भूल-27
धोखा देने वाला नेहरू का रक्त भाई
जम्मू व कश्मीर की कहानी का एक महत्त्वपूर्ण खिलाड़ी शेख मोहम्मद अब्दुल्ला था, जिसका जन्म सन् 1905 में श्रीनगर के बाहरी इलाके में स्थित सौरा गाँव में हुआ था। वह ‘शेर- ए-कश्मीर’ (कश्मीर के शेर) के रूप में प्रसिद्ध हो गया। शेख अब्दुल्ला के पिता शेख मोहम्मद इब्राहिम शॉलों के एक मध्यम श्रेणी के निर्माता और व्यापारी थे। शेख अब्दुल्ला के दादा एक कश्मीरी पंडित थे, जिनका नाम राघो राम कौल था, जिन्होंने सन् 1890 में इसलाम धर्म अपना लिया और उनका नाम बदलकर ‘शेख मोहम्मद अब्दुल्ला’ हो गया तथा उनके पोते ने भी इसी नाम को अपनाया। शेख अब्दुल्ला ने सन् 1933 में अकबरजहाँ से निकाह किया, जो माइकल हैरी नीडो और उनकी कश्मीरी पत्नी की बेटी थीं। माइकल गुलमर्ग के पर्यटन स्थल पर एक होटल के मालिक थे—उनके पिता भारत में होटलों की शृंखला के एक यूरोपीय मालिक थे, जिसमें श्रीनगर का नीडोज़ होटल भी शामिल था।
शेख अब्दुल्ला ने सन् 1930 में अलीगढ़ मुसलिम विश्वविद्यालय से रसायन विज्ञान में एम.एस-सी. किया। यूनिवर्सिटी में पढ़ने के दौरान ही वे राजनीति में सक्रिय हो गए। उन्होंने सन् 1932 में कश्मीर के पहले राजनीतिक दल मुसलिम कॉन्फ्रेंस की स्थापना की, 1938 में जिसका नाम बदलकर ‘नेशनल कॉन्फ्रेंस’ रख दिया गया। शेख अब्दुल्ला द्वारा स्थापित मुसलिम कॉन्फ्रेंस कथित रूप से सांप्रदायिक थी—कुछ कहते हैं कि इसने आगे जाकर सिर्फ सामरिक कारणों के चलते इसका नाम बदलकर ‘नेशनल कॉन्फ्रेंस’ रख दिया। शेख अब्दुल्ला इसलाम से जुड़े कश्मीरी राष्ट्रवाद के हिमायती थे और उनके प्रेरणा-स्रोत थे डॉ. मोहम्मद इकबाल, जो उनकी ही तरह इसलाम अपनानेवाले एक और कश्मीरी पंडित के वंशज थे, जिन्होंने 1930 में पाकिस्तान की अवधारणा को प्रतिपादित किया था।
हालाँकि गांधी ने खुद को रियासतों के मामलों से अलग रखना ही उचित समझा, लकिे न नेहरू ने सन् 1939 में राज्यों के लिए ‘द अॉल इंडिया स्टेट्स पीपल्स कॉन्फ्स’ बु रें लाई थी। नेहरू ने खुद को उस क्षमता में शेख अब्दुल्ला के साथ जोड़ा था। वे उनके आंदोलनों के समर्थन में थे। शेख अब्दुल्ला ने मई 1946 में महाराजा के खिलाफ ‘कश्मीर छोड़ो’ आंदोलन शुरू किया था, जिसके चलते उन्हें गिरफ्तार किया गया था। अधिकांश कांग्सरे ी नेताओं का मानना था कि यह आंदोलन अवसरवादी और द्वेषपर्णू था, साथ ही खुद को स्थापित करने के स्वार्थी विचार से प्रेरित था—आखिरकार, महाराजा कोई अंग्जों की तरह बाहर रे ी व्यक्ति नहीं थे। शेख अब्दुल्ला इस प्रकार के कृत्यों में इसलिए शामिल होता था, क्योंकि वह जानता था कि उसे नेहरू का मौन समर्थन प्राप्त होगा। हालाँकि शेख अब्दुल्ला ने महाराजा के खिलाफ अपनी इस लड़ाई को सामंती आदेश के खिलाफ एक संघर्ष और जम्मूव कश्मीर के लोगों के लिए एक लड़ाई के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया था (कुछ ऐसा, जिस पर भोले-भाले और समाजवादी नेहरू ने विश्वास कर लिया था), लकिे न वास्तव में उनका उद्शदे्य सांप्रदायिक था—मुसलमानों के समर्थन को पाना और सत्ता हथियाना।
शेख अब्दुल्ला की हरकतों और नेहरू द्वारा उन्हें दिए जा रहे समर्थन से चौकन्ने कश्मीरी पंडितों ने 4 जून, 1947 को सरदार पटेल को टेलीग्राम भेजा—
