[ 3. बाह्य सुरक्षा ]
भूल-33
तिब्बत को देश के दर्जे से हटाना
यह हमारा इकलौता बाहरी ऋण है और हमें किसी दिन मंटजु एवं तिब्बतियों को उन सभी
व्यवस्थाओं के लिए शुक्रिया कहना होगा, जो हमने उनसे प्राप्त की हैं।
—माओत्से तुंग, लॉन्ग मार्च के दौरान तिब्बत के
सीमावर्ती क्षेत्रों से गुजरने के दौरान
आठवीं शताब्दी के दौरान तिब्बत के राजा ट्रिसॉन्ग डेंटसेन ने चीन को परास्त किया था, जिसे तिब्बत को सालाना शुल्क देने को मजबूर किया गया था। आपसी लड़ाई को खत्म करने के लिए चीन और तिब्बत ने 783 ईस्वी में एक संधि पर हस्ताक्षर किए, जिसमें सीमाओं को चिह्नांकित किया गया और प्रत्येक देश ने दूसरे की क्षेत्रीय संप्रभुता का सम्मान करने का वादा किया था। यह वास्तविकता जोखांग मंदिर के प्रवेश-द्वार पर स्थित पत्थर के एक स्मारक पर उत्कीर्ण है, जो आज भी मौजूद है। यह खुदाई (engraving) चीनी और तिब्बती दोनों ही भाषाओं में है।
मैं (सरदार पटेल) मन-ही-मन सिर्फ इस बात के लिए कढ़ रहा हूँ कि मैं उन्हें (नेहरू को) आनेवाले समय के खतरों को दिखा नहीं पा रहा हूँ। चीन दक्षिण-पर्वू एशिया पर अपना आधिपत्य जमाना चाहता है। हम इसके प्रति अपनी आँखें नहीं मूँद सकते, क्योंकि साम्राज्यवाद एक नए रूप में सामने आ रहा है। उनके दरबारी उन्हें गुमराह कर रहे हैं। मुझे भविष्य को लेकर गंभीर आशंकाएँ हैं।
—दुर्गा दास, सरदार पटेल के साथ अपनी वार्ता को लिखते हुए (डी.डी./305)
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
तिब्बत जिस ऊँचाई पर स्थित है, उसके चलते इसे ‘दुनिया की छत’ कहा जाता है। इसकी राजधानी ल्हासा 3,658 मीटर यानी 12,001 फीट पर स्थित है। तुलना के लिए श्रीनगर की ऊँचाई 1,730 मीटर है और माथेरान की 800 मीटर। इसका मतलब यह हुआ कि तिब्बत श्रीनगर से दोगुनी ऊँचाई और माथेरान से चार गुना ऊँचाई पर स्थित है। तिब्बत चीन से तिब्बती पठार के पूर्व में स्थित पर्वत-शृंखलाओं और नेपाल से विशाल हिमालय के जरिए अलग होता है। इसके दक्षिण में नेपाल और भूटान हैं; इसके दक्षिण और पश्चिम में भारत है और चीन इसके पूर्व एवं उत्तर-पूर्व में है। अम्डो, खाम और यू-त्सांग इसके तीन प्रमुख क्षेत्र हैं।
तिब्बती पठार भौगोलिक दृष्टि से बेहद भव्य है और यह नितांत ऊँचाई वाले पर्वतों की शृंखला-दर-शृंखलाओं से घिरा हुआ है। तिब्बत एशिया की कई सबसे महत्त्वपूर्ण नदियों—इंडस, सतलज, ब्रह्मपुत्र (तिब्बत में ‘यारलुंग त्सम्पो’ कहलाती है), सल्वेन, मेकांग, यांग्त्से और पीली नदी का स्रोत है।
अपने पृथक कौन और प्रजाति, अलग भाषा, अलग संस्कृति, अलग धर्म (बौद्ध धर्म का इसका बिल्कुल अलग संस्करण), विशिष्ट सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक व्यवस्था, विशिष्ट अर्थव्यवस्था और मुद्रा, अन्य देशों के साथ पृथक् राजनयिक संबंध, बिल्कुल अलग भौगोलिक स्थिति और विशिष्ट इतिहास के चलते तिब्बत बिना किसी शक के एक बिल्कुल विशिष्ट देश का दर्जा रखता है और वास्तव में यह ऐतिहासिक रूप से बिल्कुल अलग राष्ट्र ही था, जब तक कि चीन ने सन् 1950 में इस पर जबरन कब्जा नहीं कर लिया। अगर तिब्बत का अस्तित्व एक अलग राष्ट्र के रूप में नहीं था या फिर नहीं है तो चीन का भी नहीं है और वास्तव में, अधिकांश देश स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में अर्हता नहीं रखते हैं। तिब्बत का राष्ट्रीयता के रूप में एक अभिलिखित इतिहास है, जो दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व तक जाता है।
वास्तव में चीनियों, जिसका मतलब है हान चीनी, ने खुद ही कभी तिब्बतियों को अपना हिस्सा नहीं माना और वे उन्हें ‘शी त्सांग’ कहकर पुकारते थे, जिसका मतलब होता है—बर्बर। वर्ष 1368 से 1644 के बीच चीन पर शासन करनेवाले मिंग राजवंश ने अपने इतिवृत्त में तिब्बतियों को ‘विदेशियों’ के रूप में दर्ज किया है। अगर तिब्बत का कोई विशेष संबंध था तो वह मंगोलिया के साथ था, चीन के साथ नहीं। मंगोल शासक तिब्बती बुद्धत्व से बेहद प्रभावित थे।
सातवीं से नौवीं शताब्दी ईस्वी
सातवीं से नौवीं शताब्दी के बीच तिब्बती लोग युद्ध में अकसर चीनी तांग राजवंश पर भारी पड़ते। इस समय के दौरान चीन की राजकुमारी वेन चेंग और तिब्बत के राजा गैंपो के विवाह को तिब्बत एवं चीन के बीच सहयोग और शांति हासिल करने की दिशा में एक रणनीतिक कदम के रूप में देखा गया था।
आठवीं शताब्दी ईस्वी
आठवीं शताब्दी में तिब्बती राजा ट्रिसॉन्ग डेंटसेन ने चीन को पराजित कर दिया था, जिसे तिब्बत को एक वार्षिक शुल्क देने को मजबूर किया गया था। इस आपसी लड़ाई को समाप्त करने के लिए तिब्बत और चीन ने 783 ईस्वी में एक संधि पर हस्ताक्षर किए, जहाँ सीमाओं को तय किया गया और प्रत्येक देश ने दूसरे की क्षेत्रीय संप्रभुता के सम्मान का वादा किया। यह तथ्य जोखांग मंदिर के प्रवेश-द्वार पर पत्थर के स्मारक पर उत्कीर्ण है, जो आज भी मौजूद है। यह खुदाई चीनी और तिब्बती दोनों भाषाओं में है।
दसवीं से ग्यारहवीं शताब्दी ईस्वी
बौद्धत्व दसवीं शताब्दी में तिब्बत पहुँचा। त्सुर्फू मठ, जिसे बौद्धत्व के ‘करमापा स्कूल का घर’ कहा जाता है, की स्थापना सन् 1155 में हुई।
बारहवीं शताब्दी ईस्वी
युआन राजवंश के दौरान मंगोल राजा चंगेज खाँ ने चीन और तिब्बत सहित यूरेशिया के अधिकांश भाग पर फतह हासिल की। ऐसे में चीनी तर्क को मानें तो चीन के तिब्बत पर दावा पेश करने के बजाय मंगोलिया चीन व तिब्बत—दोनों पर अपना दावा पेश कर सकता है।
सन् 1914 में ब्रिटेन, तिब्बत और चीन के त्रिपक्षीय शिमला अधिवेशन के दौरान बाहरी व भीतरी तिब्बत के मुद्देपर चीनी प्रतिनिधि इवान चेन ने तिब्बत पर चीनी अधिकार का दावा करते हुए एक बेहद हास्यास्पद दलील प्रस्तुत करते हुए कहा था कि चंगेज खाँ ने तिब्बत पर शासन किया था—और यह दिखाने की कोशिश की कि चंगेज खाँ एक चीनी था। जबकि वास्तविकता यह है कि वह एक मंगोल था, जिसने चीन और तिब्बत दोनों पर ही शासन किया था।
तेरहवीं शताब्दी ईस्वी
सन् 1227 में चंगेज खाँ की मृत्यु के बाद तिब्बतियों ने मंगोल साम्राज्य को शुल्क भेजना बंद कर दिया। इसका बदला लेने के लिए चंगेज खाँ के पोते राजकुमार गोडान ने वर्ष 1240 में तिब्बत पर हमला किया। शाक्या पंडिता उस समय के उत्कृष्ट बौद्ध लामा थे। वे ‘शाक्या स्कूल अॉफ तिब्बतन बुद्धिज्म’ के नेता थे। गोडान ने उन्हें उपहार भेजे और उन्हें अपनी राजधानी कोकोनोर में आमंत्रित किया, ताकि वे तिब्बत को मंगोलों के सामने औपचारिक रूप से सौंप दें। शाक्या पंडिता सन् 1246 में वहाँ गए। राजकुमार गोडान ने विभिन्न दीक्षा संस्कार ग्रहण किए और तिब्बती बुद्धत्व का शाक्या पंथ मंगोल खानों के शासक वंश का धर्म हो गया। शाक्या पंडिता को सन् 1249 में मंगोलों द्वारा तिब्बत का वायसराय नियुक्त किया गया। पहले उत्तरी चीन और फिर तिब्बत को मंगोल साम्राज्य में शामिल कर लिया गया, जिसे आगे जाकर सन् 1271 में कुबलाई खाँ द्वारा स्थापित युआन राजवंश में शामिल कर लिया गया। मंगोल कोर्ट में शाक्या पंडिता की विरासत को सन् 1253 में ड्रोगो चोग्याल फाग्फा ने सँभाला।
तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दी ईस्वी
कुबलाई खान के सफल आक्रमण के बाद मंगोलिया ने सन् 1279 से 1368 ईस्वी तक चीन पर शासन किया। कुबलाई खान ने बौद्ध धर्म अपना लिया और उनके एक तिब्बती गुरु भी थे, जिन्होंने आबादी को सीमित करने के लिए हजारों चीनियों को पानी में डुबोने की मंगोलियाई प्रथा को खत्म करने में मदद की। इस प्रकार, एक तिब्बती ने हजारों चीनियों की जान बचाने में मदद की जाे कि वर्तमान दलाई लामा ने अपनी आत्मकथा ‘फ्रीडम इन एक्साइल’ में कहा है। (डी.एल./104)
सोलहवीं शताब्दी ईस्वी
सोनम ग्यात्सो तिब्बती बौद्ध धर्म के गेलुग्पा स्कूल के प्रमुख थे। वे आगे जाकर तीसरे दलाई लामा के रूप में जाने गए। अल्तान खाँ ने उन्हें मंगोलिया आने के लिए आमंत्रित किया था, जहा उन्होंने मंगोलिया की तत्कालीन राजधानी कोको खोतान में भारी भीड़ को शिक्षा दी थी। उन्होंने भीड़ के सामने घोषणा की कि अल्तान खाँ वास्तव में कुबलाई खाँ का अवतार हैं और वे खुद तिब्बती शाक्य धर्मगुरु ड्रोगो चोग्याल फाग्फा, जिन्होंने कुबलाई खाँ का धर्म-परिवर्तन किया था, के अवतार हैं। उन्होंने घोषणा की कि वे दोनों बौद्ध धर्म के प्रचार में सहयोग करने के लिए फिर से एक साथ आए हैं। सत्रहवीं शताब्दी ईस्वी इस प्रकार बौद्ध विचारधारा का व्यापक उपयोग सुनिश्चित हुआ। सत्रहवीं शताब्दी के प्रारंभ तक मंगोलों का बड़ी संख्या में बौद्ध धर्म में परिवर्तन हुआ। संयोग से, चौथे दलाई लामा (योंटन ग्यात्सो) अल्तान खाँ के पोते थे। महान् पाँचवें दलाई लामा लोबसंड ग्यात्सो केंद्रीय तिब्बत पर प्रभावी राजनीतिक शक्ति प्राप्त करनेवाले पहले दलाई लामा थे। उनकी मृत्यु 1680 के दशक में हुई। वे सत्ता के केंद्र को ड्रेपुग से ल्हासा लेकर आए। उन्होंने ल्हासा में पोटाला पैलेस के निर्माण की भी शुरुआत की। दलाई लामा वर्ष 1959 तक तिब्बत के राज्य प्रमुख रहे। हालाँकि इस धारणा के समर्थन में कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं हैं कि चीन के मिंग राजवंश ने तिब्बत पर शासन किया था। वास्तव में, चिंग सम्राट् ने सत्रहवीं शताब्दी में पाँचवें दलाई लामा को स्वतंत्र राज्य के नेता के रूप में स्वीकार किया। चीनी सम्राट् ने दलाई लामा को पृथ्वी पर देवत्व के रूप में भी माना।
अठारहवीं शताब्दी ईस्वी
अठारहवीं शताब्दी के पहले उत्तरार्ध में चीन की चिंग सरकार ने ल्हासा में एक रेजिडेंट कमिश्नर नियुक्त किया। तिब्बत और चीन के बीच सीमा से जुड़ा एक पत्थर का स्मारक, जिस पर बीजिंग और ल्हासा ने सन् 1726 में सहमति दी थी, बाथांग के नजदीक एक पहाड़ की चोटी पर स्थापित किया गया। यह सीमा मेकॉन्ग और सैंग्स्टे नदियों के उद्गम स्थल के बीच थी।
