Anchahi Mohabbat - 1 in Hindi Love Stories by Diksha mis kahani books and stories PDF | अनचाही मोहब्बत - 1

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अनचाही मोहब्बत - 1

 

अनचाही मोहब्बत

 

इस कहानी के 2 भाग होंगे!एक छोटी कहानी आपके लिए💗

 

!प्रोमो!

 

“इस रिश्ते में मैं कभी तुम्हारी पहली पसंद थी ही नहीं… थी न?”

 

पाँच साल पहले जब शहनाज़ की ज़िंदगी जबरन एक अनचाही शादी में बाँध दी गई, तब उसने सोचा था — वक़्त सब कुछ ठीक कर देगा।

 

लेकिन वक़्त के साथ सिर्फ़ उसका सब्र टूटा… प्यार नहीं मिला।

 

आरामदेह घर, सामाजिक इज़्ज़त, सब कुछ था…

बस नहीं था तो उसका हक़, उसकी पहचान, और उसके पति का प्यार।

 

वो हर रात उसकी बाहों में थी, लेकिन उसकी आँखों में नहीं।

 

पर एक दिन… उसे उसके दिल का सच मिला —

एक पुराना नाम, एक अधूरी मोहब्बत, और एक औरत जिसकी यादों में वो आज भी कैद था।

 

अब शहनाज़ क्या करेगी?

 

क्या वो इस रिश्ते को छोड़ देगी?

या एक नई शुरुआत के लिए उसकी बंद दिल की दुनिया में दस्तक देगी?

 

क्या एक जबरन रिश्ते से सच्ची मोहब्बत पैदा हो सकती है?

 

या फिर… मोहब्बत बस किस्मत वालों को मिलती है?

 

"अनचाही मोहब्बत" — एक ऐसी कहानी जो आपको रिश्तों की खामोश गहराइयों में ले जाएगी।

जहाँ सवाल बहुत हैं… पर जवाब सिर्फ़ दिल देता है।

 

 

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"रिश्ते की खामोशी"

(हसन और शहनाज़ की कहानी पर आधारित कविता)💗🔥

 

वो शादी थी... मगर इज़ाज़त के बिना,

दिल जुड़ा था… पर मोहब्बत के बिना।

लब हँसते थे, आंखें सूनी थीं,

हम दोनों थे पास… पर दूरी पुरानी थी।

 

उसने छुआ था, मगर एहसास नहीं था,

हर रात गुज़री थी, मगर विश्वास नहीं था।

मैंने निभाया, उसने सहा,

हम दोनों ने कभी एक-दूजे को कहा ही क्या?

 

मैं सवालों में थी, वो खामोश था,

मैं अधूरी थी, वो शायद खोया हुआ कोई जोश था।

फिर एक दिन उसकी आँखों में कुछ टूटा,

और मेरी चुप्पी में एक ‘क्यों’ फूटा।

 

उसने माना – वो रिश्ता बीते कल से था,

पर क्या मैं सिर्फ़ एक साया थी जो उसके पल से था?

 

मैंने माँगा — सिर्फ़ एक दिल की जगह,

ना किसी की यादें, ना झूठी तरह।

 

वो रुका… फिर पास आया,

पहली बार उसने मेरा नाम सच्चाई से लगाया।

 

अब वो सुबहें मेरी हैं,

अब उसकी चाय में मिठास मेरी है।

अब उसकी डायरी में सिर्फ़ एक नाम है,

जिसे उसने ज़बरन नहीं, मर्जी से अपनाया है।

 

"रिश्ते खून से नहीं,

एहसास से बनते हैं।

और जबरन से शुरू हुए रिश्ते भी,

अगर दोनों चाहें… तो मोहब्बत में बदल सकते हैं।"

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भाग 1

 

 

शहनाज़ की आँखें शादी की अगली सुबह भी बंद नहीं हुई थीं। मेंहदी अभी तक उसके हाथों में ताज़ा थी, लेकिन उसकी आँखों से उम्मीद का रंग कब का उतर चुका था।

 

वो इस रिश्ते को कभी चाहती ही नहीं थी।

 

और शायद वही बात हसन के लिए भी सच थी।

 

शादी की रात उसने सिर्फ़ एक नज़र डाली थी हसन पर — ठंडा चेहरा, भावहीन आँखें, और शब्दों से ज़्यादा दूरी उसकी हर हरकत में दिखती थी। किसी पराये आदमी से ब्याह कर देना शायद इस समाज के लिए आम बात थी, पर एक लड़की के लिए ये उसकी साँसों की आहट तक बदल देता है।

 

"तुम्हारी ये शादी मेरे लिए सिर्फ़ एक समझौता है," हसन ने पहली रात कहा था।शहनाज़ ने बिना आँसू बहाए ये वाक्य सुना था। दिल चुपचाप फट रहा था, लेकिन आवाज़ उसकी जुबान तक नहीं पहुँची।

 

उसने जवाब नहीं दिया, और शायद इसी ख़ामोशी ने इस रिश्ते को अगले कई हफ्तों तक चलने दिया — बिना कोई शिकायत, बिना कोई अपनापन।

