Nehru Files - 83-84 in Hindi Business by Rachel Abraham books and stories PDF | नेहरू फाइल्स - भूल-83-84

Featured Books
Categories
Share

नेहरू फाइल्स - भूल-83-84

भूल-83 
मुफ्तखोर वामपंथी—‘फिबरल’ (फर्जी उदारवादी) 
वर्ग का उदय 

“कई अध्ययन अकादमिक क्षेत्र में राजनीतिक वामपंथ के प्रभुत्व का प्रमाण दे चुके हैं; लेकिन अभी भी कुछ असाधारण क्षेत्र, जिनमें आप तथ्यों और नतीजों को झुठला नहीं सकते, ऐसे हैं, जहाँ उनका इतना अधिक प्रभुत्व नहीं है; जैसे—विज्ञान, इंजीनियरिंग, गणित और एथलेटिक्स। इसके बिल्कुल उलट, शिक्षा से जुड़ा कोई भी क्षेत्र वामपंथियों से इतना अधिक प्रभावित नहीं है, जितना मानविकी, जहाँ प्रचुरता से आनेवाली कल्पनाओं को झुठलाने के लिए तथ्य नहीं हैं। वामपंथी शिक्षा के क्षेत्र के बाहर भी अपने लिए ऐसे तथ्य-मुक्त क्षेत्रों की तलाश में हैं।” 
—थॉमस सोवेल 


भारत में आपको खुद को एक बौद्धिक और उदार साबित करने के लिए ‘वामपंथी, अमेरिका- विरोधी, अरब-समर्थक, इजराइल-विरोधी, ‘धर्मनिरपेक्षतावादी’, हिंदुओं को गाली देनेवाला, मुसलमान-समर्थक, नेहरूवादी, जेएनयू टाइप’ जैसे शब्द-जालों के साथ सुपरिचित होना होगा। यह एकदम आसान है। इस हेतु गंभीर ज्ञान या विशेषज्ञता या अनुसंधान कार्य या विश्लेषणात्मक क्षमता या मौलिकता या गहराई या सत्यनिष्ठा की आवश्यकता नहीं है। इस वर्ग की उत्पत्ति, प्रसार और जमने का श्रेय नेहरू तथा उनके राजवंश को जाता है। 

इसके अलावा, यह पूरी तरह से सुरक्षित है। दूसरे आपकी बातों को काटेंगे नहीं, क्योंकि इन विशिष्ट भारतीय वामपंथियों में आपस में एक अदृश्य, अनौपचारिक भाईचारा है। वे एक-दूसरे का समर्थन करते हैं, उनका बचाव करते हैं और अकादमिक एवं सरकारी निकायों में अपनी प्रमुखता सुनिश्चित करते हैं तथा अपने अधिकार-क्षेत्र का बचाव करते हैं। इसके अलावा, वे टी.वी. कार्यक्रमों और सार्वजनिक समारोहों के ‘विशिष्ट’ मेहमान होते हैं, जहाँ वे अपने घिसे-पिटे, बासी विचारों को गंभीरता से प्रकट करते हैं। बड़ी-बड़ी बातें करनेवाले ये लोग बीते सात दशकों में एक भी मूल विचार के साथ सामने नहीं आए हैं। वामपंथी-समाजवादी-उदार ‘बुद्धिजीवी’ वास्तव में एक विरोधाभास हैं और एक कालभ्रम हैं। 

विशिष्ट नेहरूवादी-समाजवादी ‘धर्मनिरपेक्ष’, ‘उदारवादी’, ‘बौद्धिक’ परजीवी कुचक्र, जिसने अकादमिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक, पुरातात्त्विक व ऐतिहासिक निकायों तथा सरकारी प्रतिष्ठानों को जन्म दिया है और वैसे मीडिया जैसे राय बनानेवाले क्षेत्रों में भी अपनी पैठ बना चुके हैं, जो अब दुर्भाग्य से बौद्धिक परंपराओं की सबसे खराब स्थिति का प्रतिनिधित्व करता है और प्रगति में एक बड़ी बाधा बन गया है; क्योंकि यह समझदार बातचीत को विकृत करने में कामयाब रहा है। इसके अलावा, राष्ट्र-विरोधी होना ‘उदार’ और प्रचलित भी है। 

