Shri Bappa Raval Shrankhla - Khand 2 - 12 in Hindi Biography by The Bappa Rawal books and stories PDF | श्री बप्पा रावल श्रृंखला खण्ड-दो - द्वादशम अध्याय

Featured Books
Categories
Share

श्री बप्पा रावल श्रृंखला खण्ड-दो - द्वादशम अध्याय

द्वादशम अध्याय 
अंतिम पड़ाव 

सोलह वर्ष उपरांत (बगदाद का युद्ध क्षेत्र) 
हिन्दसेना और अरबों के बीच होते युद्ध के मध्य अकस्मात ही रेत की एक तेज आंधी ने व्यवधान डाल दिए। उठते चक्रवात को देख रावल ने तत्काल ही नीला ध्वज उठाया और शंख बजाते हुए अपनी समस्त सेना के बीच दौड़ लगा दी। मैदान में युद्ध कर रहे पचास सहस्त्र हिन्दवीरों को ये संकेत समझने में विलम्ब नहीं हुआ। वो तत्काल ही युद्ध छोड़कर पीछे की ओर भागे। 

दूसरी ओर से अरबी सेना का नेतृत्व करते हुए अल जुनैद ने भी बिगुल बजाकर अरबों को पीछे हटने का आदेश दिया। आंधी से प्रभावित होकर दोनों सेनायें पीछे हट चुकी थीं। 

अरबों का लश्कर आंधी तूफ़ान से बचता हुआ बगदाद के महल की ओर बढ़ रहा था। धीरे धीरे तूफ़ान इतना बढ़ा कि आगे कुछ ना दिखने के कारण घोड़े बिदकने लगे। विवश होकर अल जुनैद और अरबी फ़ौज को अपने घोड़ों से उतरना पड़ा और वो अपने अनुभव अनुसार उनकी लगाम खींचकर महल के मार्ग की ओर बढ़ने लगे। 

  महल के निकट पहुँचते पहुँचते वो चक्रवात ढीला पड़ गया। किन्तु अभी अल जुनैद बगदाद के मुख्य द्वार तक पहुँचा ही था, कि द्वार से निकले चार अरबी योद्धाओं ने उसे घेर लिया। इससे पूर्व जुनैद कुछ समझ पाता उन्होंने उसके हाथों में बेड़ियाँ पहना दीं। 

यह देख अचंभित हुआ जुनैद क्रोध में फुंफकार उठा, “तुम्हारी ये जुर्रत ? भूल गए मैं अरबी फ़ौज का सिपहसालार हूँ।” 

उनमें से एक सर झुकाकर बोला, “खलीफा ने आपको उनके सामने पेश करने का हुक्म दिया है। उनके हुक्म की नाफरमानी नहीं की जा सकती, हुजूर।”

 ****** 

इधर आंधी के थमते थमते हिन्दसेना के वीर भी अपने शिविर की ओर पहुँचे। घायल हुए योद्धाओं को एक ओर ले जाकर उनका उपचार आरम्भ किया गया। वहीं तलवार को लाठी की तरह प्रयोग कर रावल लंगड़ाते हुए चलकर शिविर के निकट बाहर पड़े पत्थर पर बैठ गया। ये देख दौड़ता हुआ देवा उसके निकट आया, “क्या हुआ, महारावल ? किसने घायल किया आपको ?” 

मुस्कुराते हुए रावल ने देवा की ओर देखा, “तुम्हें लगता है कि शत्रु के शस्त्रों में इतनी शक्ति है जो मुझे स्पर्श भी कर सके ?” 

“तो फिर ये...।” 

रावल ने अपनी जांघ पर हाथ फेरा दंभ भरकर बोला, “ये तो बस सोलह वर्षों की थकान है और कुछ नहीं।” श्वास भरते हुए उसने देवा से प्रश्न किया, “बाकी राजाओं की ओर से क्या सूचना है ?” 

“महाराज नागभट्ट बगदाद के किले का उत्तरी भाग घेर चुके हैं। महाराज ललितादित्य ने दक्षिणी भाग घेर लिया है, पश्चिमी द्वार पर सिंधुराज शिवादित्य पड़ाव डाल चुके हैं। शीघ्र ही बग़दाद का खलीफा आपके चरणों में पड़ा होगा, महारावल।” 

अपने गले पर हाथ फेर भौहें सिकोड़े रावल ने अपना गला ठीक किया, “कदाचित हमें ही कुछ अधिक विलम्ब हो गया, देवा।” जल का पात्र उठाये कालभोज ने अपना मुख धोया और फिर गटागट पी गया। 

उसके कंधे पर हाथ रख देवा ने गंभीर मुद्रा में उसके नेत्रों की ओर देखा, “आप ठीक तो हैं, महारावल ?” 

“पाँव में छोटी सी मोच है बस।” कालभोज ने अपने कंधे सीधे किये और देवा को मुस्कुराते हुए देखा, “तुम्हें लगता है मुझ पर आयु का असर दिखने लगा है ?” 

देवा ने उसे क्षणभर ध्यान से देखा, “आप चोटिल तो हैं, महारावल। और हमारी विजय तो सुनिश्चित हो चुकी है, फिर आपको कष्ट उठाने की आवश्यकता है ?” 

“महाराज नागभट्ट को देखा ?” रावल हिचकियाँ लेते हुए बोला, “उनकी आयु हमसे आठ वर्ष अधिक है। और उनका साहस आज भी किसी पर्वत के समान अचल है। मेरे काका शिवादित्य को देखो, बयासी वर्ष की आयु हो गयी उनकी और आज भी जब रण में उतरते हैं तो शत्रुओं को किसी मदांध हाथी की भांति कुचल डालते हैं। और तुम्हें लगता है मैं इस छोटी सी मोच से दुर्बल पड़ गया हूँ ?” 

देवा घुटनों के बल झुका और रावल के नेत्रों में देखा, “इनमें से किसी के कंधों पर हिन्दसेना के उत्तरदायित्व का भार नहीं था, महारावल। खोरासान से यहाँ तक हर सौ कोस पर पन्द्रह पन्द्रह सहस्त्र योद्धाओं की योग्यता परख उनके प्रयोग से सैन्य चौकियां बनाना। परास्त या झुके हुए अस्सी मुस्लिम, फ़ारसी, जैन, बौद्ध राजाओं और सुल्तानों की कन्याओं से विवाह करके अपने प्रति उनकी निष्ठा सुनिश्चित करना, ये सारा मानसिक और शारीरिक बोझ आप पर था, महारावल। वो भार जो आप पिछले सोलह वर्षों से उठा रहे हैं। तो थकावट का होना कोई लज्जा की बात नहीं।”

 देवा के वचन सुन कालभोज कुछ क्षण उसके नेत्रों में देखता रहा, “तुमने भी अपने परिवार छोड़ मेरे साथ बड़ी लम्बी यात्रा कर ली, देवा। नागदा की याद नहीं आती ?” 

