भूल-53
अपनी कीमत पर चीन की
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् सदस्यता की वकालत करना
भारत काफी लंबे समय से संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् (संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद्) का स्थायी सदस्य बनने की कोशिश कर रहा है और इस क्रम में वह छोटे-बड़े कई देशों के सामने हाथ भी फैला चुका है, जिनमें चीन भी शामिल है।
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लेकिन अब से करीब पाँच दशक पहले भारत को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् की सदस्यता मिल रही थी, वह भी बिना माँगे—थाली में सजी हुई। नेहरू ने उस प्रस्ताव को नकार देने का फैसला किया! क्यों? इसके बजाय नेहरू चाहते थे कि वह स्थान पीपुल्स रिपब्लिक अॉफ चाइना को दे दिया जाए! भारत के द्वारा उदारता का प्रदर्शन करना!
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लकिन अब इसके बदले पर ध्यान दें। वर्ष 2008 में ब्रिक्स (BRICS) के विदेश मंत्रियों के एक अधिवेशन में जब रूस ने इस बात का प्रस्ताव रखा कि सभी ब्रिक्स देशों को भारत की स्थायी संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् सदस्यता का समर्थन करना चाहिए, तो चीन ने इसका कड़ा विरोध किया!
सबसे पहले पृष्ठभूमि। द्वितीय विश्व युद्ध को रोकने में लीग ऑफ नेशन्स की विफलता के चलते सन् 1945 में द्वितीय विश्व युद्ध के खत्म होने के बाद उसके सबसे प्रमुख प्रतिभागियों— अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, सोवियत संघ और चियांग काई-शेक के नेतृत्व वाले चीन-आर.ओ.सी. (रिपब्लिक अॉफ चाइना) द्वारा संयुक्त राष्ट्र संघ (यू.एन.ओ.) का गठन किया गया। ये पाँचों वीटो शक्तियों से लैस संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् के स्थायी सदस्य बन गए। इसके अलावा संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् के दस बदलने वाले गैर-स्थायी सदस्य भी हैं, जिनकी सदस्यता की अवधि दो साल की होती है।
सन् 1949 में कम्युनिस्टों ने चीन की बागडोर अपने हाथों में ले ली और माओ के नेतृत्व में पीपुल्स रिपब्लिक अॉफ चाइना (पी.आर.सी.) की स्थापना की। चियांग काई-शेक और उनके आर.ओ.सी. फर्मोसा (जिसे अब ‘ताइवान’ कहा जाता है) तक फैले हुए थे। आर.ओ.सी. सन् 1971 तक संयुक्त राष्ट्र का सदस्य बना रहा, न कि पी.आर.सी., क्योंकि अमेरिका और सहयोगियों ने इसे मान्यता देने से इनकार कर दिया। वे नहीं चाहते थे कि एक और कम्युनिस्ट देश संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् का सदस्य बने।
ब्रूस रीडेल ने ‘जे.एफ.के.‘स फॉरगॉटन क्राइसिस : तिब्बत, द सी.आई.ए. ऐंड साइनो- इंडियन वॉर’ में लिखा—“नेहरू ने आइजनहाॅवर पर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् में कम्युनिस्ट चीन को वह स्थान देने का समर्थन करने के लिए दबाव डाला, जो सन् 1945 में द्वितीय विश्व युद्ध के अंत में राष्ट्रवादी चीन को दिया गया था और उसे परिषद् के ऐसे पाँच स्थायी सदस्यों में एक बना दिया था, जिसके पास किसी ऐसे प्रस्ताव को वीटो करने का अधिकार था, जो उसे मंजूर नहीं था। कोरियाई युद्ध में चीन की भूमिका अभी आइजनहाॅवर के मस्तिष्क में ताजा थी, इसलिए उन्होंने संयुक्त राष्ट्र की सदस्यता के लिए चीन पर दाँव खेलने से इनकार कर दिया।” (बी.आर./एल-182)
