Nehru Files - 23 in Hindi Anything by Rachel Abraham books and stories PDF | नेहरू फाइल्स - भूल-23

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नेहरू फाइल्स - भूल-23

भूल-23 
नेहरू के चलते पी.ओ.के. 

भौगोलिक दृष्टि से जम्मू व कश्मीर सबसे बड़ी रियासत थी, जिसकी आबादी 40 लाख के करीब थी। इसकी अवस्थिति सामरिक थी। इसकी उत्तरी सीमाएँ अफगानिस्तान, संयुक्त सोवियत रूस और चीन से लगती थीं, जिसमें उसके पश्चिम में पाकिस्तान और दक्षिण में भारत स्थित थे। नियंत्रण के हिसाब से उसके तीन भाग थे, जबकि वैसे सात भाग। 

(क) भारतीय नियंत्रण वाला क्षेत्र 
(1) दक्षिण में जम्मू, जो मुख्यतः हिंदू बहुल है। 
(2) पूर्व में लद्दाख, जो बौद्ध है। 
(3) कश्मीर घाटी : बीच में स्थित एक अंडाकार घाटी—उत्तर व पश्चिम में पी.ओ.के., दक्षिण में जम्मू और पूर्व में लद्दाख के बीच स्थित, जिसे अकसर सिर्फ कश्मीर के रूप में जाना जाता है, जो मुसलमान बहुल है। 

(ख) चीन के नियंत्रण वाला क्षेत्र
 (4) उत्तर-पूर्व में अक्साई चिन, चीन के नियंत्रण में। 
(5) उत्तर में शक्सगाम घाटी, पाकिस्तान द्वारा अवैध तरीके से चीन को दी गई। 

(ग) पाकिस्तान के नियंत्रण वाला क्षेत्र 
(6) उत्तर में गिलगित-बाल्टिस्तान। 
(7) उत्तर-पश्चिम में पुंछ, मीरपुर और मुजफ्फराबाद डिवीजन, जिसे पी.ओ.के. या पाकिस्तान के कब्जेवाले कश्मीर के रूप में जाना जाता है। 

आसपास की पहाड़ियों की आंतरिक ढलान सहित कश्मीर घाटी की लंबाई उत्तर-पश्चिम से दक्षिण-पूर्व तक लगभग 120 मील है, जिसमें सबसे बड़ी चौड़ाई 75 मील और कुल क्षेत्रफल लगभग 6,000 वर्गमील है। बेसिन लगभग 84 मील लंबा और 20 से 24 मील चौड़ा है। समुद्र तल से इसकी ऊँचाई 6,000 फीट है। 

घाटी के उत्तर में हिमालय की प्रमुख श्रेणियाँ हैं। इसके पूर्व में लद्दाख है, जिसे हिमालय अलग करते हैं। पीर पंजाल की पहाड़ियाँ घाटी को पश्चिम व दक्षिण से घेरती हैं और इसे उत्तरी भारत के शानदार मैदानों से अलग करती हैं।

 इसकी राजधानी श्रीनगर कश्मीर घाटी के हृदय में 1,730 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है, यानी कि समुद्र-तल से 5,674 फीट ऊपर है और इसके दोनों ओर झेलम नदी बहती है। इसकी दो झीलें (डल और नागिन) इसकी सुरम्यता में चार चाँद लगाती हैं। सिंधु, झेलम, तवी, रावी और चिनाब राज्य से होकर बहनेवाली पाँच प्रमुख नदियाँ हैं। 

भारत के नियंत्रण वाले जम्मूव कश्मीर की 67 प्रतिशत आबादी मुसलमान है; हालाँकि कश्मीर घाटी के लिए यह आँकड़ा 97 प्रतिशत है। 

लद्दाख, जम्मू और कश्मीर घाटी प्रभागों का क्षेत्र कुल 1,01,000 वर्गकि.मी. में से क्रमशः 59,000, 26,000 और 16,000 वर्ग कि.मी. है, जो भारत के नियंत्रण के तहत आनेवाले जम्मूव कश्मीर के कुल क्षेत्र का क्रमशः 58 प्रतिशत, 26 प्रतिशत और 16 प्रतिशत होता है। 