यह वैश्विक स्तर पर नकारे जा चुके समाजवादी आर्थिक वैश्विक दृष्टिकोण का समर्थन करता है, जो वास्तव में और पर्याप्त तरीके से अपनी गरीबी को बढ़ानेवाली, दुःख को कई गुना करनेवाली, गरीब-विरोधी, समृद्धि-विरोधी; जो कुछ भी अच्छा हो, उसके विरोध के गुणों को प्रदर्शित कर चुका है। इसकी ‘धर्मनिरपेक्षता’ धर्म से ऊपर नहीं उठती है; लेकिन यह सिर्फ हिंदू- विरोध और मुसलमान-समर्थक होने तक सीमित है और यह बड़े स्तर पर जारी धर्म-परिवर्तन से अप्रभावित और बेपरवाह है। इसका ‘उदारवाद’ गोमांस-समर्थक और मांसाहार-समर्थक होने के साथ-साथ जानवरों के अधिकारों का समर्थक होना; अमेरिका-विरोधी होते हुए ग्रीन कार्ड या फिर अमेरिका से काम पाने का प्रयास करते रहना; सभी हिंदू रीति-रिवाजों और प्रथाओं का विरोध करना तथा दूसरी तरफ इसलाम या फिर ईसाइयत की तमाम प्रतिगामी प्रथाओं पर चुप्पी साध लेनेवाले तर्कवादी होने; अरब-समर्थक और इजराइल-विरोधी होने; एक तरफ तो संस्कृत-विरोधी होने और दूसरी तरफ जर्मन-समर्थक या विदेशी भाषा के समर्थक इत्यादि हैं। 

वे औरंगजेब रोड का नाम बदलने का तो विरोध करते हैं, लकिे न सैकड़ों सरकारी योजनाओं और संस्थानों का नामकरण नेहरू-गांधियों के नाम पर होने के विरोध में एक शब्द तक नहीं बोलते हैं। वे आम आदमी और न्याय की बात करते हैं और समानता को लेकर नाराजगी प्रकट करते हैं, लकिन उन्हें राजवंश के अन्यायपूर्ण और बेशर्मी भरे तरीके से जारी रहने में कुछ भी असामान्य या अन्याययपूर्ण  या असमानता नहीं दिखाई देती है! वे असहिष्णुता के खिलाफ चिल्लाते हैं, लकिन खुद वैकल्पिक दृश्य सामने आने पर असहिष्णुता के सबसे बड़े उदाहरण बन जाते हैं (जबकि वह उनकी से कहीं बेहतर होती है)! 

यह कहा गया है कि सच्‍चे ‘बुद्धिजीवियों के यथास्थिति के साथ संबंध असहज होते हैं’। हालाँकि, यह व्युत्पन्न भारतीय ‘बौद्धिक’ वर्ग यथास्थिति में परिवर्तन से असहज हो गया है। वे तभी सहज महसूस करते हैं, जब उन्हें उनका पसंदीदा, पुराना नेहरूवादी, ‘धर्मनिरपेक्ष’, समाजवादी; मैं तेरी पीठ खुजाऊँ, तू मेरी पीठ खुजा; पारस्परिक रूप से फायदेमंद, अगम्यागामी, बदले में प्रतिवेश और नेहरू-गांधी राजवंश के साथ घर जैसा संबंध रखते हैं। 
*****

भूल-84
मानसिक और सांस्कृतिक दासता 

नेहरू : ‘भारत पर राज करने वाले अंतिम अंग्रेज’ 
हम आर्थिक और राजनीतिक दासता की बेड़ियों को तोड़ने में कामयाब रहे। लेकिन मानसिक और सांस्कृतिक दासता, जिसे हमने स्वेच्छा से अपनाया है! गांधीजी ने दास-वृत्ति का विरोध करने को बहुत कुछ किया, यह एक सर्वविदित तथ्य है। लेकिन सबसे अजीब बात यह है कि आजादी के बाद के दौर में गांधीजी के चुने हुए शागिर्द (नेहरू) ने उनकी विरासत को आगे बढ़ाने के लिए बहुत कम काम किया। अगर मानसिक और सांस्कृतिक दासता में इजाफा हुआ तो इसके लिए काफी हद तक नेहरू के खुद के द्वारा निर्धारित किए गए उदाहरण और उनके नेतृत्व में फलने-फूलनेवाली नीतियाँ जिम्मेदार हैं। 