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् में चीन के बजाय भारत को लाने की अमेरिकी कवायद सन् 1950 में प्रारंभ हुई। इस संदर्भ में नेहरू ने अपनी बहन विजयलक्ष्मी पंडित, जो उस समय अमेरिका में भारत की राजदूत थीं, के एक पत्र के जवाब में लिखा (लेखक की टिप्पणियाँ इटैलिक्स में वर्ग कोष्ठक में हैं)—
“आपने अपने पत्र में इस बात का उल्ख ले किया है कि अमेरिकी विदेश विभाग चीन को सुरक्षा परिषद् के स्थायी सदस्य के पद से हटाने और भारत को उसके स्थान पर लाने का प्रयास कर रहा है। जहाँ तक हमारा सवाल है, हम इसके जरा भी समर्थन में नहीं हैं। [हम खुद को पहुँचाए जा रहे फायदे के पक्ष में खड़े नहीं हो सकते—कितना अजीब है! नेहरू की मनोरचना कैसी थी!] ऐसा करना हर दृष्टिकोण से बुरा रहेगा। ऐसा करना चीन का प्रत्यक्ष अपमान करना होगा और इसका सीधा मतलब होता—हमारे और चीन के बीच एक प्रकार का विच्छेद [क्या चीन ने कभी भारत की चिंता की, जो भारत चीन की इतनी परवाह करता था? जब चीन ने तिब्बत पर कब्जा किया तो क्या उसने तब भारत के बारे में सोचा था?]। मुझे पता है कि अमेरिका का विदेश विभाग ऐसा नहीं चाहेगा, लकिे न उनकी बात को मानने का हमारा कोई इरादा नहीं है। हम संयुक्त राष्ट्र और सुरक्षा परिषद् में चीन के स्थान के लिए दबाव डालते रहेंगे [हालाँकि चीन ने कभी आपसे ऐसा करने का अनुरोध नहीं किया, न ही उसे आपके अनुरोध की कोई चिंता थी, या फिर उसने इसे एक अहसान की तरह देखा, या फिर इसे जरा भी प्राथमिकता दी!] मुझे इस बात अंदेशा है कि संयुक्त राष्ट्र महासभा के अगले सत्र में इस मुद् को दे लेकर स्थिति गंभीर हो सकती है। चीन की पीपुल्स सरकार वहाँ पर एक पर्ण ू प्रतिनिधिमंडल भेज रही है। अगर वे भीतर पहुँचने में नाकाम रहते हैं तो ऐसी परेशानी खड़ी हो सकती है, जिसके परिणामस्वरूप सोवियत संघ सहित कुछ अन्य देश आखिरकार संयुक्त राष्ट्र को अलविदा कर सकते हैं। हो सकता है कि अमेरिकी विदेश विभाग को यह पसंद आए, लकिे न इसका सीधा सा मतलब होगा—उस संयुक्त राष्ट्र का अंत, जिसे हम जानते हैं। इसका एक और मतलब होगा—युद्ध की दिशा में कदम बढ़ाना। भारत निश्चित रूप से कई कारणों के चलते संयुक्त राष्ट्र में एक स्थायी स्थान का हकदार है; लकिे न हम चीन की कीमत पर ऐसा नहीं करना चाहते।” [कितना दरियादिल—भले ही चीन परवाह करे या नहीं!] (यू.आर.एल./37) (यू.आर.एल.108)
क्या भारत नेहरू के नेतृत्व में उच्च नैतिक मानदंड स्थापित करने का प्रयास कर रहा था? लेकिन क्यों? अपने देश के हितों की परवाह क्यों नहीं की? इसके अलावा, क्या नेहरू का रुख नीतिपरक, नैतिक और सिद्धांतवादी था? नहीं। आखिर, तिब्बत के हमलावर का समर्थन संयुक्त राष्ट्र और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् के लिए क्यों? भारत के लिए उचित नीतिपरक और नैतिक स्थिति यह होती कि वह संयुक्त राष्ट्र और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् में चीन के स्थान का तब तक डटकर विरोध करता, जब तक कि वह तिब्बत को खाली नहीं कर देता।
इससे बड़ी अजीब बात और क्या हो सकती है कि चीन द्वारा कभी अनुरोध तक न किए जाने के बावजूद भारत ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् की स्थायी सदस्यता के लिए चीन की स्वेच्छा से और जबरदस्त तरीके से वकालत की, वह भी ताइवान की कीमत पर, जिसके चियांग काई-शेक ने वास्तव में भारत की आजादी की लड़ाई का समर्थन किया था!