हालाँकि, जम्मू व कश्मीर का कुल क्षेत्रफल 2,22,000 वर्ग कि.मी. है। इस हिसाब से 1,21,000 वर्ग कि.मी. क्षेत्र, जो कुल 54 प्रतिशत होता है, जो कि आधे से भी अधिक होता है, पर पाकिस्तान और चीन ने अवैध कब्जा कर रखा है—पाकिस्तान द्वारा जम्मूव कश्मीर के कुल क्षेत्र का 35 प्रतिशत यानी 78,000 वर्गकि.मी.; चीन द्वारा कुल 17 प्रतिशत यानी 38,000 वर्गकि.मी.; और 5,000 वर्ग कि.मी., यानी कुल क्षेत्र का 2 प्रतिशत पाकिस्तान द्वारा चीन को अवैध रूप से सौंप दिया गया था। 

पी.ओ.के. कैसे अस्तित्व में आया 
ऐसा सिर्फ नेहरू के एक निर्णय के चलते ही संभव हुआ कि जब भारतीय सेना पूरे जम्मू व कश्मीर को खाली करवाने के कगार पर पहुँच चुकी थी, तब पाकिस्तान के कब्जेवाला कश्मीर या फिर पाक-अधिकृत कश्मीर (पी.ओ.के.) अस्तित्व में आया। आइए, भारतीय सेना की बहादुरी और अदम्य साहस को प्रदर्शित करनेवाले कई उदाहरणों में से दो पर नजर डालते हैं— 
लद्दाख पर कब्जा करने के पाकिस्तानी हमलावरों के दृढ़ प्रयास को भारत की सैनिकों को हवाई मार्ग से लेह भेजने की बेहतर रणनीति ने असफल कर दिया था। एयर कमोडोर मेहर चंद ने अपने विमान को आश्चर्यजनक तरीके से समुद्र-तल से 23,666 फीट की ऊँचाई पर उड़ाया (वह भी बिना अ‍ॉक्सीजन के) और उन्हें सैनिकों से लैस अपने विमान को लेह में करीब 12,000 फीट की ऊँचाई पर एक बिल्कुल अनजाने तल पर उतारा था! 

एक और साहसिक उपलब्धि मेजर जनरल थिमय्या की थी। वह अपने टैंकों को लगभग 12,000 फीट की ऊँचाई पर बर्फ से ढँके जोजिला दर्रे तक ले गए—ऐसा कुछ, जो इतिहास में बिल्कुल अनोखा था, क्योंकि उससे पहले कोई भी टैंकों को इतनी अधिक ऊँचाई तक और ऐसी खतरनाक परिस्थितियों में लेकर नहीं जा पाया था—और दुश्मन के सभी बंकरों को नेस्तनाबूद करते हुए दुश्मन को उखाड़ फेंका। 

वैसे, यह वही बहादुर और सक्षम थिमय्या थे, जिन्हें कृष्ण मेनन ने तब तिरस्कृत किया था, जब वे नेहरू के मंत्रिमंडल में रक्षा मंत्री थे और थिमय्या को इस्तीफा देने पर मजबूर कर दिया था। हालाँकि बाद में थिमय्या ने नेहरू की पहल पर अपना इस्तीफा वापस ले लिया था, यहाँ तक कि नेहरू ने उनके साथ जैसा व्यवहार किया था, वह उनके लिए दोहरे अपमान जैसा था। (भूल#125) 

भारतीय सेना के प्रयासों के चलते हमलावरों को पीछे हटने को मजबूर होना पड़ा और वे अपनी जान बचाकर भाग रहे थे। पाकिस्तान द्वारा अक्तूबर 1947 में शुरू किया गया यह युद्ध 15 महीनों तक चला और 1 जनवरी, 1949 को समाप्त हुआ। 

