“महाराज, राजकुमारीजी आ गई हैं।” एक दास बोला।
यह बात सुनकर दौड़ते कदमों से मदनपाल और उसकी माता वहाँ पहुँच गए जहाँ राजकुमारी थी। हाँफते और टूटे स्वर में, आँखों में आँसू भरते हुए “मेरी बेटी!” कहकर उसकी माता उसे गले लग गई। थोड़ी देर आसपास देखने के बाद मदनपाल बोला, “सूर्यांश और बाकी सब कहाँ हैं?”
सूर्यांश का नाम सुनते ही संध्या की आँखों में आँसुओं की एक लंबी धारा बह निकली। पारो ने आगे आकर जीद को मदनपाल को सौंपा। “वाणी?” मदनपाल के इस सवाल का भी कोई उत्तर नहीं था। थोड़ी देर रुककर पारो ने सारी बात मदनपाल को सुनाई। महाराज भी अपने हृदय पर पत्थर रखकर यह बात सुन रहे थे।
एक रात उस छोटी बच्ची के रोने की किलकारी में उन्होंने गुज़ारी। पारो को अब अपने ही घर जाते हुए कदम नहीं उठ रहे थे, इसलिए वह वहीं रुक गई। कई दासियों में वह बच्ची केवल पारो के पास ही शांत रहती जिसे उसकी माता ने सौंपा था। पारो भी उसे अपनी बच्ची की तरह पालने लगी।
इस तरह महल में पाँच दिन बीत गए। राज्य के बाहर आ पहुँचे अंग्रेज़ सैनिक लोगों को बहुत परेशान कर रहे थे। उनके साथ आदम और प्रधान का बेटा भी मिल गए थे।
खबर यह भी थी कि आदम कुछ सैनिकों को लेकर द्युत खाड़ी पहुँच गया है और वहाँ अब परम और उसके बीच युद्ध छिड़ गया है। यह सब देखकर किले में बंद मदनपाल से रहा नहीं गया। उन्होंने महाराज से कहकर स्वयं भी युद्ध की तैयारी शुरू कर दी।
राजकुमारी को वह पाँच दिन लगभग पाँच जन्म जैसे लगे। वह हर क्षण सूर्यांश को याद कर रही थीं। संध्या के समय एक बहुत सुखद समाचार मिला। परम ने आदम को मार गिराया। उसी रात राजकुमारी और पारो को जीद को लेकर गुजरात जाने का मदनपाल ने आदेश दिया।
उस समय महाराज ने हमारे हाथों में वह कमान सौंपी जो अब तक उन्होंने अपने बेटे को भी नहीं दी थी। वह चंद्रमंदिर के खजाने की चाबी थी। महाराज ने उसे अपने हाथों से जीद के गले में बाँधते हुए कहा, “इस खजाने की हक़दार मेरे बाद तू है।”
अपनी प्यारी परपोती को प्यार नहीं दे पाए लेकिन उनसे जो बन पड़ा सब किया। महारानी ने अपने परिवार और महाराज के बाद सती होने का दृढ़ निश्चय किया। पीछे के रास्ते एक भोंयरें से किले के बाहर निकलकर सीधा गुजरात पहुँचने तक, जहाँ महाराज के मित्र महान पंडित रहते थे, कुछ वीर योद्धा सैनिकों को आदेश दिया गया।
मुश्किल भरे रास्ते से बाहर निकलने के बाद फिर एक सुनसान रास्ता खोजकर आगे बढ़े। उस समय फिर वही डरावनी घोड़ों की टापों की आवाज़ सुनाई दी और दोनों काँप उठीं। वह क्षण याद आया जब वाणी ने विदाई ली थी। अचानक राजकुमारी बोली, “पारो, तू जीद को लेकर छुप जा।”
धीरे-धीरे घोड़े पास आए और साथ आए वीर सैनिकों ने युद्ध शुरू कर दिया। उसी समय मुँह पर नकाब चढ़ाए प्रधान के बेटे के वेश में आया एक काला आदमी राजकुमारी को गले से पकड़कर उठाते हुए बोला, “राजकुमारी बहुत हँसी मेरे विवाह में!”
इतना बोलते ही संध्या ने भोलो को पहचान लिया और अपने कमर में फँसी खंजर निकाल कर एक झटका उसके चेहरे पर मारा। वह काला आदमी चीखता हुआ राजकुमारी को गिरा कर बोला, “हाँ! मैं भी उनके साथ मिल गया था। आदम और झंगीमल को हराने आए सूर्यांश और मदनपाल को वहीं मैं मार डालता।
उस समय प्रधान ने मुझे बताया कि उन्हें मारकर उनके दास बनने से अच्छा है कि मैं उनके साथ मिलकर उन्हें जीतूँ। फिर उसने मुझे द्युत खाड़ी के सोने की बात बताई और कहा उसमें बनेगा मेरा हिस्सा।
लेकिन मुझे उसमें कोई हिस्सा नहीं चाहिए था, इसलिए मैंने वहीं उन्हें पकड़वाकर मरवा दिया और विवाह के बहाने तुम्हारे साथ आया। वहाँ भी मैंने उस गाँव को आग लगाकर श्मशान बना दिया।”
सिपाहियों ने राजकुमारी को पकड़कर उनके पेट में तलवार घोंप दी।
राजकुमारी के साथ आज मैं भी मर गई। ऐसे निकम्मे भाई को देखकर मेरा भी उसे मार डालने का मन हुआ। लेकिन चंद्रवंशी की वारिस को सौंपकर मुझे नया जीवन मिला ऐसा मानकर यह सब देखकर भी मुँह पर हाथ रखे वहीं छुपी रही।
कई समय बाद गुजरात पहुँची और महाराज के मित्र के आश्रय में रही। लेकिन वहाँ भी राजशाही हटाकर अंग्रेजी सरकार के आने से साम्प्रदायिक दंगे भड़क उठे।
उस समय पंडितजी ने कुछ सोने की मुहरें और अन्य चीजें देकर मुझे पाटन जाने का आग्रह किया। उस समय डॉक्टर ने बताया कि जीद को माँ का दूध न मिलने के कारण कोई रोग हो सकता है।
तभी माही की मम्मी ने उसे दूध पिलाया और उन्हें अच्छा समझ कर उनके पास ही रहने का निर्णय लिया।
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