“यह जानना बेहद दिलचस्प है कि भारत के कम्युनिस्ट चीन को त्वरित मान्यता प्रदान करने और ताइवान में चियांग काई-शेक के शासन की मान्यता को समाप्त कर देने को चीन की तरफ से कोई प्रतिकूल प्रतिक्रिया नहीं मिली। भारत सरकार के इन दोनों कदमों को मजबूरी में किया गया काम माना गया और चीनी मीडिया में भारत की अपमानजनक आलोचना का क्रम जारी रहा, जिसमें भारत पर एंग्लो-अमेरिकी साम्राज्यवाद का एक खिलौना होने, तिब्बत पर कब्जे के लिए साम्राज्यवादी शक्तियों का साथ देने का आरोप लगाया गया। नेहरू ने बिल्कुल शुरुआत से ही चीन को मित्र बनाने का प्रयास किया था। इसके विषय में पीकिंग रेडियो ने तो यहाँ तक कहा था—‘उनके नीच और दकियानूसी प्रतिक्रियावादी चरित्र में अब पाशविक महत्त्वाकांक्षा और आक्रामकता ने स्थान बना लिया है!’ (एम.जी.2/50-51/एल-972)
भारत ने संयुक्त राष्ट्र की सदस्यता और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् की स्थायी सीट के लिए सभी देशों के साथ लॉबिंग की, लेकिन खुद के लिए नहीं, बल्कि चीन के लिए!
चीन द्वारा तिब्बत पर आक्रमण करने के बावजूद बीजिंग में भारत के राजदूत के.एम. पणिक्कर का कहना था कि तिब्बत पर चीनी कब्जे का विरोध संयुक्त राष्ट्र में चीन के लिए भारत की तरफ से किए जा रहे प्रयासों में हस्तक्षेप होगा! इसका मतलब यह हुआ कि तिब्बत की ओर से चीन की शिकायत करना चीन की बुरी छवि पेश करेगा (एक हमलावर के रूप में), जबकि भारत के लिए संयुक्त राष्ट्र में चीन का प्रवेश सुनिश्चित करना कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण था, जिसके लिए भारत लगातार प्रयास कर रहा था, साथ ही यह भी सुनिश्चित करना कि चीन द्वारा तिब्बत पर किए गए आक्रमण के चलते कहीं भारत के प्रयासों पर पानी न फिर जाए! यह नेहरू की कैसी विचित्र विदेश नीति थी? संयुक्त राष्ट्र में चीन के प्रवेश में मदद करने के लिए हमारे अपने राष्ट्रीय सुरक्षा हितों और तिब्बत के हितों की बलि देने को तैयार!