‘कश्मीर के मामलों से जुड़े पं. नेहरू के बयान पूरी तरह से असत्यापित और पक्षपातपूर्ण हैं, इसलिए कश्मीर के हिंदू सार्वभौमिक रूप से इनकी निंदा और विरोध करते हैं। शेख अब्दुल्ला के फासीवादी और सांप्रदायिक कार्यक्रम को प्रोत्साहित करके वे कश्मीर के लोगों को नुकसान ही नहीं पहुँचा रहे हैं, बल्कि मसजिदों को ध्वस्त किए जानेवाले उनके (अब्दुल्ला के) अनुचित और गलत बयान मुसलमानों को हिंदुओं के खिलाफ भड़का रहे हैं।’ (मैक/406-7) (बी.के./374)
शेख अब्दुल्ला ने सामंतवाद-विरोधी, लोकतांत्रिक, वामपंथी, भारत-समर्थक, कांग्रेस- समर्थक और सबसे ऊपर एक धर्मनिरपेक्ष छवि पेश करके दूसरों को और साथ ही खुद को नेहरू (जो उन्हें ‘अपना रक्त भाई’ कहते थे) का बेहद प्रिय बना लिया था, शायद महाराजा हरि सिंह को रास्ते से हटाने और फिर उनकी गद्दी पर बैठने के लिए; क्योंकि उनके भविष्य के कारनामों ने उनकी उस छवि को तोड़कर रख दिया और नेहरू को निराश व हैरान किया। नेहरू की जीवनी लिखनेवाले एस. गोपाल ने लिखा है कि नेहरू अब्दुल्ला को ‘एक पुराना मित्र, सहयोगी और रक्त भाई’ मानते थे। नेहरू ने अब्दुल्ला को शंका से परे रखा और उन पर आँख मूँदकर पूरा भरोसा किया। नेहरू के लिए अब्दुल्ला ही कश्मीर थे और कश्मीर ही अब्दुल्ला! (बी.के./372)
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शेख अब्दुल्ला और कुछ कर दिखाने की उनकी क्षमता पर इस प्रकार से आँखें मूँदकर पूरा भरोसा करना, उनकी लोकप्रियता को बहुत ज्यादा आँकना और उनके इरादों के प्रति मासूमियत के साथ संदेह-रहित रहना, वह भी इस हद तक कि महाराजा और गैर-मुसलमान कश्मीरियों के साथ अनुचित, अन्यायपूर्ण एवं अपमानजनक व्यवहार करना नेहरू के अपेक्षित नेतृत्व गुणों की नकारात्मकता को प्रदर्शित करता है।
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सीता राम गोयल ने लिखा—“पं. नेहरू ने शेख अब्दुल्ला के साथ दोस्ती सिर्फ इसलिए रखी, क्योंकि वह भी बहुत पुराने समय से उनकी ही तरह एक सोवियत-लती था। मेरे पास ‘पीपल्स पब्लिशिंग हाउस’ (वामपंथी साहित्य के प्रकाशक) द्वारा ‘शेर-ए-कश्मीर’ की प्रशंसा में प्रकाशित कई रिसाले मौजूद हैं। पं. नेहरू ने शेख अब्दुल्ला को शायद इस वजह से हटा दिया, क्योंकि शेख का सादिक ऐंड कंपनी, जो कश्मीर का साम्यवादी गुट था, के साथ झगड़ा हो गया था।” (एस.आर.जी.2/170-71)
महाराजा हरिसिंह ने नेहरू और महात्मा गांधी के कहने पर शेख अब्दुल्ला को 30 अक्तूबर, 1947 को जम्मूव कश्मीर में ‘हेड अॉफ इमरजेंसी एडमिनिस्ट्रेशन’ बना दिया। उन्होंने 17 मार्च, 1948 को कश्मीर के प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली। उन पर सन् 1951 में संविधान सभा के चुनावों में धाँधली का आरोप लगा था। उन्हें 8 अगस्त, 1953 को प्रधानमंत्री के पद से बरखास्त करने के बाद गिरफ्तार कर लिया गया और बाद में राज्य के खिलाफ साजिश करने का दोषी पाए जाने पर, जिसे बाद में ‘कश्मीर षड्यंत्र केस’ के रूप में जाना गया, ग्यारह साल जेल की सजा सुनाई गई। उनके स्थान पर बख्शी गुलाम मोहम्मद को नियुक्त किया गया। आखिर, उन्होंने ही शेख अब्दुल्ला को गिरफ्तार किया था।
एम.ओ. मथाई ने लिखा—