नेपाल ने सन् 1791 में तिब्बत पर हमला किया। लामा को भागने के लिए मजबूर होना पड़ा। चीनी कियानलॉन्ग सम्राट् ने सन् 1793 में सहायता भेजी। इस मदद के साथ तिब्बती सैनिकों ने नेपाली सैनिकों को वापस काठमांडू की ओर धकेल दिया। गोरखाओं ने हार मान ली और सारा खजाना वापस कर दिया। चीनियों द्वारा प्रदान की गई इस मदद ने तिब्बत पर उनके नियंत्रण को और अधिक बढ़ा दिया। इस घटना का कभी-कभी ऐसे भी संदर्भलिया जाता है कि चीन ने इसलिए मदद की, क्योंकि उनके पास तिब्बत की संप्रभुता पर दावा था। हालाँकि, अगर ऐसी ही बात है तो इस हिसाब से तो ब्रिटेन और अमेरिका भी फ्रांस समेत उन तमाम देशों पर संप्रभुता का दावा पेश कर सकते हैं, जिन्हें उन्होंने दूसरे विश्व युद्ध के दौरान बचाया था।
उन्नीसवीं-बीसवीं शताब्दी ईस्वी : तिब्बत को एक बफर के रूप में रखने की ब्रिटिश रणनीति
यह समझते हुए कि तिब्बत एक बफर के रूप में ब्रिटिश भारत, विशेष रूप से उत्तरी भारत, की सुरक्षा के लिए बेहद महत्त्वपूर्ण था, ब्रिटेन ने इसे स्वायत्त या स्वतंत्र रखने के लिए जो कुछ संभव था, वह किया।
सन् 1904: कर्नल यंगहस्बैंड के नेतृत्व में ब्रिटिश सैन्य अभियान
ब्रिटिश सैन्य अभियान ने अगस्त 1904 में कर्नल यंगहस्बैंड के नेतृत्व में ल्हासा में प्रवेश किया। वे यह देखकर बेहद आश्चर्यचकित रह गए कि वहाँ चीनी मौजूदगी का कोई नामोनिशान नहीं था। ब्रिटिशों ने तिब्बत पर चीन के दावे को संवैधानिक कल्पना माना। संयोग से, यहाँ तक कि ल्हासा में अंतिम ब्रिटिश अधिकारी एच. रिचर्डसन ने कहा था कि वर्ष 1912 के बाद तिब्बत में चीनी अधिकार का कोई संकेत तक नहीं था।
‘एंग्लो-तिब्बती संधि’ ने अन्य बातों के अलावा सिक्किम-तिब्बत सीमा को मान्यता दी और तदनुसार सीमा-स्तंभों के निर्माण के लिए अनुमति प्रदान की गई। इसके लिए यह आवश्यक था कि तिब्बत बिना ब्रिटिश अनुमति के किसी भी विदेशी शक्ति के साथ संबंध नहीं रख सकता और साथ ही वह ब्रिटिश भारत से लगती अपनी सीमाओं को खोलेगा, ताकि ब्रिटिश और भारतीय व्यापारियों की आवा-जाही सुगम हो सके तथा साथ ही भारत के साथ व्यापार पर सीमा शुल्क न लगाने की शर्त भी शामिल थी। इससे यह पूरी तरह से स्पष्ट था कि ब्रिटेन तिब्बत के साथ एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में व्यवहार कर रहा था।
सन् 1906: चीन-ब्रिटेन संधि
सन् 1906 की चीन-ब्रिटिश संधि में यह तय किया कि ब्रिटेन तिब्बत पर कब्जा नहीं करेगा और यह भी कि चीन किसी अन्य विदेशी राज्य को तिब्बत के क्षेत्र या आंतरिक प्रशासन में हस्तक्षेप करने की अनुमति नहीं प्रदान करेगा।
1907
1907 में ब्रिटेन और रूस ने इस बात पर सहमति व्यक्त की कि उन दोनों में से कोई भी चीन की मध्यस्थता के बिना तिब्बत के साथ बातचीत शुरू नहीं करेगा। ऐसा करने के पीछे ब्रिटेन का मूल उद्देश्य रूस को तिब्बत से दूर रखना था। अगर ऐसा करने के लिए उसे चीन को कुछ अधिकार देने भी पड़े तो वह बिल्कुल तैयार था, क्योंकि उसकी नजर में चीन इतना कमजोर था कि वह उसे खतरा नहीं मानता था। उसे भविष्य की तिब्बत व भारत के लिए उन संभावित परेशानियों की लेशमात्र आशंका नहीं थी, जो चीन के मजबूत हो जाने पर उत्पन्न हो सकती थीं।
वर्ष 1909-10
चीन के सिचुआन के सेनापति झाओ इरफांग ने सन् 1909 में तिब्बत पर हमला किया और तेरहवें दलाई लामा थुबटेन ग्यात्सो को बंदी बनाने के लिए सन् 1910 में ल्हासा पर हमला कर दिया। लेकिन तब तक लामा भागकर दार्जिलिंग पहुँच चुके थे। झाओ ने ग्यात्सो के सिर पर इनाम घोषित किया था। झाओ ने मठों को नेस्तनाबूद कर दिया, भिक्षुओं को मार डाला, तिब्बती अधिकारियों के सिर कलम कर दिए और उनके स्थान पर चीनियों की तैनाती की—और वह ‘कसाई झाओ’ के रूप में कुख्यात हो गया। झाओ ने तिब्बत की तरफ लोहित घाटी के पास जायुल में चीनी बस्तियों के निर्माण को भी बढ़ावा दिया। इस घटनाक्रम को ध्यान में रखते हुए ब्रिटेन को अब अपनी तिब्बत नीति को लेकर सिर्फ रूस की तरफ से ही नहीं, बल्कि चीन की तरफ से भी (जिसे उसने अब तक नगण्य ही माना था) खतरे का संकेत मिलने लगा।
वर्ष 1911-12
अक्तूबर 1911 में दक्षिणी चीन में क्रांतिकारियों के एक समूह ने चिंग राजवंश के खिलाफ एक सफल विद्रोह का नेतृत्व किया और चीन गणराज्य की स्थापना की। सम्राट् और उसके शाही परिवार ने फरवरी 1912 में गद्दी छोड़ दी। सम्राट् के सत्ता से हट जाने के फलस्वरूप कई क्षेत्रों में सत्ता का एक शून्य बन गया, जिसके चलते सरदारों का उदय हुआ, क्योंकि नई सरकार पूरे देश को अपने नियंत्रण में रख पाने में असफल रही। इसके बाद चीन अगले कई दशकों तक अपेक्षाकृत कमजोर ही बना रहा, जब तक कि कम्युनिस्टों ने सन् 1949 में माओ के नेतृत्व में अपनी पकड़ मजबूत नहीं कर ली।
दिसंबर 1911: बाहरी मंगोलिया
बाहरी मंगोलिया या सिर्फ मंगोलिया (भीतरी मंगोलिया चीन के तहत एक स्वायत्तशासी क्षेत्र होने के चलते), जो सन् 1755 में चीन के मंचू चिंग राजवंश के अधीन आ गया था, ने दिसंबर 1911 में चिंग राजवंश के खात्मे के बाद खुद को स्वतंत्र घोषित कर दिया और मंगोलिया में तिब्बती बुद्धत्व के सर्वोच्च विशेषज्ञ बॉग्ड गेगेन को लोकतांत्रिक संप्रभुता के रूप में स्थापित किया, जो बॉग्ड खान या फिर ‘पवित्र शासक’ कहलाया। चीन ने मंगोलिया को अपना हिस्सा माना; जबकि रूस, जो उसे अपने कब्जे में रखना चाहता था, उसे स्वायत्त लगभग अर्ध-स्वतंत्र बनाना चाहता था। रूस ने सन् 1912 में जापान के साथ एक गुप्त समझौता किया, जिसमें बाहरी मंगोलिया एवं उत्तरी मंचूरिया को उसके प्रभाव-क्षेत्र के रूप में चिह्नित किया गया और भीतरी मंगोलिया एवं दक्षिणी मंचूरिया को जापान के लिए छोड़ दिया गया। वे ऐसा सिर्फ उस समय चीन के कमजोर होने के कारण ही कर पाए।
सन् 1912 की ‘रूस-मंगोलिया संधि’ में रूस ने मंगोलिया को चीन के भीतर एक स्वायत्त राज्य के रूप में मान्यता प्रदान की और मंगोलिया में वाणिज्यिक विशेषाधिकारों के बदले इसे सैन्य सहायता प्रदान करने पर सहमति व्यक्त की; हालाँकि संधि के अपने संस्करण में मंगोलिया ने खुद को ‘स्वतंत्र’ कहा। हालाँकि नवंबर 1913 की ‘चीन-रूस घोषणा’ ने मंगोलिया को चीन के एक भाग के रूप में मान्यता प्रदान की, लेकिन आंतरिक स्वायत्तता के साथ और साथ ही इस पर भी सहमति बनी कि चीन उसे अपना उपनिवेश नहीं बनाएगा और न ही वहाँ अपनी सेना भेजेगा; और चीन-मंगोलिया से जुड़े मुद्दों में रूस की मध्यस्थता को स्वीकार करेगा। कुछ निहित कारणों के चलते मंगोलिया ने इस घोषणा को अवैध माना।
हालाँकि, मंगोलिया अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर चुका था, उसे अपनी वास्तविक स्वतंत्रता हासिल करने के लिए वर्ष 1921 तक संघर्ष करना पड़ा। वर्ष 1919 में चीन ने मंगोलिया को अपनी स्वतंत्रता छोड़ देने के लिए मजबूर किया था। हालाँकि वर्ष 1921 में भीषण लड़ाई के बाद चीनी सेना को मंगोलिया की राजधानी से खदेड़ दिया गया था। आखिरकार, मंगोलिया को सन् 1945 में अंतरराष्ट्रीय मान्यता मिली। 20 अक्तूबर, 1945 को चीनी पर्यवेक्षकों की मौजूदगी में मंगोलिया में एक जनमत-संग्रह किया गया, जिसमें शत-प्रतिशत मत स्वतंत्रता के समर्थन में पड़े।
सन् 1912
तेरहवें दलाई लामा थुबटेन ग्यात्सो 1912 में वापस तिब्बत लौटे, जब 1911 की चीनी क्रांति ने चिंग राजवंश को खत्म कर दिया, जिसके बाद तिब्बतियों ने बिना समय गँवाए चीनी सैनिकों को ल्हासा से बाहर कर दिया।
अंतरराष्ट्रीय न्यायालय ने अपनी रिपोर्ट में कहा, “सन् 1912 में चीनी निष्कासन को बिल्कुल स्पष्ट रूप से तिब्बत की वास्तविक स्वतंत्रता के रूप में वर्णित किया जा सकता है। इसलिए यह प्रस्तुत किया जाता है कि वर्ष 1911-12 की घटनाएँ तिब्बत के संप्रभु राष्ट्र के रूप में दोबारा स्थापित होने को चिह्नित करती हैं, जो वास्तव में स्वतंत्र है।” (डी.एल./69)
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सन् 1913
सन् 1913 में तिब्बत और मंगोलिया के बीच उरगा में एक संधि पर हस्ताक्षर किए गए, जिसमें दोनों ही देशों ने खुद को चीन से मुक्त और स्वतंत्र घोषित किया।
दलाई लामा ने सन् 1913 में एक उद्घोषणा जारी की, जिसमें कहा गया था कि चीनी सम्राट् और तिब्बत के बीच संरक्षक एवं पुरोहित के संबंध थे और वे किसी भी रूप में एक की दूसरे के प्रति अधीनता पर आधारित नहीं थे। उन्होंने कहा, “तिब्बत को अपना उपनिवेश बनाने की चीनी ख्वाहिश उसी तरह धूमिल हो गई है, जैसे आसमान से इंद्रधनुष हो जाता है।” उन्होंने यह भी कहा कि तिब्बत एक छोटा, स्वतंत्र व धार्मिक राष्ट्र था। तिब्बतियों ने इसे स्मरण करने के लिए 13 फरवरी, 2013 को ‘तिब्बती स्वतंत्रता के पुनर्मूल्यांकन का शताब्दी समारोह’ भी आयोजित किया।
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वर्ष 1913-14
दलाई लामा जब 1909 से 1912 के बीच दार्जिलिंग (भारत) में थे, तब उन्होंने ब्रिटेन के साथ अच्छे संबंध स्थापित किए। सन् 1911 की क्रांति के बाद चीन की कमजोरी के मद्देनजर ब्रिटेन ने महसूस किया कि वह चीन को एक ऐसे समझौते पर ला सकता है, जो व्यावहारिक रूप से तिब्बत को स्वतंत्रता प्रदान करे। ब्रिटेन ने इसी दिशा में कदम बढ़ाते हुए शिमला अधिवेशन का आयोजन किया।
शिमला अधिवेशन, 1913-14 :
बाहरी/भीतरी तिब्बत और मैकमहोन रेखा
ब्रिटिशों द्वारा आयोजित किया गया शिमला अधिवेशन, जिसमें तिब्बत और चीन दोनों को ही आमंत्रित किया गया था और क्रमशः लॉञ्चन शास्त्र और इवान चेन द्वारा प्रतिनिधित्व किया गया था, के तहत 6 अक्तूबर, 1913 से लेकर 3 जुलाई, 1914 के बीच कुल आठ औपचारिक सत्र आयोजित हुए। सर हेनरी मैकमहोन, ब्रिटिश भारत के तत्कालीन विदेश सचिव, इस अधिवेशन के प्रमुख वार्त्ताकार और ब्रिटिश पूर्णाधिकार-युक्त थे और उनके सहायक थे चार्ल्स बेल। लॉञ्चन शास्त्र और इवान चेन को क्रमशः ल्हासा और नानजिंग से आदेश व स्पष्टीकरण लेने होते थे, जिसमें लंबी दूरी और अधिवेशन के संचार नेटवर्क के चलते काफी लंबा समय लगा। इसी वजह के चलते यह अधिवेशन इतना लंबा खिंचा—करीब 10 महीने।
संयोग से, मैकमहोन ब्रिटिश भारत के मॉर्टिमर ड्यूरेंड से भी जुड़े रहे थे, जिन्होंने सन् 1893 में 2,640 किलोमीटर लंबी ‘ड्यूरेंड लाइन’ को अंतिम रूप दिया था, जो (अब पाकिस्तान) ब्रिटिश भारत और अफगानिस्तान के बीच फैली थी। चीन ने प्रारंभ में तो यह कहते हुए अधिवेशन में तिब्बत की उपस्थिति पर आपत्ति दर्ज करवाई कि उसकी कोई स्वतंत्र स्थिति नहीं है और वह चीन का ही एक हिस्सा है, लेकिन बाद में इस डर के चलते कि कहीं ब्रिटेन एकतरफा ही तिब्बत को लेकर वैसे ही आगे न बढ़ जाए, जैसे रूस ने मंगोलिया के मामले में चीन को दरकिनार कर किया था, उसने हामी भर दी।