संयोग से, ’50 के दशक में भी भारत द्वारा संयुक्त राष्ट्र में चीन की सदस्यता की वकालत करने की एक और विडंबना भी थी। जुंग चांग और जॉन हॉलिडे की पुस्तक ‘माओ : द अननोन स्टोरी’ (जे.सी.) और अन्य पुस्तकों के अनुसार, भारत को लगता था कि वह संयुक्त राष्ट्र में चीन की सदस्यता का समर्थन करके उस पर बहुत बड़ा अहसान कर रहा है और उसके अहसान मानने की अपेक्षा की; हालाँकि चीन ऐसे प्रस्तावों का बुरा मानता था, क्योंकि वह नेहरू के दंभपूर्ण रवैए से घृणा करता था और साथ ही ऐसा इसलिए भी था, क्योंकि चीन खुद को एशिया का वास्तविक अगुवा मानता था और वह भारत के महान् शक्ति होने के अभिमान को बेहद नफरत से देखता था तथा महज ढोंग मानता था, जो सच में था नहीं। इसके अलावा, चीन को उस समय (’50 के दशक में) संयुक्त राष्ट्र की सदस्यता की परवाह भी नहीं थी। वास्तव में, उसका मानना था कि संयुक्त राष्ट्र का सदस्य बनने के बाद वह ‘संयुक्त राष्ट्र चार्टर’ का पालन करने के लिए बाध्य हो जाएगा, जबकि वह वास्तव में कोरिया और तिब्बत से निबटने के लिए पूरी आजादी चाहता था।
बाद में, अमेरिका और सोवियत संघ दोनों ही, 1955 में भारत को ताइवान के स्थान पर या फिर ‘संयुक्त राष्ट्र चार्टर’ में संशोधन कर उसके छठे सदस्य के रूप में, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् के स्थायी सदस्य के रूप में समायोजित करने को पूरी तरह से तैयार थे। पर नेहरू ने इसके लिए मना कर दिया। नेहरू ने जून-जुलाई 1955 में सोवियत संघ और अन्य देशों के अपने दौरे के दौरान 1 अगस्त, 1955 के नोट में लिखा—
“अमेरिका द्वारा अनौपचारिक रूप से सुझाव दिया गया है कि चीन को सुरक्षा परिषद् में नहीं, बल्कि संयुक्त राष्ट्र में स्थान दिया जाना चाहिए और भारत को सुरक्षा परिषद् में उसका स्थान लेना चाहिए। हम निश्चित रूप से इसे स्वीकार नहीं कर सकते, क्योंकि यह चीन के साथ धोखा करना होगा और सुरक्षा परिषद् में चीन जैसे एक महान् देश का न होना, उसके साथ नाइंसाफी होगी। इसलिए हमने इस सुझाव को देनेवालों को स्पष्ट कर दिया है कि हम इस सुझाव के प्रति सहमति नहीं प्रदान कर सकते। हम इससे भी कुछ आगे बढ़ गए हैं और यह कहा है कि भारत इस मौके पर सुरक्षा परिषद् का सदस्य बनने का इच्क नहीं छु है; हालाँकि एक महान् देश होने के चलते उसे वहाँ होना जरूर चाहिए। पहला कदम चीन को उसका उचित स्थान दिलवाने का होना चाहिए और फिर उसके बाद भारत की बात पर अलग से गौर किया जा सकता है।” (जे.एन.एस.डब्ल्यू./खंड-29/303)
यह लगभग ऐसा था, जैसे नेहरू ने उन कारणों, जिनकी गहराई को नापा नहीं जा सकता, के चलते भारत के रणनीतिक हितों की पूरी तरह से अनदेखी की! हो सकता है कि अमेरिका और सोवियत संघ वास्तव में भारत को बढ़ावा देने के बजाय चीन को उसकी जगह दिखाने के लिए अधिक तत्पर हों! तो क्या हुआ, अगर ऐसा भी भारत के हित में था तो? भारत को अपने खुद के हितों के प्रति जागरूक रहना चाहिए था। आखिर क्यों नेहरू भारत की कीमत पर चीन के प्रति उदार बने रहे? ‘नेहरू : द इन्वेंशन अॉफ इंडिया’ में शशि थरूर लिखते हैं—
