Nehru Files - 65 in Hindi Anything by Rachel Abraham books and stories PDF | नेहरू फाइल्स - भूल-65

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नेहरू फाइल्स - भूल-65

भूल-65 
कभी न खत्म होने वाली गरीबी और जीवन-स्तर 

नीचे दिए गए आँकड़े नेहरू राजवंश के समय से लेकर यू.पी.ए.-1 और 2 तक के हैं। वर्ष 2014 के बाद से हालात सुधरने लगे हैं, हालाँकि धीरे-धीरे। 

नेहरूवादी आर्थिक नीतियों की बदौलत करोड़ाें भारतीयों को कभी न खत्म होनेवाली गरीबी का अभिशाप झेलने को मजबूर होना पड़ा। हमारे पास गरीबों की सबसे बड़ी संख्या है—दुनिया के गरीबों की एक-तिहाई! विश्व बैंक के अनुमान के अनुसार, एक तरफ जहाँ 69 प्रतिशत भारतीय प्रतिदिन 2 डॉलर से भी कम में जीवन व्यतीत करते हैं, 33 प्रतिशत 1.25 डॉलर प्रतिदिन की अंतरराष्ट्रीय गरीबी रेखा से नीचे आते हैं। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की वर्ष 2011 की तालिका के अनुसार, प्रति व्यक्ति जी.डी.पी. के संदर्भ में भारत 193 देशों में 129वें स्थान पर आता है। भारत में प्रति व्यक्ति आय श्रीलंका की प्रति व्यक्ति आय के आधे से कुछ अधिक, मलेशिया से करीब एक बटा छह और जमैका से एक-तिहाई है। हालात सुधर रहे हैं, लेकिन कई कीमती दशक गरीबी को बनाए रखनेवाली नेहरू की आर्थिक नीतियों में बरबाद हो गए। 

डेरल डी’मोंटे ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ में प्रकाशित अपने एक लेख ‘लिविंग अ‍ॉफ द लैंड’ में कहते हैं—“...अ‍ॉक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी और संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम एक ‘बहुआयामी गरीबी सूचकांक’ या एम.पी.आई. को सामने लाया, जिसने ‘मानव गरीबी सूचकांक’ को प्रतिस्थापित किया। शोधकर्ताओं ने 5.2 अरब की संयुक्त आबादी से सुसज्जित 104 देशों के डाटा का विश्लेषण किया, जिसमें दुनिया का कुल 78 प्रतिशत हिस्सा शामिल हुआ था। इस शोध में यह बात सामने आई कि इन देशों में लगभग 1.7 अरब लोग बहुआयामी गरीबी में रहते हैं। अगर सिर्फ आय को ही ध्यान में लिया जाए, जो अंतरराष्ट्रीय मानक के अनुसार, दुनिया भर के लिए 1.25 डॉलर प्रतिदिन से भी कम है तो यह संख्या 1.3 अरब हो जाती है। इस विश्लेषण से जो चौंकानेवाला तथ्य सामने आया, जिसने दुनिया भर की सुर्खियाँ बटोरीं, वह यह है कि एम.पी.आई. के आधार पर सिर्फ 8 भारतीय राज्यों में ही इतने गरीब लोग रहते हैं, जितने 26 सबसे गरीब अफ्रीकी देशों में मिलाकर रहते हैं। ये उप-सहाराई देश (जैसे इथोपिया) दुनिया में सबसे बुरी हालत में माने जाते हैं और भूख से बिलखते वहाँ के बच्‍चों की तसवीरें गहन बेचैनी की सूचक बन जाती हैं।” (यू.आर.एल.115) 