“आती है ! बहुत आती है। मुझे ही नहीं हमारे दल के सारे योद्धाओं को आती होगी।” 

“सिपाहियों, सामंतों और अन्य वीरों को तो हम हर तीन वर्ष पर बदलते आये हैं। हर तीन वर्ष उपरान्त हिन्दसेना का एक नया दल हमारे साथ जुड़ जाता था। महाराज ललितादित्य, सिंधुराज शिवादित्य और महाराज नागभट्ट के अतिरिक्त केवल तुम ही हो जो सोलह वर्षों से मेरे साथ खड़े हो। तुम्हें तो मैंने कहीं का सिंहासन भी नहीं दिया फिर भी तुमने पूरा जीवन...।” 

“अब बस भी कीजिये, महारावल। आप पर यूं ही बहुत से मानसिक तनाव हैं, एक और मत लीजिये। भारी पड़ जायेगा।” 

देवा का हाथ थाम रावल ने भारी मन से कहा, “तुम जिस सम्मान के योग्य थे कदाचित मैं तुम्हें वो दे ही नहीं पाया, देवा। इसके लिए मुझे क्षमा करना।” 

देवा ने मुस्कुराते हुए उसके हाथ पर थाप मारी, “कदाचित आप गुरुदेव की अंतिम शिक्षा भूल गए हैं, महारावल। आप जिस भौतिक सुख की बात कर रहे हैं, क्या वास्तव में उससे जीवन में कोई भी सुख प्राप्त हो सकता है ?” 

तलवार के सहारे रावल भूमि से उठा और हाँफते हुए देवा की ओर देखा, “किन्तु वो अनुभूति तो किसी मनुष्य को तभी हो सकती है, जब या तो वो अपने जीवन के अंतिम पड़ाव पर हो या फिर उसने सबकुछ पा लिया हो।” 

“इस महायात्रा का भाग बनना मेरे लिए सबकुछ पा लेने जैसा ही था, महारावल। आपके साथ वर्षों तक कंधा मिलाने का जो सौभाग्य और सम्मान मिला है, वो संसार के हर भौतिक सुख के आगे तुच्छ है। और यही तो जीवन का सत्य है, हर किसी के लिए सुख की परिभाषा एक तो नहीं होती।” 

रावल ने क्षणभर उसे देखा फिर अकस्मात ही उसे ह्रदय से लगाकर बिना कुछ कहे उसकी पीठ थपथपाई। देवा झेंपते हुए बोला, “आपकी पकड़ में कुछ ज्यादा शक्ति है, महारावल। कदाचित आपकी थकावट का अनुमान गलत ही था।” 

“हाँ गलत ही था।” मुस्कुराते हुए रावल ने पीछे हट देवा के नेत्रों में देख दृढ़ता से कहा, “भूल गए ? अभी मुझे कमल को दिया वचन भी पूर्ण करना है ?” आकाश की ओर देखते हुए और लंगड़ाते हुए रावल ने कंधे उचकाये, “रेत का चक्रवात छंटने को आया है। पूर्वी द्वार की सेना पर प्रहार तो मैं ही करूँगा।”    

****** 

बगदाद शहर के बीचों बीच जनमानस का दरबार लगा हुआ था। सामने सिंहासन था और उसके निकट खड़े चार अरबी पहरेदार सशस्त्र तैनात थे। सिंहासन के ठीक सामने लगभग दस गज दूर अल जुनैद को बेड़ियों में जकड़कर खड़ा कर दिया गया, जो उसके कंधों से होकर हाथों को जकड़े हुए भूमि पर फैली हुयी थी। उन बेड़ियों पर कुछ कंटीले शूल भी लगे हुए थे जो जुनैद को लगातार पीड़ा दे रहे थे। 

शीघ्र ही श्वेत पगड़ी, शाही वस्त्र और जूतियाँ धारण किये एक युवक आकर सीधा उस सिंहासन पर बैठ गया। मुख से लगभग अट्ठाईस तीस की आयु का दिखता वो युवक क्रोध भरी दृष्टि से जुनैद को घूरे जा रहा था। 

जुनैद ने उसे सलाम करने को सर झुकाया, “खलीफा मारवान बिन अब्दुल मलिक का इस्तेकबाल बुलंद हो।” 

“खामोश रहो कमजर्फ।” मारवान चीख पड़ा, “किसकी इजाजत से तुमने हिन्द की फ़ौज से टक्कर लेने के लिए फ़ौज ले जाने की गुस्ताखी की ?” 

जुनैद ने कुछ क्षण मौन रहकर उसे देखा, फिर दांत पीसते हुए बोला, “तो क्या चाहते हैं आप ? हम अपनी ही सरजमीं पर दुश्मन के आगे हथियार डालकर खामोशी से उसकी गुलामी कबूल कर लें ?”

“हम उनसे सुलह की गुजारिश करते। कई सुल्तानों और राजाओं ने भी यही किया, तो अपनी फ़ौज और आवाम को नुकसान से बचाने के लिए हम ऐसा क्यों नहीं कर सकते ?” 

“उम्म्यद खिलाफत है ये।” जुनैद चीख पड़ा, “बरसों से ये फारस तक की जमीन पर अपनी हुकूमत का परचम लहराता आया है, और आज हम उन बाहर वालों के आगे घुटने टेक दें ? पाँच साल नहीं हुए आपको खलीफा बने और आप उस बप्पा रावल की गुलामी को कबूल कर हमारा वजूद ही खत्म करना चाहते हैं ?” 

मारवान अपने सिंहासन से उठ खड़ा हुआ और क्रोध में जुनैद के निकट आया, “आज ये नौबत भी तुम्हारी वजह से ही आई है, जुनैद। कासिम की मौत के बाद ही सिंध का कब्जा हमारे हाथ से निकल चुका था। उस शिकस्त को कबूल कर हम बाकी रियासतों पर सुकून से राज कर सकते थे। पर तुम्हें चैन नहीं मिला। तुमने सालों से इराक के हर खलीफा को अपने ईशारों पर नचाया, फिर से उन भारतीयों को जीतने के लिये न जाने कैसे कैसे हथकंडे अपनाये, फिर भी नाकाम रहे। अलमंसूर से यहाँ तक बस भागते ही आ रहे हो तुम। जिस जमीन को दुनिया जीतने वाला सिकंदर भी ना जीत पाया उस पर फतह का ख्वाब देखा तुमने, और इसी कारण से आज हम चारों ओर से दुश्मनों से घिर गए हैं। वो तो अच्छा हुआ कि अचानक ही रेत का तूफ़ान आ गया वर्ना इस जंग में हमारे कितने और सिपाही मारे जाते। झुककर सुलह करने के अलावा और कोई रास्ता नहीं बचा है हमारे पास। हमें उनकी सुलह की शर्त पूरी करनी होगी।” 