गांधीजी ने एक बार कहा था, “जवाहरलाल चाहते हैं कि अंग्रेज तो यहाँ से चले जाएँ, लकिन अंग्रेजियत यहाँ रह जाए। मैं चाहता हूँ कि अंग्रेजियत यहाँ से चली जाए, लकिे न अंग्रेज हमारे दोस्त बनकर यहाँ रहें।” (डी.डी./261) यह जानते हुए भी गांधी ने प्रधानमंत्री के रूप में नेहरू को क्यों चुना, यह एक रहस्य ही है। गांधीजी कहते थे कि हालाँकि नेहरू कई मुद्दों पर उनसे झगड़ते हैं, लकिे न आखिरकार वे उनसे (गांधी से) सहमत हो जाते हैं। लकिे न गांधीजी को शायद ही इस बात का आभास था कि ऐसा नहीं था कि नेहरू उनसे सहमत होते थे, बल्कि नेहरू को यह बात अच्छे से पता थी कि गांधी से सहमत न होना उनकी स्थिति को खतरे में डाल सकता है (बिल्लकु जैसे सुभाष बोस के साथ हुआ था) और उनके प्रधानमंत्री बनने के लक्ष्य को भी। गांधी यह भी कहते थे कि जब वे नहीं रहेंगे तो नेहरू उनकी भाषा बोलगें। अगर गांधी ने स्वर्ग से नीचे देखा होगा तो उन्हें यह पता चला होगा कि नेहरू ने उनकी (गांधी की) मौत के साथ ही गांधीवाद को दफन कर दिया था। संयोग से, यह अंतिम बात नेहरू के ही एक वफादार रफी अहमद किदवई द्वारा बताई गई थी, “जवाहरलाल ने सिर्फ गांधी का ही नहीं, बल्कि गांधीवाद का भी अंतिम संस्कार कर दिया है।” (डी.डी./279) 

फ्रांसवा गोतिए ने लिखा—“फ्रांसीसी इतिहासकार एलेन डैनियलो लिखते हैं, ‘नेहरू एक निश्चित प्रकार के अंग्रजों की सही प्रतिकृति थे। वे अकसर फ्रांसीसी या इतालवियों को पद-नाम देने के लिए मनोरंजक और व्यंग्यात्मक तरीके से ‘महाद्वीपीय लोग’ शब्द का इस्तेमाल करते थे। उन्होंने अंग्रेजियत में ढलने में नाकामयाब रहनेवाले भारतीयों का तिरस्कार किया तथा उन्हें भारत का बेहद सतही और आंशिक ज्ञान था। उनका आदर्श उन्नीसवीं शताब्दी के ब्रिटेन का रूमानी समाजवाद था। लकिन इस प्रकार का समाजवाद भारत के लिए पूरी तरह से अनुपयुक्त था, जहाँ न तो कोई वर्ग-संघर्ष था और जहाँ की स्थितियाँ उन्नीसवीं शताब्दी के यूरोप से बिल्लकु अलग थीं’।” (एफ.जी.2) 

नेहरू ने एक बार कथित तौर पर अपने बारे में कहा था, “गालब्रेथ, मैं भारत पर शासन करनेवाला अंतिम अंग्रेज हूँ!” (वॉल्प2/23) नेहरू ने यह बात अमेरिकी राजदूत जे.के. गालब्रेथ के साथ एक बातचीत के दौरान व्यक्तिगत तौर पर कही। इस टिप्पणी का उल्लेख फरीद जकारिया की पुस्तक ‘द पोस्ट अमेरिकन वर्ल्ड’ में भी किया गया है। (जैक) हमारे पास ऐसे महान् स्वदेशी राष्ट्रवादी थे! इसके अलावा, नेहरू ने यह भी कहा था, “...मैं अपनी पसंद और नापसंद के मामले में एक भारतीय के मुकाबले अंग्रेज अधिक था। मैंने दुनिया को एक अंग्रेज दृष्टिकोण से देखा।” (आर. एन.पी.एस./100) ऐसा महसूस करना एक अलग बात थी और उस पर स्वस्तुति करना या फिर अभिमानी होना एक बिल्लकु ही अलग बात है, बशर्ते आप एक स्वाभिमानी, देशभक्त, जड़वत् भारतीय न हों! 

