Nehru Files - 48-49 in Hindi Anything by Rachel Abraham books and stories PDF | नेहरू फाइल्स - भूल-48-49

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नेहरू फाइल्स - भूल-48-49

[ 4. विदेश नीति ]

भूल-48 
नेहरू-लियाकत समझौता 1950 

पूर्वी बंगाल में हिंदुओं पर हो रहे बयाँ न किए जा सकनेवाले अत्याचारों के बेरोक-टोक जारी रहने के चलते भारत सरकार ने पाकिस्तान सरकार से उन पर रोक लगाने की अपील की। लेकिन उसकी प्रतिक्रिया बेहद उदासीन थी और ‘जैसे को तैसा’ ही पाकिस्तान को वार्त्ता की मेज पर लेकर आया। कई दशकों के अनगिनत, भयानक दंगों (कृपया लेखक की एक अन्य पुस्‍तक ‘गांधी : द अदर साइड’ पढ़ें—www.rkpbooks.com), जैसे वर्ष 1921 के मोपला के हिंदू-विरोधी दंगे, 1924 के लोहाट के हिंदू-विरोधी दंगे, 1946 का सीधी काररवाई अभियान, नोआखाली दंगों सहित कई अन्यों के बावजूद गांधी-नेहरू-कांग्रेस ने मासूमों के जीवन एवं सम्मान की रक्षा के लिए न के बराबर प्रयास किया और किया तो सिर्फ छोटे-छोटे अच्छे से प्रशिक्षित आत्मरक्षा समूहों का गठन कर उन्हें हथियारबंद कर दिया। गांधीवादी अहिंसा एवं गांधीवादी सिद्धांतों ने सिर्फ ब्रिटिशों व मुसलिम लीग तथा उनके गुंडा तत्त्वों जैसे विरोधियों को ही लाभ पहुँचाया था और हिंदुओं व सिखों को असहाय बना दिया था, जो अकल्पनीय क्रूरता के शिकार हो रहे थे। 

इस विषय में ध्यान देने योग्य बात यह है कि गांधीवादी अहिंसक सिद्धांतों से कुछ हासिल नहीं हुआ, जैसाकि निम्नलिखित प्रकरण प्रदर्शित करता है। राजलक्ष्मी देवी के बँगला उपन्यास ‘कलम- लता’ में, जैसा कि तथागत रॉय ने अपनी पुस्‍तक ‘माय पीपल, अपरूटिड : ए सागा अ‍ॉफ द हिंदूज अ‍ॉफ ईस्टर्न बंगाल’ (टी.आर.) (अध्याय-6) में उद्‍धृत किया है, जिसमें मैमनसिंह शहर के एक हिंदू और कलकत्ता के एक उप-नगर के मुसलमान के बीच का एक संवाद है, जो आजादी के बिल्कुल बाद का है। दोनों के बीच आपसी बहस के दौरान मुसलमान कहता है, “माफ कीजिएगा, लेकिन आपकी और हमारी स्थिति एक समान नहीं है। जब तक महात्मा गांधी जीवित हैं, हमें कोई डर नहीं है। आप अधिक समय तक यहाँ (पूर्वी बंगाल) रह नहीं पाएँगे।” 

जहाँ तक विभाजन का सवाल है, तो पंजाब और बंगाल के बीच स्पष्ट अंतर था। पंजाब में कत्लेआम दोनों ही तरफ (पूर्वी पंजाब एवं पश्चिमी पंजाब) था, हालाँकि मुसलमान बहुल क्षेत्र पश्चिमी पंजाब में अधिक था। बंगाल में अधिकांश तबाही मुसलमान बहुल पूर्वी बंगाल में हुई थी। पंजाब में पलायन दोनों ही तरफ था। एक तरह से पश्चिम पंजाब और पूर्वी पंजाब के बीच जनसंख्या की सबसे अधिक अदला-बदली हुई थी। बंगाल में होनेवाला प्रमुख प्रवास था—हिंदुओं का पूर्वी पाकिस्तान से पश्चिम बंगाल को। इसके अलावा, मुसलमानों का विपरीत पलायन भी हुआ; लेकिन वह तुलनात्मक रूप से बहुत कम था। 

