भूल-28
महाराजा से अपनी खुशामद करवाने की चाह
नेहरू ने बिल्कुल अनुपयुक्त तरीके से महाराजा के साथ तिरस्कारपूर्ण व्यवहार किया, जबकि शेख अब्दुल्ला को अपना पूर्ण समर्थन दिया और ऐसा करते हुए उन्हें इस बात का जरा भी अहसास नहीं था कि विलय के अनुबंध पर महाराजा के हस्ताक्षर के बिना जम्मूव कश्मीर भारत का हिस्सा नहीं हो सकता था।
जब अब्दुल्ला ने मई 1946 में महाराजा के खिलाफ ‘अपमानजनक और उपद्रवी’ (बी.के./375) कश्मीर छोड़ो आंदोलन शुरू किया था, जिसका नतीजा उनकी गिरफ्तारी (भूल#27) के रूप में सामने आया था तो नेहरू ने जून 1946 में अब्दुल्ला को रिहा करवाने के लिए घाटी में जाने का फैसला किया। हालाँकि उनके राज्य में प्रवेश पर पाबंदी लगी हुई थी, लेकिन नेहरू ने प्रतिबंध की अवहेलना करने का फैसला किया। उन्होंने इस बात की घोषणा की कि उनका मकसद कश्मीर में हावी निरंकुश और सामंती शासन से टक्कर लेना है। आखिर बाकी सभी 547 रियासतों में भी तो निरंकुश और सामंती शासन ही हावी था, जो आखिरकार भारत का हिस्सा बने। क्या नेहरू उन 547 रियासतों में से किसी में भी ऐसा ही कोई विरोध प्रदर्शन करने गए, विशेष रूप से निजाम के शासनवाले अड़ियल हैदराबाद में, जहाँ के हिंदू रजाकारों की क्रूरता का शिकार हो रहे थे? नेहरू को इस बात की समझ नहीं थी कि आनेवाले महीनों में इन राजाओं-महाराजाओं का समर्थन और उनका सहयोग उन्हें भारत में विलय करने के लिए अपरिहार्य होगा। महाराजा से उस स्तर तक दुश्मनी करना, और वह भी कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में, राजनीतिक दृष्टि से मूर्खतापूर्ण निर्णय था। सरदार पटेल और अन्य लोगों ने उन्हें रोकने का प्रयास किया, लेकिन वे रुके नहीं। सरदार पटेल ने डी.पी. मिश्रा को लिखा—
“हालाँकि उन्हें (नेहरू को) चौथी बार अध्यक्ष चुना गया है, लकिे न वे अकसर बचकानी हरकतें करते हैं, जो हम सबको बेहद अप्रत्याशित रूप से बड़ी दिक्कतों में डाल देती हैं। आपके पास नाराज होने की वजह हो सकती है; लकिे न हमें गुस्से को अपने ऊपर हावी नहीं होने देना चाहिए। उन्होंने हाल ही में कई ऐसे काम किए हैं, जिनके चलते हमें बेहद शर्मिंदगी का सामना करना पड़ा है। कश्मीर में उनके कारनामे, संविधान सभा के लिए सिखों के चुनाव में उनका हस्तक्षेप, ए.आई.सी.सी. के तुरंत बाद उनका संवाददाता सम्मेलन—ये सब भावनात्मक उन्माद के काम हैं और ये हम सब पर चीजों को दोबारा पटरी पर लाने का अत्यधिक दबाव डालते हैं।” (मैक./86)
यहाँ तक कि गांधी ने भी सन् 1947 की अपनी इकलौती कश्मीर यात्रा के दौरान अकूटनीतिक रवैया प्रदर्शित करते हुए महाराजा के आतिथ्य को स्पष्ट रूप से ठुकरा दिया और अब्दुल्ला की नेशनल कॉन्फ्रेंस के मेहमान बने। आखिरकार, गांधी द्वारा भी किनारे किए जाने के बाद, पहले से ही नेहरू के खराब व्यवहार से रुष्ट और अपने प्रति पिछले कई महीनों से नेहरू के वैर का अनुभव करते हुए तथा अपने कट्टर दुश्मन शेख अब्दुल्ला के प्रति उनकी प्रतिबद्धता और समर्थन को देखते हुए सिर्फ हरि सिंह ही नहीं, बल्कि उनके स्थान पर कोई भी होता (यहाँ तक कि अगर खुद नेहरू भी उनके स्थान पर होते) तो वे भारत के साथ विलय करने में जरूर हिचकिचाते। हरि सिंह को महसूस हो गया कि नेहरू और गांधी के नियंत्रण में रहते उनका कोई भविष्य नहीं है। वे निश्चित रूप से पाकिस्तान का हिस्सा नहीं होना चाहते थे, लेकिन उन्होंने नेहरू के उस आग्रह को नहीं माना (जब महाराजा ने सितंबर 1947 में विलय का प्रस्ताव दिया था) कि वे पहले शेख अब्दुल्ला को सत्ता सौंप दें, जैसेकि वे कोई विदेशी शक्ति हों, जो किसी स्थानीय को सत्ता सौंपें! इसलिए महाराजा ने स्वतंत्रता के अपने विकल्प के बारे में सोचना प्रारंभ कर दिया, जो कानूनी रूप से स्वीकार्य था।