जाने-माने विद्वान् डॉ. डेविड फ्रॉली ने ट्वीट किया, “नेहरू की ‘डिस्कवरी अ‍ॉफ इंडिया’ ने हमें एक चीज सिखाई—नेहरू ने कभी वास्तविक इंडिया की खोज नहीं की, जो भारत है। भारत के प्रति उनका दृष्टिकोण यूरोप-केंद्रित दृष्टि से प्रेरित था।” (टी.डब्‍ल्यू.5) 

असल में, जब नेहरू लंदन से अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद इलाहाबाद वापस लौटे थे, तब यू.पी. के तत्कालीन ब्रिटिश गवर्नर ने उम्मीद जताई थी कि जॉर्ज (जवाहरलाल को तब ब्रिटिश हलकों में इसी नाम से जाना जाता था) लॉर्ड मैकाले के भूरे अंग्रेज  सपने को पूरा करेंगे। (वाई. जी.बी./9) भारत में ब्रिटिश-अंग्रेजी शिक्षा के ‘पोप’ लॉर्ड थॉमस बबिगं टन मैकाले ने 2 फरवरी, 1835 को अपनी ‘मिनट अ‍ॉफ एजुकेशन’ में जो संकल्पना तैयार की थी, नेहरू उसमें बिल्लकु उपयुक्त बैठते थे—
“हमें मौजूदा समय में एक ऐसा वर्ग तैयार करने के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास करना चाहिए, जो हमारे और उन करोड़ों लोगों के बीच दुभाषिए हो सकें, जिन पर हम राज करते हैं; ऐसे लोगों का एक वर्ग, जो रक्त और रंग में तो भारतीय हो, लेकिन स्वाद में, विचारों में, नैतिकता में और बुद्धिमत्ता में अंग्रेज हो।” (यू.आर.एल.26) 

मैकाले ने वास्तव में एक नई जाति की स्‍थापना की वकालत की थी—इंग्लैंड प्रेमी (‘भूरे साहब’) के एक कुलीन वर्ग की। और नेहरू परिवार वही था। मोतीलाल नेहरू ने एक बार अपने घर में अंग्रेजी के अलावा और कोई भाषा बोलने पर पाबंदी लगा दी थी, जिसके चलते इतने बड़े घर में मौजूद उन लोगों के सामने परेशानी खड़ी हो गई, जो अंग्रेजी नहीं जानते थे। (अकब./27) जवाहरलाल नेहरू एक भूरे साहब के प्रतीक थे, जो अंदर से सफेद था, एक शीर्ष मैकालेवादी थे। वे एक सच्‍चे मैकाले-पुत्र साबित हुए।

 शंकर घोष ने अपनी पुस्‍तक ‘जवाहरलाल नेहरू : ए बायोग्राफी’ में लिखा— “मैल्कन मगेरिज ने नेहरू को उनकी मृत्यु से कुछ समय पहले देखने के बाद कहा था कि ‘वे प्रतिध्वनि और नकल के एक प्रतीक हैं और स्वतंत्र भारत के पहले नेता होने के बजाय अंतिम वायसराय हैं’ और इस बात पर अफसोस जताया था कि वे अपने दृष्टिकोण में इतने अधिक ब्रिटिश थे कि वे भारत में महत्त्वपूर्ण और विलक्षण परिवर्तन नहीं ला पाए।” (एस.जी./193) 