नेहरू ने कैसे पी.ओ.के. के निर्माण को होने दिया 
मुजफ्फराबाद—अब पी.ओ.के. की राजधानी—पर कब्जा होना बिल्कुल निश्चित था। इसके बावजूद सेना को 1 जनवरी, 1949 से तमाम आक्रामक अभियानों को रोक देने का आदेश दे दिया गया था, भले ही दुश्मन ने लड़ना बंद नहीं किया था। भारतीय सेना इस निर्णय से बेहद निराश थी; लेकिन आदेश तो आदेश थे। नेहरू द्वारा तत्काल प्रभाव से युद्ध-विराम के आदेश दे दिए जाने के परिणामस्वरूप पी.ओ.के. (पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर) अस्तित्व में आया, अन्यथा पूरा कश्मीर भारत के पास ही होता। और अब, पाकिस्तान जम्मूव कश्मीर में आतंकवादी भेजने के लिए इसी पी.ओ.के. का इस्तेमाल करता है। गौरतलब है कि ‘लोकतांत्रिक’ नेहरू ने इतना बड़ा और महत्त्वपूर्ण निर्णय लेने से पहले सरदार पटेल को भरोसे में लेने या फिर मंत्रिमंडल की मंजूरी लेने की भी परवाह नहीं की। 

शेक्सपीयर ने बिल्कुल ठीक ही कहा हैं— 
There is a tide in the affairs of men, Which, taken at the flood, leads on to fortune; Omitted, all the voyage of their life Is bound in shallows and in miseries; And we must take the current when it serves, Or lose our ventures. 

एक रिपोर्ट के अनुसार—युद्ध-विराम के फैसले को माउंटबेटन द्वारा दूर से ही नियंत्रित किया गया था, जो उस समय तक इंग्लैंड वापस जा चुका था—माउंटबेटन का नेहरू पर तब भी इतना अधिक प्रभाव था। जनरल एस.पी.पी. थोराट ने टिप्पणी की— 
“अगर प्रधानमंत्री ने हमारी सेनाओं को रोका नहीं होता और बाद में युद्ध-विराम के आदेश नहीं दिए होते तो वे हमलावरों को खदेड़ने में सफल हो गए होते। जाहिर तौर पर, पूर्व गवर्नर जनरल द्वारा उन पर बहुत अधिक दबाव डाला गया होगा।... पंडितजी लॉर्ड माउंटबेटन के घनिष्ठ व्यक्तिगत और पारिवारिक मित्र थे।” (बी.के.2/160) 

जम्मू व कश्मीर को हमलावरों और पाकिस्तानी सैनिकों से खाली करवाने के अभियानों में सी-इन-सी के जनरल स्तर के अधिकारी, पश्चिमी कमांड, के.एम. करियप्पा और अ‍ॉपरेशनल कमांडर मेजर जनरल थिमय्या प्रत्यक्ष रूप से शामिल थे। सेवानिवृत्त सेना प्रमुख जनरल वी.के. सिंह ने ‘लीडरशिप इन दि इंडियन आर्मी’ में लिखा— 
“करियप्पा ने कश्मीर के अभियानों के दौरान ही अपने कुछ सबसे बेहतरीन पलों का अनुभव किया। नौशेरा और झाँगर पर सफलतापूर्वक कब्जा करनेवाला अ‍ॉपरेशन ‘किपर’ भी उनके द्वारा ही योजनाबद्ध किया गया था। इसके बाद पुंछ को जोड़ने के लिए अ‍ॉपरेशन ‘ईजी’ और जोजिला, द्रास एवं कारगिल पर कब्जे के लिए अ‍ॉपरेशन ‘बाइसन’ किए गए थे। अगर उन्हें अतिरिक्त सैनिक और आवश्यक अनुमति मिल गई होती तो वे पाकिस्तानियों को कश्मीर से बाहर धकेलने में सफल हो जाते, जिसके लिए योजनाएँ पहले से ही तैयार की जा चुकी थीं। दुर्भाग्य से, भारत की अपील के बाद संयुक्त राष्ट्र द्वारा किए गए हस्तक्षेप के चलते ऐसा हो नहीं पाया। विशेषतया नेहरू ने बिना सशस्त्र बलों (या फिर मंत्रिमंडल या सरदार पटेल) से परामर्श किए संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् में अपील करने का फैसला लिया। 