इस अधिवेशन में चीन को भीतरी तिब्बत पर नियंत्रण देने और बाहरी तिब्बत की स्वायत्तता को दलाई लामा के नेतृत्व में मान्यता प्रदान करने का प्रस्ताव रखा गया। बाहरी तिब्बत में पश्चिमी और मध्य तिब्बत शामिल थे, जिनमें ल्हासा, चमडो और शिगात्से शामिल हैं और साथ ही ब्रिटिश भारत की सीमा से लगनेवाले क्षेत्र भी; जबकि भीतरी तिब्बत में अमदो और खम का हिस्सा शामिल था। चीन और ब्रिटेन दोनों को तिब्बत की क्षेत्रीय अखंडता का सम्मान करना था और बाहरी तिब्बत के प्रशासन में हस्तक्षेप से दूर रहना था। इसके अलावा, बाहरी तिब्बत को चीन के प्रांत में परिवर्तित नहीं किया जा सकता था।
इस अधिवेशन के दौरान पूर्वोत्तर भारत और तिब्बत के बीच की सीमा पर भी चर्चा हुई और तिब्बत एवं ब्रिटिश भारत के बीच इसे अंतिम रूप दे दिया गया, जिसे बाद में ‘मैकमहोन रेखा’ के रूप में जाना गया। चीन को मैकमहोन रेखा पर चर्चा के लिए इसलिए आमंत्रित नहीं किया गया था, क्योंकि यह तिब्बत और भारत के बीच एक समझौता था, चीन और भारत के बीच नहीं। यह कोई गोपनीय वार्त्ता नहीं थी। चीन इसके बारे में जानता था और उसने कोई आपत्ति नहीं जताई।
इवान चेन ने 27 अप्रैल, 1914 को प्रारूप अधिवेशन को प्रारंभ किया। हालाँकि, दो दिन बाद ही 29 अप्रैल, 1914 को चीन ने चेन की काररवाई का खंडन किया और पूर्ण हस्ताक्षर के साथ आगे जाने से इनकार कर दिया। यहाँ पर ध्यान देने योग्य बात यह है कि चीन ने पूर्ण हस्ताक्षर से इसलिए इनकार नहीं किया कि उसे भीतरी-बाहरी तिब्बत से परेशानी थी, बल्कि ऐसा वास्तव में इसलिए हुआ, क्योंकि चीन और तिब्बत अपने दोनों के बीच विभाजन रेखा से सहमत नहीं हो सकते थे।
उपर्युक्त स्थिति की पुष्टि 4 अगस्त, 1943 को चीन के विदेश मंत्री डॉ. टी.वी. सुंग द्वारा तत्कालीन ब्रिटिश विदेश मामलों के सचिव एंथनी ईडन को भेजे गए एक मीमो से होती है, जिसमें और बातों के अलावा लिखा गया था—“वर्ष 1911 की चीनी क्रांति के बाद से, जब चीनी सेना को तिब्बत से हटाया गया था, तिब्बत ने वास्तविक स्वतंत्रता का आनंद लिया है। उसने तब से खुद को व्यवहार में पूरी तरह से स्वायत्त माना है और चीनी सेना के दोबारा नियंत्रण हासिल करने के सभी प्रयासों का विरोध किया है। वह चट्टान, जिस पर आगे के लिए एक समझ तक पहुँचने के प्रयास के तहत (शिमला) अधिवेशन (1914 का) रखा गया था, को पूरी तरह से चौपट कर दिया गया। स्वायता का सवाल नहीं था (तिब्बत की, जिसे चीन ने स्पष्ट रूप से स्वीकार किया था), बल्कि वह चीन और तिब्बत के बीच सीमा का मामला था।” (एप्री/337-8)
“तिब्बत बहुत बेसब्री से एक स्वतंत्र देश के रूप में मान्यता चाहता था और इसलिए उसने ब्रिटेन के साथ अधिवेशन में हस्ताक्षर किए थे; हालाँकि, वास्तव में उसकी मंशा पूरे तिब्बत की थी, न कि सिर्फ बाहरी तिब्बत की। हालाँकि उसने बेहद बुरी स्थिति में भी अच्छे-से-अच्छा चुनने का प्रयास किया तथा तवांग और डिरांग जॉन्ग को ब्रिटिश भारत को सौंप दिया।” (एप्री/126)
ब्रिटेन और तिब्बत ने 3 जुलाई, 1914 को समझौते पर हस्ताक्षर किए। इवान चेन ने अप्रैल 1914 में अधिवेशन को प्रारंभ किया था; लेकिन चीन ने पूर्ण हस्ताक्षर करने की प्रक्रिया से इनकार कर दिया। (एप्री/126)
शिमला अधिवेशन में सभी (चीन, ब्रिटिश भारत और तिब्बत) के सामने चीन ने 27 अप्रैल, 1914 को तिब्बत को चीनी प्रांत में परिवर्तित न करने का संकल्प लिया, जबकि ब्रिटेन ने तिब्बत के किसी भी हिस्सेपर कब्जा न करने पर सहमति दी।
हालाँकि, इसकी घोषणा पर 3 जुलाई, 1914 की तारीख अंकित है और ब्रिटेन एवं तिब्बत द्वारा हस्ताक्षरित शिमला समझौते में अन्य बातों के अलावा यह भी स्पष्ट है—“...हम सभी इस बात से पूरी तरह से सहमत हैं कि जब तक चीन की सरकार इस समझौते पर हस्ताक्षर करने की रजामंदी नहीं भरती है, तब तक उसे सभी विशेषाधिकारों से वंचित रखा जाएगा।” निर्वासित तिब्बती सरकार इस खंड के आधार पर दावा करती है कि बाहरी और भीतरी दोनों ही तिब्बत असल में दलाई लामा के अधिकार-क्षेत्र में आते हैं।
बाहरी-भीतरी मंगोलिया के मामले और बाहरी-भीतरी तिब्बत के मामले बिल्कुल एक समान थे। ब्रिटिश शायद रूसियों से प्रेरित थे। रूस और चीन के बीच की रस्साकशी के बावजूद मंगोलिया आखिरकार स्वतंत्र हो गया और ऐसा होने का उसका अच्छा ऐतिहासिक कारण भी था। तिब्बत के भी स्वतंत्र होने के अच्छे ऐतिहासिक कारण थे। हालाँकि, दुर्भाग्य से ऐसा हो न सका। अगर पहला विश्व युद्ध शुरू न हुआ होता, जिसने ब्रिटेन के ध्यान को भटका दिया, तो हो सकता है कि उसी समय तिब्बत के लिए कुछ सकारात्मक हो गया होता।
वर्ष 1914-1950: तिब्बत की वास्तविक स्वतंत्रता
वर्ष 1914 के बाद अगले छत्तीस वर्षों के लिए तिब्बत ने वास्तविक स्वतंत्रता का आनंद लिया। इस दौरान चीन ने सरदारों के युग, गृहयुद्ध और द्वितीय विश्व युद्ध को भोगा।
तिब्बत ने अपनी परंपरा के अनुरूप बाकी की दुनिया के साथ अपने रिश्तों को बेहद सीमित रखा। तिब्बत ने हालाँकि कभी भी व्यापक अंतरराष्ट्रीय संबंधों को नहीं बनाकर रखा, लेकिन वे देश, जिनके साथ उसने संबंध बनाए, वे उसके साथ एक संप्रभु राष्ट्र के रूप में ही व्यवहार करते थे। सन् 1949 में तिब्बत ने नेपाल, सिक्किम, मंगोलिया, चीन, भारत एवं कुछ हद तक रूस एवं जापान जैसे देशों के साथ राजनयिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक संबंध बनाए रखे। इसके अलावा, नेपाल ने ल्हासा में एक राजदूत को नियुक्त किए रखा। नेपाल ने सन् 1949 में जब संयुक्त राष्ट्र संघ की सदस्यता के लिए आवेदन किया तो उसने अपने पूर्ण अंतरराष्ट्रीय व्यक्तित्व का प्रदर्शन करने के लिए तिब्बत के साथ अपनी संधि और राजनयिक संबंधों का हवाला दिया।
सन् 1954 में जब दलाई लामा ने बीजिंग का दौरा किया और माओ से मिले तो माओ ने अन्य बातों के अलावा उनसे यह कहा, जैसाकि दलाई लामा ने अपनी आत्मकथा ‘फ्रीडम इन एक्साइल’ में बताई है—
“तिब्बत एक महान् देश है। आपका एक बेहद अद्भुत इतिहास है। आपने बहुत समय पहले चीन पर भी विजय प्राप्त की थी; लेकिन अब आप पीछे रह गए हैं और हम आपकी मदद करना चाहते हैं। हो सकता है कि बीस साल बाद आप हमसे आगे हो जाएँ और फिर चीन की मदद करने की बारी आपकी होगी।” (डी.एल./98)
यानी माओ ने खुद माना कि तिब्बत एक अलग देश था।
स्वतंत्र भारत का उदासीन दृष्टिकोण
तिब्बत के नाजुक महत्त्व के मद्देनजर भारत को यह सुनिश्चित करने के लिए अपनी तरफ से पूरे प्रयास करने चाहिए थे कि तिब्बत की स्वतंत्र स्थिति बनी रहे। लेकिन क्या भारत ने ऐसा किया? क्या भारत अपने एक अच्छेपड़ोसी को बचाने के लिए आगे आया, ताकि उसके स्वतंत्र स्वरूप को विलुप्त होने से बचाया जा सके? क्या भारत ने एक दोस्त और एक पड़ोसी के अपने दायित्व का निर्वहन किया? क्या हम उस भरोसे पर खरे उतरने में कामयाब रहे, जो हमारे अपेक्षाकृत कमजोर पड़ोसी तिब्बत ने हम पर दिखाया था? क्या नेहरू उपनिवेशवाद-विरोधी और साम्राज्यवाद-विरोधी अपनी बात पर टिके रहे? क्या भारत ने अपने पड़ोसी को उपनिवेश होने से बचाने का प्रयास किया? क्या भारत ने अपने महत्त्वपूर्णहितों की रक्षा करने का प्रयास किया? भारत ने क्या भूमिका निभाई? स्वतंत्र भारत या फिर तिब्बत को लेकर नेहरू की क्या नीति थी? दुर्भाग्य से, कुछ नहीं। यह वास्तव में एक निराशावादी नीति थी—अपने हाथ खड़े कर दो और घोषणा कर दो कि भारत तिब्बत को बचाने के लिए कुछ नहीं कर सकता।
भारत को अपनी रणनीतिक सोच को आगे बढ़ाने के लिए सरदार पटेल की बेहद सख्त जरूरत थी। नेहरू ने 1 नवंबर, 1950 को यूनाइटेड प्रेस को दिए एक साक्षात्कार में यह कहते हुए कि “भारत के पास तिब्बत की सैन्य सहायता करने के लिए न तो आवश्यक संसाधन हैं और न ही कोई इच्छा है।” (एप्री/374) और यह भी कि “हम तिब्ब्त को बचा नहीं सकते।” भारत की सुरक्षा के इतने अधिक महत्त्वपूर्ण मसले से एक तरह से हाथ झाड़ने का प्रयास किया, साथ ही उन्होंने यह भी दरशाने की कोशिश की कि सैन्य हस्तक्षेप, जो भारत करने का जरा भी इच्छुक नहीं था, के इतर भारत के करने के लिए कुछ और नहीं है; जबकि भारत अपने सशस्त्र हस्तक्षेप के अलावा और भी बहुत कुछ कर सकता था!
नेहरू ने तिब्बत को एक राष्ट्र के रूप में मिटने दिया
नेहरू ने तिब्बत (हमारे एक अमन-पसंद पड़ोसी और हमारे तथा चीन के बीच के एक रोधक) को एक देश के रूप में मिट जाने दिया, वह भी संयुक्त राष्ट्र में विरोध दर्ज करवाए बिना, जिसके परिणामस्वरूप हमारी उत्तरी सीमा पूरी तरह से असुरक्षित हो गई और उन जल संसाधनों के भविष्य पर सवालिया निशान लग गया, जिनका उद्गम तिब्बत से होता है।
तिब्बती सरकार ने चीनी आक्रामकता के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र में विरोध किया। लेकिन चूँकि तिब्बत संयुक्त राष्ट्र का सदस्य नहीं था, इसके चलते संयुक्त राष्ट्र सचिवालय ने उनकी अपील को सिर्फ एक एन.जी.ओे. की अपील के रूप में रिकॉर्ड कर लिया। उनकी अपील एक प्रकार से टाल दी गई थी।
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इस बाधा के मद्देनजर तिब्बत ने भारत सरकार से तिब्बत के मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र में उठाने का अनुरोध किया। लेकिन भारत ऐसा करने को तैयार नहीं था कि कहीं चीन नाराज न हो जाए! हम उस पड़ोसी की मदद करने से तो रहे, जिसने हमसे मदद की अपील की थी, बल्कि हमने बड़ी बेशर्मी के साथ पीड़ित को आक्रामक चीन के साथ शांतिपूर्ण समझौता करने की सलाह दी। इससे भी बुरा यह रहा कि जब तिब्बत की अपील दूसरे के माध्यम से 23 नवंबर, 1950 को संयुक्त राष्ट्र महासभा में चर्चा के लिए आई तो हमने उस चर्चा का विरोध इस कमजोर बहाने के आधार पर किया कि भारत ने चीन से एक नोट प्राप्त किया है कि इस मसले को शांतिपूर्ण तरीके से हल कर लिया जाएगा!
