Nehru Files - 42 in Hindi Anything by Rachel Abraham books and stories PDF | नेहरू फाइल्स - भूल-42

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नेहरू फाइल्स - भूल-42

भूल-42 
हिमालयी भूलें, लेकिन कोई जवाबदेही नहीं 

दोषी व्यक्ति 
इस बात पर कोई संदेह नहीं है कि सन् 1962 के भारत-चीन युद्ध की प्रमुख विफलताओं, जो भारत के लिए बेहद महँगी साबित हुईं, के लिए अगर कोई व्यक्ति मुख्य रूप से जिम्मेदार है तो वे हैं नेहरू— 
1. नेहरू ने एक राष्ट्र के रूप में तिब्बत को मिट जाने दिया, बिना विरोध दर्ज करवाए। 
2. नेहरू ने चीन के साथ एक शांतिपूर्ण सीमा समझौता नहीं किया, जबकि—
 (क) इसे सुलझाने के लिए एक दशक से भी अधिक का स्वच्‍छंद समय था, 
(ख) खुद ही सामने आए सुनहरे अवसर, जैसे पंचशील समझौते पर हस्ताक्षर का मौका या फिर उनकी चीन की यात्राएँ या झोउ एनलाई की अनगिनत भारत यात्राएँ 
(ग) बातचीत के जरिए एक समझौते तक पहुँचने की चीन की इच्छा और 
(घ) यहाँ तक कि इस दिशा में चीन द्वारा की गई पहलों को भी—भारत ने या तो नजरअंदाज कर दिया या फिर बेहद हलके में लिया। 
3. नेहरू ने सैन्य आवश्यकताओं और बाह्य‍ सुरक्षा की पूर्ण उपेक्षा की और सेना के राजनीतिकरण (कृष्णा मेनन के साथ) में लगे रहे। 
4. भारत ने नेहरू के राज में जल्दबाजी भरी अग्रवर्ती नीति को लागू किया, वह भी बिना यह सोचे कि इसका अंजाम क्या होगा! 
5. नेहरू ने अलोकतांत्रिक और तानाशाह जैसे होकर— 
(क) निर्णय लेने की प्रक्रिया में किसी अन्य को शामिल नहीं किया; 
(ख) संसद् और जनता को सीमा से जुड़े मसलों की सच्‍चाई से दूर रखा; और 
(ग) कई महत्त्वपूर्ण मामलों में संसद्, मीडिया एवं देश की जनता को गुमराह किया। 
6. युद्ध में भारत की दुर्दशा के लिए नेहरू ही प्रमुख रूप से जिम्मेदार थे। 
7. नेहरू ने यह सुनिश्चित किया कि उनके जीते-जी सीमा विवाद का निबटारा न हो, युद्ध के बाद भी नहीं; जबकि चीन इस मुद्देपर चर्चा करने को तैयार था। 

नेहरू ने चीनी साम्यवाद पर एक बेहद दिलचस्प टिप्पणी की थी, “यह सोचना कि साम्यवाद का अर्थ सिर्फ विस्तार और युद्ध है या इसे और अधिक शुद्ध रूप से कहें तो चीनी साम्यवाद का अर्थ अपरिहार्य और भारत की ओर विस्तार है, वास्तव में अनाड़ीपन से भरा है।” (एप्री/440) 

दूसरों के विचारों को नीचा करके दिखाने का नेहरू का सबसे पसंदीदा तरीका था, उन्हें ‘बचकाना’ या फिर ‘भोला’ के रूप में लेबल करना, जैसाकि ऊपर किया है। उन्हें इस बात का जरा भी अहसास नहीं था कि उनके स्वयं के कई विचार वास्तव में बिल्कुल बचकाने और अनाड़ी जैसे हैं। 

दूसरों को प्रत्युत्तर देने का उनका एक और पसंदीदा तकिया-कलाम था—‘बड़े दृश्य में’ या फिर ‘बड़े दृष्टिकोण से’ या फिर ‘बड़े वैश्विक दृष्टिकोण से’। तिब्बत के संदर्भ में उन्होंने कहा, “हमें इन मामलों को ‘बड़े वैश्विक दृष्टिकोण से’ आँकना होगा, जिसे पहचानने की दृष्टि शायद हमारे तिब्बती मित्रों के पास नहीं है।” (एप्री/444) इसी वजह से तिब्बत को लेकर हमारी अनीति या फिर ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई’ की नीति निश्चित ही इस ‘बड़े वैश्विक दृष्टिकोण से’ प्रेरित थी। अरुण शौरी ने लिखा— 
“अब यह पंडितजी (नेहरू) का पसंदीदा वाक्यांश है—‘दीर्घकालिक दृष्टिकोण’ या कि ‘बृहत‍्विवेचन’ है। वे जब भी पहला (दीर्घकालिक दृष्टिकोण) का उपयोग करें तो आपको यह समझ लेना चाहिए कि वे मैदान छोड़ने की तैयारी कर रहे हैं। वे जब भी बाद वाले (बृहत‍्विवेचन) का प्रयोग करें तो आप इस बात को लेकर सुनिश्चित हो सकते हैं कि वे विशेष रूप से देश के हितों का त्याग करने की तैयारी कर रहे हैं।” (ए.एस./46) 