 

हर सुबह वो चाय बनाती, हसन को सामने रख देती, वो बिना कुछ बोले पी लेता। वो ऑफिस चला जाता, शहनाज़ अकेली कमरे में बैठी खिड़की से बाहर देखती रहती। उसके हाथों की मेंहदी भी धीरे-धीरे उतरने लगी थी — जैसे उसके दिल की हर उम्मीद।

 

शादी को तीन महीने हो चुके थे, लेकिन ना हसन ने कभी उसका नाम पुकारा, ना उसकी आँखों में देखा। सिर्फ़ एक रात, वो अचानक उसके करीब आया था — चुपचाप, बिना कोई शब्द। और शहनाज़ ने भी कोई सवाल नहीं किया।

 

क्योंकि वो जानती थी — ये प्यार नहीं था।ये सिर्फ़ शरीर था। और शरीर से जुड़ाव, बिना आत्मा के, सिर्फ़ टूटन देता है।

 

अगली सुबह फिर वही ख़ामोशी।

 

फिर एक दिन, शहनाज़ ने हिम्मत करके अपनी अम्मी से पूछा, "अम्मी… हसन इस शादी से खुश नहीं है न?"

 

अम्मी ने बस इतना कहा, "मर्दों की ख़ुशी और नाख़ुशी पूछने की चीज़ नहीं होती बेटा… बस निभाने की चीज़ होती है।"

 

और यही तो बात थी… शहनाज़ "निभा" रही थी।

 

पर एक दिन कुछ बदल गया।

 

वो अलमारी में कुछ ढूंढ रही थी, जब उसे एक पुराना डायरीनुमा नोटबुक मिला — उसमें कुछ नाम लिखे थे, कुछ तारीखें… और एक लड़की की तस्वीर। पीछे लिखा था – "माया, मेरी जिंदगी का पहला प्यार।"

 

शहनाज़ की उंगलियाँ वहीं रुक गईं। तो यही कारण था उसकी बेरुखी का?

उसकी आँखों से आँसू गिर पड़े। वो पहली बार टूटी थी। पहली बार अंदर से।

 

शाम को जब हसन आया, वो डायरी मेज़ पर रखी थी।

 

"ये क्या है?" हसन ने कहा।

 

"आप ही बताइए… मैं तो सिर्फ़ निभा रही थी। पर आप क्या कर रहे थे? इस रिश्ते में मेरा नाम था, लेकिन आपकी यादों में कोई और बसी थी," उसकी आवाज़ शांत थी, पर भीतर बवंडर था।

 

हसन ने कुछ नहीं कहा। उसकी नज़रें झुक गईं।

 

"आपने मुझे कभी अपना समझा ही नहीं, है न?"

 

"ये शादी मेरे ऊपर थोपी गई थी, शहनाज़। मैं माया से प्यार करता था, और एक हादसे में वो मुझसे हमेशा के लिए दूर हो गई।"

 

"तो क्या उसकी मौत के साथ ही आपकी सारी इंसानियत भी चली गई? आपने मुझे क्या समझा — एक रीप्लेसमेंट?"

 

"मैंने कभी तुमसे कुछ नहीं चाहा। तुम आज़ाद हो जाना चाहो तो जा सकती हो।"

शहनाज़ कुछ पलों तक हँसी… रूखी हँसी।

 

"कितना आसान होता है न… रिश्तों से भाग जाना। आपने मुझे उस दिन अपनी पत्नी बनाया, जिस दिन आपने मुझे छुआ — चाहे उसके पीछे कोई भावना थी या नहीं। लेकिन अब जब मैंने सवाल किया, तो आप मुझे आज़ादी दे रहे हैं?"

 

"मैं तुम्हें दुखी नहीं देख सकता…"

 

"और आप क्या सोचते हैं, अब तक मैं खुश थी?"

 

कमरा चुप हो गया। एक लंबी साँस के बाद शहनाज़ ने कहा —

"मैं जाना नहीं चाहती। मैं चाहती हूँ कि आप मुझे मेरी पहचान के साथ अपनाएँ।

मैं एक औरत हूँ, कोई छाया नहीं।

मैं आपके अतीत से नहीं लड़ सकती, पर क्या आप अपने वर्तमान को स्वीकार नहीं कर सकते?"

 

हसन की आँखें पहली बार नम हुईं।

 

शायद पहली बार उसने शहनाज़ को देखा — पूरी तरह।

 

"माफ करना… शायद मैं डर गया था।

 

माया के बाद किसी को पास आने देना… एक दर्द था, जिससे मैं बचता रहा।

पर अब… मैं कोशिश करना चाहता हूँ।

क्या तुम… मुझे एक मौका दोगी?"

 

शहनाज़ की आँखों में आँसू थे — लेकिन इस बार वो टूटन के नहीं, उम्मीद के थे।

 

उसने धीरे से सिर हिलाया।

 

शायद अब ये रिश्ता "निभाने" से आगे बढ़कर "जीने" की ओर बढ़ने वाला था।

 

जारी(..)

©Diksha