Nehru Files - 36 in Hindi Anything by Rachel Abraham books and stories PDF | नेहरू फाइल्स - भूल-36

Featured Books
Categories
Share

नेहरू फाइल्स - भूल-36

भूल-36
 हिमालय पर की गई गलती : भारत-चीन युद्ध 

सैनिकों ने बारंबार उन नागरिक सरकारों की महत्त्वाकांक्षा, जुनून और गलतियों के चलते खुद को युद्ध में झोंके जाते हुए पाया है, जो अपनी सैन्य क्षमता की सीमाओं से पूरी तरह से बेखबर होती हैं और अपने द्वारा थोपे गए युद्ध की सैन्य आवश्यकताओं के प्रति लापरवाही के साथ उदासीन होती हैं। 
—अल्फ्रेड वैग्ट्स, ‘द हिस्टरी अ‍ॉफ मिलिटरिज्म’ (मैक्स/289) 

“भारत और चीन का इतिहास हजारों साल पुराना है और दोनों के बीच कभी कोई युद्ध नहीं हुआ।” नेहरू ने अपनी अनुपयुक्त और चेतना-शून्य नीतियों के जरिए इस रिकॉर्ड को तोड़ दिया, भले ही अनिच्छा से। नेहरू की ‘अग्रवर्ती नीति’ और सीमाओं का निर्धारण करने में उनकी विफलता के चलते भारत-चीन युद्ध हुआ और इसके परिणामस्वरूप मानवीय एवं आर्थिक नुकसान हुआ, साथ ही अंतरराष्ट्रीय समुदाय के सामने भारत और भारतीयों की नाक कट गई। यहाँ पर हम उसकी बात कर रहे हैं, जिसे भारत नियंत्रण में कर सकता था; उसकी नहीं, जो चीन के दिमाग में थी। 

हिमालयी भूलों को संक्षेप में सामने रखना 

यह सिर्फ एक हिमालयी भूल नहीं थी, बल्कि हिमालयी पर्वत-शृंखला की तरह नेहरू द्वारा आजादी के बाद के पंद्रह वर्षों की अवधि के दौरान विभिन्न क्षेत्रों (बाह्य‍ सुरक्षा, रक्षा, विदेश नीति इत्यादि) में की गई गलतियों की एक विस्तृत शृंखला थी, जिसकी परिणति ऐसी शिकस्त के रूप में हुई, जिसने भारत और भारतीयों को दुनिया के सामने शर्मिंदा कर दिया। इन्हें नीचे संक्षेप में दिया गया है और साथ ही कुछ का वर्णन विस्तार से भी किया गया है— 
भूल-1: चीन को तिब्बत पर कब्जा करने देना और तिब्बत पर चीनी दावे को मान्यता प्रदान करना। इसने तिब्बत-भारत सीमा को चीन-भारत सीमा बन जाने दिया, साथ ही आई इससे जुड़ी तमाम समस्याएँ। (उपर्युक्त भूल#33) 

भूल-2: चीन के साथ सीमा विवाद को नहीं सुलझाना और इसको लेकर कड़ा रुख अपनाना। (भूल#35) 

भूल-3: पहले सीमाओं को लेकर किसी नतीजे पर पहुँचे बिना सन् 1954 में चीन के साथ पंचशील समझौते पर हस्ताक्षर करना। (भूल#34) 

भूल-4: जुलाई 1954 के बाद भारतीय मानचित्रों में एकतरफा परिवर्तन, वह भी दूसरे पक्ष—चीन के साथ आपसी विचार-विमर्श के बिना। (भूल#35) 

भूल-5: नेहरू द्वारा सन् 1960 में चीनी प्रतिनिधिमंडल द्वारा मैकमहोन रेखा और अक्साई चिन के आदान-प्रदान के तहत अदला-बदली करने के प्रस्ताव पर विचार करने से इनकार। (भूल#35) 

भूल-6: चीन को उकसाने वाली या फिर उसे हमला करने का बहाना प्रदान करनेवाली, विवादित क्षेत्रों में बचाए न जाने योग्य चौकियों की स्थापना करनेवाली व्यर्थ की और गैर-दूरंदेशी भरी नीति। (विवरण आगे दिया गया है) 

भूल-7: नेहरू और उनके करीबी साथियों की यह बेतुकी अवधारणा कि अगर भारत ने विवादित क्षेत्रों में कुछ चौकियों की स्थापना की तो चीन हमला नहीं करेगा। (विवरण आगे दिया गया है) 

भूल-8: अग्रिम चौकियों में अधिकांश में आवश्यकता से कम सैनिकों और शस्त्रों की तैनाती व आपूर्ति की, साथ ही रसद की मात्रा भी अपर्याप्त रखी। (विवरण आगे दिया गया है) 

भूल-9: सेना हाईकमान का राजनीतिकरण, पक्षपात। शीर्षस्‍थ पदों पर ऐसे चाटुकार और ‘जी हुजूरी’ करनेवाले अधिकारियों को नियुक्त करना, जो राजनीतिक आकाओं के सामने नतमस्तक रहें। आखिरकार, इनमें से चुने हुए कुछ अधिकारियों ने ही भारत का अपमान करवाया। (भूल#38)

भूल-10: रक्षा और बाह्य‍ सुरक्षा की घोर उपेक्षा। (भूल#37) 

भूल-11: रक्षा मंत्री के रूप में असह्य‍ रूप से अभिमानी और अक्षम चमचे कृष्ण मेनन की नियुक्ति। (भूल#38, 73) 

भूल-12: युद्ध शुरू होने से बमुश्किल 8 दिन पहले, 12 अक्तूबर, 1962 को, नेहरू का सार्वजनिक रूप से ऐलान करना कि उन्होंने सेना को ‘चीनी सेना को बेदखल करने’ का निर्देश दिया था! क्या कोई सार्वजनिक रूप से सामरिक आदेश देता है? युद्ध हमेशा बिल्कुल चुपचाप और अचानक छेड़ा जाता है। परिपक्व देशों और परिपक्व नेताओं से केवल दिखावा करने में शामिल रहने की उम्मीद नहीं की जाती है। चीनियों को खदेड़ फेंकने या फिर उनके हमला करने की स्थिति में विरोध करने की कोई उपयुक्त योजना नहीं थी। (विवरण आगे दिया गया है) 

भूल-13: सिर्फ 4 दिनों की लड़ाई के बाद, जिसमें बहुत अधिक क्षति नहीं हुई थी, चीन ने 24 अक्तूबर, 1965 को यह सुझाव देते हुए संघर्ष-विराम की पेशकश की कि दोनों ही पक्षों को वास्तविक नियंत्रण रेखा से 20 किलोमीटर पीछे हट जाना चाहिए और इसके बाद सीमा विवाद को लेकर बातचीत तथा वार्त्ताओं का दौर शुरू करना चाहिए। पर नेहरू राजी नहीं हुए! भारत को 14 नवंबर, 1962 को युद्ध में सबसे बड़ा अपमान सहना पड़ा, जिससे बचा जा सकता था, अगर भारत ने चीन का प्रस्ताव मान लिया होता। (विवरण आगे दिया गया है) 

भूल-14: चीन ने 21 नवंबर, 1962 को एकतरफा संघर्ष-विराम की घोषणा कर दी और 24 अक्तूबर, 1965 को पेश की गई शर्तों को दोबारा सामने रखा और एक बार फिर बातचीत, वार्त्ता, संयुक्त भूमि सर्वेक्षण और परस्पर समझौते पर पहुँचना। भारत ने संघर्ष-विराम के लिए तो हामी भर दी, लेकिन वार्त्ता के प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया। वह विवाद को सुलझा सकता था। (विवरण आगे दिया गया है) 

भूल-15: चीन के साथ सीमा-विवाद को सौहार्दपूर्ण तरीके से सुलझाने के लिए नेहरू को जो कुछ भी संभव हो, वह करना चाहिए था और उन्हें उसे आगे आनेवाली पीढ़ियों के लिए नहीं छोड़ना चाहिए था, जैसा उन्होंने कश्मीर के साथ किया; क्योंकि समय बीतने के साथ चीन और अधिक मजबूत होता गया तथा समझौता करना मुश्किल हो गया। (भूल#35) 

भूल-16: नेहरू को एक पूरी तरह से अधिकार-प्रदत्त आयोग का गठन करना चाहिए था, जो इस शिकस्त के तमाम पहलुओं की व्यापक जाँच करता और लापरवाह तथा दोषियों के खिलाफ काररवाई की सिफारिश करता, साथ ही आगे बढ़ने के लिए कदमों को भी सुझाता। उसके निष्कर्षों को सार्वजनिक किया जाना चाहिए था। ऐसा होना एक लोकतांत्रिक देश की न्यूनतम अपेक्षा थी, लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं किया गया। (भूल#41) 

भूल-17: इस जबरदस्त शिकस्त के बाद नेहरू को अपने पद से इस्तीफा दे देना चाहिए था। उन्हें सिर्फ इस्तीफे की पेशकश ही नहीं करनी चाहिए थी (जिसकी उन्होंने वैसे भी पेशकश तक नहीं की), बल्कि उन्हें वास्तव में इस्तीफा दे देना चाहिए था या फिर उन्हें ऐसा करने के लिए मजबूर किया जाना चाहिए था। ऐसा करना लोकतांत्रिक मानदंडों की माँग थी। यह भारत की भविष्य की राजनीति के लिए एक अच्छा सबक होता—आप लगातार बड़ी गलतियाँ करते हुए सत्ता में नहीं बने रह सकते। सिर्फ एक सबक के तौर पर ही नहीं, बल्कि इसके लाभदायी प्रभावों के चलते भी। अगर उन्होंने इस्तीफा दे दिया होता तो कोई और सक्षम व्यक्ति (और ऐसे कई वहाँ पर मौजूद थे), जो नेहरू के बोझ तले नहीं चला होता, इस मुद्दे को बिल्कुल नई सोच के साथ देखता और चीन के साथ सीमाओं पर एक स्थायी समझौते तक पहुँच गया होता। (भूल#42) 

