Nehru Files - 31 in Hindi Anything by Rachel Abraham books and stories PDF | नेहरू फाइल्स - भूल-31

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नेहरू फाइल्स - भूल-31

भूल-31 
जूनागढ़ : सरदार पटेल बनाम नेहरू-माउंटबेटन 

जूनागढ़ 3,337 वर्ग मील के क्षेत्रफल में फैली एक रियासत थी और सन् 1947 में आजादी के समय इस पर नवाब सर महाबत खान रसूल खानजी (या नवाब महताब खान तृतीय) का शासन था। नवाब की सनक और कुत्तों के प्रति उसके प्रेम के कई किस्से मशहूर हैं, जिनमें उसके दो कुत्तों की शादी पर 21,000 पाउंड खर्च किए जाने का भी किस्सा शामिल है। (टुंज/216) ‘महाराजा’ (जे. डी.) के अध्याय ‘ए जूनागढ़ बिच दैट वाज ए प्रिंसेस’ में दीवान जरमनी दास कहते हैं कि अपनी पसंदीदा कुतिया रोशनआरा की शादी के मौके पर नवाब ने राजाओं, महाराजाओं, वायसराय और अन्य विशिष्ट अतिथियों को आमंत्रित किया था। तीन दिन का सरकारी अवकाश घोषित किया था और कुल मिलाकर 50,000 से अधिक अतिथियों की मेजबानी की थी। इस पुस्‍तक में दूल्हे (एक कुत्ते) के शाही स्वागत का जिक्र भी किया गया है— 
“जूनागढ़ के नवाब ने रेलवे स्टेशन पर वर पक्ष का स्वागत किया और इस दौरान उनके साथ शानदार कपड़ों एवं महँगे आभूषणों से लदे 250 नर कुत्ते थे, जो उनके महल से रेलवे स्टेशन तक एक जुलूस के साथ सोने व चाँदी की हौदियों से सजे हाथियों पर सवार होकर आए थे। इसके अलावा, राज्य के तमाम मंत्री और जूनागढ़ के शाही परिवार के सदस्य भी रेलवे स्टेशन पर दूल्हे ‘बॉबी’ का स्वागत करने के लिए मौजूद थे।” (जे.डी./198) 

जूनागढ़ काठियावाड़ के दक्षिण-पश्चिम में स्थित है। इसकी सभी पड़ोसी भारतीय रियासतें थीं और इसके दक्षिण एवं दक्षिण-पश्चिम में अरब सागर है। पाकिस्तान के साथ जूनागढ़ की कोई भौगोलिक समीपता नहीं थी। पोर्ट वेरावल से कराची तक समुद्री मार्ग से इसकी दूरी लगभग 300 मील है। लगभग 6.7 लाख की आबादी में से 82 प्रतिशत हिंदू थे। 

राज्य के लोगों की इच्छा भारत के साथ विलय की थी। हालाँकि, नवाब ने 15 अगस्त, 1947 को पाकिस्तान के पक्ष में विलय के अनुबंध पर हस्ताक्षर किए थे। उनके साथ मौजूद थे उनके दीवान सर शाहनवाज भुट्टो (पाकिस्तान के दिवंगत प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो के पिता), जो जिन्ना के बेहद करीबी थे। पाकिस्तान ने इस विलय को बेहद गोपनीय रखा और किसी को कानोकान इसकी खबर तक नहीं होने दी। जिन्ना का मानना था कि अगर इस बात के सार्वजनिक हो जाने से पहले पर्याप्त समय व्यतीत हो जाता है तो भारत इस विलय को पहले हो चुके एक कार्य के रूप में स्वीकार कर लेगा। इसे लेकर कुछ अफवाहें उड़ी हुई थीं और भारत ने इस मामले को लेकर भारत में मौजूद पाकिस्तानी उच्‍चायुक्त से इस बाबत जानकारी ली। उनकी तरफ से कोई प्रतिक्रिया नहीं ‌िमली। इसके बाद 6 सितंबर, 1947 को एक चेतावनी जारी की गई, लेकिन इस बार भी कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली। 13 सितंबर, 1947 को (विलय के लगभग एक महीने बाद) भारत को यह सूचित किया गया कि पाकिस्तान ने जूनागढ़ का विलय स्वीकार कर लिया है, साथ ही उसने ‘स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट’ पर भी दस्तखत कर दिए हैं। 