‘मर्सर क्वालिटी अ‍ॉफ लिविंग सर्वे’ की वर्ष 2012 के लिए विश्वव्यापी रैंकिंग 49 शहरों को सूचीबद्ध करती है। कोई भी भारतीय शहर इस श्रेणी में नहीं आता है। वर्ष 2012 की ‘मर्सर सिटी इन्‍फ्रास्ट्रक्चर रैंकिंग’ 50 शहरों को सूचीबद्ध करती है। कोई भी भारतीय शहर इस सूची में स्थान नहीं बना पाता है। दुनिया के महत्त्वपूर्ण शहरों में 25 सबसे गंदे शहरों में दिल्ली व मुंबई के नाम आते हैं और इसमें इनका साथ देने को अधिकांश अफ्रीकी शहर हैं। 

दो भारतीय शहर, सुकिंडा और वापी, दुनिया में सबसे अधिक प्रदूषित शहरों के रूप में तीसरे व चौथे स्थान पर हैं! यहाँ तक कि हमारे जल-स‍्रोत और नदियाँ, जिनमें सबसे पवित्र स्‍थल भी शामिल हैं, साल-दर-साल और अधिक गंदे हो रहे हैं। गंगोत्री उद्गम स्थल पर गंगा का पानी बिल्कुल शुद्ध और उज्‍ज्वल है, जहाँ उसका बी.ओ.डी., जिसे ‘जैविक अ‍ॉक्सीजन माँग’ कहा जाता है, शून्य है और डी.ओ., जिसे ‘घुलित अ‍ॉक्सीजन’ कहा जाता है, वह 10 से भी अधिक है। 2 एम.जी. से कम बी.ओ.डी. स्तर वाले पानी को बिना शोधन के पिया जा सकता है। इसके अलावा 2 से 3 एम.जी. प्रति लीटर के बी.ओ.डी. स्तर वाले पानी को पिया जा सकता है, लेकिन शोधन के बाद और 3 एम.जी. प्रति लीटर से अधिक के बी.ओ.डी. स्तर वाला पानी तो नहाने लायक भी नहीं होता है। प्रयागराज में गंगा-यमुना के संगम के पानी का बी.ओ.डी. स्तर 7.3 एम.जी. प्रति लीटर है! यह तो नहाने के लिए भी बिल्कुल अनुपयुक्त है! 

संक्षेप में, प्रस्तुत करने को टी.ओ.आई. (टाइम्स ऑफ इंडिया) की एक रिपोर्ट ‘ए पिचरफुल अ‍ॉफ पॉयजन : इंडियाज वाटर वोज सेट टू गेट वर्स’ (यू.आर.एल.117), भारत पीने योग्य पानी की गुणवत्ता के मामले में 122 देशों की सूची में 120वें स्थान, यानी नीचे से तीसरे स्थान पर है। भारत वर्ष 2022 तक ‘वाटर स्ट्रेस्ड देश’ होगा। अभी भी लगभग 50 प्रतिशत भारतीय गाँवों में संरक्षित पेयजल का कोई स‍्रोत मौजूद नहीं है। भारत के 14.2 करोड़ गाँवों में से 1.95 लाख गाँव पानी के रासायनिक संदूषण से प्रभावित हैं। प्रति वर्षलगभग 3.77 करोड़ लोग जल-जनित बीमारियों से ग्रसित होते हैं। 20 भारतीय राज्यों में करीब 6.6 करोड़ लोग पानी में फ्लोराइड की अत्यधिक मात्रा के चलते खतरे में हैं। 14 साल से कम उम्र के करीब 60 लाख बच्‍चे दाँत, हड्ड‍ियों और गैर-हड्डी संबंधित फ्लोरोसिस से पीड़ित हैं। झाबुआ जिले में बच्‍चों में अस्थि-विरूपता बेहद आम है। भूजल में मिला हुआ आर्सेनिक एक और बड़ा हत्यारा है, जो करीब 1 करोड़ लोगों की जान को जोखिम में डाल रहा है। पश्चिम बंगाल के कई जिलों में यह समस्या बेहद विकराल रूप ले चुकी है। गंगा नदी के समतल प्रदेशों में स्थित गहरे जलभरों में आर्सेनिक मौजूद है। उत्तर प्रदेश के बलिया जिले में यह समस्या इतना विकट रूप ले चुकी है कि लगभग हर परिवार इससे पीड़ित है। अधिकांश लोग त्वचा पर चकत्तों की समस्या से ग्रसित हैं और कुछ तो अपने अंगों को ही खो चुके हैं; कई लोग आर्सेनिक के चलते होनेवाले कैंसर के चलते धीमी मौत मर रहे हैं। जीवाणु-विज्ञानी संदूषण, जिसके चलते डायरिया, हैजा और हेपेटाइटिस जैसी बीमारियाँ होती हैं, भारत में सबसे अधिक फैली हुई हैं। 