गलत तरीके से तैयार की हुई अग्रवर्ती नीति 

नेहरू-कृष्णा मेनन के एकतरफा चीन के साथ भारत की सीमा तय करने के साथ भारत सरहदों पर भौतिक उपस्थिति की अपनी योजना के साथ आगे बढ़ गया। इसने अपनी जल्दबाजी वाली अग्रवर्ती नीति के चलते अग्रिम चौकियों का निर्माण प्रारंभ कर दिया, जो वास्तव में सैन्य रणनीति के ढोंग में एक ‘दिखावा’ था। वे सीमा पर उन जगहों पर स्थित थे, जिन्हें भारत ने एकतरफा तरीके से तय किया था, न कि चीन के साथ किसी आपसी चर्चा या समझौते के अनुसार। इसके चलते चीन की तरफ से आपत्ति या फिर इन चौकियों को ध्वस्त करने की काररवाई किए जाने की पूरी संभावना थी। वास्तविकता यह थी कि सीमाओं को तय नहीं किया गया था और ऐसे में जिसे भारत के लिए भारतीय सीमा में माना जा रहा था, हो सकता है कि वह चीन के लिए चीन की सीमा में हो। अगर आपने सीमाओं को तय नहीं किया है तो विवादों का होना निश्चित है (भूल#35)। लेकिन चीन के साथ सीमा विवाद को लेकर वार्त्ता करने या फिर एक शांतिपूर्ण समझौते तक पहुँचने के बजाय नेहरू-मेनन और मंडली ने अपनी मरजी से (उनकी अग्रवर्ती नीति) खुद ही यह मान लिया कि सिर्फ वही हैं, जो सीमाओं को तय करनेवाले हैं और उसके प्रतीक- स्वरूप अपनी चौकियों को मार्करों की तरह स्थापित कर लिया। उन्हें इस बात का जरा भी विचार नहीं आया कि चीन इस पर आपत्ति कर सकता है और फिर हमला करके इन चौकियों को ध्वस्त कर सकता है, या फिर भारत में घुस भी सकता है। क्यों? क्योंकि जैसा नेहरू ने कहा था—चीन द्वारा की गई ऐसी जरा भी ‘लापरवाह’ काररवाई विश्व युद्ध का रूप ले सकती है, इसलिए चीन ऐसी अप्रत्याशित काररवाई नहीं करेगा! इन बुद्धिमान लोगों के मन में एक बार भी यह विचार नहीं आया कि वे खुद जो कुछ कर रहे हैं, वह भी पूरी तरह से ‘लापरवाही’ ही है! 

कहा जाता है कि 2 नवंबर, 1961 को पी.एम.ओ. में हुई उस बैठक में ‘अग्रवर्ती नीति’ का फैसला लिया गया था, जिसमें नेहरू, कृष्णा मेनन, जनरल पी.एन. थापर (सी.ओ.ए.एस.), लफ्टिे नेंट जनरल बी.एम. कौल (सी.ओ.जी.एस.), बी.एन. मलिक (निदेशक-आई.बी.) ब्रिगडिे यर डी.के. पालित और तत्कालीन विदेश सचिव शामिल थे।

कुलदीप नैयर ने ‘बियॉण्ड द लाइंस’ में लिखा—
“नेहरू ने आदेश दिया कि लद्दाख क्षेत्र में भारत की उपस्थिति दर्ज करवाने के लिए पुलिस चौकियों की स्थापना की जाए। अधिक-से-अधिक 64 चौकियाँ निर्मित की गई थीं; लेकिन वे मान्य नहीं थीं। गृह सचिव झा ने मुझे बताया कि यह खुफिया निदेशक बी.एन. मलिक का ‘शानदार विचार’ था, हम ‘जहाँ कहीं भी कर सकते हैं’, वहाँ पुलिस चौकियाँ स्थापित करें, यहाँ तक कि चीनी सीमा के परे भी, ताकि हम क्षेत्र पर ‘अपने दावे को बनाए रखने’ में कामयाब हो सकें। यह नेहरू की ‘अग्रवर्ती नीति’ थी। लेकिन फिर झा ने कहा, ‘मलिक को इस बात का जरा भी अंदाजा नहीं था कि चीन की ओर से जरा सी भी हरकत होने पर बिल्कुल सुनसान क्षेत्र में स्थापित ये चौकियाँ पीछे से बिना किसी सहयोग के ताश के पत्तों से बने महल की तरह ढह जाएँगी। हमने अनावश्यक रूप से पुलिसकर्मियों (असम राइफल्स तैनात थी) को मौत के सामने धकेल दिया है।’ उन्होंने यह भी कहा, ‘सच कहूँ तो यह सेना का काम है; लेकिन चूँकि सेना ने पूर्ण सैन्य-तंत्र सहायता के बिना ऐसा करने से स्पष्ट इनकार कर दिया है, नई दिल्ली ने पुलिस को आगे किया है।’ ” (के.एन.) 

ब्रूस रिडल ने ‘जे.एफ.के.’स फॉरगॉटन क्राइसिस : तिब्बत, द सी.आई.ए. ऐंड द सिनो- इंडियन वॉर’ में लिखा—“अग्रवर्ती नीति को तैयार करने की प्रक्रिया न सिर्फ अव्यवस्थित थी, बल्कि यह तिब्बत और सीमा पर चीन के आगे बढ़ने के चलते आसन्न खतरे को लेकर गंभीर रूप से निष्क्रिय समझ को भी प्रतिबिंबित करती है। नेहरू माओ को भारतीय संकल्प दिखाने की कोशिश करने के साथ-साथ आलोचकों से अपनी घरेलू राजनीतिक स्थिति को भी बचाने का प्रयास कर रहे थे, जिनका दावा था कि वह चीन को लेकर कमजोर है। नेहरू और मेनन कृष्‍ण के लिए अग्रवर्ती नीति ‘अपने से कहीं अधिक शक्तिशाली ताकत के लिए सैन्य चुनौती नहीं, बल्कि सूक्ष्म राजनयिक खेल का आवश्यक भौतिक विस्तार’ थी।” 

भारतीय सेना, जो इस अग्रवर्ती नीति से सीधे प्रभावित होनेवाली सेवा थी, को एक ऐसा काम सौंपा गया था, जो उसके अपने पेशेवर सैन्य कोरों के वश से परे था—उसके पास पहाड़ी क्षेत्रों में पी.एल.ए. के साथ युद्ध की स्थिति में भिड़ने लायक सैनिक मौजूद नहीं थे। अतिरिक्त सैन्य सहायता मिलने के बावजूद वर्ष 1962 के मध्य तक भारतीय सेना कश्मीर के अक्साई चिन क्षेत्र में 5 के मुकाबले 1 की स्थिति में पहुँच चुकी थी। फिर भी, वे 60 नई अग्रिम चौकियाँ स्थापित करने की योजना बना रहे थे! इससे भी बदतर यह था कि भारतीय सैनिक ली-एनफील्ड राइफलों से लैस थे, जिन्हें सबसे पहले सन् 1895 में सेना में शामिल किया गया था; जबकि चीनियों के पास अत्याधुनिक स्वचालित हथियार, तोपखाने और अन्य उपकरण मौजूद थे। इसके अलावा, कई चीनी कमांडर कोरियन रणभूमि का हिस्सा भी रह चुके थे। भारतीय सेना के वरिष्ठ कमांड स्टाफ, विशेषकर जनरल थापर, ने खुद को सैन्य स्थिति को लेकर मुगालता पाले राजनीतिक नेताओं और स्थानीय कमांडरों, जिन्हें लगता था कि उन्हें असंभव आदेश दिए जा रहे हैं, के बीच फँसा पाया। भारत के लिए यह बड़े दुर्भाग्य की बात थी कि सन् 1962 की वरिष्ठ कमांड इस काम के लिए बिल्कुल अयोग्य थी। जैसेकि मैक्सवेल तर्क करते हैं—“राजनीतिक पक्षपात ने सेना को अक्षम नेतृत्व के हवाले कर दिया, जिसने आँख मूँदकर नेहरू की उकसानेवाली नीति का अनुसरण किया।” (बी.आर./एल-1421-1430) 

अरुण शौरी ‘आर वी डिसीविंग अ‍ॉवरसेल्व्स अगेन?’ में नेहरू को उद्‍धृत करते हैं—“चीनी सरकार के लिए भारत पर हमला करने जैसा कुछ सोचना भी पूरी तरह से अव्यावहारिक है, इसलिए मैं इसे खारिज करता हूँ। यह आवश्यक है कि इस पूरे मोरचे पर चौकियों की शृंखला को फैलाया जाए। इसके अलावा, ऐसे स्थानों पर विशेष रूप से चौकियों की स्थापना की जाए, जिन्हें विवादित माना जाता है। जैसेकि डेमचोक को चीन द्वारा एक विवादित क्षेत्र माना जाता है। हमें वहाँ पर एक चौकी जरूर बनानी चाहिए। बिल्कुल ऐसे ही त्सांग चोकला में भी।” (नूर/223-4) (ए.एस./103) 