“उनकी अपनी सरकार द्वारा उन पर थोपे गए बंधनों और सैनिकों के संदर्भ में समर्थन की कमी को देखते हुए करियप्पा, जो हासिल करने में कामयाब रहे, वह वास्तव में सराहनीय है। राजनीतिक दृष्टि से, सेना पर एक रक्षात्मक नीति भी लागू की गई थी। लेकिन उन्होंने इसे एक रक्षात्मक मानसिकता के रूप में नहीं बदलने दिया और यह उनकी एक बहुत बड़ी उपलब्धि थी। इस नीति के परिणामस्वरूप भारत उरी और टिथवाल सेक्टरों में कई महत्त्वपूर्णलक्ष्यों से हाथ धो बैठा। चूँकि जोजिला, द्रास और कारगिल पर कब्जा किए बगैर लद्दाख का मार्ग नहीं खोला जा सकता था, इसलिए करियप्पा ने आगे बढ़कर ऐसा करने का फैसला किया। उन्होंने आदेशों की अवहेलना करके (जिनमें सभी आक्रामक अभियानों को रद्द कर दिया गया था) एक गंभीर जोखिम उठाया था। लेकिन अगर उन्होंने ऐसा नहीं किया होता तो लद्दाख आज भारत का हिस्सा न होता। ऐसा होने के साथ इन महत्त्वपूर्ण लक्ष्यों को शानदार प्रयासों से दोबारा हासिल कर लिया गया, जिनमें टैंकों का प्रयोग भी शामिल था, जिन्हें पहली बार इतनी अधिक ऊँचाई पर तैनात किया गया था। करियप्पा ने जो जोखिम उठाए, उसके लिए पूरा देश उनके प्रति हमेशा कृतज्ञ रहेगा। अगर वे असफल हो जाते तो उनका कॅरियर निश्चित रूप से खत्म हो गया होता।” (वी.के.एस./35) 

स्वर्गीय फील्ड मार्शल के.एम. करियप्पा की जीवनी के अनुसार, उन दोनों ने दिसंबर 1948 में नेहरू से जम्मूव कश्मीर से पाकिस्तानी हमलावरों को पूरी तरह से खदेड़ने के लिए कुछ और समय देने का अनुरोध किया था; लेकिन नेहरू ने उनकी बात पर ध्यान ही नहीं दिया। थिमय्या ने नेहरू से कहा था कि सेना को खोए हुए क्षेत्र को दोबारा हासिल करने के लिए दो और सप्ताह का समय चाहिए; लेकिन नेहरू अपनी जिद पर अड़े थे। ऐसा कहा जाता है कि थिमय्या को नेहरू का रवैया ऐसा लगा, जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता और वे पी.एम. के तीन मूर्ति भवन स्थित आधिकारिक निवास से घृणा से भरे बाहर आ गए। जब करियप्पा ने कुछ साल बाद नेहरू से उस फैसले के बारे में पूछा तो नेहरू ने माना कि युद्ध-विराम के आदेश को विलंबित किया जाना चाहिए था। 