“उन फाइलों को देखनेवाले भारतीय राजनयिक कसम खाकर कहते हैं कि बिल्कुल उसी समय जवाहरलाल ने भी अमेरिका के संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् में स्थायी सीट लेने के आग्रह को ठुकरा दिया था, जो उस समय बहुत कम विश्वसनीय माने जानेवाले ताइवान के पास थी और बदले में उस सीट को बीजिंग को देने का आग्रह किया था। लेकिन महाशक्ति की चालबाजियों की खिलाफत करना एक बात थी और दूसरी सत्ता की अनिवार्यता या ताकत की स्थिति से मोल-भाव करने के लिए किसी देश की आवश्यकता के संबंध में एक राष्ट्रीय विदेश नीति चलाना दूसरी बात।” (एस.टी./183)
16 सितंबर, 2009 के ‘बिजनेस लाइन’ के लेख ‘यु.एन. रिफॉर्म्स : ए फेडिंग मिराज’ के अनुसार (यू.आर.एल.14)—
“विडंबना यह है कि वर्ष 1955 के आसपास अमेरिका द्वारा भारत को चीन की विवादित सुरक्षा परिषद् की स्थायी सीट की पेशकश की गई थी, ताकि पीपल्स रिपब्लिक अॉफ चाइना को बाहर रखा जा सके और इसके अलावा सोवियत संघ के प्रधानमंत्री निकोलाई बुल्गानिन चाहते थे कि चीन को उसकी सीट पर बरकरार रखा जाए और भारत को सुरक्षा परिषद् में एक छठी सीट प्रदान कर दी जाए। नेहरू ने चीन के सम्मान में इस अनुरोध को भी ठुकरा दिया। अगर इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया गया होता तो इतिहास बिल्कुल ही अलग हो सकता था। इसके बाद दशकों से हम इस सीट के लिए संघर्ष कर रहे हैं।” (यू.आर.एल.14)
“जवाहरलाल नेहरू के चयनित कार्य, द्वितीय शृंखला, 2001 के खंड 29 (पृ. 231) में निहित जानकारी के अनुसार, नेहरू ने 22 जून, 1955 को मॉस्को में सोवियत नेताओं के साथ एक बैठक की, जिसमें सोवियत राष्ट्रपति बुल्गानिन और कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव एन.एस. ख्रुश्चेव भी मौजूद थे। बातचीत के दौरान बुल्गानिन ने कहा, ‘जब हम सामान्य अंतरराष्ट्रीय स्थिति और तनाव कम करने पर चर्चा कर रहे हैं, सुझाव देते हैं कि आगे के चरणों में भारत को सुरक्षा परिषद् के छठे सदस्य के रूप में शामिल किया जाए।’ नेहरू ने जवाब दिया, ‘यह बात निश्चित ही बुल्गानिन के संज्ञान में होगी कि अमेरिका में कुछ लोगों ने सुझाव दिया है कि भारत को सुरक्षा परिषद् में चीन का स्थान लेना चाहिए। ऐसा हमारे और चीन के बीच तनाव बढ़ाने के लिए है। निश्चित रूप से, हम इसके विरोध में हैं। इसके अलावा, हम कुछ निश्चित स्थानों पर काबिज होने के लिए खुद को आगे बढ़ाने के विरोध में हैं, क्योंकि ऐसा करना खुद में ही भारत के लिए मुश्किलें खड़ी कर सकता है और विवादों का विषय बन सकता है। अगर भारत को सुरक्षा परिषद् में शामिल किया जाना है तो ऐसा करने के लिए ‘संयुक्त राष्ट्र चार्टर’ के संशोधन का सवाल सामने आता है। हमारा मानना है कि जब तक चीन के मामले और संभवतः दूसरों के मुद्दों का समाधान नहीं हो जाता, तब तक ऐसा नहीं किया जाना चाहिए। मुझे लगता है कि हम सबको पहले सारा ध्यान चीन को शामिल करने पर लगाना चाहिए। चार्टर के संशोधन को लेकर बुल्गानिन की राय क्या है? हमारी राय में, यह समय इस काम के लिए जरा भी उपयुक्त नहीं है।” (एम.जी.2/75-76/एल-1397)
एस. गोपाल ने अपनी पुस्तक ‘जवाहरलाल नेहरू : ए बायोग्राफी’ (खंड-2) में लिखा— “उन्होंने (नेहरू ने) सुरक्षा परिषद् के छठे सदस्य के रूप में भारत के नाम को प्रस्तावित करने के सोवियत प्रस्ताव को ठुकरा दिया और इस बात पर जोर दिया कि संयुक्त राष्ट्र में चीन के प्रवेश को प्राथमिकता दी जाए।” (यू.आर.एल.50)