चीन ने भारत की अग्रवर्ती नीति को चीनी क्षेत्र में जान-बूझकर घुसने और युद्ध के लिए उकसाने के प्रयास के रूप में देखा। उस समय की स्थितियों के अनुसार, चीन के मन में भारत के इरादों को लेकर शक की भावना थी। रुस्तमजी ने लिखा—“उनकी (नेहरू की) सबसे बड़ी गलती यह थी कि उन्होंने एक बार यह स्वीकार करने या फिर महसूस करने का प्रयास तक नहीं किया कि हमारी अग्रवर्ती नीति को लेकर चीन का क्या रवैया है।” (रुस्त./215) नेविल मैक्सवेल (मैक्स) सहित कई विश्लेषकों का मानना है कि नेहरू की व्यर्थ की अग्रवर्ती नीति, जिसे दिसंबर 1961 के बाद से अमल में लाना प्रारंभ किया गया, 1962 के भारत-चीन युद्ध की प्रमुख वजह थी। 

******************
केंद्रीय सैन्य आयोग और शीर्ष नेताओं की बैठकों में माओ ने अपने चिर-परिचित अंदाज में नेहरू की अग्रवर्ती नीति पर टिप्पणी करते हुए कहा, “आरामदायक बिस्तर पर सो रहा व्यक्ति किसी अन्य के खर्राटों से इतनी आसानी से जागता नहीं है।” दूसरे शब्दों में कहा जाए तो हिमालय में तैनात चीनी सुरक्षा बल भारत की अग्रवर्ती नीति को लेकर बेहद निष्क्रिय हो गए थे, जो चीन के अनुसार, चीन की धरती पर घटित हो रही थी। केंद्रीय सैन्य आयोग ने चीनी सेना की वापसी को खत्म करने का आदेश जारी किया और साथ ही यह घोषणा भी की कि भारतीय चौकियों के निकट चीनी चौकियों का निर्माण कर, विशेषकर उन्हें घेरते हुए, उनका विरोध किया जाए। माओ ने यह कहते हुए बात समाप्त की, “आपके पास बंदूक है तो मेरे पास भी बंदूक है। हम आमने-सामने खड़े होते हैं और एक-दूसरे के साहस की परीक्षा ले लेते हैं।” माओ ने नीति को ‘सशस्त्र सह-अस्तित्व’ के रूप में परिभाषित किया। (एच.के./एल-3012) 

“माओ ने इन आश्वासनों के हाथ में आ जाने के बाद अक्तूबर 1962 के प्रारभं में अंतिम निर्णय सुनाने के लिए चीनी नेताओं को इकट्ठा किया, जो युद्ध का उद‍्घोष था—‘हमने ओल्ड चियांग (काई-शेक) के साथ युद्ध किया, हमने जापान के साथ युद्ध किया और अमेरिका के साथ भी। हम इनमें से किसी से भी डरे नहीं और इनमें से प्रत्येक में जीत हमारी हुई। अब भारतीय हमसे युद्ध करना चाहते हैं। स्वाभाविक रूप से, हमें कोई डर नहीं है। हम जमीन नहीं दे सकते, क्योंकि अगर हम एक बार उन्हें जमीन दे देते हैं तो यह उन्हें फुजियान प्रांत के बराबर जमीन के टुकड़े पर कब्जा कर लेने देने के बराबर होगा। चूँकि नेहरू अपना सिर आगे कर रहे हैं और हम पर उनसे लड़ने के लिए जोर डाल रहे हैं, इसलिए हमारा उनके साथ लड़ाई न करना पर्याप्त रूप से दोस्ताना नहीं होगा। शिष्टाचार पारस्परिकता पर जोर देता है।’” (एच.के./एल-3045) 
—हेनरी किसिंजर, ‘अ‍ॉन चाइना’ (एच.के.) 
******************

कोई तैयारी नहीं : इसके बावजूद चीनियों को निकाल फेंकने के आदेश 

नेहरू ने 12 अक्तूबर, 1962 को सीलोन (श्रीलंका) जाते हुए हवाई अड्डेपर एक पत्रकार के सवाल का जवाब देते हुए बड़े गर्व से घोषणा की कि उन्होंने पहले ही ‘सशस्त्र बलों को चीनियों को एन.ई.एफ.ए. से हटाने के आदेश दे दिए हैं।’ (यू.आर.एल.23) (एम.बी.2/137) 

उपर्युक्त की पुष्टि करते हुए भारतीय रक्षा मंत्री वी.के. कृष्णा मेनन ने 14 अक्तूबर को बेंगलुरु में आयोजित कांग्रेस कार्यकर्ताओं की एक बैठक में कहा कि सरकार ‘चीनियों को निकाल बाहर फेंकने’ के एक अंतिम निर्णय तक पहुँच गई है। उन्होंने घोषणा की कि भारतीय सेना अंतिम चीनी तक को निकाल बाहर करने के लिए प्रतिबद्ध है। (यू.आर.एल.23) 

कट्टर देश-प्रेम की भावना से ओत-प्रोत मीडिया ने तुरंत इस बयान को लपक लिया। ‘द स्टेट्समैन’ ने लिखा—“श्रीमान नेहरू ने...देश को बताया हैकि सशस्त्र बलों को एन.ई.एफ.ए. से चीनी हमलावरों को बाहर फेंकने का आदेश दे दिया गया है और जब तक कि वहाँ के भारतीय क्षेत्र से उन्हें पूरी तरह से निकाल फेंका नहीं जाता है, तब तक चीन के साथ वार्त्ता की कोई संभावना नहीं है।” यहाँ तक कि विदेशी समाचार-पत्रों ने भी इस खबर को प्रमुखता से प्रकाशित किया और कुछ ने तो समाचार का शीर्षक ही ऐसा दिया कि नेहरू ने चीन के साथ युद्ध की घोषणा कर दी है। ‘न्यू यॉर्क ट्रिब्यून हेराॅल्ड’ के संपादकीय का शीर्षक था—‘नेहरू ने चीन के साथ युद्ध की घोषणा की’। ‘चाइनीज पीपल्स डेली’ ने भी इसे नेहरू को यह सुझाव देते हुए प्रकाशित किया—“जोखिम के मुहाने से वापस लौट जाना चाहिए और अपने जुए के दाँव पर भारतीय जवानों की जान को मत लगाओ।” (मैक्स/345) 

अब सवाल यह उठता है—क्या कोई सार्वजनिक रूप से सामरिक आदेश देता है? यह युद्ध की घोषणा करने जैसा था और साथ ही चीनियों को पलटवार करने का बहाना देने जैसा भी। युद्ध हमेशा बिल्कुल चुपचाप और अचानक छेड़ा जाता है। परिपक्व देशों और परिपक्व नेताओं से केवल दिखावा करने में शामिल रहने की उम्मीद नहीं की जाती है। चीनियों को खदेड़ फेंकने या फिर उनके हमला करने की स्थिति में विरोध करने की कोई उपयुक्त योजना नहीं थी! 

नेहरू के अचानक ‘निकाल फेंकने के आदेशों’ से ए.एच.क्यू. हक्का-बक्का रह गया। जनरल थापर तुरंत रक्षा मंत्री कृष्णा मेनन से मिलने पहुँचे और इस बात की ओर उनका ध्यान दिलाया कि ये आदेश उसके बिल्कुल उलट थे, जिस पर परस्पर सहमति बनी थी—चीनियों पर हमला न करने या उन्हें न उलझाने की! मेनन ने बेपरवाही से जवाब दिया, “यह एक राजनीतिक बयान है। इसका मतलब यह है कि कदम दस दिनों में उठाया जा सकता है या फिर सौ दिनों में या फिर हजार दिनों में।” (डी.डी./363) 

माओ ने टिप्पणी की, “चूँकि नेहरू अपना सिर आगे कर रहे हैं और हम पर उनसे लड़ने के लिए जोर डाल रहे हैं, इसलिए हमारा उनके साथ लड़ाई न करना पर्याप्त रूप से दोस्ताना नहीं होगा। शिष्टाचार पारस्परिकता पर जोर देता है।” 

झोउ एनलाई ने जवाब दिया, “हम भारत के साथ युद्ध नहीं चाहते। हमने हमेशा युद्ध से बचने का प्रयास किया है। हम चाहते थे कि भारत नेपाल, बर्मा या फिर मंगोलिया की तरह बरताव करे, यानी उनके साथ सीमा संबंधी विवादों का समाधान दोस्ताना तरीके से करे। लेकिन नेहरू ने सभी रास्ते बंद कर दिए हैं। अब हमारे पास युद्ध के अलावा और कोई रास्ता नहीं है। जैसाकि मैं देखता हूँ, थोड़ी-बहुत लड़ाई के अपने फायदे होंगे। इससे कुछ लोगों को चीजों को अधिक स्पष्ट तरीके से समझने में मदद मिलेगी।” 

माओ सहमत हुए—“ठीक! अगर कोई मुझ पर हमला नहीं करता तो मैं भी उस पर हमला नहीं करूँगा। अगर कोई मुझ पर हमला करता है तो मैं निश्चित रूप से उस पर हमला करूँगा।” (एप्री/479) 

माओ ने निर्देश दिए, “सबसे पहले तो पी.एल.ए. को जीत सुनिश्चित करनी चाहिए और फिर नेहरू को वार्त्ता की मेज पर घसीटकर लाना चाहिए—और उसके बाद चीनी सेनाओं को नियंत्रित व सैद्धांतिक रहना होगा।” (एप्री/481)