ब्रिटिशों को पहले से ही इस विलय की जानकारी थी, लेकिन वे चुप रहे। माउंटबेटन ने तुरंत जूनागढ़ को पाकिस्तानी क्षेत्र के रूप में मान्यता दे दी और राजा को भी अपनी रिपोर्ट में ऐसा करने की सलाह दी। उन्होंने अपनी रिपोर्ट में यह भी कहा, “गवर्नर जनरल के रूप में मेरी सबसे बड़ी चिंता भारत सरकार को जूनागढ़ के मामले में खुद को उसके खिलाफ युद्ध की काररवाई से रोकने की थी, जो अब पाकिस्तानी क्षेत्र था।” (बी.के.2/119) 

माउंटबेटन ने खुलासा किया, “पाकिस्तान इस स्थिति में भी नहीं है कि वह युद्ध की घोषणा भी कर सके, क्योंकि मुझे इस बात का पता चला है कि उनके सैन्य कमांडरों (उस समय शीर्षपदों पर सिर्फ ब्रिटिश तैनात थे) ने उनके सामने लिखित में दे दिया है कि भारत के साथ युद्ध की घोषणा का नतीजा सिर्फ पाकिस्तान की करारी हार के रूप में होना सुनिश्चित है।” (बी.के.2/120) 

माउंटबेटन पर इस बात का कोई फर्क नहीं पड़ा था कि जूनागढ़ एक हिंदू बहुल रियासत (जो सीमावर्ती राज्य भी नहीं था), जिसने पाकिस्तान के साथ विलय कर लिया है। इसके बिल्कुल उलट, वह इसको लेकर बेहद चिंतित था कि जम्मूव कश्मीर ने भारत के साथ विलय कर लिया है और उसने भोले-भाले नेहरू को बेवकूफ बनाकर यह सुनिश्चित करने के लिए अपनी सभी कुटिल चालें चलीं, जिनसे यह विलय विवादित बन जाए। 

जूनागढ़ रियासत के पाकिस्तान का हिस्सा बन जाने के बाद माउंटबेटन ने यह सुनिश्चित करना चाहा कि भारत जूनागढ़ पर अपना कब्जा करने के लिए अपने सशस्त्र बलों का प्रयोग न करे। उसने ऐसा सुनिश्चित करने के लिए गांधी और नेहरू पर अपनी चालें भी चलीं। जैसाकि उम्मीद थी, प्रधानमंत्री नेहरू चुप ही रहे! जिन्ना ने इस बात का बिल्कुल ठीक आकलन किया था कि हमेशा दुविधा में रहनेवाले और हिचकिचानेवाले नेहरू अपनी चिर-परिचित ‘अंतरराष्ट्रीय स्थिति एवं अंतरराष्ट्रीय प्रतिक्रिया’ को लेकर बड़ी-बड़ी बातें करेंगे और एक बार फिर हमेशा की तरह कोई भी निर्णय लेने या काररवाई से बचने के लिए पूरे मामले का महत्त्व कम करके पेश करेंगे। 

जहाँ तक माउंटबेटन की बात है, चालाक जिन्ना जानते थे कि माउंटबेटन भारत को कभी भी अप्रत्याशित काररवाई नहीं करने देंगे। जिन्ना सिर्फ यह चाहते थे कि भारत की तरफ से कोई सैन्य काररवाई न की जाए। गांधी एक शांतिप्रिय व्यक्ति होने के चलते और अपनी ‘महात्मा’ की छवि एवं उससे जुड़े ‘अहिंसा’ के ब्रांड को लेकर अधिक चिंतित थे, जिन्होंने जूनागढ़ को वापस पाने के लिए कभी भी उचित काररवाई के बारे में सोचा तक नहीं। नेहरू-गांधी की निष्क्रियता को देखते हुए केवल सरदार पटेल ही उद्‍धारक हो सकते थे। 