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भले ही चीन ने तिब्बत पर हमला किया था, बीजिंग में भारत के राजदूत के.एम. पणिक्कर यह कहने के स्तर तक पहुँच गए कि तिब्बत में चीनी फौजों की मौजूदगी की बात को प्रमाणित नहीं किया जा सकता है और तिब्बत में चीनी घुसपैठ का विरोध करना चीन को बुरा दिखाने जैसा होगा (एक हमलावर के रूप में), जिसका संयुक्त राष्ट्र में चीन के प्रवेश को सुनिश्चित करने के भारत के प्रयासों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा! ऐसी बेवकूफी भरी थी नेहरू और पणिक्कर की प्रणाली। चीन को संयुक्त राष्ट्र प्रवेश करने में मदद करने के लिए तिब्बत और अपने राष्ट्रीय सुरक्षा हितों को बलिदान करने की पूरी तैयारी थी।
तिब्बत की अपील को प्रायोजित करने के लिए कोई भी तैयार नहीं था और ऐसे में संयुक्त राष्ट्र में कॉमनवेल्थ प्रतिनिधिमंडल ने किसी संयुक्त काररवाई की संभावना पर चर्चा की। बैठक में भारतीय प्रतिनिधि ने बताया कि भारत संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् में तिब्बत मामले को उठाने के पक्ष में नहीं है और न ही भारत संयुक्त राष्ट्र महासभा के एजेंडे में इसे शामिल किए जाने के पक्ष में है।
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विडंबना और भूल पर नजर डालें : नेहरू ने संयुक्त राष्ट्र में वह मुद्दा तो उठाया, जो भारत को कभी नहीं उठाना चाहिए था—जम्मू व कश्मीर का मामला, क्योंकि यह भारत का आंतरिक मामला था; लेकिन उसी नेहरू ने उस मामले को संयुक्त राष्ट्र में उठाने से साफ इनकार कर दिया, जिसे भारत को निश्चित रूप से उठाना चाहिए था—तिब्बत भारत की बाह्य सुरक्षा और एक शांतिपूर्ण पड़ोसी के अस्तित्व को लेकर इसकी महत्ता के बावजूद। नेहरू को जब कुछ नहीं करना चाहिए था, तब उन्होंने किया और जब उन्हें कुछ करना चाहिए था, तब वे शांत बैठ गए! उनकी क्रियाशीलता और निष्क्रियता—दोनों ही भारत के लिए विनाशकारी प्रभावों के सबसे बड़े कारण बने। नेहरू की रणनीति भारत और तिब्बत के लिए त्रासदी थी। सन् 1938 में जब ब्रिटेन, फ्रांस और अन्य देशों ने नाजी जर्मनी (जे.एन.एस.डब्ल्यू./खंड-9) के लिए चेक लोगों को धोखा दिया था, तब नेहरू ने उसकी कड़ी निंदा की थी; हालाँकि उसी नेहरू ने न सिर्फ तिब्बत को धोखा दिया, बल्कि भारत के राष्ट्रीय हितों को भी धोखा दिया था।
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ब्रिटेन नेहरू के राज वाले भारत के मुकाबले
भारत की सुरक्षा को लेकर अधिक चिंतित था
स्वतंत्र भारत एक उदासीन भारत था (अपनी खुद की सुरक्षा को लेकर उदासीन), क्योंकि ब्रिटिश भारत ने यह सुनिश्चित करते हुए कि तिब्बत किसी भी विदेशी शक्ति से मुक्त रहे, भारत की उत्तरी सीमाओं को सुरक्षित रखने के लिए जो किया जा सकता था, वह किया।
उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में जारिस्ट रूस दक्षिण की ओर अपना विस्तार करते हुए मध्य और दक्षिण एशिया की ओर बढ़ रहा था। ब्रिटेन ने इसके जवाब में अपने ‘ग्रेट गेम’ को प्रारंभ किया। वह था जारिस्ट रूस को शिकस्त देने का। ब्रिटेन ने ठीक से यह समझ लिया था कि एक बफर के रूप में तिब्बत ब्रिटिश भारत, विशेष रूप से उत्तरी भारत, की सुरक्षा के लिए बेहद महत्त्वपूर्ण है। हालाँकि, ब्रिटेन ने तिब्बत को सिक्किम की तरह एक संरक्षित राज्य बनाने में जरा भी दिलचस्पी नहीं दिखाई, क्योंकि उसे यह आर्थिक रूप से इतना महत्त्वपूर्ण प्रतीत नहीं हुआ कि वहाँ पर अपने संसाधनों को इस मतलब के लिए खर्च किया जाए। ब्रिटेन चाहता था कि तिब्बत न तो रूस के अधीन हो और न ही चीन के। उत्तरी भारत की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए स्वायत्त या स्वतंत्र तिब्बत सबसे अच्छा दाँव था, इसलिए रणनीति यथास्थिति बनाए रखने की थी। ब्रिटिशों ने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए सीमावर्ती क्षेत्रों का सर्वेक्षण करने और तिब्बत के कठिन क्षेत्रों में मिशन भेजने के काम में अत्यधिक शारीरिक जोखिम उठाया, बड़ी रकम खर्च की, दशकों तक कुशल रणनीति बनाई, सम्मेलनों का आयोजन किया, समझौतों पर हस्ताक्षर किए; उत्तरी भारत को जितना अधिक हो सके, उतना सुरक्षित करने के लिए सीमाओं को समायोजित किया, यहाँ तक कि ‘मानचित्रीय आक्रामकता’ भी प्रदर्शित की। तीर्थयात्रियों या व्यापारियों के रूप में प्रच्छन्न प्रशिक्षित भारतीय सर्वेक्षक जासूसों ने तिब्बत की अपनी यात्रा के दौरान अपने कदमों को गिना, रात में रीडिंग ली और ल्हासा एवं अन्य स्थानों के देशांतर, अक्षांश व ऊँचाई को मापा।
क्लॉड अर्पि के अनुसार—
“भारत की आजादी से कुछ समय पूर्व तक तिब्बत तथ्यतः न सिर्फ एक स्वतंत्र राष्ट्र था और ब्रिटिश चाहते थे कि वह वैसा ही बना रहे, बल्कि तिब्बत की वस्तुस्थिति को बनाए रखने के लिए सैन्य काररवाई तक करने को बिल्कुल तैयार थे। इसके लिए ब्रिटिश सेना के जनरल स्टाफ द्वारा एक विस्तृत सैन्य हस्तक्षेप योजना भी तैयार की गई थी। मेमो का उद्देश्य (1946 का एक टॉप सीक्रेट मेमो) उस स्थिति में एक समाधान तलाशना था, जहाँ ‘किसी संभावित शत्रुतापूर्ण शक्ति द्वारा तिब्बत पर वर्चस्व स्थापित करना (जो) भारत की सुरक्षा के लिए एक सीधा खतरा साबित हो।’ ...रूस और चीन दोनों में से किसी को भी तिब्बती स्वायत्तता का उल्लंघन करने की अनुमति प्रदान नहीं की जानी चाहिए; क्योंकि ऐसा होने की स्थिति में उनके लिए अपने खुद के लाभ के लिए सड़क और हवाई मार्ग बनाना संभव हो जाएगा, जो भारत की रणनीतिक स्थिति को अत्यंत प्रभावित करेगा।” (एर्पी/371)
यह होती है दूरदर्शिता, रणनीतिक सोच और सतर्क योजना! रणनीतिक सोच की बात करें तो वायसराय और जनरलों की बात तो छोड़ ही दें, यहाँ तक कि एक ब्रिटिश खोजकर्ता, फ्रांसिस यंगहस्बैंड, जिन्होंने सन् 1904 में ल्हासा में ब्रिटिश मिशन का नेतत्वृ किया था, ने वर्ष 1910 में प्रकाशित अपनी पस्तु क ‘इंडिया ऐंड तिब्बत’ में यह लिखा है—
“व्यापार की बात से इतर हम यह सुनिश्चित करना चाहते हैं कि तिब्बत में कोई भी ऐसा प्रभाव व हावी होने पाए, जो हमारे सीमावर्ती क्षेत्र (उत्तरी भारत) में अशांति पैदा करे। यह हमारी चाहतों का कुल जोड़ है। व्यापार खुद में इतना अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं है, लेकिन यह जैसा है, वैसा ही ठीक है। हमारा तिब्बत को हड़पने का जरा भी इरादा नहीं है, लेकिन हम निश्चित रूप से वहाँ शांति चाहते हैं; ल्हासा मिशन से पहले रूसी प्रभाव; अशांति वाला कारक था। अब चीन इसकी वजह है, जो अपनी वैध सीमाओं से परे तक खिंच गया है और वह भी ढीठ कठोरता के साथ (सन् 1909 के ज्हाओ इरफिंग के कब्जे के संदर्भ में)। इनमें से किसी भी कारण का नतीजा बेचैनी, अशांति और घबराहट के रूप में होता है और यह हमें सैनिकों के जमावड़ा लगाने तथा राजनयिक विरोध के लिए मजबूर करता है।” (एफ.वाई./420)
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ब्रिगेडियर दलवी ने लिखा—“अक्तूबर 1950 में मैं दक्षिण भारत के वेलिंगटन स्थित डिफेंस सर्विसेज स्टाफ कॉलेज का एक छात्र था। तिब्बत में चीनी प्रवेश की खबर के तुरंत बाद कमांडेंट जनरल डब्ल्यू.डी.ए. (जो) लेंटेन मुख्य व्याख्यान हॉल में घुसे, प्रवक्ता को बाधित किया और चीनी काररवाई के संदर्भ में हमारे नेताओं की अदूरदर्शिता एवं निष्क्रियता के लिए उनकी बुराई करनी प्रारंभ कर दी। उन्होंने कहा कि भारत का पिछला दरवाजा अब खुल गया है। उन्होंने कहा कि भारत को कुछ करने में विफल रहने की बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ेगी। उनकी अंतिम भविष्यसूचक टिप्पणी यह थी कि उस कमरे में मौजूद कुछ छात्र सेवानिवृत्ति से पहले चीनियों से लड़ रहे होंगे।” (जे.पी.डी./15)
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ओलाफ केरो, सन् 1945 में विदेश विभाग में भारत सरकार के सचिव और सबसे महत्त्वपूर्ण ब्रिटिश रणनीतिक विचारकों में से एक, ने लिखा था—
“भारत की आंतरिक अर्थव्यवस्था और प्रशासन के दृष्टिकोण से भारत और चीन की सीमाओं के बीच इस बफर (तिब्बत) का बने रहना बेहद लाभदायी है। हाल की युद्धकालीन परिस्थितियों से यह साबित होता है कि चीन एक कठिन पड़ोसी है। भारत और चीन के बीच इस बफर को जितने अधिक समय तक बनाकर रखा जा सकता है, भविष्य के संबंध उतने ही बेहतर रहेंगे।” (एर्पी/349)
इस मामले को लेकर ब्रिटेन का दृष्टिकोण बिल्कुल स्पष्ट था। वह अपने उत्तर में एक नया पड़ोसी नहीं चाहता था—न तो चीन, न ही सोवियत संघ।
तिब्बत के दृष्टिकोण से यह कहा जा सकता है कि यह उनका दुर्भाग्य था कि भारत को सन् 1947 में ब्रिटिश हुकूमत से आजादी मिली। अगर इस स्वतंत्रता के मिलने में देरी हो गई होती और ब्रिटिश सन् 1950 में तिब्बत में चीनी आक्रामकता के समय पर भारत पर राज कर रहे होते तो ब्रिटेन ने निश्चित ही मामले को एक लाचार की तरह नहीं देखा होता। उसने यह सुनिश्चित किया होता कि चीनियों को तिब्बत से निकाल फेंका जाए। विकल्प के रूप में यह भी कहा जा सकता है कि यह तिब्बत का दुर्भाग्य ही था कि उस समय भारत की बागडोर नेहरू के हाथों में थी। अगर उनके स्थान पर सरदार पटेल होते या फिर पटेल जैसा ही कोई और नेता होता तो चीन को इतनी आसान जीत न मिली होती।
यह भी महत्त्वपूर्ण है कि एक तरफ जहाँ ब्रिटेन और चीन तिब्बत के सामरिक महत्त्व से अच्छी तरह से परिचित थे, नेहरू के राज में भारत बिल्कुल गैर-जिम्मेदाराना तरीके से अनभिज्ञ बना रहा। नेहरू के लिए यह एक सुविधाजनक, चिर-परिचित, कुछ करने की जरूरत नहीं, हर कीमत पर ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई’—यहाँ तक कि देश की कीमत पर भी।
नेहरू के बिल्कुल विपरीत, सरदार पटेल के अलावा और भी उल्लेखनीय पूर्व ज्ञानी समीक्षक मौजूद थे, जैसे बंबई के एक साप्ताहिक ‘मदर इंडिया’ के के.डी. सेठना ने नवंबर 1950 में ही लिख दिया था—“हमें इस बात को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए कि तिब्बत मुख्य रूप से भारत में प्रवेश के द्वार के रूप में चीन के लिए उपयोगी है। आज या कल, हमें धमकाने का प्रयास किया जाएगा।” (एर्पी/348)
क्या चीन को रोका जा सकता था?
अंतरराष्ट्रीय दबाव को बीच में लाकर चीन को तिब्बत पर कब्जा करने से रोका जा सकता था। सन् 1950 में चीन एक कमजोर स्थिति में था। वह कोरिया में पूरी तरह से प्रतिबद्ध था और इसके चलते वह अपने मुख्य भूभाग में किसी भी प्रकार से सुरक्षित नहीं था। तिब्बत के लिए बेहद व्यापक अंतरराष्ट्रीय समर्थन प्राप्त हुआ होता, अगर भारत, जिसे ब्रिटिश भारत से विरासत में तिब्बत के साथ एक संधि भी मिली थी और जो सीधे प्रभावित भी होता था, ने पहल की होती। वैश्विक राय चीनी आक्रामकता के खिलाफ थी और सभी देश भारत, सबसे अधिक प्रभावित देश, की ओर नेतृत्व के लिए देख रहे थे। यहाँ तक कि अगर भारत की मंशा खुद सैन्य हस्तक्षेप करने की नहीं थी तो वह कम-से-कम दूसरों के सैन्य प्रयासों में तो मदद कर ही सकता था या फिर चीन को कूटनीतिक तरीके से नाकाम कर सकता था। ‘दि इकोनॉमिस्ट’ ने लिखा—
“सन् 1912 के बाद से चीन से पर्णू स्वतंत्रता बनाए रखने के चलते तिब्बत का एक स्वतंत्र देश के रूप में माने जाने का दावा बेहद मजबूत है; लकिे न इस मामले में नेतत्व ृ करने के लिए आगे बढ़ना भारत पर निर्भर करता है। अगर भारत अपने और चीन के बीच एक बफर स्टेट के रूप में तिब्बत की स्वतंत्रता का समर्थन करने का फैसला करता है तो ब्रिटेन और अमेरिका भी इसे औपचारिक राजनयिक मान्यता प्रदान करने में देर नहीं करेंगे।” (यू.आर.एल.61) (यू.आर.एल.62)
प्रसेनजित बासु ‘एशिया रिबॉर्न’ में लिखते हैं—“अमेरिकी तिब्बत की संप्रभुता के दावे का समर्थन करने को बिल्कुल तैयार थे, लेकिन उन्हें दावे को दृढ़ करने के लिए भारत (या फिर शायद नेपाल) के समर्थन की आवश्यकता थी। लेकिन प्रच्छन्न साम्यवादी नेहरू (जो अपनी सीधे से दिल से यह मानते थे कि साम्यवाद आनेवाले समय की सबसे सफल अवधारणा होगी और इतिहास की ताकतें निश्चित ही साम्यवाद की जीत का नेतृत्व करेंगी) ने तिरस्कारपूर्वक समर्थन के अमेरिकी प्रस्ताव को नकार दिया। नेहरू ने अपने मंत्रिमंडल को बताया कि भारत के लिए तिब्बत को अच्छी तरह से हथियारबंद पी.एल.ए. से दूर ले जाने में मदद करना असंभव है (लेकिन उन्होंने इस सवाल को संबोधित नहीं किया कि क्या अमेरिकी समर्थन से संयुक्त प्रयास द्वारा सैन्य क्षमता को बढ़ाया जो सकता था)।” (पी.बी.)