 पराजय 

(संघर्ष के सभी बिंदुओं के विस्तार में जाने के बजाय हम नेफा (NEFA) में स्थित ढोला को एक व्याख्यात्मक उदाहरण के रूप में ले रहे हैं।) 

ढोला तवांग से 60 कि.मी. और मिसमारी के रेलहेड से 200 कि.मी. दूर है। न्यामजंग नदी तिब्बत से होकर बहती हुई खिनजेमेन में भारत में प्रवेश करती है और खिनजेमेन से 2.5 कि.मी. दक्षिण में नमका चू से मिलती है। वहाँ पर सात कामचलाऊ पुल थे (पूर्व से पश्चिम तक 1 से 5 की संख्या वाले, जिसमें 4 और 5 के मध्य एक लकड़ी का और एक अस्थायी पुल था), जो नमका चू नदी पर बना था, जिसका उपयोग स्थानीय चरवाहे अपने मवेशियों को लाने-ले जाने में करते थे। ढोला पोस्ट नदी के दक्षिण में पुल संख्या 3 के सामने स्थित थी। त्संगल के नजदीक पुल संख्या 5 था। जब नदी अपने पूरे उफान पर होती थी तो इन पुलों का कोई काम नहीं होता था। लेकिन अक्तूबर के महीने में नदी के तल पर पैदल चल सकते थे। नदी के उत्तर में स्थित थागला रिज, जो पूर्व से पश्चिम तक फैली हुई थी और नमका चू से भी ऊँची है। इसके चार प्रमुख दर्रे हैं—दम दम ला 17,000 फीट, करपो ला द्वितीय 16,000 फीट, यमत्सो ला 16,000 फीट और थाग ला 14,000 फीट। 

चीनियों का दावा था कि थाग ला रिज मैकमहोन रेखा के तिब्बती तरफ था, जबकि भारत उसके अपनी ओर होने का दावा करता था। सन् 1959 में जब खिनजेमेन में असम राइफल्स की एक चौकी की स्थापना की गई तो चीन ने उसका विरोध किया और भारतीयों को पीछे धकेल दिया। लकिे न चीनियों के वापस जाने के बाद भारत ने इस चौकी पर दोबारा कब्जा जमा लिया। चीन ने इसका विरोध किया था और राजनयिक संवाद भी हुआ था। 

अप्रैल-अगस्त 1962 : उस क्षेत्र में सन् 1962 के युद्ध के साक्षी रहे ब्रिगेडियर दलवी अग्रवर्ती नीति को लागू करने के प्रयास के तौर पर अप्रैल 1962 के ‘अ‍ॉपरेशन ओंकार’ के बारे में ‘हिमालयन ब्लंडर’ में लिखते हैं—
 “इस बात को शुरू से ही सोचा जाना चाहिए था कि ढोला क्षेत्र में कोई भी कदम अगर कोई गंभीर प्रतिक्रिया नहीं तो कम-से-कम चीन का ध्यान तो जरूर आकर्षित करेगा। त्रिकोणीय जंक्शन वाला क्षेत्र (तिब्बत, भूटान और भारत का) अत्यंत संवेदनशील था, क्योंकि चीन ने मैकमहोन रेखा के सटीक संरेखण को खुले विवाद का विषय बना दिया था। अगस्त 1959 की घटना, जिसके चलते सेना को नेफा (NEFA) में जाना पड़ा, के अलावा हमें पता था (या फिर हमें पता होना चाहिए था) कि सन् 1960 की चर्चा में चीनी अधिकारियों ने इस विशेष क्षेत्र में सीमा-रेखा के हमारे विचार को स्वीकार नहीं किया था। मैं स्वाभाविक रूप से एक संवेदनशील क्षेत्र को सक्रिय करने को लेकर संदेह में था, विशेषकर तब से, जब मैं खुद वहाँ पहुँचने और एक बल को वहाँ स्थानांतरित करने में आनेवाली परेशानियों का सामना कर चुका था। थाग ला रिज का चीन के लिए विशेष सामरिक महत्त्व था, क्योंकि इससे ला की उसकी अग्रिम चौकी दिखाई देती थी। जब इन नाजुक सवालों को उठाया गया तो मुझे स्पष्ट रूप से ‘दूर रहने’ को कहा गया, क्योंकि यह ‘राष्ट्रीय नीति का मामला’ था और इसे असम राइफल्स द्वारा अमल में लाया जा रहा था। वे व्यक्ति, जिन्होंने आवश्यक सेना के बिना ढोला चौकी को प्रारंभ किया था, चीनियों को वे बहाना प्रदान करने के दोषी हैं, जिसकी उसे दरकार थी; और साथ ही भारतीय सेना को एक शर्मनाक एवं खतरनाक स्थिति में पहुँचाने के भी। मैंने उस क्षेत्र का अध्ययन किया और इस नतीजे पर पहुँचा कि ढोला च सैन्य रूप से बेकार, अरक्षणीय और चीनी चौकियों से घिरा हुआ है और एक जाल में बसा हुआ था।” (जे.पी.डी./133)

 मेजर जनरल निरंजन प्रसाद ने अपने संस्मरणों में लिखा है—“मैंने डायरेक्टर अ‍ॉफ मिलिटरी अ‍ॉपरेशंस को अवगत करवाया कि ढोला चौकी की स्थापना के परिणाम बेहद गंभीर हो सकते हैं, अगर यह वास्तव में हमारे द्वारा दावा की जा रही रेखा के उत्तर में स्थित है। मैंने अपने दावे की रेखा की स्पष्ट परिभाषा के लिए कहा और साथ ही इस बात पर जोर दिया कि हमारी चौकी को उस रेखा के संदर्भ में ही होना चाहिए।” (एप्री/500) 

सितंबर 1962: बहुत कुछ हुआ, लेकिन हमेशा की तरह कोई फर्क नहीं पड़ा। सितंबर 1962 में सीमा पर कई प्रमुख घटनाएँ घटित हुईं; लेकिन जहाँ तक ऊँचे पदों पर बैठे व्यक्तियों का संबंध है, उनके लिए यह कोई नई बात नहीं थी। नेहरू सितंबर 1962 के प्रारंभ में राष्ट्रमंडल प्रधानमंत्रियों के सम्मेलन में भाग लेने के लिए लंदन रवाना हो गए और उनके कुछ अफ्रीकी देशों के दौरे के साथ महीने के अंत तक वापस लौटने की उम्मीद थी। रक्षा मंत्री कृष्णा मेनन को संयुक्त राष्ट्र में मौजूद रहना था। वित्त मंत्री मोरारजी देसाई नेहरू के साथ लंदन गए थे, जहाँ से उन्हें वाशिंगटन जाना था। लेफ्टिनेंट जनरल बी.एम. कौल (सी.ओ.जी.एस.), जिन्हें ‘अग्रवर्ती नीति’ को लागू करने की जिम्मेदारी दी गई थी, दो महीने के अवकाश पर थे आदि-आदि। 

सितंबर 1962 : बी.एम. कौल के नेतृत्व में नेफा (NEFA) में अग्रवर्ती नीति के कार्यान्वयन में नई दृढ़ता के साथ ढोला में थाग ला रिज के दक्षिण में एक चौकी की स्थापना की गई, जो नमका चू नदी के दक्षिणी तट पर स्थित थी। चीनियों ने यह कहते हुए इसका विरोध किया कि इसकी अवस्थिति मैकमहोन रेखा के परे है, जो उनके क्षेत्र में है। ऐसा प्रतीत होता है कि नेफा (NEFA) में तैनात भारतीय सेना के कमांडरों को सीमाओं की स्पष्ट जानकारी नहीं थी (मानचित्र विस्तृत और सटीक नहीं थे) और इसकी पूरी संभावना थी कि उन्होंने अपनी चौकियाँ विवादित क्षेत्रों या फिर सीमा के उस पार भी निर्मित कर ली हों। हो सकता है कि ‘हेंडरसन-ब्रूक्स रिपोर्ट’ में इसकी जाँच की गई हो, जो आज की तरीख तक भी वर्गीकृत (गुप्त) है। सन् 1960 में झोउ के नेतृत्व में सीमा संबंधी मुद्दों का निबटारा करने भारत आए चीनी प्रतिनिधिमंडल ने अपनी वार्त्ताओं में थाग ला रिज के क्षेत्र में मैकमहोन रेखा के संरेखण पर सवाल उठाए थे। 

क्लाउड अर्पी ने एक लेख में लिखा— 
“4 इन्फैंट्री डिवीजन के जी.ओ.सी. मेजर जनरल निरंजन प्रसाद ने अपनी पस्‍तु क ‘द फॉल अ‍ॉफ टूवांग’ (तवांग) में इस अभियान के समायोजन का वर्णन इस प्रकार किया है—‘खिनजेमेन के ठीक उत्तर में स्थित मैकमहोन रेखा, जैसाकि सर हेनरी मैकमहोन ने सन् 1914 में एक अमापित मानचित्र पर मोटे तौर पर एक मोटी नीली (वास्तव में लाल) पसिलें से खींची थी, हिमालयी जल-विभाजन क्षेत्र का सटीक प्रक्षेपण नहीं थी। इस पूरी प्रक्रिया में थाग ला रिज की स्थिति को कम करके भी कहा जाए तो संदिग्ध छोड़ दी गई थी।’ ...अगर कोई जल-विभाजन के सिद्धांत का पालन करने के साथ-साथ परंपरागत चरागाहों के स्वामित्व के अधिकारी का स्वामित्व रखता है तो थाग ला रिज सीमा थी। लकिे न वास्तविकता यही रहती है कि पुराना मानचित्र, जो मैकमहोन रेखा पर भारत की वास्तविक स्थिति का संदर्भ था, उसमें थाग ला रिज और नमका चू को लाल रेखा के उत्तर में दरशाया गया हैै (जो कि चीनी क्षेत्र है)। दुर्भाग्य से, भारत की स्वतंत्रता के बाद आगे के सर्वेक्षण नहीं करवाए गए।” (एर्पी6) 

