भूल-22
संयुक्त राष्ट्र में जम्मू व कश्मीर के मामले अनाड़ी की तरह सँभालना
भारत और पाकिस्तान दोनों ने जनवरी 1948 में संयुक्त राष्ट्र के सामने अपना-अपना पक्ष रखा। भारतीय पक्ष को कश्मीर मामलों के मंत्री गोपालस्वामी आयंगर द्वारा प्रस्तुत किया गया, जिन्हें नेहरू ने इसी काम के लिए मंत्रिमंडल में विशेष रूप से नियुक्त किया था। आयंगर भारतीय दल के अगुवा थे, जिसमें शेख अब्दुल्ला भी शामिल थे। संयुक्त राष्ट्र में पाकिस्तानी प्रतिनिधि चौधरी सर मुहम्मद जफरुल्लाह खाँ (1893-1985) को यह बात पता चली कि भारत का प्रतिनिधित्व गोपालस्वामी आयंगर कर रहे हैं तो उन्होंने चुटकी ली, “क्या आप कश्मीर को मुझे थाली में रखकर देना चाहते हैं!” (बी.के./387)
यह बात ध्यान देने योग्य है कि जफरुल्लाह खाँ का एक शानदार कॅरियर था। उन्होंने लंदन के किंग्स कॉलेज से शिक्षा पाई थी और वे अॉल इंडिया मुसलिम लीग के एक सदस्य भी थे और वर्ष 1931-32 के दौरान उसके अध्यक्ष पद को भी सँभाल चुके थे। वे सन् 1935 में ब्रिटिश भारत के रेल मंत्री थे। वे वर्ष 1935 और 1941 के बीच ब्रिटिश वायसराय की कार्यकारी परिषद् में मुसलिम सदस्य के रूप में बैठे। उन्होंने सन् 1939 में जिनेवा में संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत का प्रतिनिधित्व किया। वे वर्ष 1942 में चीन में ब्रिटिश भारत के एडजुटेंट जनरल थे। वे भारत के संघीय न्यायालय में न्यायाधीश बने। वे पाकिस्तान के विदेश मंत्री (1947-54), संयुक्त राष्ट्र महासभा के अध्यक्ष (1962) और अंतरराष्ट्रीय न्यायालय (आई.सी.जे.) के न्यायाधीश (1954-61, 1964- 73), उपाध्यक्ष (1958-61) और अध्यक्ष (1970) रहे।
संयोग से, जफरुल्लाह खाँ भी अब्दुस सलाम (वर्ष 1926-1996), सन् 1979 में भौतिकी के लिए, ‘नोबेल पुरस्कार’ प्राप्त करनेवाले पाकिस्तानी सैद्धांतिक भौतिक विज्ञानी की तरह एक अहमदिया थे। अब्दुस सलाम ने सन् 1974 में अहमदिया समुदाय को गैर-इसलामिक घोषित करनेवाले संसदीय बिल के पारित होने के विरोध में पाकिस्तान छोड़ दिया था। जिन्ना और आगा खाँ, दोनों शिया थे और पाकिस्तान की अवधारणा को आगे बढ़ानेवाले थे। पर पाकिस्तान में शिया भी अब भुक्तभोगी वाली स्थिति में हैं।
जैसाकि प्रत्याशित था, जफरुल्लाह खाँ ने अपना पक्ष बेहद शानदार तरीके से सामने रखा और उन्हें चौतरफा प्रशंसा मिली, जबकि आयंगर एक पूर्ण तबाही साबित हुए।
इससे पूर्व आयंगर के स्थान पर सर गिरिजा शंकर वाजपेयी, विदेश मंत्रालय के तत्कालीन महासचिव (वरिष्ठतम पद) और निश्चित रूप से इस काम के लिए कहीं अधिक सक्षम व्यक्ति, के नाम को सुझाया गया था; लेकिन विरोध के चलते उनके नाम को हटा दिया गया, क्योंकि आजादी से पूर्व के समय में उन्हें ब्रिटिशों के काफी करीब माना जाता था। (अकब.3/129) अगर ऐसा ही था तो फिर क्यों नेहरू ने उन्हें खासतौर पर विदेश मंत्रालय में महासचिव के पद पर नियुक्त किया?