“और सुलह की शर्त क्या है ?” जुनैद ने आँखें तरेरते हुए प्रश्न किया है। 

“वही है जो किसी भी राजा की होगी। बीस हजार की हिन्द की फ़ौज यहाँ बगदाद में छावनी डालकर रहेगी। हमें हिन्दसेना को सालाना कर देना होगा। और...।” क्रोध में निकट आकर मारवान ने जुनैद की आँखों में देखा, “हमें तुम्हें उनके हवाले करना होगा।” 

जुनैद की आँखें आश्चर्य से फ़ैल गईं, “मैं ऐसा नहीं होने दूंगा।” उसने घूमकर निकट खड़ी आवाम और फ़ौज को देख आवाज लगाई, “देख रहे हो बगदाद के लोगों। कैसे तुम्हारे सबसे काबिल सिपहसालार को इस सौदे पर कुर्बान किया जा रहा है ? छत्तीस सालों से मैं हिन्द के उन सूरमाओं से अकेले सामना कर रहा हूँ। किसके लिए? तुम्हारे लिए ? और ये कल का आया खलीफा मुझे ही बलि का बकरा बनाने की कोशिश कर रहा है।” अपना दायाँ हाथ उठाकर जुनैद ने चीखते हुए कहा, “बस एक बार कह दो कि तुम मेरे साथ हो। बगदाद की फ़ौज और आवाम मेरे साथ हो जाए, तो हम आखिरी दम तक लड़ेंगे, और अल्लाह कसम उन हिन्द के कबूतरों का गोश्त बनाकर चट कर जायेंगे। जो भी मेरा साथ देने को तैयार है, अपना हाथ खड़ा करो।” 

किन्तु ना आवाम के किसी आदमी का हाथ खड़ा हुआ और ना ही फ़ौज के किसी बाशिंदे का। जुनैद की आँखों में डर और आश्चर्य स्पष्ट दिखाई देने लगा। 

“हैरानी हुयी ! है न जुनैद ?” क्रोध में खलीफा ने बगदाद की आवाम को सुनाने के लिए स्वर ऊँचा किया, “बेवकूफ समझा है तुमने बगदाद की आवाम और उसके सिपाहियों को। क्या हमें पता नहीं कि हिन्दसेना के कहर से बचने के लिए अब तक ना जाने अपने कितने सिपाही कुर्बान कर चुके हो? और जब शिकस्त सामने नजर आती है तो हर बार मैदान छोड़कर भाग जाते हो, और बाकी की फ़ौज को मरने कटने के लिए छोड़ जाते हो। ऐसे ही ना कितने राज्यों की फ़ौज को तबाह करके और अपनी जान बचाकर तुम यहाँ बगदाद तक पहुँचे हो, और अब चाहते हो बगदाद का भी वही हश्र हो ?” 

जुनैद के पास मारवान के तर्कों का कोई उत्तर नहीं था। उसने बस खलीफा पर अपनी झल्लाहट निकाली, “ये सब झूठ है। मैं पिछले छत्तीस सालों से उस हिन्दसेना से संघर्ष कर रहा हूँ, ताकि उम्म्यद खिलाफत का परचम दुनिया पर लहराए।” 

“तुम्हारी ये मुहिम खिलाफत के लिए नहीं तुम्हारे अपने बदले के लिए थी।” मारवान भी चीख पड़ा, “तुम चाहें मानों या ना मानों ये किस्से सभी जानते हैं कि किस तरह नागभट्ट ने तुम्हें मैदान ए जंग में नंगा और गंजा करके घुमाया था। तुम हो ही उस जलालत के लायक। और अब तुम्हें उन्हें हवाले करने के बाद वो तुम्हारे साथ जो भी करें, हमें मंजूर होगा।” 

मुट्ठियाँ भींचते और दांत पीसते अल जुनैद ने आँखें नीची कर खलीफा के पैरों की ओर देखा। उन दोनों के बीच लगभग पाँच गज की दूरी थी। क्रोध में फुंफकारते हुए जुनैद भारी बेड़ियाँ लिए दौड़ा और पूरी शक्ति से छलांग लगाकर मारवान पर झपट्टा मार अपने हाथों में बंधी बेड़ियों को उसकी गर्दन में फँसा लिया, “कोई आगे आया, तो इसी पल इस कमजर्फ की गर्दन मरोड़कर रख दूँगा।” 

खलीफा को बंदी बना देख सारे पहरेदारों के भी शस्त्र रुक गए। वहीं जुनैद ने मारवान के गले पर कसाव बढ़ाते हुए उसके कान में कहा, “यही फर्क होता है तजुर्बे का, बच्चे। छत्तीस सालों से सिर्फ जंगे लड़ी हैं मैंने, और अब तुझ जैसा नौसिखिया मेरी किस्मत का फैसला करेगा ? अल वालिद बिन अब्दुल मलिक जैसे खलीफा और सुल्तान अल हजाज की जोड़ी ही सबसे बेहतर थी। आज अफ़सोस होता है कि मैं उनके क़त्ल की साजिश का हिस्सा क्यों बना। वो तुझ जैसे बुजदिल नहीं थे जो डरकर मुझे दुश्मन के हवाले कर देते।” मारवान को साथ लेकर जुनैद सीढ़ियों से नीचे उतरते हुए आसपास खड़े योद्धाओं को धमकाता रहा, “कोई हिलेगा नहीं। सोच लो, ये उम्म्यद का आखिरी वारिस है। इस खलीफा की साँस रुकी तो पूरा बगदाद बिखर जायेगा। मैं इसकी जान बख्श दूंगा पर पहले मुझे यहाँ से जाने दो।”  

उसकी धमकी से डरकर सिपाही पीछे हटने लगे। उनमें से एक ने जुनैद को चेतावनी देने का प्रयास किया, “भागने का कोई रास्ता नहीं बचा है, हाकिम जुनैद। बगदाद के चारों दरवाजों पर हिन्दसेना की फ़ौज दस्तक दे चुकी है।” 

“तो मेरे लिए सुरंग खोदो, समझे। मुझे कैसे भी यहाँ से बाहर निकलना है।” क्रोध में जुनैद को होश ही नहीं रहा कि उसने खलीफा की गर्दन पर बेड़ियों का कसाव कितना बढ़ा दिया। 

