किया? आखिर क्यों भारतीय मंत्रिमंडल और नेताओं, विशेषकर नेहरू, ने उनसे यह बात स्पष्ट नहीं की कि उन्हें ऐसे महत्त्वपूर्ण मसलों में अपनी मरजी नहीं चलानी चाहिए—और यह भी कि उन्हें मंत्रिमंडल की अनुमति लेनी चाहिए थी? आप अपने आप को विलय की पेशकश करनेवाले पक्ष की ओर से तो शर्तें रखने की बात को समझ सकते हैं, लेकिन वह पक्ष, जिसमें विलय होने जा रहा हो, वह ही शर्तें रखने लगे तो यह बिल्कुल बेतुका है।
अगर उनके स्थान पर एक भारतीय गवर्नर जनरल होता, जैसे कहें तो डॉ. आंबेडकर या फिर डॉ. राजेंद्र प्रसाद या राजगोपालाचारी अथवा महात्मा गांधी (क्या आपने कभी सोचा है कि उन्होंने स्वतंत्रता के बाद कोई आधिकारिक पद लेने की इच्छा क्यों नहीं रखी और शीर्षपद को एक ब्रिटिश के लिए क्यों छोड़ दिया?) खुद और माउंटबेटन जैसा एक ब्रिटिश नहीं होता तो क्या उसने भी विलय को सशर्त बनाने की कोशिश की होती? और अगर उसने ऐसा किया भी होता तो क्या भारतीय जनता ने उसे कभी माफ किया होता? या फिर ऐसा था कि नेहरू ने माउंटबेटन द्वारा इस प्रकार के पत्र को लिखे जाने को मौन स्वीकृति प्रदान की थी? (एक और भूल?) यहाँ तक कि अगर यह समझौता नेहरू की जानकारी के बिना किया गया था (जिसकी संभावना न के बराबर है) तो भी नेहरू को इसका विरोध करना चाहिए था और उन्हें इसे रद्द करवाना या फिर वापस ले लेना चाहिए था।
जनमत-संग्रह की शर्त : गैर-कानूनी
ब्रिटिश संसद् द्वारा अधिनियमित भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम-1947 में 12 मई, 1946 के ‘मेमोरैंडम अॉन स्टेट्स ट्रीटीज ऐंड पैरामाउंट्सी’ को भी शामिल किया गया था, जिसके अनुसार सभी रियासतों को ब्रिटिश भारत से आजाद होकर बननेवाले दो संप्रभुता-संपन्न राष्ट्रों भारत और पाकिस्तान के निर्माण के साथ पूर्ण संप्रभुता प्राप्त करनी थी, जिसके तहत प्रत्येक रियासत का राजा भारत या फिर पाकिस्तान में विलय के प्रस्ताव का फैसला लेने या फिर स्वतंत्र रहने का फैसला लेनेवाली अकेली शक्ति थे, वह भी उस राज्य के लोगों की धार्मिक संरचना की ओर ध्यान दिए बिना और इसमें ‘लोगों के संदर्भ में’ या फिर जनमत-संग्रह का कोई प्रावधान नहीं था।
इसलिए जम्मू व कश्मीर के महाराजा द्वारा 26 अक्तूबर, 1947 को भारत के पक्ष में बिना शर्त व विलय के अनुबंध पर हस्ताक्षर करने के बाद भारत में जम्मूव कश्मीर का विलय अंतरराष्ट्रीय कानूनों के हिसाब से पूर्ण, अंतिम, अपरिवर्तनीय और पूर्ण रूप से वैध था। कानूनी तौर पर, माउंटबेटन द्वारा लिखे गए एक बिल्कुल अलग पत्र (कृपया ऊपर देखें) से कोई फर्क नहीं पड़ता था। वास्तव में, माउंटबेटन द्वारा उपर्युक्त पत्र को लिखना पूर्ण रूप से असंवैधानिक और गैर-कानूनी था। यहाँ तक कि नेहरू के पास भी इस प्रकार के पत्र को मंजूरी देने का कोई कानूनी अधिकार नहीं था। इसके अलावा, इसके लिए मंत्रिमंडल की मंजूरी भी नहीं ली गई थी।
भारत को जम्मू व कश्मीर के अटल विलय की निर्विवाद कानूनी स्थिति के साथ बिल्कुल उसी प्रकार से अड़े रहना चाहिए था, जैसा उसने बाकी की 547 रियासतों के साथ विलय पर अनुबंध के हस्ताक्षर के समय दृढ़तापूर्वक किया था। सरदार पटेल ने भी इसी बात की जोरदार पैरवी की थी। यहाँ तक कि अमेरिका ने भी सन् 1948 में हमारी स्थिति को बेहद मजबूत कानूनी स्थिति बताया था।
सी. दासगुप्ता ने अपनी पुस्तक ‘वॉर ऐंड डिप्लोमेसी इन कश्मीर, 1947-48’ में लिखा है—
“अमेरिकी और ब्रिटिश स्थितियों में सबसे बड़ा मूलभूत फर्क इस बात में है कि अमेरिका वर्ष 1947-48 में कश्मीर में भारत के संप्रभु अधिकारों को मान्यता देने के लिए बिल्कुल तैयार था।” (डी. जी./121) हालाँकि, नेहरू उसका लाभ उठाने में असफल रहे।
सबसे हास्यास्पद बात तो यह है कि उस समय ‘लोगों के संदर्भ से’ या फिर जनमत-संग्रह का अनुरोध न तो महाराजा हरि सिंह ने, न ही शेख अब्दुल्ला ने, न ही जम्मूव कश्मीर के लोगों ने और यहाँ तक कि जिन्ना (!!) ने भी नहीं किया था। इसका सारा श्रेय सिर्फ माउंटबेटन और नेहरू को जाता है! (हिंग/200) माउंटबेटन की स्थिति को तो समझा जा सकता है—वह भारत-विरोधी और ब्रिटिश-समर्थक हितों की रक्षा कर रहा था! लेकिन नेहरू? आखिर कोई कितना अनुभवहीन हो सकता है! कोई एक ब्रिटिश राज का कितना बड़ा चेला हो सकता है! आखिर, एक शीर्ष भारतीय राजनेता इस बात को लेकर कैसे अनजान हो सकता है कि भारतीय हित कहाँ समाहित हैं!