**************
नीरद चौधरी ने अपनी ‘अ‍ॉटोबायोग्राफी अ‍ॉफ एन अननोन इंडियन, पार्ट-2’ में लिखा— “नेहरू अपने समय के भारतीय जीवन से पूरी तरह से अनजान थे, सिवाय खुद को दूसरों से अलग माननेवाले उच्‍च वर्ग का प्रतिनिधित्व करनेवाले इंग्लैंड-प्रेमी भारतीयों के, जो तथाकथित सिविल लाइंस में रहते थे।” (एन.सी.2) चौधरी ने कहा कि नेहरू को वास्तविक भारत के जीवन या संस्कृति या हिंदू धर्म की बहुत कम समझ थी और उनका व्यवहार उन लोगों के प्रति बेहद रुष्ट और घृणास्पद रहता था, जो भारतीय उच्‍चारण के साथ अंग्रेजी बोलते थे। 
**************

ब्रिगेडियर बी.एन. शर्मा ने लिखा—“नेहरू के व्यक्तित्व में एक सतही भारतीयता और अंग्रेजी आचार-विचार के प्रति एक प्रेम था, वह भी दोनों ही संस्कृतियों या दर्शन के मूल की गहरी समझ विकसित किए बिना।” (बी.एन.एस.10) 

अखिल भारतीय हिंदू महासभा के अध्यक्ष एन.बी. खरे ने सन् 1950 में कहा था, “जवाहरलाल नेहरू शिक्षा से अंग्रेज, संस्कृति से मुसलमान और एक दुर्घटना (जन्म) से हिंदू थे।” (अकब./27) 

दासता के स्मारक 

औपनिवेशिक मूर्तियाँ और नाम 
नई दिल्ली के दिल में, ठीक इंडिया गेट पर, सभी आने-जानेवालों (जिनमें स्वतंत्रता सेनानी, नौकरशाह, राजनेता, मंत्री तक भी शामिल थे) की नजरों के सामने किंग जॉर्जपंचम की प्रतिमा सन् 1947 के बाद दो दशकों तक खड़ी रही। 

वह तो वर्ष 1955 के अंत में जब बुल्गानिन और ख्रुश्चेव ने भारत का दौरा किया, तब भारत ने ‘किंग्सवे’ का नाम बदलकर ‘राजपथ’ और ‘क्वींसवे’ का नाम बदलकर ‘जनपथ’ किया, ताकि मेहमानों को हमारी दासता से झटका न लगे! हालाँकि, राजपथ जाते समय इंडिया गेट के सामने लगी किंग जॉर्ज पंचम की प्रतिमा ख्रुश्चेव की नजरों से नहीं बच सकी और वे इस बात पर आश्चर्यचकित थे कि यह निशानी अब भी क्यों मौजूद है! इसके बावजूद उस प्रतिमा को सन् 1968 में वहाँ से हटाया जा सका, वह भी जनता द्वारा भारी विरोध के बाद। (डी.डी./323) 

औपनिवेशिक क्लब 
कलकत्ता के बंगाल क्लब में भारतीयों को आजादी के एक दशक बाद तक भी प्रवेश की अनुमति नहीं थी! बंबई के ब्रीच कैंडी क्लब ने आजादी के काफी बाद तक संकेतक ‘कुत्तों और भारतीयों को अनुमति नहीं’ को लगाए रखा! ब्रिटिशों ने विभिन्न क्लबों, रेलगाड़ियों के डिब्बों और अन्य स्थानों पर इस प्रकार के संकेत लगाकर भारतीयों को खुले तौर पर नीचा दिखाया और अपमानित किया गया। इसके बावजूद कई ऐसे बेशर्म और अनजान भारतीय थे, जो कुत्तों की तरह का व्यवहार कर रहे थे और ब्रिटिश राज की प्रशंसा व गुणगान कर रहे थे। खुशवंत सिंह ने लिखा कि उन्हें मद्रास क्लब से सिर्फ इसलिए निकाल दिया गया था, क्योंकि उन्होंने चप्पलें पहन रखी थीं। एक अन्य मौके का जिक्र करते हुए उन्होंने लिखा कि उनके समूह को दिल्ली जिमखाना में एक कॉकटेल के लिए सिर्फ यह जाँच करने के लिए आमंत्रित किया गया था कि वे पूर्ण इंग्लैंड-प्रेमी और वहाँ के अनुकूल हैं या नहीं! 