मानव विकास सूचकांक (एच.डी.आई.) जीवन-प्रत्याशा, शिक्षा और आय सूचकांकों का एक समग्र आँकड़ा है और इसे यू.एन.डी.पी. (संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम) द्वारा प्रकाशित किया गया था। वर्ष 2016 में भारत 187 देशों के बीच एच.डी.आई. में 130वें स्थान पर था—इराक और मिस‍्र से भी नीचे! 

‘नंदी फाउंडेशन’ की भूख और कुपोषण (हंगामा) रिपोर्ट 5 साल से कम उम्र के 42 प्रतिशत भारतीय बच्‍चों का वजन सामान्य से बेहद कम होता है और उनमें से 59 प्रतिशत बच्‍चेगंभीर या सामान्य स्टंटिंग से पीड़ित होते हैं। 

‘मातृत्व दिवस’ पर जारी एक और अध्ययन के अनुसार, भारत ‘मदर केयर इंडेक्स’ में दुनिया के 80 कम विकसित देशों की सूची में 76वें स्थान पर है, जो पाँचवाँ सबसे खराब देश है।

स्वास्थ्य-सेवा प्रणाली : हम शिशु मृत्यु-दर में अफ्रीका के सबसे गरीब देशों को भी मात देते हैं! शिशु मृत्यु-दर द्वारा प्रति 1,000 जीवित जनमे बच्‍चों में से एक वर्ष से कम उम्र के बच्‍चों की मौत की संख्या को प्रदर्शित होती है। 221 देशों में भारत 50वें स्थान पर आता है (46 की शिशु मृत्यु-दर के साथ) पहला स्थान सबसे खराब है। इसका मतलब यह हुआ कि 221 देशें में से 171 देश भारत से बेहतर हैं। चीन की शिशु मृत्यु-दर 15.62, सिंगापुर की 2.65, जबकि भारत की 46.07 है। एक अंतरराष्ट्रीय गैर-सरकारी संगठन ‘सेव द चिल्ड्रन’ द्वारा एक अध्ययन के बाद घोषित किया गया है कि भारत में हर साल जन्म के 24 घंटे के भीतर 4,00,000 से अधिक नवजात शिशुओं की मृत्यु हो जाती है, जो दुनिया में कहीं भी होनेवाली मौतों में सबसे अधिक है। 

अगर एम.एम.आर., मातृ-मृत्यु अनुपात, गर्भावस्था या उसके प्रबंधन से संबंधित किसी भी कारण से (आकस्मिक या अप्रत्याशित कारणों को छोड़कर) प्रति 1,00,000 जीवित जन्‍मों में मातृ मृत्यु की वार्षिक संख्या है। एम.एम.आर. में गर्भावस्था, प्रसव या फिर गर्भपात के 42 दिनों के भीतर होनेवाली मृत्यु शामिल हैं। भारत प्रति 1,00,000 जीवित जन्मों में से 200 मृत्यु की दर के साथ 183 देशों में 52वें स्थान पर है, जिनमें पहला स्थान सबसे खराब माना जाता है। चीन का एम.एम.आर. 37 और सिंगापुर का मात्र 3 है। 