सरदार पटेल संयुक्त राष्ट्र में भारतीय दल का नेतृत्व गोपालस्वामी आयंगर के हाथों में दिए जाने के विरोध में थे। वे उन्हें इस काम के लिए बिल्कुल भी सक्षम नहीं मानते थे। इसके बजाय पटेल ने ‘सी.पी.’ रामास्वामी अय्यर का नाम सुझाया, जो त्रावणकोर के दीवान रह चुके थे। सी.पी., उन्हें इसी नाम से पुकारा जाता था, एक बेहद सक्षम बुद्धिजीवी, राजनेता एवं राजनयिक थे और ब्रिटेन तथा अमेरिका में उनके कई संपर्क मौजूद थे। उन्होंने भारत के मामले को अधिक प्रभावी तरीके से प्रस्तुत किया होता। लेकिन नेहरू ने पटेल की सलाह को नजरअंदाज किया और गोपालस्वामी आयंगर के साथ डटे रहे। यहाँ पर संयुक्त राष्ट्र में जो कुछ घटित हुआ, उसका आँखों देखा हाल प्रस्तुत है, जैसा सी.पी. की पोती शकुंतला जगन्नाथ द्वारा बताया गया है—
“जब कश्मीर का मामला संयुक्त राष्ट्र के समक्ष आया था, तब मैं न्यूयॉर्क में एक छात्रा के रूप में रह रही थी। मैं कई भारतीय और अमेरिकी मित्रों के साथ संयुक्त राष्ट्र के सत्र में भारत के रुख पर भरोसे की उम्मीद के साथ शामिल हुई। सबसे पहले सर जफरुल्ला खाँ ने पाकिस्तान का पक्ष बेहद जोशीले और शानदार भाषण के साथ सामने रखा, जो हमारे विश्वास को हिलाने के लिए काफी था। हम भारतीयों ने उनके बैठ जाने के बाद ही राहत की साँस ली। इसके बाद भारतीय प्रतिनिधिमंडल को अपना पक्ष रखने के लिए कहा गया। संबंधित प्रतिनिधि ने अपना हाथ ऊपर उठाया, खड़े हुए और बोले, ‘मैं विरोध करता हूँ!’ ...हमें उम्मीद थी कि हमारा पक्ष, जो इतना अधिक मजबूत था, पूरे संयुक्त राष्ट्र को हिलाकर रख देगा! इसके बजाय उस दिन की हमारी प्रस्तुति एक बड़ी शिकस्त साबित हुई, वह भी बिल्कुल हमारी नजरों के सामने।” (एस.जे./45-46)
इसके अलावा, शेख अब्दुल्ला को भारतीय प्रतिनिधिमंडल में शामिल करना भी नेहरू की एक और गलत पसंद थी। हाॅवर्ड शेफर्ड ने लिखा—“भारतीयों ने अब्दुल्ला को संयुक्त राष्ट्र के अपने प्रतिनिधिमंडल का सदस्य बनाया था, बेशक इस उम्मीद के साथ कि वे भारतीय पक्ष के लिए एक प्रभावी प्रवक्ता साबित होंगे। वह इस बात का अनुमान भी लगा सके कि वे अॉस्टिन के साथ एक निजी वार्त्तालाप में कश्मीर की स्वतंत्रता की बात उठाकर भारत की स्थिति को कमजोर बना देंगे। जाहिर तौर पर, अचानक हुए इस बदलाव के चलते राजदूत ने अब्दुल्ला को जरा भी प्रोत्साहित नहीं किया।”(एस.सी.एच.) संयोग से, वॉरेन आर. अॉस्टिन अमेरिका के स्थायी प्रतिनिधि थे—संयुक्त राष्ट्र में उनके प्रतिनिधि। नेहरू की शुरुआती गलती एक आंतरिक और घरेलू मसले को संयुक्त राष्ट्र में ले जाने और उसे अंतरराष्ट्रीय बनाने की थी। हालाँकि, उस गलती को कर देने के बाद नेहरू से उम्मीद की जाती थी कि वे अच्छा प्रभाव डालने का प्रयास करेंगे और भारत के लिए मामले को जीतेंगे। भारत के दुर्भाग्य को बढ़ाते हुए नेहरू ने पाकिस्तान को एक और अग्रिम भूल से नवाजा—भारत के पक्ष को रखने के लिए एक अक्षम व्यक्ति को नियुक्त करना और संयुक्त राष्ट्र में भारतीय प्रतिनिधिमंडल के सदस्य के रूप में शेख अब्दुल्ला जैसे विश्वासघाती को भेजना!