Nehru Files - 59 in Hindi Anything by Rachel Abraham books and stories PDF | नेहरू फाइल्स - भूल-59

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नेहरू फाइल्स - भूल-59

[ 5. आंतरिक सुरक्षा ]

 भूल-59 
असम में समस्याओं को बढ़ाना 

पूर्व में विस्तार में दी गई भूल#5 में हमने जाना कि कैसे नेहरू के गलत निर्णय के फलस्वरूप आखिरकार असम में प्रतिकूल जनसांख्यिकीय परिवर्तन देखने को मिले; साथ ही पूर्वी बंगाल से मुसलमानों की बड़ी आमद भी हुई। इस बात पर ध्यान देते हुए कोई भी राष्ट्रवादी, जो असम के मूल निवासियों के भाग्य, उनकी संपत्ति, उनकी सलामती और उनकी संस्कृति को लेकर चिंतित होता, उसने यह सुनिश्चित किया होता कि कम-से-कम आजादी के बाद तो पूर्वी बंगाल से मुसलमानों के होनेवाले पलायन पर लगाम लगे, वह भी तब, जब सत्ता हमारे हाथों में थी। दुर्भाग्यवश, स्वतंत्रता के बाद भी सरकार का शुतुरमुर्गी रवैया बना रहा और जनसांख्यिकीय आक्रमण जारी रहा। 

स्वतंत्रता के बाद कांग्रेस और नेहरू के लिए जो चीज सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण हो गई थी, वह थी—वोट और मुसलमान। प्रवासी उनके वोट बैंक में इजाफा कर रहे थे। तो फिर, उनकी तरफ से नजर हटाने में क्या जाता है, भले ही असम और पूर्वोत्तर के लोग परेशानी झेलें! और ऐसा हो रहा था गोपीनाथ बाररदोलोई और मेधी जैसे कई स्थानीय कांग्रेसी नेताओं के घोर विरोध के बावजूद, जो वोट बैंक की ऐसी राजनीति को प्रभावी रूप से राष्ट्र-विरोधी मानते थे। यहाँ पर ‘हाउ बँगलादेशी मुसलिम्स वाइप्ड द असमीज आउट इन देयर ओन लैंड’ शीर्षक वाले एक लेख के अंश प्रस्तुत हैं— 
“विभाजन के बाद असमिया लोगों को उम्मीद थी कि अब उनके नए राजनीतिक क्षेत्र में पूर्वी पाकिस्तान से मुसलमानों का और अधिक स्थानांतरागमन नहीं होगा। असम में मुसलमानों की आबादी में सन् 1947 के बाद काफी गिरावट आ गई थी। इसका एक कारण तो यह था कि सिलहट पाकिस्तान में शामिल हो गया था और दूसरा यह कि पूर्व में पलायन कर यहाँ आकर बस गए अप्रवासी प्रतिघात के डर से बड़ी संख्या अपने मूल क्षेत्र को वापस लौट गए थे। लेकिन स्थिति तब पूरी तरह से बदल गई, जब जिन्ना के निजी सविच और विभाजन के समय तक ए.आई.एम.एल. की युवा शाखा के एक प्रमुख नेता रहे मोइन-उल-हक चौधरी पाकिस्तान-समर्थकों की एक बड़ी भीड़ के साथ कांग्रेस में शामिल हो गए। विभाजन की पूर्व संध्या तक वह इस बात को लेकर पसोपेश में था कि पाकिस्तान को चुनें या फिर भारत में ही बने रहने का फैसला करें! हालाँकि जिन्ना ने उनसे कहा, “आप सिर्फ 10 साल रुको, मैं आपको असम चाँदी के थाल में रखकर पेश करूँगा।” जिन्ना सन् 1948 में अल्लाह को प्यारे हो गए, लेकिन कांग्रेस ने चौधरी को बाेरदोलोई के नेतृत्ववाली कांग्रेस सरकार के कबीना मंत्री के पद से नवाजकर जिन्ना का वादा पूरा किया। अकसर यह आरोप लगाया जाता है कि चौधरी सिर्फ जिन्ना और कुछ अन्य पाकिस्तानी नेताओं के कहने पर असम में टिके थे, ताकि वे पाकिस्तान से आनेवाले प्रवासियों को वहाँ बसने में मदद कर सकें। 