डॉ. एन.एस. राजाराम (यू.आर.एल.43) ने लिखा—
“...यह किसी त्रासदी से कम नहीं है कि इतिहास के इस बेहद महत्त्वपूर्ण मोड़ पर वे दो व्यक्ति, जिनका नेहरू पर सबसे अधिक प्रभाव है, वे हैं—कृष्ण मेनन और के.एम. पणिक्कर, दोनों ही साम्यवादी। सच्चाई यह है कि भारत तिब्बत में अपने हितों की रक्षा के लिए एक मजबूत स्थिति में था; लेकिन उसने चीन को खुश करने के चक्कर में इस अवसर को छोड़ दिया। भारत में इस बारे में व्यापक अनभिज्ञता है कि सन् 1950 में चीन को तिब्बत पर काबिज होने से रोका जा सकता था। वहीं दूसरी तरफ, पटेल ने सन् 1950 में ही इस बात को समझ लिया था कि चीन एक कमजोर स्थिति में है और वह कोरिया में पूरी तरह से प्रतिबद्ध है और इसके चलते वह अपने मुख्य भूभाग में किसी भी प्रकार से सुरक्षित नहीं था।
“जनरल मैकआर्थर महीनों से राष्ट्रपति ट्रूमैन से ‘चियांग काई शेक को बंधन मुक्त करने’ का आग्रह कर रहे थे, जो फार्मोसा (ताइवान) में पूर्ण अमेरिकी समर्थन के साथ घात लगाए बैठा था। चीन के पास तब तक परमाणु बम नहीं था और वह अभी उससे दस साल पीछे था। एक ऐसे समय में, जब चीन अपनी पकड़ को बनाए रखने के लिए संघर्षरत था, भारत के पास बल के एक दृढ़ प्रदर्शन के जरिए खोने को बहुत कम, लेकिन पाने के लिए बहुत अधिक था। इसके अलावा, भारत के पास अंतरराष्ट्रीय समर्थन था और साथ ही तिब्बत में चीनी आक्रामकता के खिलाफ वैश्विक राय भी। दुनिया वास्तव में भारत की तरफ नेतृत्व करने के लिए देख रही थी। नेहरू ने पटेल के पत्र के साथ-साथ अंतरराष्ट्रीय राय को भी दरकिनार कर दिया और तिब्बत को एक दोस्ताना बफर स्टेट में बदलने के एक सुनहरे मौके को हाथ से जाने दिया। इस प्रकार के एक सैद्धांतिक दृष्टिकोण का प्रदर्शन करते हुए भारत ने एक महान् शक्ति का दर्जा भी हासिल कर लिया होता, जबकि पाकिस्तान दुनिया के ध्यान की रडार स्क्रीन से ही गायब हो गया होता।” (यू.आर.एल.43)
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डॉ. एन.एस. राजाराम आगे लिखते हैं—“कश्मीर में नेहरू द्वारा की गई भूल को तो हर कोई जानता है, लेकिन तिब्बत में उनके द्वारा की गई मूर्खता के सामने वह कुछ भी नहीं है। दूरदृष्टि— और हिम्मत—की इस चिरस्मरणीय विफलता के परिणामस्वरूप भारत को जल्द ही एक तीसरे दर्जे की शक्ति के रूप में आँका जाने लगा और इसे पाकिस्तान के समकक्ष रखा जाने लगा।” (यू.आर.एल.43)
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भले ही भारत के पास चीन का सामना करने और उसे रोक पाने लायक सैन्य क्षमता नहीं थी, लेकिन इसके बावजूद कई ऐसे कदम थे, जो भारत उठा सकता था—तुरंत नामंजूरी, तिब्बत को नैतिक समर्थन प्रदान करना, संयुक्त राष्ट्र में विरोध दर्ज करवाना, चीनी काररवाई के विरुद्ध वैश्विक राय को गतिशील करना, तिब्बत को एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में मान्यता प्रदान करना, अन्य देशों को भी ऐसा करने के लिए राजी करना, तिब्बत में जनता की राय का पता लगाने के लिए जनमत-संग्रह की माँग उठाना—चीन मंगोलिया में जनमत-संग्रह के लिए राजी हो गया था, जिसके परिणामस्वरूप उसकी आजादी संभव हुई; शांतिपूर्ण साधनों के माध्यम से तिब्बत के लिए पूर्ण स्वतंत्रता सुनिश्चित करने की दिशा में कदम उठाना। यहाँ तक कि अगर एक अनुकूल परिणाम आने में दशकों का समय भी लगता तो कोई बात नहीं थी—कम-से-कम उम्मीद की लौ तो जली ही रहती। अगर भारत ने पहल की होती तो कई देश भारत का समर्थन करने के लिए आगे आए होते। वास्तव में, कई देशों ने बाद में संयुक्त राष्ट्र में तिब्बत के पक्ष में प्रस्ताव पारित किया, जिसका भारत, जो एक प्रभावित देश था, ने समर्थन नहीं किया!
कोई ऐसा भी कह सकता है कि ऐसा करने से चीन भारत का दुश्मन बन गया होता! बहरहाल, क्या चीन ने हमारे मित्र और पड़ोसी तिब्बत पर हमला करते समय अपनी दोस्ती की परवाह की थी? क्या दोस्ती सिर्फ एकतरफा होती है? विदेश नीति कायरता पर आधारित नहीं हो सकती! या फिर इस उम्मीद में दूसरे पक्ष के प्रति बहुत अच्छा बने रहना कि सामनेवाला पक्ष भी वैसा ही करेगा! अमेरिका को यह बात जानकर बेहद निराशा हुई कि भारत ने तिब्बत को उसके हाल पर छोड़ने का फैसला करते हुए अपने हथियार डाल दिए हैं और पीछे बैठकर कुछ न करने का फैसला किया है! भारत में अमेरिका के तत्कालीन राजदूत लॉय हेंडरसन ने भारतीय रवैए को ‘दार्शनिक रजामंदी’ के रूप में वर्णित किया था।
कई नामचीन भारतीय राजनीतिज्ञों और प्रबुद्ध नागरिकों ने तिब्बत पर चीनी कब्जे के विरोध में अगस्त 1953 में एक समिति बनाने और ‘तिब्बत दिवस’ आयोजित करने का निर्णय लिया। नेहरू ने 24 अगस्त, 1953 को ए.आई.सी.सी. के बलवंत राय मेहता को लिखा—“...स्पष्ट है कि किसी भी कांग्रेसी को ऐसी किसी समिति में न तो शामिल होना चाहिए और न ही ‘तिब्बत दिवस’ के आयोजन में भाग लेना चाहिए। ऐसा करना चीन के प्रति अस्नेही होगा और यह उस नीति के विरुद्ध भी होगा, जो हमने इतने वर्षों तक अपनाई है। एक प्रकार से एक दिवस के आयोजन का अब कोई औचित्य नहीं है। मुझे लगता है कि हमें दल के सभी सदस्यों को इससे दूर रहने के लिए सूचित कर देना चाहिए। अगर आप मुझे याद दिलाएँगे तो मैं कल होनेवाली पार्टी मीटिंग में भी इसका उल्लेख करूँगा।” (जे.एन.एस.डब्ल्यू./खंड-23/483) उपर्युक्त के विषय में अधिक जानकारी के लिए कृपया भूल#97 के अंतर्गत उपखंड ‘तिब्बत एपिसोड : नेहरू की अभिव्यक्ति की आजादी के विरोधी स्टैंड’ के एक और सुस्पष्ट उदाहरण को देखें।
नेहरू का अजीब और रहस्यमय तर्कसंगतता का प्रयास
नेहरू ने भारत की निष्क्रियता को कथित तौर पर विभिन्न तरीकों से तर्कसंगत बनाने का प्रयास किया और उनमें सबसे अधिक हास्यास्पद यह था कि तिब्बती समाज पूरी तरह से पिछड़ा हुआ एवं सामंती था और ऐसे में सत्तारूढ़ आभिजात्य वर्ग का इस प्रकार के सुधारों से परेशान होना तय था, आदि।
वॉल्ट क्रॉकर ने लिखा— “वर्ष 1952-53 में दिल्ली में ऐसा कहा जाता था कि नेहरू निजी और अर्धनिजी तौर पर तिब्बत पर चीनी कब्जे को उचित ठहराते थे।” (क्रॉक/73) ‘आर वी डिसीविंग अॉवरसेल्व्स अगेन?’ में अरुण शौरी कहते हैं—
“पंडितजी अब पूरी तरह से तिब्बत के मामले में कोई भी आदेश देने के विरोध में उतर आए हैं। यह सिर्फ इतना नहीं है कि हम तिब्बत का समर्थन नहीं कर सकते। अब उनकी स्थिति यह है कि हमें तिब्बत का समर्थन नहीं करना चाहिए। इसका कारण इतिहास के प्रति उनका प्रगतिशील दृष्टिकोण है! तिब्बत की राज्य-प्रणाली सामंती है; और हम सामंतवाद का समर्थन कैसे कर सकते हैं?” (ए.एस./79)
“पंडितजी कोई काररवाई न करने की वास्तविकता के लिए जरा भी खेद न प्रकट करने के कई अन्य कारण दोहराते हैं, ‘हमें यह बात याद रखनी चाहिए कि तिब्बत काफी समय से दुनिया से पूरी तरह से कटा हुआ है और सामाजिक तरीके से देखें तो यह काफी पिछड़ा हुआ और सामंती है। यह तय है कि वहाँ पर होनेवाले बदलाव छोटे से शासक वर्ग और कुछ बड़े मठों को बिल्कुल भी पसंद नहीं आ रहे हैं। मैं इन सामंती प्रमुखों का इस नई स्थिति से नाराज होना अच्छे से समझ सकता हूँ। हम सामंतवाद के रक्षक के रूप में खड़े नहीं हो सकते।’” (ए.एस./100)
मूर्खतापूर्ण, हैरान करनेवाला और व्याख्या के अयोग्य! आखिर नेहरू का तर्क किस ओर ले जाता है? कोई भी देश, अगर वह पिछड़ा और सामंती है, तो प्रगति में मदद करने के नाम पर उस पर कोई अन्य देश कब्जा कर ले! इस तर्क के आधार पर अमेरिका एशिया और अफ्रीका के अधिकांश भाग पर कब्जा करने के लिए स्वतंत्र था, क्योंकि वे पिछड़े हुए सामंती थे—और इसमें भारत भी शामिल था, क्योंकि वह भी उसी श्रेणी में आता था; और नेहरू को ऐसा होने देने में कोई परेशानी भी नहीं होती! चीन का क्रूर साम्यवाद बौद्ध सामंतवाद से श्रेष्ठ कैसे था?
निम्नलिखित इससे भी कहीं अधिक चौंकानेवाला है। अपनी नवीनतम पुस्तक ‘विल तिब्बत एवर फाइंड हर सोल अगेन?’ में (क्लॉड) एर्पी एक और चौंकानेवाला रहस्योद्घाटन करते हैं कि “नेहरू ने तिब्बत में पी.एल.ए. के हमलावर सैनिकों को तब चावल की आपूर्ति की थी, जब सन् 1950 में वे जीने के तिब्बती तरीके और उनकी संस्कृति को तहस-नहस करने में व्यस्त थे—‘इस अवधि की सबसे विचित्र घटना थी—पी.एल.ए. के सैनिकों को खाने के लिए भारत से आनेवाले चावल का मिलना। बिना दिल्ली के सक्रिय समर्थन के पी.एल.ए. के सैनिकों के लिए तिब्बत में जीवित रहना संभव ही नहीं था।’ ” (यू.आर.एल.84)
एक अस्थिर दृष्टिकोण क्यों?
आखिर नेहरू ने ऐसा काम क्यों किया?