इस पराजय के सबसे बड़े जिम्मेदार नेहरू के बाद, लेकिन उनसे बहुत नीचे, अगर कोई था तो वह थे—दंभी व प्रच्छन्न साम्यवादी कृष्णा मेनन। निश्चित रूप से, दोष देने के लिए अगर नेहरू पहले स्थान पर आते थे तो कृष्णा मेनन ग्यारहवें स्थान पर और उन दोनों के बीच कोई और नहीं था। कृष्णा मेनन नेहरू के सिर्फ एक पिछलग्गू भर थे, जिनकी अपनी कोई समझ नहीं थी और वे कुछ भी ऐसा नहीं कर सकते थे, जो नेहरू नहीं चाहते थे। 

कुलदीप नैयर ‘बियॉण्ड द लाइंस’ में लिखते हैं—“मैंने एक बार उनसे (कृष्णा मेनन से) पूछा कि वे अपना पक्ष सामने क्यों नहीं रखते हैं? वे बोले, ‘मेरी कहानी मेरे साथ ही खत्म हो जानी चाहिए, क्योंकि मुझे सारा दोषारोपण नेहरू पर करना पड़ेगा और मैं उनके प्रति अपनी निष्ठा के चलते ऐसा नहीं करना चाहता।’ ” 

इंटेलिजेंस ब्यूरो के निदेशक बी.एन. मलिक भी कम जवाबदेह नहीं थे। सेना की तरफ से हार के सबसे बड़े जिम्मेदारों में पी.एन. थापर, थलसेनाध्यक्ष (सी.ओ.ए.एस.), जनरल एल.पी. सेन, पूर्वी कमांड के तत्कालीन प्रमुख, लेफ्टिनेंट जनरल बी.एम. कौल और मेजर जनरल एम.एस. पठानिया शामिल थे। 

नेहरू ने खुद को जवाबदेही से दूर रखना सुनिश्चित किया

 देश की जनता, मीडिया, यहाँ तक जनता के साथ जानकारी साझा करने में ऐसी व्यवस्था को अपनाया जाता था और साथ ही नेहरू के लोकतांत्रिक भारत के सच के साथ ऐसी व्यवस्था थी कि भारत-चीन युद्ध में पराजय की जिम्मेदारी नेहरू, इसके लिए जिम्मेदार प्रमुख व्यक्ति, पर नहीं डाली गई, बल्कि मेनन पर डाली गई। विपक्ष इस हद तक नादान था कि कृपलानी सहित अन्यों ने नेहरू को मेनन से रक्षा विभाग छीनकर अपने अधिकार में लेने के लिए कहा! उन लोगों को इस बात का जरा भी अंदाजा नहीं था कि विदेश नीति के क्षेत्र और साथ ही रक्षा के क्षेत्र में इस असफलता की असल वजह नेहरू हैं। मेनन तो सिर्फ नेहरू की एक कठपुतली थे। उन्होंने अपना काम किया और सिर्फ सन् 1957 में रक्षा मंत्री बने! 

न चाहते हुए भी कृष्णा मेनन को बलि का बकरा बनाया गया। सी.ओ.ए.एस. जनरल थापर ने इस्तीफा दे दिया, बी.एम. कौल ने इस्तीफा दे दिया, लेकिन नेहरू ने नहीं। ब्रिगेडियर जे.पी. दलवी ने अपनी पुस्‍तक ‘हिमालयन ब्लंडर’ में लिखा—
 “इस अवश्यंभावी मुसीबत के आने पर नेहरू के पास इतना अनुग्रह या साहस भी नहीं था कि वे अपनी गलतियों को स्वीकार कर सकें या फिर एक नया जनादेश प्राप्त करने के लिए जनता के पास जाएँ। यहाँ तक कि उन्होंने इस्तीफा देने का प्रस्ताव तक नहीं रखा; उन्होंने सिर्फ अपने विश्वासपात्र साथियों और सैन्य अधिकारियों को बलि के बकरों की तरह पेश कर दिया।” (जे.पी.डी./249) 

