लघु उपन्यास यशस्विनी: अध्याय 11: अपने भीतर की यात्रा
रोहित का का मन दुखी हुआ कि उसकी लापरवाहीके कारण यशस्विनी कितनी देर परेशान रही। उसने यशस्विनी को तत्काल संदेश भेजा ….क्षमाचाहता हूं यशस्विनी जी….आपको संदेश नहीं भेज पाया…. बात यह है कि आज एक रक्तदान कार्यक्रममें चले जाने के कारण मैंने अचानक बहुत कमजोरी महसूस की इसलिए... घर पर ही रुका हुआहूँ….
यशस्विनीने तुरंत फोन लगाकर अपनी नाराजगी व्यक्त की और कहा …. मुझे बुला लेते रोहित जी ...लेकिनअगले ही पल सुधारकर कहा -तो मुझे बता देते रोहित जी तो मैं किसी को आपके पास भेज देती…….और आपने खाना भी तो नहीं बनाया होगा….
इससेपहले कि रोहित कुछ कह पाता,यशस्विनी ने आदेशात्मक स्वर में कहा- मैं टिफिन भेज रहीहूं आपके लिए…………
योगसत्रका समापन दिवस आते-आते यशस्विनी ने सभी साधकों को ध्यान चक्रों के विषय में भी विस्तारसे जानकारी दी थी। नए साधनों के लिए पहले पहल तो योग केवल एक कौतूहल था लेकिन जब यशस्विनीने योग में अंतर्निहित दार्शनिक, आध्यात्मिक और स्वास्थ्य संबंधी सिद्धांतों की विशदविवेचना की तो उन्हें लगा कि वाकई भारतीय ज्ञान-विज्ञान की गहराई और उपयोगिता का दूसराकोई जोड़ नहीं है।
शाम के योग अभ्यास की अवधि सीमित होती थी लगभग आधाघंटा और इसके बाद प्रश्न उत्तर और जिज्ञासा समाधान सत्र लंबा चलता था जब यशस्विनी नेसाधकों को मानव शरीर के चक्र की अवधारणा के बारे में बताया तो उन्हें पहले पहल तो विश्वासही नहीं हुआ।
" साधकों आप लोगोंने नदियों का संगम देखा है?"
" हां योगिनी जी"
" तो आपने ठीक- ठीकध्यान दिया होगा कि संगम की जो जगह होती है उसका आकार कैसा होता है।"
"योगिनी जी संभवतःवह जगह उथल-पुथल वाली होती है और गोलाकार परिधिमें घूमती है।"
" हां सही अनुमानलगाया आपने। इसी तरह जब शरीर के कुछ प्रमुख बिंदुओं पर रक्त और अन्य पदार्थ भंवर बनातेहैं तो ये चक्र कहलाते हैं। यूं तो शरीर में 144 चक्र होते हैं लेकिन सात चक्र प्रमुखमाने जाते हैं।वैसे तो इन्हें चक्र कहा जाता है पर वास्तव में ये त्रिकोण आकार मेंपरिभ्रमण करती हैं।"
" योगिनी जी मानवशरीर के वे सात बिंदु या चक्र कौन-कौन से हैं?"
" वे हैं- मूलाधारचक्र, स्वाधिष्ठान चक्र, मणिपुर चक्र, अनाहत चक्र, विशुद्ध चक्र, आज्ञा चक्र और सहस्रारचक्र।"
अनेकसाधकों के लिए यह बिल्कुल नई जानकारी थी। उन्होंने पूछना शुरू किया- इन चक्रों का महत्वक्या है? इस पर यशस्विनी ने विस्तार से समझाया कि शरीर में ये चक्र हैं और संतुलितहैं तो जीवन का प्रवाह अत्यंत अनुकूल है। इन चक्रों में असंतुलन से ही मनुष्य के शारीरिकऔर मानसिक स्वास्थ्य में विसंगति आती है।
" दीदी इन चक्रोंका क्रम क्या है? क्या सहस्रार से शुरुआत होती है?"
" नहीं शुरुआत मूलाधारसे होती है और इसीलिए चक्रों की ऊर्जा का प्रवाह नीचे से ऊपर की ओर होता है और ज्यों-ज्योंहम ऊपर के चक्रों में पहुंचते हैं,त्यों-त्यों हमारी साधना और आत्म उन्नति का मार्गप्रशस्त होता जाता है और सहस्त्रार चक्र में पहुंचते ही जैसे हम आत्मानंद में डूब जातेहैं।"
" दीदी लोग प्रायःआज्ञा चक्र पर ध्यान लगाते हैं जो दोनों भौहों के मध्य में है क्या ऐसा करना उचित है?"