एक : कमजोर की बलि दे दें और दबंग को संतुष्ट करें। अरुण शौरी ने लिखा—“... (भारतीय) सरकार की प्रतिक्रिया ऐसे भीरुपन में सबसे अच्छी थी कि अगर हम अजगर के प्रति पर्याप्त विनम्र रहें तो वह शायद इतना दयालु हो जाए कि हमें न निगले।”(ए.एस./26) विंस्टन चर्चिल ने कहा था, “तुष्टिकरण करनेवाला वह होता है, जो मगरमच्छ को इस उम्मीद के साथ खाना खिलाता है कि वह उसे सबसे आखिर में खाएगा।” ऐसा करना एक बेहद शांत और हानि-रहित पड़ोसी के साथ एक खतरनाक दबंग से अदला-बदली करना था। भारत के अपने हथियार डाल देने के तरीके को देखते हुए चीन ने भारत और उसके नेताओं के प्रति अपमान की भावना विकसित कर ली। माओ सिर्फ शक्तिशाली का सम्मान करना जानता था, उन कमजोरों का नहीं, जो उसे प्रसन्न करने के लिए झुक जाते थे। भारत की बुजदिली ने जरूर चीन का हौसला बढ़ाया होगा।
दो : यह स्वभावतः नेहरू के अनुकूल था। नेहरू एक शांतिवादी थे और वे मुश्किल परिस्थितियों का सामना करने में जरा भी सक्षम नहीं थे। इसका नतीजा क्या रहा? वे लोग, जो अपने दोस्तों और पड़ोसियों को, विशेषकर कमजोरों को उनकी परेशानियों के बीच छोड़ देते हैं, उन्हें यह बात भी मालूम होनी चाहिए कि एक दिन उनका खुद का समय भी आ सकता है। वह आया भी, जिसका भारत ने सन् 1962 में अनुभव किया। जो कभी सबसे सुरक्षित सीमा थी, वह नेहरू की बदौलत सबसे असुरक्षित सीमा में तब्दील हो गई थी।
राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने सुविदित रूप से कहा था, “मुझे उम्मीद है कि मैं भूत-प्रेत नहीं देख रहा हूँ, लेकिन मैं तिब्बत की हत्या को भारत के जिम्मे आता देख रहा हूँ।” (आर.पी.2) उन्होंने यह भी लिखा—“तिब्बत के मामले में भी हमने बेहद अभद्र तरीके से अपने कदम आगे बढ़ाए; लेकिन यहाँ तक कि एक बफर स्टेट की स्थिति को बनाए रखने में हमारी रुचि के बावजूद, क्योंकि इसके परिणामस्वरूप हमारी 2,500 मील लंबी सीमा चीन के सामने खुल गई है और इस बारे में मेरी गहरी संवेदना है। मुझे लगता है कि तिब्बत का रक्त हमारे कंधों पर है; लेकिन प्रधानमंत्री को तिब्बत का नाम तक आना अभी भी जरा भी पसंद नहीं है और वे उसकी आजादी के किसी भी उल्लेख को ‘प्रत्यक्ष बकवास’ मानते हैं।” (के.एम.एम./खंड-1/289)
तीन : नेहरू का मार्क्सवादी-कम्युनिस्ट वश्विक दृष्टिकोण (भूल#106-07) ने तय किया कि साम्यवादी देश साम्राज्यवादी नहीं हो सकते। इसके बिल्लकु उलट, कई उदाहरण मौजूद होने के बावजूद, विशेषकर सोवियत संघ के मामले में—‘वैज्ञानिक दिमाग वाले’, ‘समझदार’ नेहरू अपने बिल्लकु सामने आनेवाले तथ्यों की भी परवाह नहीं करते थे, अगर वे उनके मार्क्सवादी-कम्युनिस्ट धार्मिक विश्वास की पष्टिु या समर्थन नहीं करते थे। मार्क्सवादी-कम्युनिस्ट वास्तव में अब्राहमिक चतुर्थ है, अब्राहमिक प्रथम, यानी यहूदी धर्म, अब्राहमिक द्वितीय, यानी ईसाई धर्म और अब्राहमिक ततृीय यानी इसलाम के बाद।
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चीन और तिब्तत को लेकर सरदार पटेल द्वारा नेहरू को लिखे गए पत्र
सरदार पटेल ने पहले जून 1949 में नेहरू को सिक्किम, तिब्बत और चीन को लेकर पत्र लिखा था, जिसमें लिखा था—
“हमें सिक्किम के साथ-साथ तिब्बत में भी अपनी स्थिति मजबूत करनी होगी। हम कम्युनिस्ट ताकतों को जितना अधिक दूर रखेंगे, उतना ही बेहतर होगा। तिब्बत लंबे समय से चीन से बिल्कुल अलग है। मेरा अनुमान है कि जितनी जल्दी कम्युनिस्टों ने खुद को चीन के बाकी हिस्सों में स्थापित किया है, वे इसके स्वायत्त अस्तित्व को नष्ट करने की कोशिश करेंगे। आपको ऐसी परिस्थितियों में तिब्बत को लेकर अपनी नीति पर ध्यान से विचार करना होगा और अंततः उसके लिए अभी से तैयारी करनी होगी।” (एम.एल./149)
सरदार पटेल ने इसी संदर्भ में अपनी मृत्यु से करीब पाँच सप्ताह पहले 7 नवंबर, 1950 को तिब्बत एवं चीन के मसले पर नेहरू को एक और पत्र लिखा था। उनका यह पत्र तभी से भविष्यसूचक होने के चलते लोकप्रिय हो गया और इसे अकसर उद्धृत किया जाता है। यह पत्र दिखाता है कि अंतरराष्ट्रीय मामलों पर सरदार पटेल की पकड़ नेहरू के मुकाबले कहीं अच्छी थी और यह भी कि वे कहीं बड़े अंतरराष्ट्रीयवादी थे। इस पत्र को नीचे शब्दशः पुनः प्रस्तुत किया जा रहा है (इस पुस्तक के लेखक ने कुछ निश्चित भागों को इटैलिक्स कर दिया है, ताकि वे प्रभावशाली रहें)। (एस.पी.2) (बी.के.2/215-22) (डी.डी./471-5)
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डी.ओ. संख्या 821-डी.पी.एम./50
नई दिल्ली
7 नवंबर, 1950
प्रिय जवाहरलाल,
जब से मैं अहमदाबाद से वापस लौटा हूँ और उसी दिन आयोजित हुई मंत्रिमंडल की बैठक के बाद, जिसमें मुझे सिर्फ 15 मिनट के नोटिस पर शामिल होना पड़ा और साथ ही मुझे इस बात का भी अफसोस है कि मैं सभी कागजों को पूरी तरह से पढ़ नहीं सका, मैं लगातार बेहद उत्सुकता के साथ तिब्बत की समस्या को लेकर विचार कर रहा था और मुझे लगा कि मेरे मस्तिष्क में जो कुछ चल रहा है, मुझे उसे आपके साथ साझा करना चाहिए।
मैंने बड़े ध्यान से विदेश मंत्रालय और बीजिंग में हमारे राजदूत तथा उनके जरिए चीनी सरकार के साथ हुए पत्राचार को पढ़ा है। मैंने अपने राजदूत और चीनी सरकार के बीच इस पत्राचार को जितना अधिक संभव हो सके, उतना अनुकूल तरीके से आगे बढ़ाने का प्रयास किया है; लेकिन मुझे बड़े खेद के साथ यह कहना पड़ रहा है कि उन दोनों में से कोई भी इस पूरी कवायद के नतीजों पर खरा नहीं उतरा है। चीनी सरकार हमें शांतिपूर्ण इरादों की वकालत करके धोखा दे रही है। मेरा मानना यह है कि उन्होंने इस महत्त्वपूर्ण समय पर हमारे राजदूत के मन में यह गलत विश्वास बैठा दिया है कि वे शांतिपूर्ण तरीके से तिब्बत की समस्या का समाधान करने के इच्छुक हैं।
इस बात पर जरा भी शक नहीं है कि इस पत्राचार की अवधि के दौरान चीनी तिब्बत पर बड़ा हमला करने पर ध्यान केंद्रित कर रहे होंगे। मेरा मानना है कि चीनियों की अंतिम काररवाई किसी कपट से कम नहीं होगी। सबसे बड़े दुःख की बात यह है कि तिब्बती हम पर भरोसा करते हैं; उन्होंने हमें मार्गदर्शक चुना है और हम उन्हें चीनी कूटनीति या चीनी विद्वेष के जाल से बाहर नहीं ला सके हैं। मौजूदा स्थिति को देखते हुए लगता है कि हम दलाई लामा को भी बचाने में सफल नहीं रहेंगे।
हमारे राजदूत चीनियों की नीतियों और कार्यों का स्पष्टीकरण या औचित्य तलाशने का पूरा प्रयत्न कर रहे हैं। विदेश मंत्रालय के एक तार में की गई टिप्पणी से विदित होता है कि हमारे राजदूत द्वारा हमारी ओर से चीनी सरकार के सामने किए गए एक या दो प्रतिनिधित्वों में दृढ़ता का अभाव होने के साथ अनावश्यक माफी भी माँगी गई है। किसी भी समझदार व्यक्ति का इस बात पर विश्वास करने की कल्पना करना भी असंभव है कि तिब्बत में एंग्लो-अमेरिकी षड्यंत्र से चीन को कोई खतरा है। इसलिए, अगर चीनी इस बात पर भरोसा कर रहे हैं तो उन्होंने हम पर इतना अविश्वास किया है कि वे हमें एंग्लो-अमेरिकी कूटनीति या रणनीति का गुलाम या साधन समझ रहे हैं। अगर आपके सीधे उनके संपर्क में होने के बावजूद चीनियों द्वारा इस बात को सच माना जा रहा है तो यह इस बात का द्योतक है कि हम चाहे चीनियों को अपना दोस्त मानें, पर वे हमें अपना दोस्त नहीं मानते हैं। हमें यह समझना चाहिए कि यही कम्युनिस्ट मानसिकता है कि ‘जो हमारे साथ नहीं है, वह हमारे विरुद्ध है’; और यह बात इतनी महत्त्वपूर्ण है कि हमें इसका ध्यान रखना चाहिए।
हम पिछले कुछ महीनों से रूसी कैंपों के बाहर रहकर वास्तव में अकेले ही संयुक्त राष्ट्र में चीन के प्रवेश और फर्मोसा के मामले पर अमेरिकी विश्वास हासिल करने का प्रयास कर रहे हैं। हम चीन की भावनाओं को शांत करने, उसकी आशंकाओं को दूर करने और अमेरिका, ब्रिटेन एवं संयुक्त राष्ट्र के साथ चर्चाओं और पत्राचार में उसकी वैध माँगों का समर्थन करने के लिए जो कुछ कर सकते हैं, वह कर रहे हैं। इसके बावजूद चीन हमारे स्वार्थ-रहित प्रयासों से जरा भी संतुष्ट नहीं है। वह हमें शक की दृष्टि से देखना जारी रखे हुए है और संदेह का यह संपूर्ण मनोविज्ञान ऐसा है, कम-से-कम बाहरी रूप से, जो शायद थोड़ी शत्रुता के साथ मिला हुआ है।
मुझे नहीं लगता है कि हम चीन को अपने अच्छे इरादों, मित्रता और सद्भावना का इससे अधिक प्रमाण दे पाएँगे। हमारे पास पीकिंग में एक राजदूत हैं, जो हमारे मित्रवत् भाव को समझाने के लिए उत्कृष्ट रूप से उपयुक्त हैं। यहाँ तक कि वे भी चीनियों को बदलने में नाकामयाब ही रहे हैं। उनके द्वारा हमें भेजा गया अंतिम टेलीग्राम अशिष्ट व्यवहार का एक नमूना है और यह न सिर्फ तिब्बत में चीनी सेना के घुसने के हमारे विरोध को खारिज करता है, बल्कि ऐसे निराधार आरोप भी लगाता है कि हमारा रवैया विदेशियों से प्रभावित है। ऐसा प्रतीत होता है, जैसे एक दोस्त नहीं, बल्कि एक संभावित दुश्मन बोल रहा है।
इसकी पृष्ठभूमि में, अब हमें तिब्बत के गायब हो जाने, जैसाकि हमें पता है, और चीन के हमारे दरवाजे तक विस्तार कर लेने के परिणामस्वरूप बनी नई स्थितियों पर ध्यान केंद्रित करना होगा। समग्र इतिहास में हमने कभी उत्तर-पूर्वी सीमाओं की चिंता नहीं की। हिमालय उत्तर से आनेवाले सभी खतरों के बीच अभेद्य अवरोध बना रहा है। तिब्बत एक अच्छा दोस्त है, जिसने हमारे लिए कभी कोई मुश्किल खड़ी नहीं की। चीन हमेशा से विभाजित रहा है। उनकी अपनी आंतरिक समस्याएँ थीं और उन्होंने कभी हमारी सीमाओं पर कोई चिंता नहीं होने दी।
हमने सन् 1924 में तिब्बत के साथ एक समझौता किया, चीन जिसके समर्थन में नहीं था। ऐसा लगा कि हमने तिब्बती स्वायत्तता को स्वतंत्र संधि संबंध मान लिया है। हमें जो चाहिए, वह शायद चीनी प्रतिहस्ताक्षर था। आधिपत्य की चीनी व्याख्या शायद बिल्कुल अलग थी। इसलिए, हम बड़े आराम से यह मान सकते हैं कि वे जल्द ही उन सभी व्यवस्थाओं को खत्म कर देंगे, जिसमें चीन बीते वर्षों में हमारे साथ शामिल हुआ है। यह तिब्बत के साथ हुए तमाम सीमांत और वाणिज्यिक समझौतों को चर्चा में धकेल देता है, जो बीती आधी सदी से काम कर रहे हैं।
चीन अब विभाजित नहीं है। वह संगठित और मजबूत है। हिमालय की उत्तर और उत्तर-पूर्वी सीमा की हमारी प्रजा जातीय एवं सांस्कृतिक तौर पर तिब्बत एवं मंगोलिया से भिन्न नहीं है। अपरिभाषित सीमाएँ और हमारी ओर एक ऐसी आबादी की मौजूदगी, जिसके संबंध तिब्बतियों और चीनियों से रहे हैं, हमारे और चीनियों के बीच संभावित परेशानियों का कारण हो सकती है। आधुनिक और कड़वा इतिहास हमें बताता है कि साम्यवाद साम्राज्यवाद के खिलाफ ढाल नहीं हो सकता और साम्यवादी दूसरों के मुकाबले साम्राज्यवादियों जितने ही अच्छे या फिर बुरे हो सकते हैं।
इस संदर्भ में, चीन की महत्त्वाकांक्षा न केवल हमारी ओर के हिमालय की समतल धरा पर, बल्कि असम के कुछ हिस्सों को भी समाविष्ट करती है। उनकी महत्त्वाकांक्षा बर्मा की भी है। बर्मा के साथ एक अतिरिक्त परेशानी यह है कि उसके पास मैकमहोन रेखा नहीं है, जिसके सहारे वह एक अनुबंध की रूपरेखा को तैयार कर सके। चीनी अतार्किकता और साम्यवादी साम्राज्यवाद पश्चिमी शक्तियों के विस्तारवाद या साम्राज्यवाद से बिल्कुल अलग हैं। चीन में विचारधारा का एक लबादा है, जो इसे दस गुना अधिक खतरनाक बनाता है।
जातीय, राष्ट्रीय या ऐतिहासिक दावे वैचारिक विस्तारवाद की आड़ में छुपे हैं। इसलिए उत्तर व उत्तर-पूर्व की ओर से खतरा साम्यवाद एवं साम्राज्यवाद—दोनों हो जाता है। जबकि हमारे पश्चिम व उत्तर-पश्चिम की ओर से पहले से ही सुरक्षा को खतरा बरकरार है। साथ ही उत्तर और उत्तर-पूर्व की ओर से नया खतरा बढ़ गया है।