अब आवास को लेते हैं। सरकार के हालिया आवास सर्वेक्षण से सामने आता है कि 53 प्रतिशत भारतीय घरों में शौचालय नहीं है, 68 प्रतिशत के पास पीने का स्वच्छ नल का पानी नहीं है, 39 प्रतिशत के पास घर के अंदर रसोईघर नहीं है और 70 प्रतिशत एक या दो कमरों के घर में जीवन गुजार रहे हैं। आँकड़े वास्तविक संत्रास को प्रदर्शित नहीं करते हैं। निश्चित रूप से (पुरुष, महिला, बच्‍चे) सभी पीड़ित हैं, लेकिन सबसे बड़ी भुक्तभोगी हैं महिलाएँ—शौचालयों के अभाव में खुले में शौच के लिए जाना, घर में नल के पानी के अभाव में पानी लेकर आना, बिना रसोईघर के खाना पकाना! 

भारत में लगभग 50,000 झुग्गी-बस्तियों में 9.7 करोड़ शहरी गरीब रहते हैं, जिनमें से 24 प्रतिशत या तो नालों या नालियों के किनारे स्थित हैं और 12 प्रतिशत रेल की पटरियों के आसपास। यों हमारी नियोजन की कमी और उपक्षा े की बदौलत झुग्गियों और झुग्गियों में रहनेवालों की आबादी में इजाफा होता जा रहा है। सबसे अधिक प्रभावित हैं बच्‍चे (इन झुग्गियों में पल रहा हमारा भविष्य)। 

सिंगापुर और फिनलैंड स्नातकों में सबसे तीव्र बुद्धि 10 प्रतिशत को शिक्षकों के रूप में चुनते हैं और उन्हें इंजीनियरों के समान वेतनमान दिया जाता है। और भारत में? इंजीनियरिंग एवं प्रबंधन संस्थानों से निकलनेवाले स्नातकों की गुणवत्ता इतनी खराब है कि उनमें से कई बेरोजगार ही रहते हैं। हमारी शिक्षा-प्रणाली पूरी तरह से चरमराई हुई है। 

साक्षरता के क्षेत्र में 214 देशों के बीच भारत का स्थान 183वाँ है, जो कई अफ्रीकी देशों से भी नीचे है। 18 जनवरी, 2013 के ‘‌दि इकोनॉमिक टाइम्स’ के मुताबिक—“एन.जी.ओ. ‘प्रथम’ द्वारा जारी शिक्षा की वार्षिक स्थिति रिपोर्ट (ए.एस.ई.आर. 2012) के अनुसार, कक्षा 5 के ऐसे छात्रों की संख्या, जो दूसरी कक्षा के स्तर के पाठ को पढ़ने में या फिर अंकगणित की सरल समस्या को हल करने में नाकाम रहे हैं, में बढ़ाेतरी हुई है। वर्ष 2010 में इस श्रेणी के 46.5 प्रतिशत बच्‍चे ऐसा करने में नाकामयाब रहे तथा 2011 में यह संख्या बढ़कर 51.8 प्रतिशत तथा 2012 में 53.2 प्रतिशत तक पहुँच गई। वर्ष 2010 में कक्षा 5 के 29.1 प्रतिशत बच्‍चेबिना मदद लिये दो अंकों के घटाव का सूत्र हल नहीं कर सकते थे। यह अनुपात वर्ष 2011 में बढ़कर 39 प्रतिशत और 2012 में 46.5 प्रतिशत हो गया। 
जब कभी भी नकारात्मकता की बात आए तो नेहरूवादी-समाजवादी एवं लोक-लुभावन- बाबूवादी प्रभुत्ववाले राजवंशीय भारत ने शायद ही कभी शीर्ष स्थान पाने के मामले में निराश किया हो। नेहरू-गांधी राजवंश के सत्ता से बाहर होने के बाद वर्ष 2014 से स्थितियों में सुधार होना प्रारंभ हुआ है; हालाँकि उनकी गति इतनी तेज नहीं है, जितनी होनी चाहिए।