“खलीफा...।” एक सैनिक की पुकार पर सभी की दृष्टि मारवान की ओर मुड़ गयी। जंजीर के कुछ नुकीले हिस्से उनकी गर्दन में घुस गए थे, और अत्याधिक दबाव से दम घुटने के कारण उसका शरीर प्राण छोड़ चुका था। 

“खलीफा नहीं रहे। मारो इस शैतान को।” आवाम में मौजूद एक व्यक्ति की उस हुँकार पर लोगों ने पत्थर, लकड़ियाँ, इंट जो भी मिला उसे जुनैद की ओर फेंकने लगे। डर के मारे जुनैद मारवान को छोड़ भागने लगा। एक अरबी सिपाही ने तीर चलाकर उसका पाँव बींध डाला और उसका मार्ग वहीं रोक लिया। लंगड़ाते हुए जुनैद भूमि पर गिर पड़ा। 

लोगों की भीड़ उसकी ओर दौड़ी, किन्तु शीघ्र ही एक गर्जना ने उन्हें रुकने पर विवश कर दिया, “रुक जाओ।” उस भारी स्वर में इतना वजन था कि सबके कदम अपने आप ही पीछे हट गये। वो व्यक्ति चलकर जुनैद के निकट आया और उस बागी हाकिम की गर्दन पकड़के उसे उठाया, “क्या लगा था जुनैद? यूं इन भारी जंजीरों को पहने कितनी दूर भाग लोगे ?” 

जुनैद उसकी ओर देख मुस्कुराया, “हाकिम अलसफा, हम्म ? तो अब तुम जैसा नौसिखिया...।” 

“मैं नौसिखिया हूँ या नहीं, पर अब तुम कुछ सीखने या सिखाने लायक नहीं हो, अल जुनैद। तुम एक जलील शख्स हो जिसने पहले सुलतान हजाज और खलीफा की मौत की साजिश की, और आज उम्म्यद के आखिरी खलीफा को भी निगल गए। पर खलीफा की आखिरी ख्वाइश हम जरुर पूरी करेंगे। तुम्हारी किस्मत का फैसला अब हिन्द के सूरमा ही करेंगे।” 

****** 

शीघ्र ही चालीस लम्बे श्वेत ध्वज लिए बगदाद के चालीस योद्धा पूर्व के द्वार की ओर बढ़ रहे थे। उन्हें दूर से आता देख ललितादित्य और शिवादित्य ने अपने अपने दल के कुछ अश्वारोहियों को साथ लेकर अपने अश्व उसी ओर मोड़ लिये। ध्वज देख नागभट्ट कुछ अधिक ही तेजी में आ गये, और अकेले ही पूर्वी द्वार की ओर अपना अश्व दौड़ा दिया।

पूर्व के द्वार पर कालभोज और देवा अपने अपने अश्व पर आरूढ़ हुए उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे। शीघ्र ही पचास गज ऊँचा नगरद्वार खुला और चालीस अरबी सिपाही जुनैद को बेड़ियों में जकड़े रावल के निकट लाने लगे। 

हाकिम अलसफा ने आगे आकर जुनैद को बलपूर्वक अश्व पर बैठे रावल के समक्ष घुटनों के बल झुका दिया, “आपका गुनहगार आपके सामने रहा। अब हम उम्मीद करते हैं हमारे बीच की ये जंग अब यही ख़त्म हो जायेगी।” 

अपने अश्व से उतर कालभोज जुनैद के निकट आया, और उसकी टांगों में लगे घाव की ओर देखा, “आपके खलीफा यहाँ नहीं आये ? क्या लगता है आपको? यदि वो समर्पण करने सामने आयेंगे तो हम उनकी हत्या कर देंगे ?” 

“आपके बारे में तो दुनिया जानती है, हूजूर, कि आप ऐसी मक्कारी करने की सोच भी नहीं सकते। मसला ये है कि खलीफा तो बहुत पहले से ही आपसे सुलह करना चाहते थे, पर इस जुनैद ने साजिश करके जंग छेड़ दी। और पकड़े जाने पर इसने खलीफा की भी हत्या कर दी। इसलिए बगदाद को बिखरने से बचाने के लिए हम इसे खुद आपके हवाले करने यहाँ आये हैं।” 

“क्या ? खलीफा नहीं रहे ?” कालभोज की आँखें आश्चर्य से बड़ी हो गयीं। 

“जुनैद..!” इससे पूर्व रावल आगे कुछ कहता क्रोध से फुंफकारते नागभट्ट भी वहाँ पहुँचे। 

 उन्हें देख अल जुनैद की आँखें भय से काँप उठीं। उसने बेड़ियों सहित उठने का प्रयास किया, किन्तु रावल ने बेड़ी के भूमि पर पड़े भाग पर जो पाँव रखा, जुनैद वहीं का वहीं स्थिर होकर रह गया। 

नागभट्ट ने निकट आते ही जुनैद के मुख पर भीषण मुष्टिका का वार किया। मुख से रक्त उगलता वो अरबी हाकिम भूमि पर लेट गया। हाँफते हुए उसने उठने का प्रयास ही किया था कि नागभट्ट ने उसकी छाती पर पाँव रख उसे भूमि से सटा दिया, “सरल मृत्यु नहीं मिलेगी तुम्हें जुनैद। तुम्हारे एक एक अंग में छिद्र करके जलाऊंगा मैं उसे। तुम्हारी चीखें ही मेरे पुत्र की आत्मा को शान्ति देंगी।” 

नागभट्ट के नेत्रों में धधकती अग्नि देख कालभोज ने उनका कंधा पकड़ उन्हें समझाने का प्रयास किया, “स्वयं के भीतर इस आसुरी तत्व को ना जगाईये, महाराज नागभट्ट। एक बार यदि ये हावी हो गया तो आपका व्यक्तित्व और सात्विकता दोनों को नष्ट करने की क्षमता रखता है। अपने क्रोध को शांत कीजिये। अब हमारी यात्रा के समापन का समय आ गया है। हम घर लौटने वाले हैं। हमारा उद्देश्य शान्ति और न्याय का सन्देश देना है। इसलिए मैं आपसे विनती करता हूँ कि इसे वहीं दंड दीजिये जो न्यायोचित हो। प्रतिशोध की अग्नि में भस्म होकर हमें पिशाच नहीं बनना।” कहते कहते रावल का स्वर भर आया, “अन्यथा पुत्र तो मैंने भी खोया था अपना।” 

क्रोध में लार टपकाते नागभट्ट जुनैद की छाती से पाँव हटाकर पीछे हटे। फिर अपने क्रोध को नियंत्रित कर नेत्रों से सहमति का संकेत देते हुए भूमि से उठते जुनैद की ओर देखा। उज्जैन नरेश ने म्यान से तलवार निकाल एक श्वास में भांज दी। भूमि से उठते जुनैद का धड़ वापस गिरकर तड़पने लगा, वहीं उसका मुंड छटककर दूर जा गिरा। 