हालाँकि, पूर्वी बंगाल में हिंदुओं के खिलाफ जारी हिंसा ने पश्चिम बंगाल में प्रतिशोध की आग को भड़काना शुरू कर दिया था। उदाहरण के लिए, हावड़ा के मुसलमान-विरोधी दंगे 26 मार्च, 1950 के बाद और अधिक गंभीर हो गए, जिसके परिणामस्वरूप मार्च 1950 के बाद मुसलमानों का पश्चिम बंगाल से पूर्वी बंगाल को पलायन शुरू हुआ। इसका मतलब यह हुआ कि पंजाब में वर्ष 1947-48 में जनसंख्या की जो अदला-बदली हुई थी, वह बंगाल में काफी देर से 1950 में हुआ था। ऐसा होने के बाद पाकिस्तान और मुसलिम लीग के नेता परेशान हो गए, जो अब तक बंगाल में भीड़ को भड़का रहे थे और हिंदुओं को भुक्तभोगी बनते देखकर काफी खुश थे। 

26 मार्च, 1950 के बाद, जब पूर्वी बंगाल में जारी कत्लेआम के प्रतिशोध में हावड़ा में मुसलमान-विरोधी दंगों ने गंभीर रूप ले लिया, तब पाकिस्तानी प्रधानमंत्री लियाकत अली खाँ ने 29 मार्च, 1950 को कराची में एक भाषण के दौरान पहली तुष्टिकारी चेष्टा की और 2 अप्रैल, 1950 को भारत की यात्रा करके प्रधानमंत्री नेहरू के साथ एक समाधान तलाशने का इरादा व्यक्त किया। लियाकत अली जल्दबाजी में 2 अप्रैल, 1950 को दिल्ली पहुँचे और 8 अप्रैल, 1950 को ‘नेहरू- लियाकत समझौते’ पर हस्ताक्षर किए, जिसे ‘दिल्ली समझौता’ भी कहा जाता है। इसमें उस समय शरणार्थियों की पूर्ण सुरक्षा का वायदा किया गया था, जब वे अपनी संपत्ति का निबटारा करने वापस आएँ; अगवा की गई महिलाओं और लूटी गई संपत्ति को वापस लौटाना, जबरन धर्मांतरण को रद्द करना, अल्पसंख्यकों को नागरिकता और जीवन एवं संपत्ति की सुरक्षा के समान अधिकार प्रदान करना और प्रत्येक देश में अल्पसंख्यक आयोग की स्थापना करना। 

जैसी कि उम्मीद थी, भारत ने पूरी तरह से इस समझौते का पालन किया, जबकि पाकिस्तान ने नहीं। एक तरफ जहाँ पश्चिम बंगाल की मुसलमान-विरोधी हिंसा को सख्ती के साथ रोक दिया गया और पश्चिम बंगाल से पूर्वी बंगाल को हो रहे मुसलमानों के पलायन पर पूर्णलगाम लगा दी गई; पूर्वी बंगाल में हिंदुओं के खिलाफ हिंसा बेरोक-टोक जारी रही और हिंदुओं का पूर्वी बंगाल से पश्चिम बंगाल को पलायन भी। इसका मतलब यह कत्लेआम सिर्फ एकतरफा रह गया था—पूर्वी बंगाल में हिंदुओं का। इसके अलावा, पलायन भी सिर्फ एकपक्षीय ही रह गया—पाकिस्तान से भारत का।

 मुसलिम लीग के नेताओं के ट्रैक रिकॉर्ड को देखते हुए, जो खुद ही भीड़ को उकसाने का काम करते थे, नेहरू को पहले से ही अंदाजा होना चाहिए था कि समझौते का अंजाम क्या होना है! सरदार पटेल इस समझौते से नाराज थे, लेकिन मंत्रिमंडल के सदस्य होने के नाते उन्होंने विरोध नहीं किया। हालाँकि, पश्चिम बंगाल से ताल्लुक रखनेवाले दो केंद्रीय मंत्रियों—डॉ. श्यामा प्रसाद मुकर्जी और के.सी. नियोगी ने इस समझौते के विरोध में फौरन ही मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया। 