“उन्होंने (सरदार पटेल ने) इस सुझाव के साथ नेहरू की नरम पैंतरेबाजी को अस्वीकार कर दिया कि ‘हमारे लिए जूनागढ़ प्रकरण के बारे में ब्रिटिश सरकार को संदेश भेजना वांछनीय होगा।’ साथ ही विनम्रता के साथ एक टिप्पणी भी की, ‘मुझे नहीं लगता है कि हमें मौजूदा स्थिति में ब्रिटिश सरकार से कुछ कहने की आवश्यकता है।’ पटेल नहीं चाहते थे कि भारत आजादी से पहले के दौर में वापस चला जाए और ब्रिटिश एक बार फिर अपनी पुरानी पक्षपातपूर्ण भूमिका में आ जाएँ, जो मुसलमान समर्थक और जिन्ना समर्थक थी।” (बी.के./359) 

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सरदार पटेल ने ‘सभी लोकतांत्रिक मूल्यों को धता बताते हुए जूनागढ़ की 80 प्रतिशत से भी अधिक हिंदू आबादी को विलय के जरिए पाकिस्तान में जबरन घसीटे जाने पर’ घोर आपत्ति जताई। जिन्ना और माउंटबेटन इस बात को समझने में पूरी तरह से विफल रहे कि अगर भारत में भारत के हितों के प्रति उदासीन गांधी और नेहरू जैसे लोग मौजूद हैं, जिन्हें वे आसानी से मना सकते थे, बेवकूफ बना सकते थे और मात दे सकते थे, वहीं दूसरी तरफ भारतीय खेमे में एक बुद्धिमान, ‘हम से न उलझो’ कह सकने वाले लौह पुरुष भी मौजूद थे। 
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माउंटबेटन की ध्यान भटकानेवाली सभी चालें सरदार पटेल पर काम करने में विफल रहीं। माउंटबेटन ने एक के बाद एक अपने विकल्पों को आजमाया, लेकिन विफल रहे। उसने पटेल को एक के बाद एक सलाह के जरिए मनाने की कोशिश की—दुनिया की उलटी राय! अनावश्यक युद्ध! जब इतने सारे आवश्यक कार्यों पर ध्यान देना जरूरी है तो युद्ध क्यों? क्यों न मामले को यू.एन.ओ. भेजा जाए? अगर बहुत आवश्यक हो तो सिर्फ केंद्रीय रिजर्व पुलिस का प्रयोग करें, भारतीय सेना का नहीं! 

सरदार पटेल ने माउंटबेटन के सभी विकल्पों एवं सुझावों को सिरे से नकार दिया और एक मुद्दे का एक ही बार में निबटारा करने के उद्देश्य से सैन्य अभियान को चुना। ऐसा करने के लिए साहस चाहिए था—कुछ ऐसा, जो नेहरू और गांधी के पास नहीं था। पटेल ने मामले को विलंबित नहीं होने दिया, जैसाकि कश्मीर या हैदराबाद के साथ हुआ था। उन्होंने बेहद चतुराई के साथ माउंटबेटन को अँधेरे में रखा और माउंटबेटन को जानकारी होने से पहले ही सेनाओं को आगे बढ़ा दिया। भारतीय सैनिकों की एक नई बनाई गई कमान (काठियावाड़ रक्षा बल) को पहले जूनागढ़ से सटे इलाके में तैनात किया गया था और फिर उसने बाबरियावाड़ एवं माँगरोल पर कब्जा कर लिया था, जिस पर जूनागढ़ ने अपने क्षेत्र के रूप में दावा किया था। 