भूमि पर फैलता उसका रक्त देख नागभट्ट ने नेत्र मूँद चैन की श्वास भरी। कालभोज ने अल सफा को घूरते हुए कड़े स्वर में कहा, “आशा करते हैं हमें पुनः लौटना नहीं पड़ेगा। और ना ही आपकी ओर से हिन्द में रह रहे अरबी गुप्तचरों से कोई संपर्क साधने का प्रयास करेगा।” 

“हमारा भरोसा कीजिये, महारावल। ऐसा कुछ भी नहीं होगा। क्योंकि अब हमारे पास इतने जरिये ही नहीं बचे। आप भी जानते हैं ये मुमकिन नहीं।”

 “ठीक है। हमारे बीस सहस्त्र योद्धा यहाँ बगदाद में उपस्थित रहेंगे, तुम लोगों पर दृष्टि बनाए रखने के लिए। जब सही समय आएगा तो हम उन्हें वापस बुला लेंगे।” 

“जो हुक्म, हुजूर। हमें मंजूर है।” अल सफा ने छाती पर हाथ रख सर झुका लिया। 

 श्वास भरते हुए भोज देवा की ओर मुड़कर उसके निकट आया, “अब घर चलें, बंधु। बहुत वर्ष हो गये। पहुँचने में भी ना जाने कितना समय लग जायेगा। मार्ग में सभी राज्यों की सुरक्षा चौकी का निरीक्षण भी तो करना है।” 

****** 

तीस महीनों बाद 
कमलगट्टा 
“उस जुनैद ने अपने ही खलीफा की हत्या कर दी। और उम्म्यद के अंतिम उत्तराधिकारी मारवान बिन अब्दुल मलिक की मृत्यु के उपरान्त, उम्म्यद खिलाफत समाप्त हो गयी।” श्वास भरते हुए रावल ने बरगद के वृक्ष के नीचे बैठी कमल की मूरत की ओर देखा, “हमारी प्रतीक्षा समाप्त हुयी, कमल। अब उन अरबी गुप्तचरों से भरतखंड को कोई संकट नहीं। मैं ये सुनिश्चित करके आया हूँ कि उनका संपर्क अरबों से सदैव के लिए टूट जाये।” कालभोज अंततः उठकर खड़ा हो गया, “आशा है अब तुम्हारी आत्मा को शान्ति मिल जायेगी।”  

अकस्मात ही वायु का एक झोंका आया और निकट के बरगद के वृक्ष के कुछ पत्ते उड़ाकर रावल के चरणों में गिरा गया। भोज कुछ क्षण आश्चर्य से उन पत्तों की ओर देखता रहा। 

“कदाचित कमलदेवी ने आपको धन्यवाद दिया है, महारावल।” पीछे खड़े ललितादित्य आगे आये, “पूरे दो दिन से बिना रुके इन्हें आप अपनी विजयगाथा सुना रहे हैं। तो उनकी ये अंतिम भेंट भी स्वीकार कर ही लीजिये।” 

मुस्कुराते हुए कालभोज ने क्षणभर कार्कोट नरेश की ओर देखा। फिर भूमि पर बैठकर उन सारे पत्तों को अपनी अंजली में उठाकर अपनी धोती के अंगवस्त्रों में बाँध लिया।

 ललितादित्य ने आगे आकर कालभोज का कंधा पकड़ा, “समय आ गया है। अब इनके पार्थिव शरीर का अंतिम संस्कार कर इन्हें विदा करिए।” 

“मैं ये अधर्म नहीं कर सकता, कार्कोट नरेश।” रावल ललितादित्य की ओर मुड़े, “चाहें कमल ने प्रेम मुझसे किया हो, किन्तु विधिवत रूप से उसका विवाह आपसे ही हुआ है। इस अंत्येष्टि का अधिकार केवल और केवल आपका है। कल प्रातः काल ही आप इन्हें मुखाग्नि देकर विदा कीजिये।” 

कालभोज की उस प्रार्थना का विरोध करना ललितादित्य को उचित नहीं लगा, “यदि आपको यही उचित लगता है तो यही सही।” 

****** 

अगले दिन प्रातः काल ही कमल की उस मूर्ति को चिता की अग्नि पर बिठाया गया। कालभोज, ललितादित्य, शिवादित्य, नागभट्ट और देवा सहित अनेकों प्रजाजन वहाँ कमल को विदाई देने उपस्थित थे। चिता पर बैठी कमल के उन नेत्रों को अंतिम बार देख कालभोज के नेत्र छलछला गये। ललितादित्य ने भी उस मूरत को आगे आकर प्रणाम किया और फिर मशाल लेकर अग्नि के सुपुर्द कर दिया। 

उस चिता को जलता देख रावल ने अपनी पोटली में बंधे उन पत्तों को निकालकर दुबारा उन पर दृष्टि डाली। देवा को भी उन पत्तों को देख थोड़ा आश्चर्य हुआ, “अद्भुत, कल के टूटे ये पत्ते अभी भी वैसे के वैसे ही हैं जैसे अभी वृक्ष से टूटे हों।” 

मुस्कुराते हुए भोज ने बिना कुछ कहे उन पत्तों को वापस अपनी पोटली में रख लिया, और शांत मन से चिता की ओर देखने लगे।  

कुछ क्षण उपरान्त देवा ने गंभीर होकर कहा, “उन्नीस वर्ष हो गये, महारावल। मेवाड़ का उत्तरदायित्व आपकी प्रतीक्षा कर रहा है।”   

इस पर रावल ने गर्व से कहा, “पिछले उन्नीस वर्षों से जब भी मेवाड़ से कोई सैनिक दल हमारी हिन्दसेना में सम्मिलित होने आता था, उनसे मैंने खुमाण की शासन नीति की बहुत सी गाथायें सुनी हैं। कार्यवाहक राजा का कार्य करते करते अब वो एक योग्य शासक बन चुका है, तो सिंहासन पर अब उसे ही रहने दो।” 

“ये आप क्या कह रहे हैं, महारावल ? किन्तु फिर आप...।” देवा सकपका गया।

“गुरुदेव ने अभियान समाप्ति के पश्चात मुझे तक्षशिला आने को कहा था। पहले वहाँ चलते हैं, फिर आगे का निर्णय लेंगे।” 

****** 

तक्षशिला 
“महारावल आ रहे हैं, बप्पा रावल आ रहे हैं।” मुंडे हुए सर के साथ श्वेत अंगवस्त्रों को पहने केसरिया ध्वज उठाये अनेकों बालक गुरुकुल की उबड़ खाबड़ सड़कों पर चलते हुए घोषणा कर रहे थे। 