“सन् 1953 में फिरोज गांधी (इंदिरा गांधी के पति) ने जब शेख अब्दुल्ला की गिरफ्तारी की खबर सुनी तो वे धड़धड़ाते हुए मेरे स्टडी रूम में घुसे। उन्होंने कहा कि ‘बख्शी ने शेख अब्दुल्ला को गिरफ्तार करके बेवकूफी भरा काम किया है।’ साथ ही उन्होंने कहा कि ‘बख्शी को शेख अब्दुल्ला को आजाद कश्मीर में स्थित किसी सुनसान पहाड़ी की चोटी पर ले जाना चाहिए था और वहाँ से नीचे धक्का देकर गोली मार देनी चाहिए थी और यह खबर फैला देनी चाहिए थी कि अब्दुल्ला भागकर पाकिस्तान चला गया है।’ (मैक2/एल-5660)
शेख अब्दुल्ला को 8 अप्रैल, 1964 को रिहा किया गया। नेहरू का निधन 27 मई, 1964 को हुआ। बाद में शेख अब्दुल्ला को वर्ष 1965 से 1968 तक नजरबंद रखा गया। सन् 1971 में उन्हें 18 महीने के लिए कश्मीर से निर्वासित भी किया गया था। 1974 के ‘इंदिरा-शेख समझौते’ के परिणामस्वरूप वह जम्मूव कश्मीर के मुख्यमंत्री बने और 1982 में अपनी मृत्यु होने तक इस पद पर बने रहे।
सरदार पटेल ने शेख अब्दुल्ला का बिल्कुल सटीक मूल्यांकन किया
बी.एन. मलिक, जो उस समय कश्मीर के प्रभार के साथ आई.बी. (इंटेलीजेंस ब्यूरो) के डिप्टी डायरेक्टर थे और बाद में आई.बी. के प्रमुख भी बने, ने अपनी पस्तुक ‘माय ईयर्स विद नेहरू : कश्मीर’ (बी.एन.एम.2) में लिखा कि कश्मीर पर उनकी 1949 की रिपोर्ट, जिसमें स्थानीय पाक-विरोधी तीव्र भावनाओं और भारत के प्रति शेख अब्दुल्ला की वैचारिक प्रतिबद्धता में कमी न आने की बात को दरशाया गया था, से नेहरू इतने प्रसन्न हुए कि उन्होंने उस रिपोर्ट की प्रतियाँ सभी दूतावासों और मंत्रालयों तक में भिजवाईं। हालाँकि एक यथार्थवादी और समझदार सरदार पटेल, जिन्हें सही निर्णय लेने का वरदान मिला हुआ था, इससे खुश नहीं थे। उनकी पस्तुक के कुछ अंश—
“ ...सरदार वल्लभभाई पटेल नाखुश थे। जाहिर तौर पर, मेरी यह रिपोर्ट उनके उन विचारों के उलट थी, जो उन्होंने सामान्य तौर पर कश्मीर, विशेष रूप से शेख अब्दुल्ला के बारे में बना रखे थे। उन्हें इस बात का शक था कि शेख ईमानदार नहीं हैं और वे पं. नेहरू को गुमराह कर रहे थे; साथ उन्हें इस रिपोर्ट का इतना व्यापक प्रसार भी पसंद नहीं आया था।...मेरे द्वारा रिपोर्ट भेजे जाने के कुछ दिनाें बाद गृह सचिव ने मुझे सूचित किया कि सरदार मेरे आकलन से सहमत नहीं हैं और उन्हें इस बात पर कड़ी आपत्ति थी कि मैंने इस रिपोर्ट को पहले बिना उनका परामर्श लिये प्रस्तुत किया था।
“मुझे अगले दिन सरदार से मिलने का आदेश प्राप्त हुआ। उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं था और वे बिस्तर पर बैठे थे। वे कुछ देर तक चुपचाप मुझे देखते रहे। इसके बाद उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या यह रिपोर्ट मैंने ही तैयार की है, जिसकी एक प्रति उनके हाथों में मौजूद थी? मैंने ‘हाँ’ में जवाब दिया। उन्होंने मुझसे पूछा कि मैंने उनकी सलाह के बिना जवाहरलाल को इसकी एक प्रति क्यों भेजी? मैंने जवाब दिया कि मैंने रिपोर्ट अपने निदेशक को सौंपी थी। इसके बाद सरदार पटेल ने मुझसे पूछा कि क्या मुझे इस बात की जानकारी है कि नेहरू ने इस रिपोर्ट की प्रतियाँ विदेशों में स्थित हमारे सभी दूतावासों को भेजी हैं और इस पर मेरी क्या प्रतिक्रिया है? मैंने उन्हें बताया कि मैंने एक दिन पहले ही गृह सचिव से प्रसार के बारे में सुना था और मुझे यह सुनकर स्वाभाविक रूप से खुशी हुई कि प्रधानमंत्री को मेरी रिपोर्ट इतनी पसंद आई कि उन्होंने इसे विदेशों में बैठे राजदूतों तक भेजने लायक समझा। इसके बाद सरदार ने कहा कि वे कश्मीर की स्थिति को लेकर, और विशेष रूप से शेख अब्दुल्ला को लेकर, मेरे आकलन से सहमत नहीं थे।