औपनिवेशिक तौर-तरीके 
आर.पी.एन. सिंह ने ‘नेहरू : ए ट्रबल्ड लीगेसी’ में लिखा—“स्वतंत्रता के बाद भी नेहरू की मानसिक मनोदशा वही बनी रही, जो ब्रिटिशों की थी। उन्होंने (औपनिवेशिक) शासकों द्वारा निर्धारित पुराने मानकों के प्रति आश्चर्यजनक लगाव दिखाया। प्रधानमंत्री आवास पर आयोजित होनेवाले रात्रिभोजों के दौरान एक वरदीधारी सेवक हर समय प्रत्येक मेहमान के पीछे खड़ा रहता। स्वतंत्रता के बारह वर्ष बाद हेरॉल्ड मैकमिलन ने भारत की अपनी संक्षिप्त यात्रा के दौरान देखा, ‘सभी शिष्टाचारों और समारोहों को उनकी पुरानी शैली में ही बचाकर रखा गया था। प्लेट और चीनी मिट्टी के बरतन अपने हत्थों और अन्य उपकरणों के साथ बने हुए थे। दीवारों पर वायसरायों की तसवीरें टँगी थीं। तमाम वैभव और हालात बिल्कुल नहीं बदले थे। हम गार्डन पार्टी में भी मुख्य अतिथि थे; वहाँ भी सबकुछ बिल्कुल पुरानी शैली में ही था—शानदार वरदी में वायसराय का पुराना गार्ड, तुरही बजानेवाले, सैन्य सचिव और तमाम ए.डी.सी. (सभी पूर्ण सैन्य वरदी में)।’ उसी अवधि के दौरान अमेरिकी राजदूत जे.के. गालब्रेथ (1961-63) ने दक्षिण भारत के वेलिंगटन की यात्रा के बाद अपनी डायरी में लिखा—“भारतीय सेना के अधिकारी पोशाक, सलामी, ड्रिल और व्हिस्की से लेकर मूँछों तक में ब्रिटिश सेना के शऊर की नकल करते हैं। अधिकारियों के मेस में महारानी की तसवीर प्रमुख स्‍थान पर शान से लटकी हुई है।” (आर.पी.एन.एस./97) 

पश्चिमी रीति-रिवाज 
दुर्गा दास ने लिखा—“...कई ऐसे मंत्री, जो अपने घरों पर जमीन पर बैठते थे और पीतल की थालियों में या पेड़ों की पत्तियों के बने दोनों में खाना खाते थे, अब पश्चिमी तौर-तरीकों की नकल करने के प्रयास कर रहे थे। उनका तर्क था कि नेहरू सिर्फ पश्चिमी लोगों को ही आधुनिक मानते थे।” (डी.डी./292) 

खुशवंत सिंह ने अपनी आत्मकथा ‘ट्रुथ, लव ऐंड ए लिटिल मैलिस’ में कनाडा में तैनात एक भारतीय उच्‍चायुक्त, जो आई.सी.एस. के सदस्य भी थे और उनकी पत्नी के रिश्तेदार भी, का उल्लेख करते हुए लिखा है— “...मलिकों के लिए संस्कृति का मतलब अच्छे कपड़े पहनना, यूरोपीय टेबल मैनर्स होना और पुराने जमाने के असाधारण पेयों, जैसे ओल्ड फैशंड या मैनहेटन से अच्छे से परिचित होना था।” (के.एस./124) 

आई.सी.एस. की तरह भूरे साहब नेहरू जैसे तमाम लोग और सेना इस बीमारी से पीड़ित एक और तबका था। भारत-चीन युद्ध के दौरान मोरचे की स्थिति पर रिपोर्टिंग करते हुए कुलदीप नैयर ने लिखा— 
“मैं लाउंज के दूसरे कोने पर बैठे कुछ युवा सैन्य अधिकारियों से मिला। वे काफी कटु थे और उन्होंने इस बारे में खुलकर बोला कि कैसे लगातार गोलीबारी के बीच भी अंतिम चौकी तक पर बैठे वरिष्ठ अधिकारियों की हर माँग (सैनिकों को कमोड लादकर ले जाना पड़ता था) को पूरा किया जा रहा है। एक कैप्टन ने स्वीकार किया, ‘हम अब योद्धा नहीं हैं। हम खंदकों में भी क्लबों या रेस्टोरेंटों के बारे में सोचते हैं। हम काफी नरम हो चुके हैं। हम अब अच्छे नहीं रहे।’”(के.एन.) 