सरदार पटेल ने जूनागढ़ अ‍ॉपरेशन को इतने शानदार तरीके से अंजाम दिया कि जूनागढ़ का नवाब 26 अक्तूबर, 1947 को पाकिस्तान भाग गया और राज्य को शाहनवाज भुट्टो के भरोसे छोड़ दिया, जिसने प्रशासन को ध्वस्त होते देखकर 7 नवंबर, 1947 को भारत को हस्तक्षेप करने के लिए आमंत्रित किया और खुद 8 नवंबर, 1947 को पाकिस्तान भाग गया। भारतीय सेना 9 नवंबर, 1947 को जूनागढ़ में दाखिल हुई और सरदार 13 नवंबर, 1947 को दीपावली के दिन एक भव्य स्वागत समारोह के बीच वहाँ पहुँचे। 

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जूनागढ़ का नवाब नकदी और कीमती सामानाें के खजाने को खाली करते हुए अपने कुत्तों के साथ भाग गया। लियोनार्ड मोस्ली ‘द लास्ट डेज अ‍ॉफ ब्रिटिश राज’ में याद करते हैं— 
“नवाब पहले ही अपने निजी विमान से पाकिस्तान भाग चुके थे। वे अपने साथ जितने अधिक कुत्तों को ले जा सकते थे, लेकर गए, साथ ही अपनी चार पत्नियों को भी। उनमें से एक को उन्होंने बिल्कुल आखिरी मौके पर तलाक दे दिया था, क्योंकि उसने एक बच्‍चे को महल में ही छोड़ दिया था और नवाब से रुकने के लिए कहा था, क्योंकि वह उसे दूध पिला रही थी। उसके हवाई पट्टी को छोड़ते ही नवाब ने विमान में दो और कुत्तों को चढ़ा लिया और अपनी पत्नी के बिना ही उड़ गया।” (मॉस/210-11) 