8 सितंबर, 1962 : चीनी सैनिकों ने 8 सितंबर, 1962 को चेतावनी के तौर पर ढाेला चौकी को घेर लिया। 

15 सितंबर, 1962 : 15 सितंबर, 1962 को एक चीनी नागरिक अधिकारी ने लाउडस्पीकर के जरिए अपने सैनिकों को साथ लेकर हिंदी में भारतीय सैनिकों के लिए घोषणा की कि यह क्षेत्र उनका है और भारत को उस क्षेत्र के एक सौहार्दपूर्ण समझौते के लिए चर्चा करने हेतु अपने एक नागरिक अधिकारी को भेजना चाहिए। कहा जाता है कि इस पूरे मामले को नेहरू की जानकारी में डाला गया और अपनी पूर्व स्थिति पर बने रहते हुए भारत ने बैठक के प्रस्ताव को अनसुना कर दिया। इसके बजाय अपनी स्थिति को सुदृढ़ करने, अतिरिक्त बल भेजने और चीनियों को वहाँ से खदेड़ने का निर्णय लिया गया।

 हालाँकि, मौके पर मौजूद ब्रिगेडियर दलवी सहित अन्य अधिकारियों ने वहाँ मौजूद बाधाओं के मद्देनजर चीनियों को वहाँ से खदेड़ने के प्रयास को असंभव और आत्मघाती कदम माना। चीनी सामरिक दृष्टि से ऊँचाई पर बैठे थे, जबकि भारतीय उनकी नजर में ऐसी स्थिति में थे, जहाँ से उन पर बेहद आसानी से हमला किया जा सकता था; चीनी संख्या में भारतीयों से कहीं अधिक और बेहतर शस्त्रों से सुसज्जित थे; भारतीयों के बिल्कुल उलट चीनियों के पास रसद मौजूद थी; जबकि भारतीयों के पास उचित कपड़े, हथियार और खाना तक नहीं था। 

20 सितंबर, 1962 : 20 सितंबर, 1962 को नमका चू में दोनों पक्षों के बीच गोलीबारी की घटना घटित हुई। ऐसा अक्तूबर 1959 में कांगका पास में हुए संघर्ष के काफी बाद हुआ था। इस घटना के होने के बाद भारतीय ‘अग्रवर्ती नीति’ के सिद्धांतकारों को इस बात को लेकर सचेत हो जाना चाहिए था कि उनकी नीति कोई शतरंज का खेल नहीं है, जहाँ चीन जवाबी काररवाई नहीं करेगा, बल्कि अगर भारत विवादित क्षेत्रों में घुसपैठ का प्रयास करेगा तो चीन आवश्यकता पड़ने पर शक्ति का इस्तेमाल करने से भी नहीं हिचकेगा। 

22 सितंबर, 1962 : 22 सितंबर, 1962 को स्थिति की समीक्षा करने के लिए आयोजित हुई एक उच्‍च स्तरीय बैठक में थल सेनाध्यक्ष (सी.ओ.ए.एस.) जनरल पी.एन. थापर ने चीनियों की कहीं बेहतर स्थिति का हवाला देते हुए उन्हें वहाँ से खदेड़ने की किसी भी प्रकार की काररवाई न करने की सलाह दी। हालाँकि अन्य सदस्यों ने थापर की राय को खारिज कर दिया। विदेश सचिव एम.जे. देसाई चाहते थे कि चीनियों को वहाँ से खदेड़ दिया जाए। अपनी सलाह के नजरअंदाज कर दिए जाने के बाद थापर ने लिखित आदेशों की माँग की, जो उन्हें विधिवत् दिए गए! (के.एन.आर./254-5) नई दिल्ली में बैठे असैनिक यह तय कर रहे थे कि नेफा (NEFA—North East Frontier Agency) की हिमालयी चोटियों पर सेना को क्या करना चाहिए! 

30 सितंबर, 1962 : चीनियों द्वारा 8 सितंबर को विवादित थागला रिज के उत्तर में स्थित त्सेन जांग में एक छोटी सी भारतीय चौकी को घेर लेने के बाद तत्कालीन रक्षा मंत्री वी.के. कृष्णा मेनन ने सेना प्रमुख जनरल पी.एन. थापर की सलाह को खारिज कर दिया और सेना को आगे बढ़ने का आदेश दिया। इसके बावजूद भारतीय सेना रुकी रही और अपनी जगह पर टिक गई। प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू 30 सितंबर को अपनी विदेश यात्रा से लौटे और इस बात पर बेहद क्षुब्‍ध हुए कि सरकार के आदेश पर अमल क्यों नहीं किया गया! उन्होंने एक बार फिर थापर की सलाह को दरकिनार कर दिया और चिल्लाए, “मुझे इस बात की जरा भी परवाह नहीं है कि चीनी दिल्ली तक आ धमकते हैं! उन्हें थाग ला से बाहर खदेड़ना ही होगा!” (यू.आर.एल.22) 

8-10 अक्तूबर, 1922 : चीनियों को उस क्षेत्र से खदेड़ देने के नेहरू और मेनन के दबाव के बाद जनरल बी.एम. कौल और जनरल निरंजन प्रसाद दोनों ने 8 अक्तूबर, 1962 को ढोला का दौरा किया और हमारी कमजोरियों के प्रत्यक्ष साक्षी बने। इसके बावजूद अपनी निगरानी में कुछ काररवाई करके नेहरू को खुश करने की कोशिश में कौल ने 10 अक्तूबर, 1962 को युम्त्सो ला (जिस पर पहले से ही कब्जा था और जो थाग ला चोटी के पश्चिम में था) पर कब्जा करने के लिए 10 अक्तूबर, 1962 को एक बटालियन को भेजने का साहसिक कदम उठाया—नेहरू की तरह यह सोचते हुए कि चीनी कोई प्रतिक्रिया नहीं करेंगे। हालाँकि, चीनी प्रतिक्रिया इतनी भीषण थी कि उसकी काररवाई में कई भारतीय जवानों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा और कौल भौचक्के रह गए। यह कहावत बिल्कुल सटीक है कि जब तक आपके पास सफलता की उचित संभावना मौजूद न हो, तब तक अपने जवानों को हमला करने के लिए भेजना उनकी हत्या करना है—और कौल ने बिल्कुल यही किया। कौल 10 अक्तूबर, 1962 को नेहरू को वस्तु-स्थिति से अवगत कराने के वादे के साथ वहाँ से लौट आए। इसके बावजूद ढोला को छोड़ने और दक्षिण की ओर रक्षात्मक स्थिति अपनाने की ब्रिगेडियर दलवी की सलाह को अनसुना कर दिया गया। ढोला में बने रहने और उसे बचाने के आदेश आए। यह बिल्कुल अजीब था—असैनिक और गैर-पेशेवर लोग सेना को यह बता रहे थे कि उसे क्या करना चाहिए! 

ढोला में भारतीय सैनिकों की बढ़ती मौजूदगी और युम्त्सो ला में 10 अक्तूबर, 1962 के भारत के प्रयासों, जिसके लिए बी.एम. कौल पूरी तरह से जिम्मेदार थे, से चिंतित या फिर इसे एक बहाने की तरह लेते हुए चीन ने 20 अक्तूबर, 1962 को ढोला पर धावा बोल दिया और 1962 के युद्ध का आगाज कर दिया। इसके लिए बी.एम. कौल को दोषी माना जाना चाहिए। स्थिति को प्रत्यक्ष रूप से देखने के बाद कौल को एक जिम्मेदार पेशेवर की तरह भारत की ‘अग्रवर्ती नीति’ के कुकृत्य को रोकने के प्रयास करने चाहिए थे, ताकि भारतीय सेना को स्पष्ट दिखाई दे रही पराजय से बचाया जा सके। अगर नेहरू-मेनन उनकी बात से सहमत नहीं थे तो उन्हें अपने पद से इस्तीफा दे देना चाहिए था। लेकिन उन्होंने ऐसा करने के बजाय सेना में तैनात कई अन्य वरिष्ठों की तरह सैन्य विचारों की परवाह किए बिना नेहरू-मेनन के सामने नतमस्तक होना पसंद किया। 

चीन के विरोध के बावजूद भारत का अपनी अग्रवर्ती नीति के साथ आगे बढ़ते रहने के चलते हो सकता है कि चीन यह सोचने पर मजबूर हो गया हो कि शायद एक सैन्य पराजय का झटका ही भारत को नियंत्रित कर सकता है। 