“इसके बाद सरदार ने शेख अब्दुल्ला को लेकर अपने विचार मेरे साथ साझा किए। उन्होंने इस बात की आशंका जताई कि एक दिन शेख अब्दुल्ला अंततः अपना असली रंग दिखाएँगे और भारत एवं नेहरू को नीचा दिखाएँगे; महाराज के प्रति उनकी दुर्भावना वास्तव में एक शासक के प्रति नहीं कही जा सकती, लेकिन डोगरों के प्रति और डोगरों में वे भारत के बाकी बहुसंख्यक समुदाय को देखते थे। उन्होंने अपनी धीमी आवाज में मुझे बताया कि शेख अब्दुल्ला को लेकर मेरा आकलन बिल्कुल गलत है; हालाँकि कश्मीर घाटी के विलय को लेकर जनमत का मेरा आकलन शायद ठीक था। एक बार यह बताने के बाद कि उन्हें यह मेरी गलती लगी थी, बेशक वे इतने अच्छे थे कि वे मेरे इस विचार से बिल्कुल सहमत थे कि मुझे सरकार को सिर्फ स्वतंत्र आकलन ही प्रस्तुत करने चाहिए और उन्हें किन्हीं विशेष नेताओं के ज्ञात या प्रत्याशित विचारों के अनुरूप नहीं तैयार करना चाहिए। उन्होंने कहा कि मुझे जल्द ही अपनी भूल का अहसास हो जाएगा। लेकिन इसी के साथ उन्होंने रिपोर्ट को तैयार करने के तरीके को लेकर और ऐसा करने के लिए मेरे प्रयासों को लेकर मेरी सराहना भी की। यह सरदार की महानता थी। मेरे विचारों से असहमत होने के बावजूद उन्होंने उन्हें व्यक्त करने के मेरे अधिकार को स्वीकृति दी।
“मैं उस दिन यह सोचते हुए अपने कार्यालय वापस आया कि क्या मैंने वास्तव में कश्मीर को लेकर किए गए अपने आकलन में गलती की है, या फिर सरदार ने जो कुछ कहा, वह बिल्कुल भी सही नहीं है। घटनाक्रम, जैसे कि वे बाद में घटित हुए, से यह साबित हुआ कि सरदार सही थे और मैं गलत। हमने खुद को तीन साल के भीतर ही शेख अब्दुल्ला के विरुद्ध लड़ते हुए पाया। उस समय तक सरदार पटेल का निधन हो चुका था। इसके बावजूद मुझे ऐसा लगता है कि अगर सभी संबंधित पक्षों द्वारा कश्मीर की विशेष समस्याओं को समझा गया होता और अगर उन्होंने इस समझ के आधार पर अपनी वार्त्ताओं को निर्देशित करने के साथ-साथ अपने क्रिया-कलापों को संशोधित किया होता तो घटनाक्रम संभवतः बिल्कुल अलग हो सकते थे और बाद में होनेवाले दर्द, खलबली और शर्मिंदगी से बचा जा सकता था। अगर सरदार उस समय तक जीवित होते तो हालात उस स्थिति तक पहुँचते ही नहीं, क्योंकि शेख अब्दुल्ला के दिल में उनके प्रति बेहद सम्मान और डर का भाव था।” (बी.एन.एम.2/16-17)
नेहरू को अंततः अपनी भूल का अहसास हुआ, जब उन्हें यह पता चला कि शेख अब्दुल्ला वास्तव में हैं क्या! बलराज कृष्ण ने लिखा—
“बाद में नेहरू खुद सन् 1962 में पटेल के विचारों से सहमत हो गए, जब उन्होंने मलिक को अब्दुल्ला के उस दौर के सांप्रदायिक कारनामों के बारे में बताया, जो उन्होंने उस दौरान किए थे, जब वे नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता के रूप में सक्रिय थे। हालाँकि, वे पाकिस्तानी हमले के चलते कुछ समय के लिए थोड़े विनम्र हो गए थे, क्योंकि कबाइलियों ने घाटी की मुसलमान आबादी पर भीषण अत्याचार किए थे। लेकिन वे जैसे ही प्रधानमंत्री बने, उन्होंने एक बार फिर अपना असली रंग दिखाना शुरू कर दिया और अपनी हिंदू-विरोधी गतिविधियाँ आरंभ कर दीं। उनका समूचा दृष्टिकोण और व्यवहार इस बात पर आधारित था कि कश्मीर घाटी मुसलमान बाहुल्य क्षेत्र थी।” (बी.के./395)