“गलत नीतियों की जिम्मेदारी को शिष्टाचारपूर्वक स्वीकार करने के बजाय दोषी व्यक्तियों ने बहाने और बलि के बकरे तलाशे। किसी भी विकसित लोकतंत्र में सरकार को बदल दिया गया होता, न कि उसे सत्ता में बने रहने और अपने अधीनस्थों के खिलाफ निर्णय लेने की अनुमति प्रदान की जाती।” (जे.पी.डी./161) 

“हमें यह भी सीखना चाहिए कि लोकतंत्र में सिद्ध विफलताओं के लिए कोई जगह नहीं है। यह भावुकता का मामला नहीं है। मई 1940 में हिटलर के फ्रांस पर आक्रमण करने के बाद श्री चैंबरलेन को क्रॉमवेल की क्लासिक विनती ‘भगवान् के लिए कृपया चले जाइए’ कहते हुए हटा दिया गया था। सन् 1956 के विनाशकरी ‘स्वेज संकट’ के बाद एंथनी ईडन को पद से हटा दिया गया था।” (जे.पी.डी./161) 

सिर्फ इतना ही नहीं, नेहरू तो रक्षा मंत्री कृष्णा मेनन को हटाने के लिए भी तैयार नहीं थे। नेहरू ने दिल्ली में मुख्यमंत्रियों की एक बैठक में भाग लेने दिल्ली आए यशवंत राव चव्हाण से कहा, “देखिए, उन्हें आज मेनन की बलि चाहिए। अगर मैं आज उनकी बात मान लेता हूँ तो कल को वे मेरी बलि भी जरूर माँगेंगे।” (डी.डी./364) 

दबाव को दूर हटाने में नाकामयाब रहने पर नेहरू ने एक बार फिर अपनी पुरानी चाल चलते हुए अपने इस्तीफे की पेशकश की। नेहरू इससे पहले भी कई मौकों पर अपना रास्ता साफ करने के लिए इस्तीफा देने की धमकी दे चुके थे, क्योंकि उन्हें अच्छे से मालूम था कि लोग पीछे हट जाएँगे। लेकिन इस बार नहीं। जब उन्हें इस बात का अहसास हुआ कि उनकी यह चाल अब चलनेवाली नहीं है और उन्हें खुद को ही कुरसी छोड़नी पड़ेगी तो वे तुरंत अपनी इस्तीफे की धमकी से पीछे हट गए और मेनन से इस्तीफा देने को कहा। इंदिरा गांधी पहले ही उप-राष्ट्रपति जाकिर हुसैन से मिल चुकी थीं और उन्हें अपने पिता को मेनन को हटाने के लिए मनाने को कह चुकी थीं; क्योंकि नाराज मीडिया और जनता को मनाने का सिर्फ यही एक तरीका बचा था। नेहरू वास्तव में उनका प्रतिकार करते थे, जो उनका विरोध करते थे और उन्होंने बाद में उनमें से कुछ से बदला भी लिया। जैसे धर्मपाल, जो एक जाने-माने विचारक, विद्वान् और लेखक थे, जिन्होंने सन् 1962 के युद्ध की शर्मनाक पराजय के बाद नेहरू के विरोध में उन्हें एक खुला पत्र लिखा था, को नेहरू ने जेल भिजवा दिया था। (भूल#97) 

इजराइल का उदाहरण, बिल्कुल विपरीत 

यहाँ इजराइल और गोल्डा मियर का उदाहरण दिया जा रहा है, जो भारत और नेहरू के बिल्कुल विपरीत है— 
सन् 1967 में छह दिवसीय युद्ध में मिस‍्र-सीरिया-जॉर्डन-इराक की संयुक्त सेना के खिलाफ अपनी निर्णायक जीत के बाद और 1948 में अपने जन्म के समय और उसके बाद मिली जीतों के चलते इजराइल शांत था, साथ ही पूरी तरह से तैयार भी नहीं था; क्योंकि उसे लगता था कि अरब दोबारा हमला करने की हिमाकत नहीं करेंगे। ऐसा इसलिए भी था, क्योंकि इजराइल के पास उस समय तक अरबों को दूर रखने के लिए परमाणु हथियार भी थे। इसलिए सन् 1973 का हमला उनके लिए बेहद हैरानी भरा था। सन् 1973 में यहूदियों के लिए साल का सबसे पवित्र दिन माना जानेवाला ‘योम किपुर’ 6 अक्तूबर को पड़ा। यह वह दिन था, जब इजराइल और पूरी दुनिया में रहनेवाले सभी यहूदी योम किप्यूर मनाने में व्यस्त थे कि तभी मिस‍्र और सीरिया की सेना ने सिनाई प्रायद्वीप और गोलान हाइट्स में एक साथ इजराइल पर एक अप्रत्याशित आक्रमण किया। फिर भी प्रारंभिक झटके और खलबली के बावजूद उसने चुनौती का डटकर सामना किया, उस संयुक्त हमले का मुँहतोड़ जवाब दिया और विजयी बनकर उभरा। इस युद्ध को ‘योम किपुर युद्ध’ कहा जाता है। 