इसके परिणामस्वरूप, सदियों के बाद पहली बार भारत की रक्षा को एक साथ दो मोरचों पर ध्यान केंद्रित करना होगा। अब तक के हमारे सुरक्षा उपाय सिर्फ पाकिस्तान पर श्रेष्ठता हासिल करने के हिसाब पर आधारित थे। हमें अब अपनी गणना में उत्तर और उत्तर-पूर्व में चीन को भी शामिल करना होगा, एक कम्युनिस्ट चीन, जिसकी निश्चित महत्त्वाकांक्षाएँ एवं उद्देश्य हैं, जो किसी भी तरह से हमारे प्रति अनुकूल नहीं हैं।
हमें संभावित परेशानियों वाली इस सरहद की राजनीतिक स्थितियों पर विचार करना होगा। हमारे उत्तरी और उत्तर-पूर्वी दृष्टिकोण में नेपाल, भूटान, सिक्किम, दार्जिलिंग (क्षेत्र) और असम के आदिवासी क्षेत्र शामिल हैं। संचार की दृष्टि से ये कमजोर क्षेत्र हैं। वहाँ अविभाजित रक्षात्मक रेखा का भी अभाव है। घुसपैठियों के लिए असीमित संभावनाएँ हैं। पुलिस सुरक्षा की मौजूदगी न के बराबर है। हमारी चौकियाँ भी पूरी तरह से आबाद नहीं लग रही हैं। इन क्षेत्रों के साथ हमारा संपर्क घनिष्ठ एवं अंतरंग भी नहीं है।
इन इलाकों में बसनेवाले लोगों में भारत के प्रति वफादारी और निष्ठा का अभाव है। दार्जिलिंग और कलिंपोंग इलाका भी मंगोलियाई पूर्वाग्रहों से मुक्त नहीं है। पिछले तीन वर्षों में हम नागा और दूसरी असमी जातियों की ओर पर्याप्त पहुँच नहीं बना पाए हैं। यूरोपीय मिशनरियाँ और अन्य आगंतुक उनके संपर्क में हैं, लेकिन उनका प्रभाव भारत/भारतीयों को लेकर जरा भी मैत्रीपूर्ण नहीं है। सिक्किम में भी कुछ समय पहले राजनीतिक उबाल था। इस बात की पूरी संभावना है कि वहाँ असंतोष की चिनगारी सुलग रही हो।
भूटान अपेक्षाकृत शांत है, लेकिन तिब्बतियों के प्रति इसकी आत्मीयता एक बड़ी बाधा है। नेपाल में एक कमजोर कुलीन वर्ग का शासन है, जो लगभग पूरी तरह से सेना पर आधारित है, वह जनसंख्या के अशांत तत्त्व के साथ-साथ आधुनिक युग के प्रबुद्ध विचारों के साथ संघर्ष में है। ऐसे हालात में प्रजा को नए खतरों से अवगत कराना या सैन्य शक्ति को बढ़ाना बहुत ही कठिन है। इस मुसीबत का सामना जाग्रत् दृढ़ता, शक्ति और दृढ़ निश्चय से किया जा सकता है।
मुझे पूरा विश्वास है कि चीन और उसका प्रेरणा-स्रोत सोवियत रूस हमारी इस कमजोरी का कुछ अपनी विचारधारा और कुछ महत्त्वाकांक्षा के कारण लाभ उठाने से चूकेगा नहीं। मेरे मत के अनुसार, ऐसी स्थिति में हम आत्म-संतुष्ट या ढुल-मुल नहीं हो सकते। हमें क्या चाहिए और उसे कैसे पाया जा सकता है, यह हमें पता होना जरूरी है। उद्देश्य के निरूपण या उनकी प्राप्ति के लिए बनाई गई नीतियों में इच्छा-शक्ति की कमी हमें न केवल कमजोर करेगी, बल्कि खतरे में बढ़ोतरी भी कर सकती है, जो बिल्कुल स्पष्ट है।
अब हमें बाहरी खतरों के साथ-साथ गंभीर आंतरिक खतरों का सामना भी करना होगा। मैंने पहले ही (एच.वी.आर.) आयंगर को इन मामलों से संबंधित खुफिया विभाग की रिपोर्ट की एक प्रति को विदेश मंत्रालय भिजवाने के लिए कह दिया है। भारत की कम्युनिस्ट पार्टियों को विदेशों में बैठे कम्युनिस्टों से संपर्क करने और उनसे हथियार साहित्य आदि प्राप्त करने में मुश्किल हो रही है। उन्हें बर्मा एवं पूर्वी पाकिस्तान की सरहदों और समुद्र का सामना करना पड़ रहा है। अब उनके लिए चीन और उसके जरिए अन्य साम्यवादियों से संपर्क करना आसान हो जाएगा। जासूस, घटिया लेखकों और साम्यवादियों की घुसपैठ आसान हो जाएगी।
अलग-थलग पड़े इन साम्यवादी टुकड़ों और तेलंगाना एवं वारंगल से निबटने के बजाय हमें अपने उत्तरी और उत्तर-पूर्वी सीमा के साथ हमारी सुरक्षा के लिए कम्युनिस्ट खतरों से निपटना पड़ सकता है, जहाँ हथियारों और गोला-बारूद की आपूर्ति के लिए वे सुरक्षित रूप से चीन के कम्युनिस्ट शस्त्रागार पर निर्भर रह सकते हैं।
सारे हालात ने कई मुसीबतों को खड़ा कर दिया है, जिसके कारण हमें त्वरित निर्णय लेना होगा और जैसाकि मैंने कहा कि उद्देश्य एवं नीतियों का निरूपण करना होगा। अब यह निश्चित है कि हमें व्यापक काररवाई करनी होगी, जिसमें हमें अपनी रणनीति और तैयारियाँ ही नहीं, पर आंतरिक सुरक्षा के खतरों का भी ध्यान रखना होगा। हमें इन सरहदी कमजोर स्थानों, बल्कि राजकीय और प्रशासनिक संकटाें का भी सामना करना होगा।
मेरे लिए विस्तार से सभी समस्याओं का वर्णन करना संभव नहीं है; पर मैंने नीचे ऐसी समस्याएँ बताई हैं, मेरे हिसाब से, जिन पर तुरंत समाधान की आवश्यकता है, जिसके आसपास ही हमें प्रशासनिक एवं सैन्य रणनीति बनाने और लागू करने की जरूरत है—
1. भारत की सीमा और आंतरिक सुरक्षा दोनों ही मोरचों पर चीनी खतरे को पहचानने के लिए सैन्य एवं खुफिया मूल्यांकन।
2. सैन्य स्थिति की जाँच और हमारे बलों की ऐसी पुनर्संरचना आवश्यक हो सकती है, विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण मार्गों या क्षेत्रों की रक्षा के विचार के साथ, जिनके विवाद का विषय होने की संभावना है।
3. हमारी सैन्य शक्ति का मूल्यांकन और यदि आवश्यक हो तो नए खतरे के मद्देनजर सेना में छँटनी की अपनी योजना पर पुनर्विचार।
4. हमारी रक्षा जरूरतों पर दीर्घकालिक विचार। मेरा मानना है कि जब तक हम अपने हथियार, गोला-बारूद और कवच की आपूर्ति को लेकर आश्वस्त नहीं हो जाते, हम अपनी रक्षा स्थिति को सदा कमजोर करेंगे तथा दोहरी मुसीबतों (पश्चिम और उत्तर- पश्चिम, उत्तर और उत्तर-पूर्वी) का सामना नहीं कर सकेंगे।
5. चीन के संयुक्त राष्ट्र का सदस्य बनने का मामला। चीन द्वारा हमारे प्रति किए गए धोखे और तिब्बत से निबटने में चीन द्वारा अपनाए गए तरीके को देखते हुए मुझे इसको लेकर संदेह है कि हमें उसके दावे का समर्थन करना चाहिए। इस बात की पूरी संभावना है कि कोरियाई युद्ध में चीन की भागीदारी के चलते संयुक्त राष्ट्र चीन को बहिष्कृत कर देगा। हमें इस मामले पर भी अपना दृष्टिकोण निर्धारित कर लेना चाहिए।
6. हमें अपने उत्तर और उत्तर-पूर्वी क्षेत्रों को मजबूत करने के लिए राजकीय एवं प्रशासनिक कदम उठाने चाहिए, जिसमें समग्र सरहद, जिसमें नेपाल, भूटान, सिक्किम, दार्जिलिंग और असम के आदिवासी इलाके भी शामिल हों।
7. सीमावर्ती क्षेत्रों के साथ-साथ उनसे लगनेवाले राज्यों, जैसे—यू.पी., बिहार, बंगाल और असम में आंतरिक सुरक्षा के उपाय करना।
8. इन क्षेत्रों और सीमावर्ती चौकियों में संचार, रास्ते, रेल, हवाई मार्ग सुविधा और वायरलेस में सुधार।
9. ल्हासा में हमारे भविष्य का मिशन, ज्ञानत्से और यातुंग में व्यापार केंद्र और तिब्बत में जो हमारे सुरक्षा बल हैं, वे व्यापार मार्गों की रक्षा करेंगे।
10. मैकमहोन रेखा के संदर्भ में हमारी नीति।
ये कुछ ऐसे सवाल हैं, जो मेरे मस्तिष्क में उठ रहे हैं।
यह संभव है कि इन मामलों का विचार करने पर चीन, रूस, अमेरिका, ब्रिटेन और बर्मा के साथ हमारे संबंधों पर व्यापक प्रश्न उठ सकते हैं। लेकिन यह महत्त्वपूर्ण होने के बावजूद सामान्य प्रकार का प्रश्न हो सकता है उदाहरण के तौर पर, हमें इस बात पर विचार करना होगा कि क्या हमें बर्मा के साथ निकटतम संबंध बढ़ाने पर रोक लगानी चाहिए, ताकि चीन के साथ संबंध को मजबूत किया जा सके?
इस बात की संभावना को नकारा नहीं जा सकता है कि हम पर दबाव बढ़ने से पहले चीन बर्मा के साथ भी ऐसा करे। बर्मा के साथ सीमा पूरी तरह से अपरिभाषित है और चीन के क्षेत्रीय दावे पर्याप्त हैं। अपनी वर्तमान स्थिति में बर्मा चीन के लिए एक आसान समस्या होकर उसकी ओर चीन का ध्यान पहले खींच सकता है।
मेरा सुझाव है कि हम इन समस्याओं पर सामान्य चर्चा के लिए बैठक करें और ऐसे कदमों पर निर्णय लें, जिस पर विचार करना तुरंत आवश्यक है तथा अन्य समस्याओं का मूल्यांकन करें, ताकि उनसे निपटने के लिए त्वरित कदम उठा सके।
आपका
वल्लभभाई पटेल
(एस.पी.2) (बी.के.2/215-22) (डी.डी./471-5)
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खबरों के मुताबिक, इस बात को साबित करने के लिए दस्तावेजी तौर पर कुछ भी मौजूद नहीं है कि नेहरू ने उक्त पत्र की पावती दी और उसके बाद सरदार पटेल के सुझावों पर अमल करते हुए कोई अग्रिम काररवाई की या कोई कदम उठाया। उन्हें शायद ऐसा लगा हो कि विदेशी मामलों में उनकी विशेषज्ञता को देखते हुए उन्हें किसी भी प्रकार की सलाह की आवश्यकता ही नहीं है!
सच्चाई तो यह है कि राजवंश के लिए तकलीफदेह साबित होनेवाले बाकी के अन्य दस्तावेजों की तरह सरदार पटेल के इस पत्र को भी गोपनीय रखा गया और यह लिखे जाने के 18 वर्ष बाद ही सार्वजनिक तौर पर सामने आ पाया।
दुर्गा दास लिखते हैं—
“अधिक समय नहीं बीता था कि उत्तरी सीमा पर स्थितियों ने बदतर रूप ले लिया (1950) और इसके नतीजतन जो हुआ, वह नेहरू और पटेल के बीच कैबिनेट में शायद अंतिम संघर्ष था। लाल चीन ने तिब्बत पर कब्जा कर लिया और नेपाल आंतरिक उथल-पुथल से गुजर रहा था। यह सर्वविदित था कि तिब्बत को लेकर पटेल और प्रसाद का मत नेहरू से बिल्कुल अलग है। उन्होंने उनसे आग्रह किया था कि वे इस बात को सुनिश्चित करें कि तिब्बत चीन और भारत के मध्य एक स्वतंत्र बफर स्टेट के रूप में बना रहे। उनके डर अब सच साबित हो रहे थे। नेहरू को बुरा लग रहा था, क्योंकि पीकिंग ने उनकी सलाह को ठुकरा दिया था।...” (डी.डी./304)
दुर्गा दास आगे लिखते हैं—
“15 दिसंबर, 1950 को उनकी (सरदार पटेल की) मृत्यु से कुछ दिन पूर्व, बॉम्बे में उनके साथ हुई मेरी अंतिम बातचीत के दौरान, पटेल ने मुझे 7 नवंबर, 1950 को नेहरू को लिखा अपना वह पत्र दिखाया था (उपर्युक्त पत्र)। (के.एम. मुंशी ने इस पत्र को ‘भवन’ जर्नल के 26 फरवरी, 1967 के अंक में प्रकाशित किया था। इसके ऐतिहासिक महत्त्व को देखते हुए इसकी सामग्री को परिशिष्ट 2 में दिया गया है।) जब मैंने इसे पूरा पढ़ लिया, तो उसके बाद वे (पटेल) बोले, मैंने नेहरू को प्रेम किया, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। मैं इसको लेकर भीतर-ही-भीतर कुढ़ रहा हूँ, क्योंकि मैं उन्हें सामने आनेवाले खतरों को देखने के लिए तैयार नहीं कर पा रहा हूँ। चीन दक्षिण-पूर्व एशिया में अपना आधिपत्य स्थापित करना चाहता है। हम इस बात को लेकर अपनी आँखें बंद करके नहीं बैठ सकते, क्योंकि साम्राज्यवाद एक बिल्कुल नए रूप में सामने आ रहा है। वे इस बात को समझ नहीं पा रहे हैं कि लोग काम तभी करते हैं, जब उनका मकसद रोजगार का या फिर मुनाफे का होता है (यह निश्चित रूप से नेहरू के समाजवाद के संदर्भ में रहा होगा)। उनके चारों ओर फैले दरबारी उन्हें गुमराह कर रहे हैं। भविष्य को लेकर मेरे मन-मस्तिष्क में गंभीर आशंकाएँ हैं।’ ” (डी.डी./305)
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1950 का नेहरू का दब्बू, विभ्रम-पीड़ित नोट
चीन और तिब्बत के मसले को लेकर सरदार पटेल द्वारा नेहरू को लिखे गए समझदारी भरे पत्र के बिल्कुल उलट, यहाँ पर नेहरू द्वारा जो 18 नवबंर, 1950 को लिखे गए दब्बू, निराशावादी, काल्पनिक और विभ्रम से भरे हुए नोट (जे.एन. 4) के कुछ अशं दिए गए हैं, जो उनके स्व-प्रामाणिक विदेशी मामलों के विशेषज्ञ होने और एक अतं रराष्ट्रीयतावादी के रूप में समझ एवं गहराई की कमी तथा चीन व तिब्बत को लेकर बनी हुई गलत धारणाओं को स्पष्ट रूप से दरशाता है। हालाँकि, यह पटेल के पत्र के उत्तर के रूप में नहीं लिखा गया था (लेखक की टिप्पणियों को नीचे इटलिै क्स व चौकोर कोष्ठकों में दिया गया है और वे नेहरू के नोट का हिस्सा नहीं हैं)—
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“8. मेरे खयाल से, यह मान लेना चाहिए कि चीन पूरे तिब्बत पर कब्जा कर लेगा, कम- से-कम राजनीतिक अर्थों में। इस बात की जरा भी संभावना नहीं है कि तिब्बत इसका विरोध करने या फिर इसे रोक पाने में समर्थ होगा। इस बात की भी कोई संभावना नहीं है कि कोई विदेशी ताकत इसे रोक सकती है। हम ऐसा नहीं कर सकते।...(ऐसे पूर्वानुमान लगा लें, ताकि कोई काररवाई ही न करनी पड़े। भारत को तिब्बत का पक्ष लेने के लिए युद्ध के मैदान में नहीं उतरना था; लेकिन वह निश्चित रूप से वैश्विक मंचों पर उसका कूटनीतिक समर्थन जरूर कर सकता था!)...