पश्चिम और पूर्वी बंगाल के बीच आबादी की अदला-बदली की अनुमति देने तथा समस्या और जहर को हमेशा के लिए दूर करने के बजाय नेहरू ने ‘नेहरू-लियाकत समझौते’ से भारत के लिए निम्नलिखित ‘फायदे’ तलाश निकाले—(1) पश्चिम बंगाल और असम से पलायन को रोककर इन राज्यों में मुसलमानों की आबादी में आनेवाली गिरावट को रोका। (2) पश्चिम बंगाल और असम में मुसलमानों का वापस पलायन (वहाँ से जा चुके मुसलमानों को वापस आने) की आजादी देकर वहाँ की मुसलमान आबादी को बढ़ाया। (3) पूर्वी बंगाल से मुसलमानों के ताजा पलायन की अनुमति दी। (4) पूर्वी बंगाल में हिंदुओं को धकेला—(क) हिंसा में, (ख) दूसरे दर्जे की हैसियत में और (ग) मुसलमानों की दया पर रहने को। (5) बाद में पूर्वी बंगाल से पश्चिम बंगाल में हिंदुओं का जबरन पलायन करवाया (क्योंकि पाकिस्तान में उन पर अत्याचार कम नहीं हुए)। 
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भूल-49 
ग्वादर को जाने देना 

ग्वादर अरब सागर में एक बंदरगाह-शहर है, जो पाकिस्तान में बलूचिस्तान प्रांत के दक्षिण- पश्चिमी तट पर स्थित है। यह समुद्र में ओमान के सामने, ईरान की सीमा के नजदीक और फारस की खाड़ी के पूर्व में स्थित है। 

ग्वादर एक गरम पानी और गहरे समुद्र वाला बंदरगाह है और यह होरमुज के जलडमरूमध्य के ठीक बाहर, फारस की खाड़ी के मुहाने पर तथा दक्षिण एशिया, मध्य एशिया एवं पश्चिम एशिया के बीच एक रणनीतिक स्थान पर स्थित है। पाकिस्तान ने वर्ष 2013 में ग्वादर के रणनीतिक समुद्री बंदरगाह का संचालन चीन को सौंप दिया। और अब चीनी पैसे और विशेषज्ञता के दम पर ग्वादर पाकिस्तान के तीसरे सबसे बड़े बंदरगाह के रूप में उभरने के लिए तैयार है। ग्वादर 46 अरब डॉलर के ‘चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा’ (सी.पी.ई.सी.) का दक्षिणी बिंदु और समुद्री टर्मिनल होगा, जो शिंजियांग के काशगर तक फैला होगा। सी.पी.ई.सी. चीन के ‘वन बेल्ट, वन रोड’ (ओ.बी.ओ.आर.) का हिस्सा है। 

ग्वादर स्वतंत्रता के समय ब्रिटिशों के स्वामित्व में नहीं था। ग्वादर पर मस्कट और ओमान की सल्तनत का विदेशी कब्जा था (इसे सन् 1783 में कलात के खान द्वारा ओमान को उपहार- स्वरूप दिया गया था) और पाकिस्तान ने 8 सितंबर, 1958 को इस क्षेत्र को खरीद लिया। पाकिस्तान ने 8 दिसंबर, 1958 को अपना नियंत्रण ग्रहण किया और बाद में 1 जुलाई, 1970 को इस क्षेत्र को बलूचिस्तान प्रांत में ग्वादर जिले के रूप में एकीकृत कर दिया गया। 

ओमान के भारत के साथ अच्छे संबंध थे और ओमान के सुल्तान ने भारत को सिर्फ 10 लाख अमेरिकी डॉलर में ग्वादर को बेचने का प्रस्ताव दिया था। हालाँकि, नेहरू के नेतृत्ववाले भारत ने उनके इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया और इतने शानदार रणनीतिक स्थान को हाथ से फिसल जाने दिया। आखिरकार, पाकिस्तान ने 8 सितंबर, 1958 को इसे 30 लाख अमेरिकी डॉलर में खरीद लिया। 

इसमें एक गहरे पानी के बंदरगाह की कई संभावनाएँ थीं (जिनका उपयोग अब चीन कर रहा है), लेकिन नेहरू के पास इसके महत्त्वपूर्णलाभों को समझने की दूरदर्शिता ही नहीं थी। अगर नेहरू को वह जगह गहरे पानीवाले बंदरगाह के रूप में काम की नहीं लगी तो भी भारत को उसे हासिल कर लेना चाहिए था, ताकि इसे पाकिस्तान के साथ सौदेबाजी के उपकरण के रूप में इस्तेमाल किया जा सके, वह भी कश्मीर और अन्य मामलों में। 

पश्चदृष्टि से ओमान के सुल्तान की ओर से प्रस्तुत किए गए अनमोल उपहार को स्वीकार न करना एक बहुत बड़ी भूल थी, जो नेहरू द्वारा स्वतंत्रता के बाद की गई भूलों की लंबी सूची में एक और थी।