उस समय गोल्डा मियर इजराइल की राष्ट्रपति थीं। हालाँकि, आखिर में इजराइल की जीत शानदार और निर्णायक थी, इसके बावजूद उन्होंने बिना समय गवँाए प्रारंभिक असफलताओं और खलबली के लिए, साथ ही उन कमियों, जिनके चलते यह अप्रत्याशित हमला हुआ, की जिम्मेदारी तय करने के लिए एक जाँच समिति बिठाई। प्रारंभिक रिपोर्ट आने में सिर्फ कुछ ही महीनों का समय लगा और उसे 2 अप्रैल, 1974 को जारी किया गया। उसमें वास्तव में जिम्मेदार लोगों के नामों का खुलासा किया गया था। शीर्ष स्तरवाले कई अधिकारियों को इस्तीफा देने का आदेश दिया गया। गोल्डा मियर का नाम नहीं लिया गया था, लकिन समग्र जिम्मेदारी लेते हुए उन्होंने रिपोर्ट जारी होने के सिर्फ आठ दिन बाद ही—10 अप्रैल, 1974—को अपने पद से इस्तीफा दे दिया, जबकि यह सिर्फ एक प्रारंभिक रिपोर्ट थी! ऐसा तब हुआ, जब इजराइल ने गोल्डा मियर के नेतत्व में इस यु ृ द्ध में निर्णायक जीत हासिल की थी और खुद पर हमला करनेवाले अरब देशों को मुँहतोड़ जवाब दिया था! 

अब, इसकी तुलना नेहरू और भारत के साथ कीजिए। हालाँकि भारत सन् 1962 के भारत- चीन युद्ध में बेहद शर्मनाक तरीके से हार गया था, इसके बावजूद नेहरू सरकार ने जाँच करवाने की जहमत भी नहीं उठाई और अपने इस्तीफे की पेशकश करने का इशारा तक नहीं किया। सीधी-सादी जनता के सामने क्या बहाना बनाना था? देश को बताया गया कि सीमाओं की रक्षा बहुत अच्छे से की जा रही थी और यह कि चीन की तरफ से किया गया यह अकारण हमला भारत द्वारा चीन के साथ की जा रही तमाम अच्छाइयों का बदला है। यहाँ तक कि राजाजी, जो तब तक नेहरू के विरोध में ही रहते थे, ने भी चीन के विश्वासघात को इसके लिए दोषी बताया। शायद उस समय तक राजाजी सच्‍चाई से पूरी तरह से अनजान थे। आप एक हिमालयी गलती करें, लेकिन आपको सहानुभूति मिलती है—चीन ने बेचारे नेहरू की पीठ में छुरा घोंपा था! लगातार फैलाई गई गलत जानकारी कैसे स्थितियों को पलट देती है! 

उस समय का एक मशहूर गाना, जिसे कवि प्रदीप ने पंक्तिबद्ध किया था और लता मंगेशकर ने गाया था, आज भी हर किसी को याद है। वह कुछ ऐसे था—‘ऐ मेरे वतन के लोगों, जरा आँख में भर लो पानी; जो शहीद हुए हैं उनकी, जरा याद करो करबानी ...’ इस गाने को हर साल 15 अगस्त को जरूर बजाया जाता है। लताजी ने एक साक्षात्कार में बताया कि जब उन्होंने नेहरू के सामने इस गाने को गाया था तो नेहरू रो दिए थे! आखिर, वे कितने संवेदनशील थे! फिर अतिरिक्त प्रशंसा। लकिे न खासतौर पर उनके अपने आँसुओं और करोड़ों भारतीयों के आँसुओं के लिए कौन जिम्मेदार था? अगर समझदारी भरी नीतियों को अपनाया गया होता तो देश को भारी नुकसान पहुँचानेवाली इस बड़ी त्रासदी और इसके परिणामस्वरूप बहनेवाले आँसुओं से बचा जा सकता था।