मोतीलाल-जवाहरलाल समुदाय बनाम पी.वी.एन. राव समुदाय

स्वतंत्रता के पहले से ही देश में भूरे साहबों का एक समुदाय मौजूद था, जिसके सबसे जीवंत प्रतिनिधि थे मोतीलाल-जवाहरलाल नेहरू; लेकिन गोरों के यहाँ से चले जाने के बाद इस कुटुंब ने खुद को दृढ़ता से स्‍थापित कर लिया। गुलामों की तरह पश्चिम की ज्यों-की-त्यों नकल करना और उनके रीति-रिवाजों को अपनाना, उनके लिए ‘आधुनिक विचारधारा वाला’ और ‘आधुनिक’ और ‘उन्नत’ होना था। 

कट्टर देशभक्त बने बिना, आपको अच्छी चीजों को अपनाना चाहिए, भले ही वे विदेशी क्यों न हों। लेकिन तर्कसंगत, वैज्ञानिक, उदार, आधुनिक विचारधारा वाला और फिर भी स्वाभिमानी होने तथा ज्यों-का-त्यों दिखावा करने और नकल करनेवाला होने में काफी अंतर है। आप आधुनिक दिखने के लिए अपने इतिहास, भाषा, धर्म, संस्कृति, संगीत, खान-पान, औषधीय प्रथाओं आदि को नीचा दिखाना नहीं शुरू कर सकते। नकल करना खुद को आधुनिक दिखाने का सस्ता तरीका है। 

आपने मोतीलाल-जवाहरलाल के कटुंब और नर सिम्हा राव के कटुंब के बीच तीव्र विरोधाभास पर ध्यान दिया? मोतीलाल-जवाहरलाल कटुंब, जो मोतीलाल नेहरू का राजवंश है, मोतीलाल नेहरू, उनके बेटे, आई.सी.एस. कटुंब और उनके जैसे अन्य अंग्रेजों से अधिक अंग्रेज बनने के चक्कर में बेहूदगी की हदें पार कर गए। उनका मानना था कि अंग्रेजी भाषा जानना और अंग्रेजों का भक्त होना अच्छेपदों एवं विशेषाधिकारों को पाने के लिए आवश्यक गुण हैं और वे अंग्रजों तथा पश्चिमी लोगों को खुश करने के लिए पूरी तरह से झुक गए। वे जिस चीज से संतप्त थे, उसे ‘कुली कॉम्प्लेक्स’ कहा जा सकता है, जिसके चलते उनके भीतर आंतरिक हीनता, आत्म-घणा और भारतीय चीजों से नफरत, विशेषकर हिंदू धर्म, संस्कृति व रीति-रिवाजों में आ गई; और वे पश्चिम के नकलची बन गए। 

वहीं दूसरी तरफ, राव का कुटुंब, जो कि सूचना प्रौद्योगिकीविदों, पेशेवरों, वित्त पेशेवरों, प्रबंधन सलाहकारों इत्यादि की मौजूदा युवा पीढ़ी है, जो नरसिम्हा राव द्वारा नेहरू राजवंश की आर्थिक नीतियों को पलटने के फलस्वरूप सामने आ पाई है, ऐसे आत्मविश्वासी पेशेवर हैं, जो सभी (अंग्रेजों, अमेरिकियों, यूरोपीयों, अ‍ॉस्ट्रेलियाई, कनाडाई, जापानी, चीनी, सिंगापुर वासियों) से बराबरी के भाव के साथ मिलते हैं और इस बात के बारे में जरा भी नहीं सोचते कि महारानी की अंग्रेजी (एस.एम.एस. अंग्रेजी या कामचलाऊ अंग्रेजी आनी काफी है) आनी जरूरी है या फिर सिर्फ उनकी तरह दिखने के क्रम में उनके रीति-रिवाजों और आदतों की नकल भी करने की नहीं सोचते। वास्तव में, अगर आज की जीन्स पहनने वाली पीढ़ी को मोतीलाल-जवाहरलाल कुटुंब के बारे में और उनके कामों के बारे में पता चले तो वे भौचक्के रह जाएँगे।