Chapter 7 – 'मर्दानगी' का जाल
“मर्द बनो!”
ये दो शब्द, एक आदेश की तरह लड़कों के जीवन पर थोप दिए जाते हैं।
पर किसी ने कभी ये पूछा कि मर्द बनने का मतलब क्या है? क्या दर्द न महसूस करना? क्या आंसू न बहाना? क्या डर को निगल जाना? क्या चुप रहना, जब अंदर से आत्मा चीख रही हो?
यह अध्याय, उन्हीं धागों को खोलता है जिनसे ‘मर्दानगी’ का जाल बुना गया है।
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1. बचपन में बोए गए बीज
जब एक छोटा लड़का गिरकर रोता है, तो उसे चुप करा दिया जाता है –
“लड़के रोते नहीं।”
जैसे रोना सिर्फ लड़कियों का हक़ हो।
धीरे-धीरे वह बच्चा ये सीख जाता है कि अपनी भावनाओं को दबाना ही उसकी ताकत है।
उसे गुड्डों से खेलने की इजाज़त नहीं होती, गुलाबी रंग से दूरी सिखाई जाती है, नाचना या भावुक होना उसकी मर्दानगी के खिलाफ बताया जाता है।
वो जो बनना चाहता है, उसे नहीं बनने दिया जाता, क्योंकि समाज ने मर्द होने की एक परिभाषा तय कर दी है।
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2. मर्दानगी = दबाव
जैसे-जैसे लड़का बड़ा होता है, उस पर ये बोझ और बढ़ता जाता है:
"कमाओ, घर चलाओ!"
"कमज़ोर मत दिखो!"
"बीवी से आगे रहो!"
"डरपोक मत बनो!"
हर मोड़ पर ये साबित करना कि वह 'पूरा मर्द' है, उसे एक ऐसी दौड़ में झोंक देता है जहाँ भावनाएँ हार जाती हैं और दिखावा जीत जाता है।
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3. 'मर्द' भी टूटते हैं
पर अंदर से वो लड़का, जो कभी अपनी माँ की गोद में सुकून ढूंढता था,
जो कभी भीगती बारिश में खिलखिलाता था –
अब वो थक चुका है।
जब उसकी नौकरी छूटती है, तो वह किसी से कह नहीं पाता कि उसे डर लग रहा है।
जब उसका दिल टूटता है, तो वो दोस्त के सामने भी मज़ाक में बात उड़ा देता है।
आंसू आँखों में जलते रहते हैं – लेकिन बहने की इजाज़त नहीं होती।
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4. रिश्तों में 'मर्दानगी' का ज़हर
जब एक लड़का अपने प्यार को जताना चाहता है, तो डरता है कि कहीं उसे कमजोर न समझ लिया जाए।
जब एक पति अपनी पत्नी से दिल की बात कहना चाहता है, तो रुक जाता है कि कहीं उसकी मर्दानगी पर सवाल न उठ जाए।
और जब वह खुद से लड़ रहा होता है, तो वह अकेला होता है – बेहद अकेला।
क्योंकि समाज ने उसे ये सिखा दिया है:
"अगर तू टूटा, तो तू मर्द नहीं है।"
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5. 'मर्द बनो' – ये जाल है
यह जाल इतना गहरा है कि लड़का खुद भी नहीं समझ पाता कि वह असली है या समाज का नकली चेहरा।
वो दिखावा करता है ताकत का, जबकि अंदर से डरता है।
वो मुस्कुराता है, जबकि अंदर से टूट रहा होता है।
वो खामोश रहता है, जबकि उसे चीखने की ज़रूरत होती है।
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6. क्या मर्द बनने का मतलब यही है?
नहीं!
मर्द वही है जो अपनी भावनाओं को समझता है।
जो रो सकता है, टूट सकता है, लेकिन सच के साथ खड़ा रह सकता है।
जो औरों को समझता है, अपने भीतर झाँक सकता है।
जो जबरदस्ती की 'मर्दानगी' नहीं ओढ़ता, बल्कि इंसानियत को गले लगाता है।
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7. अंत की ओर लेकिन अंत नहीं
लड़कों को ये समझाना होगा कि उन्हें एक तय फ्रेम में जीने की ज़रूरत नहीं।
उन्हें ये अधिकार है कि वे खुद तय करें कि उनकी पहचान क्या है।
मर्दानगी का जाल तभी टूटेगा, जब लड़के अपनी असली इंसानियत से जुड़ेंगे।
जब वे खुलकर कह पाएँगे:
"हाँ, मैं मर्द हूँ – पर एक इंसान पहले हूँ।"