बी.जी. वर्गीज ने बाद में इस दुःख भरी कहानी को याद करते हुए लिखा—“नेहरू के ‘उन्हें निकाल बाहर करो’ के आदेश के बाद और सेना की समझदारी भरी सलाह और जमीनी हकीकत के आकलन के विरुद्ध ब्रिगेडियर जे.पी. दलवी के नेतृत्व में एक ब्रिगेड को थागला रिज के नीचे नमका चू नदी पर तैनात किया गया था, जो चीनी दावे के मुताबिक मैकमहोन रेखा से भी कहीं आगे स्थित थी। यह एक स्व-निर्मित फंदा था—‘यह और कुछ नहीं, ‘करो या मरो’ वाली स्थिति थी’। ब्रिगेड साहसिक काररवाई के बाद आदेश के खिलाफ पीछे हट गई और चीन तवांग तक घुस आया, जहाँ वह 25 अक्तूबर को पहुँचा था।’ 

यह ब्रिगेडियर जे.पी. दलवी की पुस्‍तक ‘हिमालय ब्लंडर’ से लिया गया है, जो खुद इस युद्ध के एक प्रत्यक्षदर्शी और वास्तविक भागीदार रहे हैं— 
“20 अक्तूबर, 1962 की सुबह 5 बजे चीनी तोपखाने ने नमका चू घाटी के एक सँकरे क्षेत्र में कमजोर भारतीय मोर्चेबंदी पर गोलीबारी शुरू कर दी। इसके बाद पैदल सेना के भीषण हमलों की बारी आई और तीन घंटे के भीतर ही यह एकतरफा मुकाबला खत्म हो गया। असम के मैदानों का रास्ता पूरी तरह से खुला था। चीनियों ने अपनी प्रारंभिक सफलताओं का पूरा लाभ उठाया और हिमालय की दक्षिणी ढलानों से 160 मील अंदर तक भारत के क्षेत्र में घुस आए तथा 20 नवंबर को ब्रह्म‍पत्रु घाटी तक पहुँच गए। उन्होंने से ला दर्रे की अभेद्य कही जानेवाली सुरक्षा को तार-तार कर दिया, बोमडि ला को वास्तव में रौंद दिया और मठों का शहर तवांग बिना विरोध के ढह गया। भारत की घबराहट भरी प्रतिक्रिया में 1,600 किलोमीटर दूर स्थित पंजाब से आई बिना अनुकूलन वाली सैन्य टुकड़ियाँ थीं, जो पहाड़ी युद्ध के लिए जरा भी प्रतिक्षित नहीं थीं। उन्हें चीनियों के फंदे में फँसने के लिए छोड़ दिया गया था, क्योंकि वास्तव में पहले से नियोजित और तैयार किए गए जोन ही नहीं थे। चीनी इस पर चकित थे।” (जे.पी.डी./1) 

नेहरू और उनकी मंडली जो कुछ पेश कर रही थी, उपर्युक्त से उसकी तुलना करते हुए नेविल मैक्सवेल ने ‘इंडिया’ज चाइना वॉर’ में लिखा है—“ऐसा कैसे हो सकता है कि बिल्कुल आखिर तक नेहरू और विदेश मंत्रालय में बैठे उनके अधिकारी यह मानकर चल रहे थे कि नेफा (NEFA) में स्थिति पूरी तरह से उनकी सेना के पक्ष में है और यह कि इसके बूते चीनी सेना को मुफीद पराजय दी जा सकती है? कौल और सेना प्रमुख जनरल थापर खुद पिछले नवंबर में ही सड़क के रास्ते तवांग तक गए थे और इसलिए उन्हें खुद को उन परेशानियों से वाकिफ होना चाहिए था, जो मैकमहोन रेखा पर किसी अभियान को करने के लिए रसद को वहाँ ले जाने में सामने आनी थीं। लेकिन अक्तूबर 1962 तक भी नेहरू पत्रकारों से कह रहे थे कि नेफा (NEFA) में स्थितियाँ भारत के पक्ष में हैं। निश्चित रूप से, कहीं तो गड़बड़ थी।” (मैक्स./302) 

राष्ट्रपति डॉ. राधाकृष्णन इस पराजय से इतने क्षुब्‍ध थे कि जब किसी ने उन्हें इस अफवाह के बारे में बताया कि चीनियों ने जनरल बी.एम. कौल को बंदी बना लिया है तो उनका कहना था, “दुर्भाग्य से, यह असत्य है।” (मैक्स./410) 

अन्य देशों का रुख : नेहरू की विदेश नीति की विफलता 
एस.के. वर्मा ने ‘1962: द वॉर दैट वाज’न्ट में लिखा—“चेयरमैन माओ ने अपने जीवन- काल में कई चमत्कार किए थे और वे बीसवीं शताब्दी के सबसे प्रभावशाली व्यक्तित्व नहीं तो उनमें से एक जरूर थे। जहाँ तक भारत का सवाल है, उन्होंने कई मौकों पर नेहरू की सोच से आगे सोचने की विलक्षण क्षमता को दिखाया, वह भी इस हद तक कि जब कोई घटनाओं पर दोबारा नजर डालता है तो बिल्कुल ऐसी होती हैं जैसे चीनियों को यह बात पहले से ही पता थी कि उनके प्रत्येक कदम पर भारतीयों की प्रतिक्रिया क्या होगी! 

“जैसाकि हम देख चुके हैं, एक बार फिर सजीव हो जाने के बाद माओ के चीनी कम्युनिस्टों ने कुओमिनतांग की कहीं बड़ी और बेहतर सुसज्जित सेना को हराया। यह देखते हुए कि द्वितीय विश्व युद्ध के चलते पश्चिम भौतिक और भावनात्मक रूप से निचुड़ चुका है तथा पूरी तरह से रूसियों को रोकने में व्यस्त था, माओ ने शिंजियांग और तिब्बत को अपने झंडे तले लाकर वह कर दिखाया, जिसे युद्ध के बाद का सबसे बड़ा रियल एस्टेट तख्तापलट कहा जाता है। इस जबरदस्त चीनी विस्तारवाद से सीधे प्रभावित होनेवाला भारत माओ की योजनाओं में अस्तित्वहीन था। फिर भी, पता नहीं कैसे, माओ ने न सिर्फ तिब्बत में चीनी हरकतों को लेकर भारत को शांत रखा, बल्कि साथ ही नेहरू को चीनी अतिक्रमण का समर्थन करने के लिए भी राजी कर लिया। इसके बाद का तार्किक कदम था भारत को बैकफुट पर धकेलना, क्योंकि अमेरिका का बीच में कूद पड़ने का खतरा हमेशा बना हुआ था। इसलिए, भारतीयों को अव्यवस्थित रखने के लिए माओ ने भारत के साथ सीमा विवाद खड़ा किया, जिसका पहले अस्तित्व ही नहीं था। 

“तमाम चेतावनियों के बावजूद नेहरू के इस जाल में फँसने के साथ (चीनी इरादे को बयान करनेवाले प्रसिद्ध पत्र को लिखने के ठीक 38 दिनाें बाद सरदार पटेल का निधन हो गया) खेल शुरू होने से पहले ही खत्म हो गया। चीनियों ने अपनी चाल इस तरीके से चली कि भारतीय उसे हार गए, जो उनके बिना लड़े ही एक रक्षात्मक युद्ध साबित हो सकता था। आखिरकार, इस सबके ऊपर चीनी वास्तव में सबको इस बात को समझाने में सफल रहे कि भारत और चीन के बीच 1962 में हुए युद्ध के लिए सिर्फ नेहरू ही जिम्मेदार थे।

 “चीनियों ने बिल्कुल शुरुआत से ही नेहरू के साथ खेल खेला। जैसे चीनी जनरल यांग चेंगियु ने लेफ्टिनेंट जनरल बिज्जी कौल को एक खुली पुस्‍तक की तरह पढ़ा। बिल्कुल वैसे ही माओ ने नेहरू को समझा और अच्छी तरह से सोच-समझकर चली चालों के जरिए दुनिया की नजरों में भारतीय प्रधानमंत्री और उनके आसपास के लोगों को अनाड़ी नौसिखियों के एक झुंड जैसा बना दिया।” (एस.के.वी./एल-6835) 

चीन ने पूरी प्रक्रिया को अंजाम दिया—पत्रों का आदान-प्रदान, युद्ध के पहले के वर्षों में चर्चा और वार्त्ताओं के प्रस्ताव, इस बात का प्रचार कि उनका कदम कितना उचित था, पर्याप्त संकेत एवं चेतावनी और हमले से पहले बातचीत के प्रस्ताव, 20 से 30 अक्तूबर, 1962 के युद्ध के पहले दौर के बाद युद्ध-विराम और वार्त्ता की पेशकश, युद्ध का वास्तविक संचालन, 21 नवंबर, 1962 को एकतरफा संघर्ष-विराम, बातचीत के जरिए सेना की वापसी और समझौते का प्रस्ताव, दूसरे देशों को वस्तु-स्थिति से अवगत करवाना, युद्ध में उनके द्वारा जीते गए सभी क्षेत्रों को स्वेच्छा से वापस कर देना—ऐसी चालाकी, परिपक्वता, सक्षमता, जिम्मेदारी, पारदर्शिता और समय-निर्धारण के साथ कि चीन के दुश्मनों सहित पूरी दुनिया बेहद प्रभावित हुई। चीन ने ढीले-ढाले, खयाली पुलाव बनाने वाले और लापरवाह भारतीय नेतृत्व को पछाड़ने में सफलता हासिल की। 