ब्रिटेन ने ऐसे दो क्षेत्रों को चिह्न‍ांकित कर रखा था, जिनका पाकिस्तान में जाना बेहद आवश्यक था, वह भी जम्मू व कश्मीर के भारत में विलय के बावजूद—(क) एक तो था : चीन, रूस और अफगानिस्तान की सीमाओं से लगा उत्तरी क्षेत्र, जिसमें गिलगित, हुंजा, नगर, स्वात और चित्राल शामिल थे। यह क्षेत्र ब्रिटेन और पश्चिम के लिए सामरिक रूप से इतने अधिक महत्त्वपूर्ण थे, जितना पाकिस्तान में एन.डब्ल्यू.एफ.पी. था। माउंटबेटन ने यह सुनिश्चित किया कि एन.डब्ल्यू.एफ.पी. पाकिस्तान की ओर चला गया, जबकि उसके नेता खान अब्दुल गफ्फार खान भारत के विभाजन के खिलाफ थे। (ख) दूसरा क्षेत्र था : पाकिस्तान को भारत से सुरक्षित करनेवाली पाकिस्तानी पंजाब से सटी पश्चिमी पट्टी, जिसमें मुजफ्फराबाद, मीरपुर, भीमबेर, कोटली और आसपास के क्षेत्र शामिल थे। मुजफ्फराबाद अब पी.ओ.के. की राजधानी है। अंग्रेजों ने जो योजना बनाई थी, वे उसे पूरा करने में कामयाब रहे, जैसा नेहरू ने काम किया, उसके चलते या फिर उनके कदम न उठाने के चलते। अंग्रेज आजादी के बाद भी नेहरू को व भारत को बेवकूफ बनाने में कैसे कामयाब रहे, यह भारतीय नेतृत्व पर बहुत बुरी तरह प्रतिबिंबित करता है। 

जम्मू व कश्मीर के 26 अक्तूबर, 1947 को भारत के साथ विलय करने के बाद गिलगित स्काउट्स के मेजर विलियम ब्राउन, जो जम्मूव कश्मीर के महाराजा के एक ब्रिटिश संविदा अधिकारी थे, ने पूर्व निर्धारित योजना के अनुसार 31 अक्तूबर, 1947 को गवर्नर घनसारा सिंह को जेल में डाल दिया था और 2 नवंबर, 1947 को वहाँ पर पाकिस्तानी झंडा फहरा दिया था तथा पाकिस्तान में विलय की घोषणा कर दी थी! यह अंग्रेजों की ओर से उठाया गया एक पूर्णतः अवैध कदम था, जिसका मकसद भारत को जान-बूझकर मध्य एशिया तक पहुँच बनाने से रोकना था। माउंटबेटन को निश्चित रूप से तमाम प्रकरणों की जानकारी रही होगी; लेकिन उन्होंने कुछ नहीं किया, बल्कि इस अवैध काररवाई को चुपचाप होने दिया। मेजा खुर्शीद अनवर पाकिस्तानी सेना के उन अधिकारियों में से एक थे, जिन्होंने जम्मूव कश्मीर में पठान कबाइलियों के हमले की रचना करते हुए उसका नेतृत्व किया। उनके नायब मेजर असलम खान ने ब्राउन से गिलगित का प्रभार सँभाला। ब्राउन को सन् 1948 में ‘मोस्ट एक्साल्टेड अ‍ॉर्डर अ‍ॉफ द ब्रिटिश एंपायर’ से नवाजा गया। 

मेजर ब्राउन ने धमकी दी थी कि अगर गिलगित के गवर्नर ब्रिगेडियर घनसारा सिंह ने आत्मसमर्पण नहीं किया तो गिलगित और बुंजी के सभी गैर-मुसलमानों को मार दिया जाएगा। आत्मसमर्पण और गिरफ्तारी के बाद दोषी मुसलमान अधिकारियों ने इस बात पर जोर दिया कि या तो प्रत्येक गैर-मुसलमान का धर्म-परिवर्तन कर दिया जाए या फिर उसे गोली मार दी जाए। (डी.के.पी.2/228) 

