Nehru Files - 44-45 in Hindi Anything by Rachel Abraham books and stories PDF | नेहरू फाइल्स - भूल-44-45

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नेहरू फाइल्स - भूल-44-45

भूल-44
परमाणु हथियारों को नेहरू की ‘ना’ 

अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति जॉन एफ. केनेडी भारतीय लोकतंत्र के बहुत बड़े प्रशंसक थे और जब उन्हें इस बात का पता चला कि चीन जल्द ही परमाणु उपकरण का विस्फोट करने जा रहा है, तब वे यह चाहते थे कि वह भारत जैसा एक लोकतांत्रिक देश होना चाहिए, जिसके पास परमाणु क्षमता हो, न कि चीन जैसा कम्युनिस्ट देश। केनेडी प्रशासन भारत को परमाणु निवारण हेतु मदद करने को तैयार था। लेकिन नेहरू ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। 

वर्तमान में, भारत ‘परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह’ (एन.एस.जी.) का सदस्य बनने के लिए विभिन्न देशों का समर्थन पाने के प्रयास कर रहा है, जो अब तक बेकार ही गए हैं। अगर नेहरू ने केनेडी की सलाह मान ली होती तो भारत चीन से कहीं पहले एक परमाणु उपकरण का विस्फोट कर चुका होता। अगर ऐसा हो गया होता तो भारत न सिर्फ काफी पहले ही एन.एस.जी. का सदस्य बन चुका होता, बल्कि न तो चीन ने सन् 1962 में भारत पर हमला करने की जुर्रत की होती और न ही पाकिस्तान ने 1965 में भारत पर हमला करने की सोची होती। 

भारत के पूर्व विदेश सचिव एम.के. रसगोत्रा ने खुलासा किया— 
“ ...केनेडी के हस्तलिखित पत्र के साथ अमेरिकी परमाणु ऊर्जा आयोग के अध्यक्ष का एक तकनीकी नोट भी संलग्न था, जिसमें प्रस्ताव दिया गया था कि उनका संस्थान राजस्थान के रेगिस्तान में एक टॉवर से ऊपर से एक अमेरिकी उपकरण में विस्फोट करने के लिए भारतीय परमाणु वैज्ञानिकों को सहायता प्रदान करेगा। केनेडी ने अपने पत्र में लिखा था कि वे और अमेरिकी प्रतिष्ठान परमाणु परीक्षणों एवं परमाणु हथियारों को लेकर नेहरू के दृढ़ दृष्टिकोण से पूरी तरह से अवगत हैं; लेकिन उन्होंने चीनी परीक्षण के फलस्वरूप नेहरू की सरकार और भारत की सुरक्षा पर मँडरानेवाले राजनीतिक और सुरक्षा संबंधी खतरे पर जोर दिया। साथ ही, अमेरिकी नेता के पत्र ने इस बात पर भी जोर दिया कि ‘राष्ट्रीय सुरक्षा से ज्यादा महत्त्वपूर्ण कुछ नहीं है।’ ” (यू.आर.एल.49) 

गांधीवादी ‘अहिंसा’ की सोच ने न सिर्फ स्वतंत्र भारत के अपनी रक्षा एवं बाह्य‍ सुरक्षा को मजबूत करने तथा अपनी स्वतंत्रता को बनाए रखने के दृष्टिकोण को पूरी तरह से दूषित कर दिया था, बल्कि इसने नेहरू जैसे शांतिवादियों को ये बहाना उपलब्‍ध करा दिया कि वे उच्‍च नैतिक सिद्धांतों के पाखंड की आड़ में प्रधानमंत्री के रूप में भारत की रक्षा की अपनी बुनियादी जिम्मेदारी न निभाएँ और विश्व-शांति के अगवुा का तमगा पहनें। नेहरू परमाणु हथियारों के शक्ति संतुलन हेतु अवरोधक मूल्य को समझने में विफल रहे। आश्चर्य की बात यह है कि उनके मंत्रिमंडल के सहयोगी और सत्ताधारी तथा विपक्षी दलों के अन्य नेता तब क्या कर रहे थे? क्या वे सिर्फ उसके मूक और रीढ़-विहीन गवाह बनकर बैठे थे, जो कुछ निरंकश और अलोकतांत्रिक नेहरू कर रहे थे? 
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भूल-45 
पाकिस्तान के साथ कोई समाधान नहीं 

नेहरू अपने जीवन-काल के दौरान पाकिस्तान के साथ एक समझौते तक पहुँचने में नाकामयाब रहे, जिससे हमारी पश्चिमी एवं उत्तर-पश्चिमी सीमाएँ संवेदनशील हो गईं और उन्हें सुरक्षित बनाए रखना काफी महँगा साबित हुआ। भारत और पाकिस्तान के बीच के विवाद की जड़ था कश्मीर; और पाकिस्तान कश्मीर मुद्दे के सुलझ जाने तक न तो समझौते के लिए तैयार था, न ही युद्धवर्जन अनुबंध के लिए राजी। अगर नेहरू ने सरदार पटेल को कश्मीर मामला सँभालने की अनुमति प्रदान कर दी होती तो यह कोई मुद्दा नहीं रहता, या फिर गांधी ने नेहरू को पहला प्रधानमंत्री नहीं बनाया होता तो भी। यह नेहरू की जिम्मेदारी थी कि वे अपने खुद के उत्पन्न किए हुए मामलों का निबटारा करें। लेकिन दुर्भाग्य से, नेहरू इन दोनों मुद्दों (कश्मीर और भारत-पाक समझौता) को अनलुसझा ही छोड़कर सिधार गए। 

सिंधु जल प्रणाली की छह नदियों के पानी को बाँटने को लेकर सन् 1960 की भारत-पाकिस्तान सिंधु जल संधि (आई.डब्‍ल्यू.टी.), नेहरू द्वारा पाकिस्तान को एक अभूतपर्वू (किसी भी देश द्वारा) उदारतापर्वूक दी गई भेंट थी (1954 के भारत-चीन पंचशील समझौते की तरह : भूल#34), वह भी जम्मूव कश्मीर और पंजाब के बदले (भूल#50) और बिना कुछ लिये! नेहरू के दिमाग में यह बात नहीं आई कि वे पाकिस्तान के लिए आवश्यक कर देते कि वह पहले जम्मूव कश्मीर सहित अन्य मामलों को सुलझाए, ताकि हमारी पश्चिमी एवं उत्तर-पश्चिमी सीमाएँ सुरक्षित हो सकें। 

सन् 1958 में एस.ई.ए.टी.ओ. में पाकिस्तान की सदस्यता के प्रति भारतीय विरोध की संभावना को समाप्त करने के लिए जनरल अयूब खान ने नेहरू के समक्ष भारत के साथ सुरक्षा गठबंधन/समझौता करने का प्रस्ताव रखा। नेहरू ने सरसरी तौर पर और उसकी उपेक्षा करते हुए यह कहकर उसे खारिज कर दिया कि सुरक्षा गठबंधन ‘किसके खिलाफ?’