अगर नेहरू ने तमाम राजनीतिक विकल्पों को ध्यान में रखते हुए महाराजा के साथ समझदारी भरा व्यवहार किया होता, जैसाकि सरदार पटेल ने बाकी 547 रियासतों के साथ किया था, अगर नेहरू ने अपने व्यक्तिगत पर्वाग्रह को हावी नहीं होने दिया होता, अगर नेहरू ने महाराजा को उपयुक्त तरीके से समायोजित किया होता और अगर नेहरू ने उन्हें आश्वस्त किया होता कि भारत का हिस्सा बनने पर उनके हितों की पर्णू सुरक्षा की जाएगी तो हरि सिंह दुविधा में नहीं फँसते। उन्होंने 15 अगस्त, 1947 से कहीं पहले ही विलय के अनुबंध पर हस्ताक्षर कर दिए होते—और जम्मू व कश्मीर कभी एक मुद्दा ही नहीं बन पाता!
इसके अलावा, “मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि नेहरू चाहते थे कि महाराजा उनकी खुशामद करें।” (एम.एन.डी./47) माउंटबेटन ने एक और विचार व्यक्त किया था, “मुझे यह कहते हुए खुशी हो रही है कि नेहरू को नए रियासत विभाग का प्रभारी नहीं नियुक्त किया गया है, जिसने सब कुछ बरबाद कर दिया होता। पटेल, जो मूल रूप से एक यथार्थवादी और बहुत समझदार व्यक्ति हैं, इसे सँभालने जा रहे हैं... इससे भी अच्छी खबर यह है कि वी.पी. मेनन इसके सचिव होंगे।” (बी.के.2/91)
वी. शंकर अपनी पुस्तक ‘माई रेमिनिसेंसिस अॉफ सरदार पटेल’ में लिखते हैं—
(शैन) “पं. नेहरू स्वतः सिद्ध मानते थे कि सिर्फ शेख अब्दुल्ला ही उनके कामों को कर सकते हैं और वे उनका समर्थन पाने के लिए उन्हें कोई भी रियायत देने को तैयार थे। सरदार को शेख पर जरा भी भरोसा नहीं था और न ही राज्य पर उनके प्रभाव को लेकर नेहरू के मूल्यांकन में। उनका मानना था कि जम्मूव कश्मीर के मसले से महाराजा द्वारा विलय के अनुबंध को निष्पादित करने के आधार पर निबटा जाना था और उस व्यक्ति को नाराज करने का विचार, जिसके अकेले के उस कागज पर हस्ताक्षर जम्मूव कश्मीर में हमारे कानूनी पक्ष को सही साबित कर सकते हैं, उन्हें परेशान कर रहा था।
“इसके अलावा, सरदार को ऐसा भी लगता था कि राज्य और भारत के बीच एक स्थायी बंधन को लागू करने के लिए जनता के विभिन्न वर्गों के बीच महाराजा के प्रभाव का उपयोग करना भारत के दीर्घकालिक हित में रहेगा। उन्हें (सरदार को) इस बात पर शक था कि शेख द्वारा कही गई सीमा तक महाराजा के प्रशासनिक अधिकारों को कमजोर करना राज्य और भारत के हित में रहेगा। उन्होंने महसूस किया कि इस महत्त्वपूर्ण समय में महाराजा और शेख अब्दुल्ला के एक-दूसरे के विपरीत उद्देश्यों पर काम करना या फिर पहले से ही राज्य की असंतुष्ट जनता के मन में महाराजा की सरकार के भविष्य को लेकर संदेह उत्पन्न होना नहीं चाहिए।
“महाराजा और शेख अब्दुल्ला की इस व्यक्तिगत अनबन के चलते सरदार पटेल भी पं. नेहरू और गोपालस्वामी आयंगर के साथ झगड़े तक पहुँच गए। इस बात से जरा भी इनकार नहीं किया जा सकता कि शेख महाराजा के सिर को झुका हुआ देखना चाहता था और पं. नेहरू एवं गोपालस्वामी आयंगर के गलत मूल्यांकन का पूरा लाभ उठाते हुए वह वास्तव में अपनी शर्तें मनवाना चाहता था।”