नेहरू के मंत्रिमंडल के तत्कालीन निर्माण एवं खनन मंत्री एन.वी. गाडगिल ने अपनी आत्मकथा ‘गवर्नमेंट फ्रॉम इनसाइड’ में लिखा— 
“सच्‍चाई तो यह है कि नेहरू ने उस समय कश्मीर के विलय को लेकर उतना उत्साह नहीं दिखाया। महाराजा और (मेहरचंद) महाजन (कश्मीर के प्रधानमंत्री) ने कश्मीर के विलय की स्वीकृति के लिए दबाव डाला, लेकिन नेहरू टस से मस नहीं हुए। (तब नेहरू शेख अब्दुल्ला के निर्देशन में चल रहे थे)...अगर हमारी सेना को उस नियत तारीख (1 जनवरी, 1949) को पहले लड़ाई रोकने के निर्देश नहीं मिले होते तो उसने पूरे कश्मीर से ही हमलावरों को खदेड़कर बाहर कर दिया होता। 

“हमारी सेना पर थोपे गए बंधन इस उम्मीद से प्रेरित थे कि पाकिस्तान कश्मीर के कुछ हिस्सेपर कब्जा करके संतुष्ट हो जाएगा। निश्चित रूप से, हम में से कुछ ने उनकी इस सोच का विरोध किया। शेख अब्दुल्ला एक ऐसे सामान्य व्यक्ति थे, जिन्हें भारत सरकार (नेहरू) द्वारा असाधारण दर्जा प्रदान कर दिया गया था।

 “प्रत्येक मौके पर समझौता करने की इच्छा रखने के चलते नेहरू इस समस्या को लंबे समय तक बनाए रखने के लिए पूरी तरह से जिम्मेदार हैं। अगर कश्मीर का मामला वल्लभभाई (पटेल) के हाथों में होता तो उन्होंने इसे काफी पहले ही सुलझा दिया होता। कम-से-कम वे जम्मूव कश्मीर के आंशिक नियंत्रण के लिए कभी तैयार नहीं होते। उन्होंने पूरे राज्य पर कब्जा कर लिया होता और इसे कभी भी अंतरराष्ट्रीय महत्त्व का मामला बनने देने की नौबत ही नहीं आने दी होती।” (मैक/445-6) (डी.एफ.आई.) (एच.जे.एस.)

 नेहरू के तत्कालीन निजी सचिव एम.ओ. मथाई ने लिखा—“नेहरू ने कश्मीर में संघर्ष- विराम का आदेश उस समय दिया, जब हमारी सेनाएँ बेहद मजबूत स्थिति में थीं और दुश्मन को पीछे खदेड़ने के लिए पूरी तरह से तैयार थीं। नेहरू का निर्णय, जो क्षणिक आवेश की स्थिति में लिया गया था, एक ऐसी गंभीर गलती थी, जिसको लेकर सुरक्षा बलों में काफी नाराजगी थी। नेहरू के पास एक नकल करनेवाला और दूसरों की बातों में आनेवाला मस्तिष्क था। दरअसल, गांधी के पास मूल मस्तिष्क था, जबकि नेहरू का दूसरे दर्जे का था। वे पूरी तरह से दिल पर आधारित थे, न कि दिमाग पर। ऐसा उनकी पुस्तकों से भी स्पष्ट होता है।”  (मैक/170) 

बी.एम. कौल ने ‘कन्फ्रंटेशन विद पाकिस्तान’ में लिखा—“उस समय उरी, टिथवाल और कारगिल में हमारी सफलताओं को देखते हुए संघर्ष-विराम को स्वीकार करना हमारी राजनीतिक नासमझी थी।” 

ओ.आर.एफ. (ऑब्जर्वर रिसर्चफाउंडेशन) में संदीप बामजई के लेख ‘नेहरू’ज पेसिफिज्म ऐंड द फेल्ड रिकैप्चर अ‍ॉफ कश्मीर’ के अनुसार— 
“कश्मीर के तमाम घटनाक्रमों के बारे में खुद को सूचित रखने के लिए नेहरू ने अपने निजी सचिव व ‘आँख और कान’ कहे जानेवाले कचरू को अग्रिम मोरचे तक तैनात कर दिया था।