पीछे पीछे केसरिया धोती पहने, और छाती पर अंगवस्त्र लटकाये कालभोज अश्व पर आरूढ़ हुए उसी मार्ग पर चला जा रहा था। उसके पीछे देवा के साथ चार और अश्वारोही सैनिक साथ चल रहे थे। 

शीघ्र ही कालभोज का वो कारवां प्रमुख आश्रम के निकट आकर रुका। आश्रम के सैकड़ों शिष्यों और गुरुजनों ने उस कारवां पर पुष्पवर्षा आरम्भ की। उन सभी का अभिवादन करने को रावल सहित अन्य लोग अश्व से उतरे और उन सभी के समक्ष हाथ जोड़े आगे बढ़े। आश्रम के अनेकों गुरुजनों को प्रणाम करते हुए कालभोज ने कुटिया के निकट आकर उसके द्वार पर अपना मत्था टेका।

“कालभोजादित्य रावल, अजेय्मस्तु। बप्पा रावल, अजेय्मस्तु।” जयघोष से आश्रम गूँज उठा।

“हरित नाथ शिष्य एकलिंग के दीवान की जय हो। हरित नाथ शिष्य एकलिंग के दीवान की जय हो।” इस नए जयघोष से आश्चर्य में पड़कर कालभोज ने इधर उधर दृष्टि घुमाई। 

उसे संशय में देख एक ऋषि उसके निकट आये और उसके हाथों में एक सिक्का थमाया, “ये आपकी शिवभक्ति और शैव मत के प्रचार और रक्षा का पारितोषक है, महारावल।” 

रावल ने उस स्वर्ण से बने सिक्के को ध्यान से देखा। उसके एक ओर गौ माता और उसके दूध पीते बछड़े के साथ सूर्य छत्र भी चिन्हित था। उसे पलटकर देखा तो पाया कि उस भाग पर त्रिशूल, शिवलिंग की आकृति और उसी को दंडवत प्रणाम करते एक पुरुष की आकृति थी, जिस पर श्री बोप्प नाम भी अंकित था। उस सिक्के को देख रावल के नेत्रों में नमी आ गयी। 

सामने खड़े ऋषि ने गर्व से कहना आरम्भ किया, “आज से उन्नीस वर्ष पूर्व आप जब अपनी विजययात्रा पर निकले थे, उसके उपरान्त ही आपको एकलिंग का दीवान नाम का सम्मान देकर महर्षि हरित ने इस सिक्के का निर्माण करवाया था, और ये घोषणा की थी कि आपको ये रहस्य तभी बताया जाए जब आप अपनी विजययात्रा से लौट आयें। क्योंकि उनकी दृष्टि में आपसे बड़ा कर्त्तव्य शिवभक्त और कोई नहीं। वर्तमान में ये सिक्का केवल मेवाड़ की राजमुद्रा ही नहीं है, अपितु इसकी ख्याति सिंध से लेकर भरतखंड के अंतिम छोर तक पहुँच चुकी है। ये सिक्का उस सम्मान की स्मृति बनकर सदैव इस संसार में रहेगा जो आपको महाऋषि हरित ने दिया है। एकलिंग का दीवान, ये नाम समूचा भारतवर्ष सदैव स्मरण रखेगा।” 

नेत्रों में नमी लिये कालभोज ने उस सिक्के को अपने मस्तक से लगाया। फिर उसे अपनी कमर में बंधी पोटली में रख लिया। तत्पश्चात उसने उस ऋषि के समक्ष हाथ जोड़े, “क्या गुरुदेव ने मेरे लिए कोई अंतिम सन्देश छोड़ा था ?”  

“जीवन एक चक्र है। शिव ही अंत हैं, शिव ही आरम्भ हैं। उत्तरदायित्वों का भार देकर संसार में प्रतिष्ठा देने वाले भी वहीं हैं, और कंधों का बोझ उतारकर मुक्ति का मार्ग भी वहीं दिखाते हैं। शैव हो तो शिव को भजो, चाहें प्रारम्भ हो या अंत।” श्वास भरते हुए उस ऋषि ने भारी स्वर में कहा, “उन्होंने बस हमें इतना ही कहा था। फिर ना जाने वो कहाँ लुप्त हो गये। हमने उन्हें ढूँढने का बहुत प्रयास किया, किन्तु आज तक उनका कोई पता नहीं चला।” 

मुस्कुराते हुए कालभोज ने उस ऋषि के चरण स्पर्श किये, “आप सभी ने मुझे जो भी मान दिया उसका मैं आभारी हूँ। किन्तु मुझे भी अपने जीवन के आगे के मार्ग पर अकेले ही जाना है।” फिर भूमि से उठते हुए उसने मुस्कुराकर कहा, “आप सभी ने अपनी ओर से प्रयास कर लिया। अब गुरुदेव की खोज करने की बारी मेरी है।” ब्राह्मणजनों को प्रणाम करते हुए कालभोज कुटिया से बाहर चला गया। 

कुटिया से कालभोज के साथ बाहर निकलते हुए देवा ने प्रश्न किया, “बताइये, महारावल। हम किस दिशा में जाने वाले हैं।” 

मुस्कुराते हुए भोज ने देवा का कंधा पकड़ा। उसके मुख का भाव देख देवा विचलित हो गया, “नहीं...नहीं ! ये संभव नहीं है, महारावल !” 

“ये यात्रा मेरी है, केवल मेरी।”

 “किन्तु आप कैसे...?” 

“मैं एकांत चाहता हूँ, देवा। इसे एक राजा का आदेश नहीं, एकलिंग के दीवान की विनती मान लो।” 

भोज के उस निवेदन के आगे देवा ने स्वयं को विवश सा पाया। उसे मौन देख भोज बिना अश्व पर चढ़े यूं ही आगे बढ़ गया। धीरे धीरे कालभोज को अपनी आँखों से ओझल होता देख देवा का मन विचलित हुआ जा रहा था। और जैसे ही भोज का दिखना बंद हुआ, शोकाकुल देवा घुटनों के बल आ गया, मानों उसे सत्य का आभास हो गया हो कि अब कालभोज से उसकी भेंट कभी नहीं हो पायेगी। 

प्रहर पर प्रहर बीतते गए, देवा वहीं बैठा रहा। किन्तु सूर्य को अस्त होते देख अकस्मात ही जैसे देवा की चेतना लौट सी आयी। उसने अपने नेत्रों से बह रहे अश्रुओं को पोछा, “नहीं, नहीं ! मुझे उन्हें ढूंढना होगा। महारावल अपने इस मित्र को यूं अकेला नहीं छोड़ सकते।” वो तत्काल ही अपने अश्व पर आरूढ़ हुआ और अनुमान अनुसार उसी दिशा में बढ़ चला जिस ओर कालभोज गये थे।