“पाकिस्तान की दुष्ट भू-राजनीतिक संरचना के खिलाफ, जिसने असमिया मध्यम वर्ग को उसकी अपनी ही सरजमीं पर हाशिए पर पहुँचने के खतरे में डाल दिया, भारत सरकार के पास कभी भी कोई संगठित योजना या फिर स्पष्ट नीति नहीं थी। ‘नेहरू-लियाकत समझौता’ (अप्रैल 1950) ने वास्तव में पाकिस्तान सरकार को पलायन बढ़ाने में मदद की। ऐसा भी कहा जाता है कि कांग्रेस के नेतृत्व ने मुसलमान प्रवासियों की बढ़ती हुई संख्या को ईश्वर के आशीर्वाद के रूप में देखा और ‘मुसलमान वोट बैंक’ को मजबूत करने के अवसर के रूप में लिया और इसके बाद असम पर 30 साल तक बिना किसी विराम के शासन किया।

 “मोइन-उल-हक चौधरी, जो बाद में इंदिरा गांधी के केंद्रीय मंत्रिमंडल में मंत्री बने और भारत के पूर्व राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद व्यापक रूप से अवैध मुसलमान अाप्रवासियों को भारत में बसने में सहायता देने के लिए मशहूर थे। वर्ष 1968 से 1973 के बीच असम के राज्यपाल रहे दिवंगत बी.के. नेहरू ने प्रवासन को वोट बैंक की नीति के रूप में अपनाने को लेकर कांग्रेस की निंदा की।” (यू.आर.एल.40) 

कांग्रेस के नेताओं बाेरदोलोई, मेधी, बिमला प्रसाद चालिहा सहित कई अन्य ने प्रवासन के इस गंभीर मुद्दे को उठाया; लेकिन उन्हें नेहरू और केंद्र के कांग्रेस नेतृत्व का यथोचित समर्थन नहीं मिला। कुलदीप नैयर ‘बियॉण्ड द लाइंस’ में लिखते हैं—
 “राज्यों को बाद में इसकी कीमत चुकानी पड़ी, जब तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान से हुए अवैध प्रवासन के चलते असम की असमिया बोलनेवाली आबादी बेहद कम हो गई। अवैध प्रवासन के मुद्दे को बढ़ानेवाले चालिहा नहीं थे, बल्कि कांग्रेस में उनके वरिष्ठ फखरुद्दीन अली अहमद थे, जो बाद में राष्ट्रपति बने। वास्तव में, पूरी कांग्रेस पार्टी ही इसकी दोषी थी। इसके पीछे सबसे बड़ी वजह यह थी कि सीमा पार से आनेवालों को वहाँ पर बसाकर एक वोट बैंक तैयार करो, जो बदले में आपको चुनाव जितवाएगा। (गोविंद बल्लभ) पंत (नेहरू मंत्रिमंडल में तत्कालीन गृह मंत्री) इस बात को जानते थे कि सीमा पार से बड़ी संख्या में लोग इधर आ रहे हैं। आखिरकार, उनके ही दल ने तो स्वतंत्रता के बाद से प्रवासन को बढ़ावा दिया था।” (के.एन.) 

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’60 के दशक की शुरुआत में असम के मुख्यमंत्री बिमला प्रसाद चालिहा ने प्रवासियों को निकाल फेंकने के लिए एक आक्रामक अभियान प्रारंभ किया। हालाँकि, नेहरू चाहते थे कि वे निर्वासन को लेकर अपना रवैया थोड़ा ढीला रखें और उन्हें रोकने का प्रयास भी करें। 
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