 “कचरू के कुछ पत्राचार बेहद हानिकारक हैं, जो यह तक बताते हैं कि कैसे भारतीय सेना ने पहले तो हमलावरों को पीछे खदेड़ा और फिर पाकिस्तानी सेना के जवानों को बुरी तरह से हरा दिया, यहाँ तक कि उन्हें पीठ दिखाकर भागने को मजबूर तक कर दिया। इससे पूर्व के अप्रकाशित पत्राचारों (नेहरू-कचरू) से खुलासा होता है कि नेहरू का शांतिवाद-निष्पक्ष व्यवहार के सिद्धांत द्वारा निर्देशित (?!) और यह सच्‍चाई कि भारत ने माउंटबेटन की पहल पर कश्मीर के मसले को गलत तरीके से संयुक्त राष्ट्र के हवाले कर दिया था, का सीधा सा मतलब था कि भारतीय सेना को पूरी तरह से आगे बढ़ने से और उस पर दावा करने से, जो बाद में पी.ओ.के. और उत्तरी क्षेत्र बन गए, रोक दिया गया था।...” (यू.आर.एल.51) 

“नेहरू द्वारा कश्मीर के मसले को सँभालने को लेकर की जानेवाली आलोचनाओं में से एक यह भी है कि उन्होंने भारतीय सैनिकों को आगे बढ़ने से रोक दिया, जिसके परिणामस्वरूप उस समय संघर्ष-विराम की घोषणा की गई, जब भारत बेहद मजबूत स्थिति में था और आक्रमणकारी कबाइलियों एवं पाकिस्तानी हमलावरों को पूरी कश्मीर घाटी से खदेड़ सकता था। धर्मवीर, जो मंत्रिमंडल के संयुक्त सचिव थे, ने कहा है कि यह निर्णय माउंटबेटन के इशारे पर लिया गया था, जो प्रत्यक्ष रूप से यह नहीं चाहते थे कि दो कॉमनवेल्थ देश एक-दूसरे के साथ युद्धरत हों। वल्लभभाई पटेल ने इस कदम का विरोध किया और उनकी राय थी कि सेना को आक्रमणकारियों को घाटी से बाहर निकालने के लिए पूर्ण स्वतंत्रता दी जानी चाहिए। नेहरू ने माउंटबेटन का कहना माना। इसने घाटी के एक हिस्से, जिसे पाकिस्तान ने ‘आजाद कश्मीर’ का नाम दिया, को स्थायी रूप से पाकिस्तान के कब्जे में जाने दिया। इससे भी अधिक चौंकानेवाली बात यह है कि समय के साथ रणनीतिक रूप से बेहद महत्त्वपूर्ण इस स्थान को पाकिस्तान ने चीन को सौंप दिया है।” (एम.जी.2/34/एल-685)

 “पूरे कश्मीर युद्ध के दौरान 22 अक्तूबर, 1947 से 1 जनवरी, 1949 तक (जब युद्ध-विराम की घोषणा की गई, जिसने गिलगित को पाकिस्तान के पास रहने दिया) ब्रिटेन ने सफलतापूर्वक यह सुनिश्चित किया कि इस क्षेत्र पर पाकिस्तान का कब्जा बरकरार रहे। माउंटबेटन नेहरू को इस बात के लिए मनाने में सफल रहा कि सैन्य काररवाई की तैयारी के साथ-साथ उन्हें संयुक्त राष्ट्र संघ की मदद भी लेनी चाहिए। उन्होंने तर्क दिया, ‘संयुक्त राष्ट्र पाकिस्तान को हमलावरों को वापस लेने का निर्देश देगा, जो युद्ध को अनावश्यक बना देगा।’ और नेहरू ने उनकी बात पर भरोसा कर लिया।” (एम.जी.2/40/एल-795)

 “भारत कश्मीर में अपनी वैध स्थिति के प्रति अमेरिकी समर्थन का लाभ उठाने में विफल रहा; इसके बजाय उसने (भारत ने) ऐसी बयानबाजी की, जिसने अमेरिका के भारत के प्रति अनुकूल रुख को कम करके आँका।” (एम.जी. 2/41 एल-811)