“10. अगर विश्व युद्ध होता है तो विभिन्न प्रकार की जटिल व कठिन समस्याएँ सामने आ सकती हैं और ये तमाम समस्याएँ परस्पर रूप से अन्यों के साथ जुड़ी हुई होंगी। यहाँ तक कि भारत की सुरक्षा का मामला भी एक दूसरा रूप ले लेता है और इसे अन्य वश्विक कारकों से अलग नहीं किया जा सकता। (नेहरू को विश्व युद्ध के संदर्भ में बात करने की आदत थी, ताकि इन सवालों को टाला जा सके कि भारत को क्या करना चाहिए।) मुझे लगता है कि निकट भविष्य में इस बात की न के बराबर संभावना है कि हमें चीन की ओर से किसी भी प्रकार के सैन्य आक्रमण का सामना करना पड़ सकता है, चाहे वह शांतिकाल में हो या युद्ध में। मैं विभिन्न वश्विक कारकों पर विचार करने के बाद इस निष्कर्षपर पहुँचा हूँ। (नेहरू ने खुद को वैश्विक मामलों के एक विशेषज्ञ के तौर पर पेश किया और ऐसे निष्कर्ष प्रस्तुत किए, जो उनकी दब्बू मानसिक मनः स्थिति के अनुकूल थे।) शांतिकाल में ऐसे किसी आक्रमण का मतलब निश्चित रूप से विश्व युद्ध का कारण हो सकता था।...यह बात समझ से बाहर की है कि वह अपनी सेना और ताकत को तिब्बत के दुर्गम इलाकों की ओर भेज दे और हिमालय के उस पार एक जोखिम भरी काररवाई को अंजाम दे। (अब, जब चीन ऐसा करगेा ही नहीं तो चिंता क्यों करें—जैसा चल रहा है, चलने दें।) ऐसा कोई भी प्रयास अन्य मोर्चों पर अपने वास्तविक दुश्मनों का मुकाबला करने की उसकी शक्ति को प्रभावित करेगा। इसलिए, मैं चीन द्वारा भारत पर किसी बड़े हमले की संभावना को सिरे से खारिज करता हूँ। मुझे लगता है कि इस प्रकार के विचार मस्तिष्क में इसलिए आ रहे हैं, क्योंकि चीन के भारत पर हमला करने और कब्जा कर लेने को लेकर बहुत अधिक बातें की जा रही हैं। अगर हम अपने दृष्टिकोण और वश्विक रणनीति की समझ को खो देते हैं (नेहरू के भारी-भरकम शब्द ‘वैश्विक रणनीति’ के संदर्भ में बातें करना!) और बिना मतलब के डर को हावी होने देते हैं तो हमारे पास कोई भी रणनीति हो, उसके विफल होने की पूरी संभावना है।...
“11. मेरी राय में, अगर ऐसा करने से रोका जाता है तो एक तरफ जहाँ चीन द्वारा भारत पर किसी बड़े हमले की वास्तव में कोई संभावना नहीं है, वहीं निश्चित रूप से हमारी सीमा में क्रमिक घुसपैठ होने तथा संभवतः विवादित क्षेत्र में घुस आने और कब्जा कर लेने की पूरी संभावना है। इसलिए, हमें इसे रोकने के लिए सभी आवश्यक सावधानियों को बरतना चाहिए। लेकिन दोबारा हमें इन सावधानियों और वास्तविक हमले की स्थिति में आवश्यक एहतियातों के बीच अंतर करना चाहिए।
“12. अगर हमें किसी वास्तविक हमले का डर हो और हमें उससे बचने के उपाय करने पड़ें तो इसका हम पर असहनीय बोझ पड़ेगा, जो वित्तीय और अन्य प्रकार का हो सकता है और ऐसा करने से हमारी सामान्य रक्षा स्थिति कमजोर होने की संभावना है। हमारी कुछ सीमाएँ हैं, जिनसे आगे हम नहीं जा सकते, कम-से-कम कुछ वर्षों के लिए (लेकिन क्या नेहरू ने सन् 1962 से पहले के बारह वर्षों की लंबी अवधि में कुछ आवश्यक किया!) और सुदूर के क्षेत्रों में सेना को भेजना सेना या फिर सामरिक दृष्टिकोण से गलत होगा।...
“14. यह मानना कि कम्युनिज्म का अर्थ ही विस्तार और युद्ध है, या और अधिक स्पष्ट शब्दों में कहें तो चीनी साम्यवाद का मतलब सिर्फ भारत की ओर विस्तार करना है, नासमझी के अलावा कुछ नहीं है। इसका मतलब, कुछ निश्चित परिस्थितियों में हो सकता है। वे परिस्थितियाँ कई कारकों पर निर्भर करती हैं, जिनके बारे में मुझे यहाँ लिखने की आवश्यकता नहीं है।...
“16. इन सभी तर्कों का निष्कर्ष यह निकलता है कि एक तरफ जहाँ हमें किसी भी संभावित स्थिति के लिए अपनी पूरी क्षमता के साथ तैयार रहना चाहिए, वहीं दूसरी तरफ हमें जिस वास्तविक सुरक्षा को देखना चाहिए, वह है चीन को समझना। अगर हम ऐसा नहीं कर पाते हैं तो हमारा वर्तमान और भविष्य दोनों ही संकट में हैं और दूर की कोई शक्ति हमें नहीं बचा सकती। कुल मिलाकर, मेरा ऐसा मानना है कि कुछ विशिष्ट कारणों के चलते चीन भी ऐसा ही चाहता है। अगर वास्तव में ऐसा है तो हमें अपनी वर्तमान नीति को उसी के अनुसार तैयार करना चाहिए।...(लेकिन क्या नेहरू चीन के साथ उचित समझ तक पहुँचे या फिर पहुँचने का प्रयास तक किया? नहीं। कृपया भारत-चीन युद्ध से संबंधित आगामी भूलों में विवरण देखें।)
“17. हम तिब्बत को नहीं बचा सकते, जैसाकि हमें करना चाहिए था और इसे बचाने के लिए किए जानेवाले प्रयास हमारे लिए और बड़ी परेशानियाँ लेकर आ सकते हैं। ( कितना सुविधाजनक पूर्वानुमान : अगर हम तिब्बत को बचाने का प्रयास करते हैं तो ऐसा करना हमारे लिए और बड़ा संकट ला सकता है! इसलिए एक चतुर, उदार और सहानुभूतिपूर्ण संकेत के रूप में हमें तिब्बत की मदद नहीं करनी चाहिए! दुर्भाग्य से, सरदार पटेल के सक्रिय न होने के चलते (वे बीमार थे और एक महीने बाद ही उनका निधन हो गया) नेहरू के निरंकुश और आसान पूर्वानुमानों को चुनौती देनेवाला कोई नहीं था। ऐसे में हमारे द्वारा उसकी प्रभावी तरीके से मदद करने में सक्षम हुए बिना उस पर संकट लाना तिब्बत के लिए अनुचित रहेगा।...
“18. ...हम कह चुके हैं कि (हम) इस अपील को प्रायोजित नहीं करने जा रहे हैं (संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् में तिब्बत की अपील); लेकिन अगर यह अपील रखी जाती है तो हम अपना दृष्टिकोण सामने जरूर रखेंगे। (भारत को तिब्बत की न्यायसंगत अपील का समर्थन क्यों नहीं करना चाहिए था? क्या सदियों पुराने अपने मित्रवत् और सांस्कृतिक रूप से घनिष्ठ पड़ोसी के साथ ऐसा व्यवहार किया जाना चाहिए था?) यह दृष्टिकोण तिब्बत की अपील का समर्थन करनेवालों में से एक नहीं हो सकता; क्योंकि यह बहुत आगे तक जाता है और पूर्ण स्वतंत्रता का दावा करता है।... लेकिन यह तिब्बत को या हमें बहुत दूर नहीं ले जाएगा। यह और कुछ नहीं, बल्कि तिब्बत के पतन की गति को और तेज करेगा। कोई भी बाहरी उसकी मदद नहीं कर सकेगा; और इन कार्य-नीतियों से संदेह में आया तथा आशंकित चीन—तिब्बत पर पहले के मुकाबले कहीं अधिक तेजी से और पूर्ण कब्जा करना सुनिश्चित करेगा। इसके परिणामस्वरूप न सिर्फ हमारा प्रयास विफल होगा, बल्कि इसी के साथ हमारे सामने वास्तव में दुश्मन चीन होगा।...(तो क्या ऐसा करके नेहरू एक दुश्मन चीन को अपने दरवाजे तक आने से रोक पाए? क्या वे युद्ध को टाल पाए? विंस्टन चर्चिल ने बिल्कुल ठीक टिप्पणी की थी ‘तुष्टीकरण करनेवाला व्यक्ति वह होता है, जो मगरमच्छ को इस उम्मीद में खाना खिलाता है कि वह उसे सबसे आखिर में खाएगा।’)
“19. मेरा मानना है कि हमें किसी भी परिस्थिति में तिब्बत की अपील को प्रायोजित नहीं करना चाहिए। मेरा व्यक्तिगत तौर पर ऐसा मानना है कि अगर सुरक्षा परिषद् या फिर महासभा में इस अपील पर सुनवाई ही न हो तो इससे बेहतर और कुछ नहीं होगा। (नेहरू न सिर्फ मुसीबत में पड़े अपने एक पड़ोसी देश (तिब्बत) की अपील को प्रायोजित नहीं करेंगे, बल्कि उन्होंने भोलेपन से यह भी उम्मीद कर ली कि और अन्य देश भी तिब्बत का साथ नहीं देंगे तथा उसकी अपील का समर्थन नहीं करेंगे! क्यों? क्योंकि ऐसा होने पर भारत को उस समय पर एक पक्ष लेने पर मजबूर होना पड़ता, जबकि भारत ने ‘अंतरराष्ट्रीय और विदेशी मामलों के विशेषज्ञ’ नेहरू की ‘चतुर’ नीति को अपनाकर अपना सिर रेत में दबाने का फैसला किया था।) अगर वहाँ पर इस बात पर विचार किया जाता है तो बड़े स्तर पर कड़वी बातों और आरोप-प्रत्यारोपों का लगना तय है, जो तिब्बत को लेकर स्थितियों को और बिगाड़ देगा तथा उसकी मदद करने के स्थान पर भीषण युद्ध के होने की स्थितियाँ बन सकती हैं। इस बात को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि न तो यू.के. और न ही अमेरिका तथा न ही वास्तव में और कोई शक्ति तिब्बत या फिर उस देश के भविष्य में कोई विशेष रुचि रखते हैं। उनकी रुचि इस बात में है कि चीन को नीचा दिखाया जाए (और भद्र पुरुष नेहरू को लगा कि चीन को नीचा दिखाना बहुत बड़ा पाप है)। वहीं दूसरी तरफ, हमारा हित है तिब्बत और अगर हम उस हित की पूर्ति नहीं कर पाते हैं तो हम असफल हैं।...
“20. इसलिए संयुक्त राष्ट्र में तिब्बत की अपील पर चर्चा न होना ही बेहतर रहेगा। मान लेते हैं कि अगर हमारे न चाहने के बावजूद यह चर्चा के लिए आ भी जाता है तो क्या? मेरा सुझाव है कि हमारे प्रतिनिधि को हमारे मामले को जितना हो सके, उतना नियंत्रित रूप से प्रस्तुत करना चाहिए और सुरक्षा परिषद् या असेंबली को उनकी इस इच्छा को व्यक्त करने के लिए कहना चाहिए कि चीन-तिब्बत के मामले को शांति के साथ सुलझाया जाना चाहिए।...(इस मामले को शांति से कैसे सुलझाया जा सकता है, जब तक कि चीन, जो आक्रमणकारी है, पीछे न हट जाए? लेकिन नेहरू ने कभी इस बात की माँग नहीं उठाई।)...” (जे.एन.4)
नेहरू के अन्य भ्रामक नोट
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नेहरू ने 9 जुलाई, 1949 को विदेश मंत्रालय के सचिव को एक नोट में लिखा—
“चीन के मामले में तिब्बत का अंतिम परिणाम चाहे जो हो, मुझे लगता है कि तिब्बत में किसी भी संभावित परिवर्तन से भारत के लिए किसी भी प्रकार के सैन्य खतरे की वास्तव में कोई संभावना नहीं है। यह भौगोलिक रूप से बहुत दुष्कर है और वास्तव में ऐसा करना मूर्खतापूर्ण काम होगा (फिर 1962 में जो हुआ, वह क्या था?)। अगर भारत को प्रभावित करना है या उस पर दबाव बनाने का प्रयास करना है तो तिब्बत ऐसा करने का जरिया नहीं है।” (ए.एस./29)
खुद को और दूसरों को यह भुलावा दें कि तिब्बत में चाहे जो भी हो, भारत अप्रभावित ही रहेगा, तो फिर चिंता किस बात की? इसके अलावा, क्या ब्रिटिश मूर्ख थे, जो वे उत्तरी सीमाओं और तिब्बत की देखभाल करते थे? कृपया उपर्युक्त उप-अध्याय देखें—‘ब्रिटेन नेहरू के राज वाले भारत के मुकाबले भारत की सुरक्षा को लेकर अधिक चिंतित था!’
नेहरू ने यह भी लिखा—
“मुझे नहीं लगता है कि वर्तमान में हमारे रक्षा मंत्रालय को या फिर उसके किसी हिस्से को भारत-तिब्बत सीमा पर संभावित सैन्य प्रतिक्रियाओं की कोई आवश्यकता है। यह घटना अभी बहुत दूर है और हो सकता है कि यह घटित ही न हो। इस बारे में वर्तमान में किया जा रहा कोई भी विचार उस संतुलन को प्रभावित कर सकता है, जिसे हम भारत में बनाने का प्रयास कर रहे हैं। यह गोपनीय भी नहीं रह सकता और यह दुर्भाग्यपूर्ण हो सकता है।” (ए.एस./29)
नेहरू ने अपनी गलती मानी
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सन् 1964 में नेहरू ने कथित रूप से ऐसा कहा था, “मुझे एक दोस्त ने धोखा दिया है। मुझे तिब्बत के लिए खेद है।” धोखा? किसी की समझ में नहीं आता! अगर आप अंतरराष्ट्रीय राजनीति में इतने भोले-भाले और अक्षम हैं कि अपने हितों की रक्षा नहीं कर सकते तो आपके साथ धोखा होता ही रहेगा।
“तिब्बत पर चीनी हमला, जिसकी परिणति सन् 1962 के भारत और चीन के मध्य युद्ध के रूप में हुई, को अकसर ‘चीन के विश्वासघात’, ‘पीठ में छुरा घोंपना’ के रूप में प्रदर्शित किया जाता है, जैसाकि नेहरू बेहद दर्द भरे लहजे में कहते थे। क्लाउड एर्पी ने सन् 2017 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘तिब्बत : द लास्ट मंथ्स अॉफ ए फ्री नेशन’ में ताजा सबूतों के आधार पर यह साबित किया है कि ‘विश्वासघात’ की धारणा सिर्फ एक स्वाँग है। यह ‘सामने से किया गया एक वार’ था, जैसाकि एम.जे. अकबर ने नेहरू की अपनी भावपूर्ण आत्मकथा में व्यक्त किया है; क्योंकि तत्कालीन प्रधानमंत्री और उनके काॅमरेडों ने एक दशक से भी अधिक से दीवार पर लिखी इबारत को पढ़ने से इनकार कर दिया था।” (यू.आर.एल./84)