 ****** 

अस्त होने से पूर्व सूर्य की लालिमा आकाश में फैली थी, और उसी मद्धिम प्रकाश में ऋषियों सा केसरिया वस्त्र धारण किये, मुख पर मुस्कान लिए किसी योगी की भांति कालभोज बस आगे बढ़ा चला जा रहा था। शीघ्र ही उसे सामने एक रंभाती हुयी श्वेत रंग की गाय दिखाई दी। कालभोज ने उसे क्षणभर ध्यान से देखा, “देविका ! ये तो दिखने में बिलकुल देविका जैसी ही है।” उसे वर्षों पूर्व भांडेर की उसी गाय का स्मरण हो आया जिसके जरिये वो महाऋषि हरित से प्रथम बार मिला था। भोज ने उसके निकट जाने को पग आगे बढ़ाया ही था कि वो गाय पूर्व दिशा की ओर बढ़ चली। 

कौतुहलवश भोज उसके पीछे चलता गया। चलते चलते वो गाय उसी कन्दरा के भीतर प्रवेश कर गयी, जहाँ वर्षों पूर्व भोज और हरित ऋषि की भेंट हुयी थी। भोज उस गाय के पीछे पीछे चलता रहा और शीघ्र ही उसे वही दृश्य दिखाई दिया जिसकी आशा लिए वो इस यात्रा पर निकला था। एक छोटे से शिवलिंग के निकट महाऋषि हरित नेत्र मूंदे समाधि लगाये बैठे थे। वहीं वो श्वेत गऊ अपने थन लिए उस शिवलिंग के निकट आई और उसी क्षण उन थनों से दूध बहना आरम्भ हो गया। 

कुछ ही समय में अपने थनों का दूध चढ़ाकर वो गऊ गुफा से प्रस्थान कर गयी। उसके जाने के उपरांत कालभोज उस शिवलिंग के निकट आया और अपने गुरु के ठीक सामने समाधि लगाकर बैठ गया। भोज की उर्जा का आभास कर शीघ्र ही हरित ऋषि की आँखें खुलीं, “एकलिंग के दीवान का स्वागत है।” 

“मेरा सौभाग्य गुरुदेव। जो आपने मुझे अपने अंतिम दर्शन का अवसर दिया।” 

“अंत ही आरम्भ है, वत्स। और इस अंतिम मार्ग पर मनुष्य को अकेले ही चलना होता है।” कहते हुए हरित ऋषि ने कालभोज की कमर में बंधी पोटली की ओर देखा, “वो भी अपने सारे बंधनों को त्यागकर।” 

हरित ऋषि का संकेत समझने में कालभोज को तनिक भी विलम्ब नहीं हुआ। उसने अपनी पोटली खोली और उस स्वर्ण के सिक्के के साथ उन पत्तों का गट्ठर भी निकाला जो उसे कमलगट्टा के बरगद से मिले थे। आज भी उन पत्तों की दशा वैसी ही थी मानों अभी अभी वृक्ष से अलग हुए हों। मुस्कुराते हुए उन दोनों वस्तुओं को कालभोज ने अपने मस्तक से लगाया और दूध में नहाये शिवलिंग को अर्पण कर प्रणाम किया।

 उसके उपरांत कालभोज और हरित, दोनों ने ही क्षणभर एक दूसरे को मुस्कुराकर देखा। 

इधर संध्या होते होते तीव्रगति से अपना अश्व दौड़ाते हुए देवा घने वन में भटक सा गया। तभी उसे एक गऊ के रंभाने का स्वर सुनाई दिया, “इस समय किसने इस वन में गऊ को छोड़ दिया ?” मन में ये प्रश्न किये देवा उसी स्वर की ओर बढ़ने लगा। 

कुछ ही दूर चलकर वो श्वेत रंग की गऊ देवा के सामने आ गयी, “ये तो घने वन में घुसी चली जा रही है। ऐसे में तो निश्चित किसी पशु का आखेट बन जायेगी। इसे सुरक्षित स्थान पे ले जाना होगा।” वो तत्काल ही अश्व से उतरा और उस गऊ को पकड़ने उसके पीछे दौड़ा। 

किन्तु गऊ मदमस्त होकर आगे बढ़ी चली जा रही थी। जब भी देवा उसके निकट जाता वो उछलकर दूर भाग जाती। यूं ही उसे भगाते हुए वो गऊ कुछ ही समय में उसे उसी कन्दरा के पास ले आयी जिसमें कालभोज ने कुछ समय पूर्व ही प्रवेश किया था। गुफा के निकट जाकर वो गऊ बस यूं ही बैठ गयी। इससे पूर्व देवा उसे पकड़ता, उस अन्धकार में कन्दरा से फूटता एक प्रकाश उसके माथे से टकराया जो उसका ध्यान खींचने के लिए पर्याप्त था। एक क्षण के लिए उसके नेत्र बंद से हो गये। जब उसके नेत्र खुले तो वो यह देख अचंभित रह गया कि गुफा के निकट बैठी गाय अदृश्य हो चुकी थी। वो क्षणभर का प्रकाश भी लुप्त हो चुका था, और सामने थी अंधकार से भरी वो काली गुफा। 

कुछ क्षण वहीं खड़ा देवा यही सोचता रहा कि कहीं वो कोई स्वप्न तो नहीं। किन्तु गुफा से आये क्षणभर के प्रकाश ने उसके मन में जिज्ञासा तो जगा ही दी थी। उसने निकट के वृक्ष से लकड़ियाँ और अपने अंगवस्त्रों और पत्थरों के प्रयोग से शीघ्र ही एक मशाल तैयार कर ली और उसके प्रकाश में कंदरा के भीतर की ओर गया। 

भीतर पहुँचकर कुछ पग चलते ही उसे एक शिवलिंग दिखाई दिया। उसे अग्नि का प्रकाश देकर उसने ध्यान से देखा तो अचंभित रह गया। कमलदेवी की अंतिम निशानी अर्थात वो बरगद के वृक्ष के पत्ते वहीं शिवलिंग पर चढ़े हुए थे, और साथ में स्वर्ण का सिक्का भी जिस पर महादेव के साथ श्री बोप्प का नाम अंकित था। और शिवलिंग के ठीक पास एक ताजा कमल का पुष्प भी खिला हुआ था। 

देवा ने बैठकर उन वस्तुओं को ध्यान से देखा, जो उसके मुख पर क्षणिक प्रसन्नता लाने को पर्याप्त था, “अर्थात महारावल यहीं थे।” उसने मशाल उठाई और दौड़ता हुआ आगे बढ़ गया। 