भारत और अन्य देश 
इसके विपरीत, भारत को लगभग सभी मोरचों पर शर्मिंदगी का सामना करना पड़ा—खराब कूटनीति, एक उचित समाधान तलाशने के प्रति इच्छा-शक्ति और तर्कशीलता की कमी और निश्चित ही युद्ध में बेहद कमजोर प्रदर्शन। नेहरू और उनकी मंडली दोनों मोरचों पर हुए इस व्यापक हमले से स्तब्ध रह गए थे—कुछ ऐसा, जिसके बारे में उन्होंने अपने सपने में भी नहीं सोचा था। भारत ने वास्तव में, असैनिकों (नेहरू एवं उनकी मंडली और बाबुओं) द्वारा पेशेवरों (सेना) को युद्ध की रणनीति और कार्यनीति से संबंधित दिशा-निर्देश देने की अनुमति प्रदान करने और पेशेवरों (सेना) की सलाह, और यहाँ तक विरोध, को दरकिनार करने की कीमत चुकाई थी।

शायद ही कोई देश भारत के समर्थन में सामने आया हो। नेहरू खुद को गुटनिरपेक्ष आंदोलन और नए स्वतंत्र हुए एशियाई एवं अफ्रीकी देशों का अगुवा मानते थे, उनकी वे पैरवी करते रहते थे। लेकिन उनमें से किसी ने भी बिना शर्त समर्थन नहीं दिया और अधिकांश तटस्थ बने रहे। 

चीन और सोवियत संघ के बीच आदान-प्रदान का मामला था—चीन को सोवियत संघ द्वारा क्यूबा में परमाणु मिसाइलों को तैनात करने के प्रयास का समर्थन करना था। क्यूबा संकट भी लगभग तभी सामने आया था, जब भारत-चीन युद्ध आया—और इसके बदले में सोवियत संघ को भारत-चीन युद्ध में चीन का समर्थन करना था। असल में, माओ ने बेहद चालाकी और सावधानी के साथ हमले के लिए उस समय को चुना, जो क्यूबा मिसाइल संकट से मेल खाता था, ताकि पूरी दुनिया का ध्यान दो महाशक्तियों की क्यूबा में उलझने पर केंद्रित रहे और कोई भी देश चीनी काररवाई के बीच में हस्तक्षेप न करे। हेनरी किसिंजर ने ‘अ‍ॉन चाइना’ में लिखा—(एच.के.)

 “हमलावर (1962 में भारत के खिलाफ) होने के अंतिम निर्णय (चीन द्वारा) से पहले ख्रुश्चेव ने स्पष्ट रूप से कह दिया था कि युद्ध की स्थिति में सोवियत संघ वर्ष 1950 की फ्रेंडशिप ऐंड अलायंस की संधि के प्रावधानों के तहत चीन का साथ देगा। यह निर्णय पिछले कुछ वर्षों के सोवियत-चीनी संबंधों और चीन के साथ भारतीय संबंधों के मुद्देपर क्रेमलिन द्वारा तब तक अपनाए गए तटस्थता के सिद्धांत के बिल्कुल उलट था। इसका एक संभव स्पष्टीकरण यह है कि ख्रुश्चेव क्यूबा में सोवियत संघ द्वारा परमाणु हथियारों की तैनाती के प्रदर्शन से आसन्न थे और वे क्यूबा संकट के दौरान खुद के लिए चीनी समर्थन सुनिश्चित करना चाहते थे।” (एच.के./एल-3048)

नेहरू बेहद बेसब्री से अमेरिकी वायु सेना की सहायता चाहते थे 
नेहरू और कृष्णा मेनन दोनों ही अमेरिका के पारंपरिक आलोचक थे। हालाँकि भारत की स्थिति इतनी दयनीय हो गई थी कि वह आगे बढ़ रही चीनी सेना का विरोध करने लायक स्थिति में भी नहीं था कि नेहरू ने अमेरिका (वह देश, जिसकी वे हमेशा आलोचना करते रहते थे) को हथियारों और हवाई सहायता के लिए एक एस.ओ.एस. भेजा। इससे भी अधिक, नेहरू तो चाहते थे कि अमेरिकी सेना मैदान में उतरे और भारत के लिए युद्ध भी लड़े! 

“उदाहरण के लिए, भारत-चीन युद्ध की चरम स्थिति में 19 नवंबर, 1962 को पी.डी.बी. ने केनेडी को बताया कि भारतीय सेना मुख्यालय ‘सदमे और अव्यवस्था की स्थिति में है और उनके पास कोई स्पष्ट योजना नहीं है’ कि चीनियों को आगे बढ़ने से कैसे राेका जाए? उसमें रिपोर्ट की गई कि भारत चीनी हमलों को रोकने के लिए अमेरिकी वायु सेना के पायलटों के युद्ध में शामिल होने को स्वीकार करने के लिए ‘बिल्कुल तैयार’ था। केनेडी को उसी शाम नेहरू का एक असामान्य पत्र प्राप्त हुआ, जिसमें 350 अमेरिकी लड़ाकू विमानों और चालक दल को चीन से लड़ने के लिए भारत भेजने के लिए कहा गया था।” (बी.आर./एल-38-41) 

नेहरू द्वारा 15 नवंबर, 1962 और 20 नवंबर, 1962 को अमेरिकी राष्ट्रपति जॉन एफ. केनेडी को लिखे गए दो पत्र उनकी हताशा को दरशाते हैं। यह इंद्र मल्‍होत्रा के एक लेख से लिया गया है, जिसमें नेहरू द्वारा जे.एफ.के. को लिखे गए पत्रों का उद्‍धरण शामिल है (यू.आर.एल.24)— 
“दूसरे पत्र (में)...नेहरू केनेडी को सूचित करते हैं कि बेहद संक्षिप्त अंतराल के दौरान ही ‘नेफा (NEFA) की स्थिति...कमांड अब और अधिक खराब हो गई है। बोमडि ला हाथ से जा चुका है और से ला से पीछे हटनेवाली सेना से ला रिज और बोमडि ला के बीच फँस गई है। असम के हमारे डिगबोई तेल क्षेत्रों के लिए एक गंभीर खतरा पैदा हो गया है। चीनियों के बड़ी संख्या में आगे बढ़ने के चलते पूरी ब्रह्म‍पुत्र घाटी गंभीर खतरे की चपेट में है और अगर बड़े पैमाने पर बढ़ते इस खतरे को रोकने के लिए कुछ नहीं किया जाता है तो जल्द ही पूरा असम, त्रिपुरा, मणिपुर और नागालैंड चीन के कब्जे में जा सकते हैं।’ इस बात पर ध्यान दिलवाने कि अब तक उन्होंने ‘हमारे अनुरोधों को आवश्यक उपकरणों तक सीमित कर दिया था’ और अपने सहयोग ‘इतनी जल्दी प्रदान किए गए’ के लिए अमेरिका का शुक्रिया अदा करते हुए नेहरू ने लिखा—‘हमने अधिक व्यापक सहायता, विशेष रूप से हवाई सहायता, के लिए नहीं कहा। हालाँकि अब हताशा की स्थिति बन गई है। अगर चीनियों को समूचे पूर्वी भारत पर कब्जा करने से रोकना है तो हमें अधिक व्यापक सहायता की आवश्यकता है। इस सहायता के हम तक पहुँचने में जरा भी देरी होने का मतलब हमारे देश के लिए भारी तबाही से कम नहीं होगा।’ इस विषय में उनकी विशिष्ट माँगें इस प्रकार हैं—(‘सुपरसोनिक अ‍ॉल वेदर फाइटर्स के कम-से-कम 12 स्क्वाड्रन’ और एक ‘आधुनिक रडार कवर (जो) हमारे पास नहीं है।’ नेहरू ने आगे यह भी जोड़ा कि अमेरिकी वायु सेना के कर्मियों को ‘इन फाइटर्स और रडारों को स्थापित करना होगा, जबकि हमारे कर्मी उस दौरान इनका प्रशिक्षण प्राप्त करेंगे।’” (यू.आर.एल.24) 

हालाँकि, आखिर में अमेरिकी वायु सेना की मदद की जरूरत नहीं पड़ी, क्योंकि चीन ने 21 नवंबर, 1962 को एकतरफा संघर्ष-विराम की घोषणा कर दी। दो दिन पूर्व राष्ट्रपति केनेडी का आया यह बयान कि अगर वे (चीनी) और आगे बढ़ते हैं तो वे अमेरिकी राष्ट्रपति को बाध्य करेंगे चीन के युद्ध-विराम के पीछे के कारणों में से एक हो सकता है। 

अमेरिका और ब्रिटेन दोनों ने ही सैन्य सहायता प्रदान करनी शुरू कर दी थी। यहाँ तक कि इजराइल, जिसे नेहरू ने दूर कर दिया था, ने भी उपकरण प्रदान किए। 

लेकिन भारत की अपनी वायु सेना के प्रयोग को दरकिनार किया 
अगर उचित योजना अपनाई गई होती तो निश्चित रूप से जमीनी युद्ध में चीन का सामना करने में असमर्थता के मामले में वायु सेना को बुलाया गया होता। लेकिन ऐसा नहीं किया गया। ऐसा इसलिए भी हुआ, क्योंकि भारत के पास चीनी वायु सेना की ताकत को लेकर पूरी जानकारी नहीं थी। आखिर क्यों योजना के एक हिस्से के रूप में युद्ध के वास्तव में शुरू से पहले ही युद्ध से संबंधित विभिन्न परिदृश्यों पर चर्चा क्यों नहीं की गई? आखिर, हम युद्ध के मूल सिद्धांतों से इतना दूर क्यों थे? 