जब एक सांसद जे.एन. पारेख ने लोकसभा में अल्प नोटिस प्रश्न उठाया कि ‘क्या भारत ने उसे अनौपचारिक रूप से पेश की गई संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् की सीट को ठुकरा दिया था’ तो नेहरू का जवाब स्पष्ट रूप से सच्चाई से परे था, “इस प्रकार का कोई भी प्रस्ताव नहीं था—औपचारिक या अनौपचारिक। इस विषय में मीडिया में कुछ अस्पष्ट खबरें सामने आई हैं, जो वास्तव में निराधार हैं। सुरक्षा परिषद् की संरचना संयुक्त राष्ट्र चार्टर द्वारा निर्धारित की गई है, जिसके अनुसार कुछ विशिष्ट चुनिंदा देशों के पास स्थायी सीट हैं। चार्टर में संशोधन के बिना इसमें कोई परिवर्तन या परिवर्धन नहीं किया जा सकता है। इसलिए भारत को उस सीट की पेशकश करने और भारत के उसे ठुकराने का सवाल ही नहीं उठता। हमारी घोषित नीति संयुक्त राष्ट्र सदस्यता के लिए योग्य सभी देशों की सदस्यता का समर्थन करने की है।” (यू.आर.एल.50)
विल्सन सेंटर की 11 मार्च, 2015 ‘नॉट एट द कॉस्ट अॉफ चाइना : इंडिया ऐंड द यूनाइटेड नेशंस सिक्योरिटी काउंसिल, 1950’ (यू.आर.एल.37) शीर्षक वाली रिपोर्ट स्पष्ट रूप से कहती है कि अमेरिका और सोवियत संघ दोनों ने ही भारत को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् की स्थायी सदस्यता की पेशकश की थी, लेकिन नेहरू ने उसे स्वीकार करने से इनकार कर दिया और चाहते थे कि भारत के स्थान पर यह सीट चीन को दे दी जाए।
‘आर वी डिसीविंग अॉवरसेल्व्स अगेन’ में अरुण शौरी लिखते हैं—
“ ...कम्युनिस्टों ने सत्ता पर कब्जा कर लिया (चीन में)। पंडितजी (नेहरू) यह सुनिश्चित करने में सबसे पहले होते हैं कि भारत इस नई सरकार को मान्यता प्रदान करे। वे इसके अलावा ब्रिटेन जैसे देशों से भी जल्दी मान्यता प्रदान करने का आग्रह करते हैं। हालाँकि वह चियांग काई-शेक थे, जिन्होंने भारत की स्वतंत्रता के संग्राम का समर्थन किया था। पंडितजी ने तुरंत ही नई सरकार (चीन की) का दम भरना शुरू कर दिया। उन्होंने ब्रिटिशों, अमेरिकियों और वास्तव में उन सब, जहाँ तक वे पहुँच सकते थे, से आग्रह किया कि नेशनलिस्ट सरकार (चियांग काई-शेक की) को संयुक्त राष्ट्र की उसकी सीट से हटाना चाहिए (जिसकी मतलब यह था कि महासभा और सुरक्षा परिषद्—दोनों सीटों से) और उस स्थान को कम्युनिस्ट सरकार को दे देना चाहिए।” (ए.एस./28-9)
इससे भी बड़ी अजीब यह बात थी कि सन् 1962 के भारत-चीन युद्ध के बावजूद भारत ने संयुक्त राष्ट्र में चीन का समर्थन किया। नेहरू की बहन विजयालक्ष्मी पंडित ने घोषणा की, जो सन् 1963 में संयुक्त राष्ट्र में एक प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व कर रही थीं, कि वे ‘यह नहीं समझ पा रही हैं कि संयुक्त राष्ट्र जैसे एक विश्व-स्तरीय संगठन ने चीन जैसे एक बड़े और शक्तिशाली देश को शामिल क्यों नहीं किया है?’
अगर आप भारत के तब के कार्यों और उठाए गए कदमों का विश्लेषण करें तो हम नौसिखिए और अनाड़ी प्रतीत होते हैं! नवंबर 1951 में लखनऊ विश्वविद्यालय के छात्रों से बात करते हुए, आंबेडकर ने कहा था, “सरकार की विदेश नीति भारत को मजबूत बनाने में विफल रही है। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् में भारत को स्थायी सीट क्यों नहीं मिलनी चाहिए? प्रधानमंत्री ने इसके लिए प्रयास क्यों नहीं किया है?”