कुछ कोस लगातार दौड़ने के उपरांत जब वो कन्दरा से बाहर आया तब उसने स्वयं को उसी स्थान पर पाया जहाँ से उसने कन्दरा में प्रवेश किया था, “ये...ये कैसे संभव है ?” उसने पुनः चारों ओर दृष्टि घुमाकर आसपास के वृक्षों को देखा, “हाँ, ये तो वही स्थान है। कदाचित मैं भटक गया हूँ।” 

वो पुनः मुड़कर कन्दरा में घुस गया। और इस बार उसने सावधानी से आगे बढ़ने का प्रयास किया, ताकि मार्ग न भटके। किन्तु आगे बढ़ते बढ़ते वो यह देख आश्चर्य में पड़ गया कि इस बार मार्ग में वो शिवलिंग नहीं आया जिसे उसने कुछ समय पूर्व देखा था। विचलित हुआ देवा फिर भी साहस जुटाये आगे बढ़ता रहा, किन्तु कुछ ही समय में जब वो कन्दरा के बाहर आया तो वापस स्वयं को उसी स्थान पर पाया जहाँ से उसने कन्दरा में प्रवेश किया था। और इस बार जब वो कन्दरा में वापस घुसने के लिए मुड़ा तो वहाँ कोई प्रवेश द्वार था ही नहीं। अचंभित हुए देवा को कुछ क्षण समझ ही नहीं आया, वो निराश होकर घुटनों के बल बैठ गया और कन्दरा के उस बंद द्वार को निहारने लगा। कुछ समय वहीं बैठा देवा अंततः निढाल होकर भूमि पर गिर गया। मूर्छा उस पर हावी हो गयी। 

****** 

प्रातः काल सूर्य की लालिमा के साथ देवा की निद्रा भंग हुयी तो उसने स्वयं को एक नदी तट के निकट पाया। अपना शरीर हिलाते ही उसके मस्तक में भंयकर पीड़ा आरम्भ होने लगी। फिर भी किसी प्रकार वो भूमि से उठा और नदी के निकट पहुँचकर अपने मुख पर जल के कुछ छींटे मारे। 

श्वास भरते हुए वो कुछ पग आगे बढ़ा और नदी में एक डुबकी लगाकर वापस उठा। जल के उस स्पर्श से देवा को अपने शरीर के भीतर एक नयी उर्जा का भान हुआ। किन्तु शिवलिंग पर चढ़े उन बरगद के पत्तों के साथ वो सिक्का, उस कन्दरा तक पहुँचाने वाली वो गऊ, दो बार देवा का मार्ग से भटककर वापस उस कन्दरा के बाहर आ जाना, दूसरी बार शिवलिंग के दर्शन ना होना, और दूसरी बार बाहर आने के उपरांत उस गुफा का द्वार बंद हो जाना। ये सारे के सारे दृश्य अब भी उसके नेत्रों में स्पष्ट तैर रहे थे, “वो सत्य था या कोई स्वप्न ?” 

नदी में खड़ा देवा इसी संशय में डूबा रहा, किन्तु उस दिन के उपरान्त संसार में किसी भी मनुष्य को गुहिलवंशी महान शिवभक्त बप्पा रावल के दर्शन नहीं हुए। किन्तु उनकी कथाओं का सार सुनाने को श्री बोप्प और शिवलिंग से चिन्हित वो सिक्का उनकी शौर्य गाथा का प्रमाण बनकर आज भी इस संसार में अपना अस्तित्व बनाये हुए है। और आखिर जिस भूमि से महारावल विलुप्त हुए तक्षशिला के उसी भू भाग को तो संसार आज रावलपिंडी के नाम से जानता है। अब उस मुद्रा को देख पाठक स्वयं अनुमान लगायें कि उस एकलिंग के दीवान की ख्याति कैसी रही होगी।  

हर हर महादेव 
कुछ अधूरी बातें 
कार्कोट नरेश ललितादित्य मुक्तपीड की पत्नी का नाम कमलदेवी ही था, और उनके नाम पर ही काश्मीर के एक नगर को कमलहट्टा नाम दिया गया था। ये बातें कल्हण की राजतारंगिणी स्पष्ट कहती हैं। पर अगर ये ऐतिहासिक तथ्य मैं कथा के आरम्भ में ही कह देता तो उसका रस थोड़ा सा फीका पड़ जाता। इसलिए इसे छिपाकर रखना आवश्यक था। 

और संभव है कि पाठकों को ये भी लगा हो कि प्रारंभ से लेकर अंत तक मैंने किसी भी चमत्कार की बात नहीं कि, किन्तु अंत में बरगद के वृक्ष के वो अनश्वर पत्ते, हरित ऋषि और कालभोज का महाप्रस्थान, देवा को उन सारी घटनाओं का साक्षी बनाना। ये सब मैंने इसीलिए किया क्योंकि निसंदेह ये संसार कर्मप्रधान है, किन्तु यहाँ बहुत सी घटनायें ऐसी होती हैं जो मनुष्य की समझ से परे होती है। 

उदाहरण स्वरुप आप हमारे भारतीय सेना के वीर सिपाही बाबा हरभजन सिंह की घटना को ही ले लीजिये। पूर्वी सिक्किम में वीरगति को प्राप्त होने के बाद उन्होंने एक नहीं अनेकों जवानों के सपने में आकर उन्होंने दुश्मन की युद्ध नीति से उन्हें परिचित करवाया। उन्हें लगातार प्रमोशन भी दिया गया और समय के साथ रिटायरमेंट भी। अब इतने सारे लोग झूठ तो नहीं बोल सकते न। 

ये सब बातें कहने का ये अर्थ नहीं है कि आप अपने जीवन में चमत्कार के भरोसे बैठ जाओ या उसकी आशा में मन में नाना प्रकार के अंधविश्वास पाल लो। मैं बस इतना ही कहना चाहता हूँ कि ऐसे चमत्कारों को बस कृपा मानकर उसे प्रणाम करो, और अपने कर्तव्यपथ की ओर बढ़ते चलो।  

बस किसी भी संभावना को नकारो मत। क्योंकि हमारे ऊपर किसी का हाथ है, बस इस विश्वास मात्र से ही हमारे तन मन में कर्म उर्जा की जागृति होती है, और हमारा टूटा मनोबल भी ऊँचा हो जाता है। किन्तु ये मेरा व्यक्तिगत विश्लेषण है, इससे सहमत होना या असहमति जताना पाठकों पर निर्भर है। 

और इसीलिए मैंने देवा और कालभोज के इस अंतिम प्रकरण को कुछ इस प्रकार प्रदर्शित किया है कि देवा को स्वयं इसका भान नहीं कि जो कुछ उसने देखा वो सत्य था या मात्र कोई स्वप्न।

जय एकलिंग 🙇