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वी. शंकर ने लिखा— 
“लेकिन उन्हें (सरदार पटेल को) दो बेहद महत्त्वपूर्ण कारकों से निबटना पड़ा और उनमें से एक था लॉर्ड माउंटबेटन। सरदार पटेल को विशेष रूप से बेहद धैर्यवान् रहना पड़ता, क्योंकि लॉर्ड माउंटबेटन अकसर नेहरू की सहानुभूति को अपने दृष्टिकोण की तरफ मोड़ने में सफल रहते थे। उन्हें इस बात का पूरा भरोसा था कि राष्ट्र-हित से जुड़े इतने बड़े मामले में, हैदराबाद के मामले में, पुलिस काररवाई से इनकार नहीं किया जा सकता और यह भी कि पाकिस्तान में इसके विलय की प्रत्येक धमकी को हर कीमत पर दूर किया जाना चाहिए। जहाँ तक जूनागढ़ का सवाल है तो वे किसी भी प्रकार के समझौते के लिए तैयार नहीं थे। आखिरकार, वे लॉर्ड माउंटबेटन के मामले को जल्दबाजी में सुलझाने या फिर जनमत-संग्रह (संयुक्त राष्ट्र के पर्यवेक्षण में) के सुझाव के बावजूद अपनी योजनाओं को आगे बढ़ाने और कार्यान्वित करने में सफल रहे। उन्होंने (सरदार ने) अपनी आँखों में चमक लाते हुए टिप्पणी की, ‘क्या आपको दिखता नहीं कि हमारे पास संयुक्त राष्ट्र के दो विशेषज्ञ हैं—एक तो हैं प्रधानमंत्री (जवाहरलाल नेहरू) और दूसरे हैं लॉर्ड माउंटबेटन। और मुझे अपना रास्ता इन दोनों के बीच से बनाना है। हालाँकि जनमत- संग्रह का मेरा अपना विचार है। रुकें और देखें...” (शैन1) 
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सी. दासगुप्ता ‘वॉर ऐंड डिप्लोमेसी इन कश्मीर 1947-48’ में लिखते हैं— 
“सितंबर (1948) के अंत तक भारत सरकार ने यह फैसला कर लिया था कि बल का प्रयोग अपरिहार्य है। सरदार पटेल ने इस बात को स्पष्ट किया कि जूनागढ़ ने बाबरियावाड़ में अपने सशस्त्र कर्मियों को भेजकर भारत के विरुद्ध युद्ध की काररवाई की है। भारत में विलय करनेवाली किसी भी रियासत को यह उम्मीद करने का पूरा अधिकार था कि भारत किसी भी आक्रामता से उसकी रक्षा करेगा। एक कमजोर रुख रियासतों में भारत की प्रतिष्ठा को कम करके आँकेगी और इसका हैदराबाद पर भी बुरा असर पड़ेगा, जहाँ का निजाम विलय के खिलाफ था। काररवाई की जद से उन्हें बाहर निकालने के प्रयास के तहत माउंटबेटन ने जूनागढ़ की आक्रामक काररवाई के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र में शिकायत दर्ज करवाने की सलाह दी। “पटेल ने देखा कि यह मामला ‘कब्जा सच्‍चा, मुकदमा झूठा’ का है और उनका किसी अदालत में एक वादी के रूप में जाना किसी भी सूरत में भारत की स्थिति को कमजोर नहीं करेगा। गवर्नर जनरल ने उनसे पूछा कि क्या वे काठियावाड़ में सशस्त्र संघर्ष का जोखिम उठाने के लिए तैयार हैं, जिसका नतीजा पाकिस्तान के साथ युद्ध के रूप में हो? उप-प्रधानमंत्री (सरदार पटेल) अप्रभावित थे। उन्होंने कहा कि वे जोखिम उठाने को तैयार थे।” (डी.जी./27) 
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सरदार वास्तव में सरदार ही थे—वे अपनी उपाधि पर बिल्कुल खरे उतरे! कोई भी यह नहीं जानता कि अगर सरदार नहीं होते तो न जाने कश्मीर जैसे कितने राज्य या फिर अतिरिक्त पाकिस्तान तैयार हो गए होते, विशेषकर नेहरू और माउंटबेटन को खुली छूट मिलने के चलते। 

अगर सरदार पटेल ने वह काररवाई नहीं की होती, जो उन्होंने जूनागढ़ में की थी और यथास्थिति को (15 अगस्त, 1947 को पाकिस्तान में उसके विलय) बने रहने दिया होता तो भारत को हैदराबाद में एक बेहद विकट स्थिति का सामना करना पड़ता। वास्तव में, हैदराबाद के रजाकार नेता कासिम रिजवी ने सवाल किया था, “सरदार हैदराबाद को लेकर क्यों गरज रहा है, जब वह छोटे से जूनागढ़ पर नियंत्रण नहीं कर पा रहा है?” (बी.के./358) 

भारत द्वारा जूनागढ़ में एक जनमत-संग्रह आयोजित किया गया। सरदार पटेल की पहल पर इसे 20 फरवरी, 1948 को संयुक्त राष्ट्र के तत्त्वावधान में न करवाकर एक भारतीय आई.सी.एस. अधिकारी सी.बी. नागरकर द्वारा करवाया गया, जिसमें 99 प्रतिशत (कुल मिलाकर 91 व्यक्तियों को) छोड़कर भारत का हिस्सा बनने के पक्ष में अपना मत दिया।

 सरदार नेहरू की तरह भोलेभाले नहीं थे कि वे माउंटबेटन को अपनी चलाकर उन्हें बेवकूफ बनाने की अनुमति प्रदान करते और मामले को संयुक्त राष्ट्र के दरवाजे पर ले जाते (जैसाकि माउंटबेटन ने जूनागढ़ के लिए भी सुझाव दिया था) और एक घरेलू मामले को अंतरराष्ट्रीय बनने की अनुमति देते, जिसका पाकिस्तान और ब्रिटेन पूरा फायदा उठाते।