एयर चीफ मार्शल एन.ए.के. ब्राउन ने अक्तूबर 2012 में कहा था कि अगर भारतीय वायु सेना को आक्रामक भूमिका की अनुमति दी गई होती तो सन् 1962 के युद्ध का अंतिम परिणाम बिल्कुल ही अलग होता। हालाँकि भारतीय वायु सेना की भूमिका सिर्फ सेना को परिवहन प्रदान करने तक ही सीमित थी। यहाँ तक कि पूर्व एयर वाइस मार्शल ए.के. तिवारी का भी यही मानना था कि अगर 1962 के युद्ध में भारतीय वायु सेना का इस्तेमाल किया गया होता तो भारत चीन को हरा सकता था। उन्होंने कहा, “अंतिम विश्लेषण में, लड़ाकू हवाई शक्ति के इस्तेमाल ने पासे को चीनियों पर पलट दिया होता और हो सकता है कि 1962 का युद्ध चीन के लिए बड़ी हार का सबब बनता।” उन्होंने इस बात का भी उल्लेख किया कि तत्कालीन राजनीतिक-नौकरशाही के गठबंधन ने भारतीय वायु सेना के नेतृत्व से परामर्श किए बिना ही अमेरिकी वायु सेना की मदद माँगी। आधिकारिक इतिहास के अनुसार, आक्रामक हवाई सहायता के इस्तेमाल को नकार देने के निर्णय को स्पष्ट करने के लिए कोई नोटिंग या दस्तावेज मौजूद नहीं है। (यू.आर.एल.112, यू.आर.एल.113) 

यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि ब्रिटिशों ने स्वतंत्रता से पूर्व के समय में आवश्यकता पड़ने पर इस क्षेत्र में वायु सेना के प्रयोग की योजना तैयार की थी। क्लॉड अर्पी ने ‘1962 ऐंड द मैकमहोन सागा’ में लिखा—“...तिब्बत के प्रति ब्रिटिश नीति को देखें और यहाँ तक कि भारत द्वारा दुनिया की छत को भारत द्वारा सैन्य अभियान से बचाने की संभावना को भी देखें। इस काम के लिए युद्ध कार्यालय द्वारा एक विस्तृत योजना तैयार की गई थी। दिलचस्प है कि आर.ए.एफ. के 7 स्क्वाड्रन के साथ अ‍ॉपरेशन की योजना बनाई गई थी। दुर्भाग्य से, भारत सरकार 15 साल बाद यह भूल गई कि हिमालयी क्षेत्र में वायु सेना का प्रयोग किया जा सकता है।” (एप्री/17-18) 

चीन की रणनीति, दृष्टिकोण और परिणाम 
भारत-चीन युद्ध कोई एकदम से घटित नहीं हुआ था। भारत ने न तो सीमा विवाद को सुलझाने की परवाह की और न ही युद्ध की तैयारी करने की, भले ही उसके पास ऐसा करने के लिए 10 वर्ष से भी अधिक का समय था। 

अब, कोई यह पूछ सकता है—क्या तिब्बत पर भारत की उदारता को देखते हुए चीन को मिलनसार नहीं होना चाहिए था? हो सकता है कि चीन को भारत की ओर से यह उदार न लगा हो कि वह तिब्बत को चीन का हिस्सा मान ले और ब्रिटिशों से मिले अपने अधिकारों को छोड़ दे। चीन ने वैसे भी वर्ष 1950 में तिब्बत पर कब्जा कर लिया था। उन्होंने ऐसा करने से पहले भारत की ‘हाँ’ नहीं माँगी थी। उन्होंने तिब्बत को हमेशा से अपना माना, चाहे भारत और दुनिया नाराज हों या न हों। यहाँ तक कि अगर भारत ने पंचशील पर हस्ताक्षर भी नहीं किए होते तो उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। 

निश्चित ही, कोई ऐसा कह सकता है कि सिर्फ इसलिए कि भारत ने कुछ अग्रिम चौकियों का निर्माण किया था, जो विवादित क्षेत्र में आती थीं, इसलिए चीन को हमला नहीं करना चाहिए था। उसे ऐसा करने से पहले भारत को चेतावनी देनी चाहिए थी या फिर भारत के साथ बातचीत करनी चाहिए थी। इसलिए सारा दोष चीन का है। लेकिन चीन की ओर से कई चेतावनियाँ दी गईं (यहाँ तक कि 14 अक्तूबर, 1962 को भी), जिन्हें भारत ने अनदेखा कर दिया। और हो सकता है कि चीन भारत को नीचा दिखाने के मौके का इंतजार कर रहा हो और भारत ने चीन को वह मौका थाली में सजाकर खुद ही दे दिया! चीन भी अक्साई चिन पर अपनी पकड़ मजबूत करना चाहता था और अपने राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति करना चाहता था, जो कई थे— 
1. खुद को एशिया की इकलौती ऐसी महाशक्ति के रूप में स्थापित करना, जो मायने रखती हो। 
2. अपनी अधिनायकवादी व कम्युनिस्ट व्यवस्था की श्रेष्ठता साबित करना, वह भी उस लोकतांत्रिक और बहुलवादी मॉडल पर, जिसका प्रतिनिधित्व भारत ने विकासशील देशों के लिए किया है। 
3. नेहरू एवं भारत को अपमानित करना और विकासशील देशों में भारत की स्थिति को ध्वस्त करना। 
4. यह सुनिश्चित करना कि भारत और तिब्बत के बीच के सभी धार्मिक व सांस्कृतिक संबंध पूरी तरह से टूट जाएँ—कुछ ऐसा, जो तिब्बत के चीन में पूर्ण एकीकरण में बाधा साबित हो सकता है। 
5. दलाई लामा को शरण देने के लिए भारत को सबक सिखाना। इसके अलावा, चीन को तिब्बत के विद्रोह के लिए भारत-अमेरिका की भूमिका पर भी शक था। 
6. चीन की शर्तों पर सीमाओं को तय करने के लिए भारत पर दबाव डालना। 
7. चीन के रणनीतिक लक्ष्यों को हासिल करने के लिए क्यूबा मिसाइल संकट के वैश्विक नुकसान का फायदा उठाना। 
8. माओ की अपनी आंतरिक राजनीतिक मजबूरियाँ थीं, जो अकाल, आर्थिक आपदाओं और भीतरी संघर्ष की पैदाइश थीं। उसका ‘आगे की ओर यह बड़ा कदम’ (ग्रेट लीप फॉवर्ड) 1958 में एक आपदा के साथ शुरू हुआ और इसका परिणाम हुआ मानव इतिहास का सबसे बड़ा मानव-निर्मित अकाल, जिसके चलते वर्ष 1959-61 की तीन साल की अवधि में भूख से तड़पकर 4 से 5 करोड़ लोगों की मौत हुई। इस निर्णायक युद्ध ने उनकी स्थिति को घर में तथा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मजबूत करने और बढ़ाने का काम किया। 

हालाँकि, मुद्दा यह नहीं है। सभी देशों के अपने स्वार्थी मुद्दे होते हैं। क्या हम यह कह रहे हैं कि अगर दूसरे बदमाश होते हैं तो हमें उनका शिकार बन जाना चाहिए? क्या भारत की सुरक्षा उसके पड़ोसियों के अच्छे व्यवहार पर निर्भर होनी चाहिए? सवाल यह है कि भारत अपने हितों की रक्षा के लिए पर्याप्त चतुर क्यों नहीं था? भारत ने चीन को एक बहाना क्यों दिया? भारत ने मूर्खता क्यों की? 

चीन को जब एक बार ऐसा लगा कि अब सशस्त्र टकराव के अलावा और कोई रास्ता बचा ही नहीं, किसिंजर आगे लिखते हैं—“...इसने रणनीतिक फैसलों से निबटने के परिचित चीनी तरीके को चिनगारी प्रदान की; गहन विश्लेषण, सावधान तैयारी, मनोवैज्ञानिक व राजनीतिक कारकों पर ध्यान, आश्चर्यों की भूख और तेजी से निष्कर्ष के जरिए।” (एच.के.एल./एल-3010) 

अब इसकी तुलना भारत की तैयारी के साथ कीजिए 
चीन ने चार मोरचों पर संभावित सशस्त्र संघर्षों के लिए अपने सशस्त्र बलों को तैयार करने में भारी निवेश किया था—ताइवान द्वारा प्रत्याशित आक्रमण, अमेरिका के समर्थन से; दक्षिण कोरिया, तिब्बत और आखिर में भारत। चीन के पास वर्ष 1962 तक प्रथम श्रेणी की ऐसी सेना थी, जो किसी भी युद्ध की संभावना से निबटने के लिए तैयार थी।

 नेहरू ने अपनी भूल स्वीकारी 
नेहरू के आधिकारिक जीवनी लेखक एस. गोपाल ने लिखा—“चीजें इतनी गलत हो गईं कि अगर वे नहीं घटी होतीं तो उन पर भरोसा करना मुश्किल हो जाता।” 

नेहरू ने खुद यह स्वीकार किया है—“हम आधुनिक दुनिया में वास्तविकता से दूर होते जा रहे थे और हम अपने खुद के बनाए हुए एक कृत्रिम माहौल में रह रहे थे।” (जैक/149) 

“हमारा मानना है कि भारत को पीकिंग के प्रति अपनी कूटनीतिक मित्रता के बदले गलत बदला चुकाया गया है। यह कहना मुश्किल है कि चीनियों ने जानते-बूझते हमें धोखा दिया है। हो सकता है कि हमने खुद को धोखा दिया हो।” (ए.एस./38)