" नहीं मेरी दृष्टिमें शुरुआत मूलाधार चक्र से ही होनी चाहिए और फिर हम इनसे निवृत होते हुए ऊपर की ओरबढ़ें।"
"दीदी जरा इसे उदाहरणदेकर समझाइए न"
"हां चलो मैं इसेएक कहानी के रूप में स्पष्ट करती हूं।"
" धनीराम एक सामान्यव्यक्ति हैं। उन्होंने योग साधना का निश्चय किया। वे अपने जीवन के प्रारंभिक भोग, आलस्यऔर आराम की प्रधानता से तंग आ गए हैं क्योंकि उनकी ऊर्जा मूलाधार चक्र के आसपास हीकेंद्रित है और अटकी हुई है। सामान्यता धनीराम जैसे लोग इसी चक्र के आसपास अपना पूराजीवन व्यतीत कर देते हैं। इस चक्र के सकारात्मक प्रभाव को जगाने के लिए आचरण और नियमोंकी शुद्धता का पालन करते हुए गुरु के निर्देश पर धनीराम ने ध्यान साधना शुरू की। धीरे-धीरेउनके भीतर वीरता और आनंद की भावनाएं जाग्रत होने लगीं। धनीराम ने अपनी रीढ़ की हड्डीके सबसे निचले हिस्से के आसपास मूलाधार चक्र की सक्रियता को महसूस किया। दूसरे चक्रस्वाधिष्ठान चक्र के प्रभाव में आने तक मनुष्य केवल आमोद - प्रमोद मनोरंजन आदि तक हीसीमित रहता है। यह चक्र जाग्रत हो जाए तो हमारे मन में बात - बात पर किसी के प्रतिउठने वाली अवज्ञा, अविश्वास, आलस्य आदि दुर्गुणों का नाश हो जाएगा । कई दिनों की साधनाके बाद धनीराम ने भी अपने जीवन में लिंगमूल से चार अंगुल ऊपर स्थित छह पंखुड़ियों वालेइस चक्र को महसूस किया। मणिपुर चक्र नाभि के मूल में स्थित होती है।दस कमल पंखुड़ियोंवाले इसे चक्र के कारण लोगों में काम करने की होती है।इससे लोग आकांक्षी होते हैं,लेकिन मोह आदि के शिकार हो जाते हैं। धनीराम ने कई दिनों की साधना के बाद इस चक्र कोजाग्रत किया और आत्म शक्ति तथा आत्म बल को प्राप्त किया। कई दिनों की साधना के बादधनीराम जब अनाहत चक्र में पहुंचे तो उन्होंने अपने भीतर सृजनशीलता को अनुभव किया।उन्होंनेकविताएं लिखने और कुछ नया सृजन करने के बारे में प्रयास शुरू किया।उनका यह चक्र जाग्रतहुआ तो उनके भीतर से चिंता, अविश्वास, अविवेक जैसी अनेक भावनाएँ समाप्त होती गईं औरउनके भीतर आत्मविश्वास, चारित्रिक दृढ़ता और भावनात्मक संतुलन का गुण बढ़ता गया।"
" दीदी अनाहत चक्रकी स्थिति शरीर में कहां पर होती है?"
" साधकों हृदय केबीचों - बीच इसका स्थान है। इसकी स्थिति रीढ़की हड्डी पर होती है।"
यशस्विनी के विवरण और रोहितद्वारा प्रस्तुत किए जा रहे स्लाइडों के माध्यम से साधकों ने जैसे एक व्यक्ति के योगसाधना और आत्मबल में ऊपर उठने की प्रक्रिया को अपने सामने जीवंत होते हुए देखा और महसूसकिया।
यशस्विनी ने धनीराम की कहानी बताते हुए विशुद्धचक्र में उनके पहुंचने पर होने वाले परिवर्तनों को बताया कि किस तरह यहां तक पहुंचते-पहुंचतेधनीराम को स्वयं में आध्यात्मिक शक्तियों के जागरण की अनुभूति हुई।मानो वे ईश्वर सेसाक्षात्कार के लिए उद्यत हों।
" जब धनीराम गुरुके सतत मार्गदर्शन में ध्यान की अनेक महीनों की साधना के बाद आज्ञा चक्र में पहुंचेतो जैसे यहां आकर इड़ा और पिंगला नाड़ियों के मिलन से सुषुम्ना सेतु का मार्ग खुलाऔर कुंडलिनी जागरण की आहट सुनाई दी। यहां आकर वे बौद्धिक रूप से भी अत्यंत संवेदनशीलऔर विचारवान हो उठे।उनका स्वयं पर नियंत्रण स्थापित हुआ।"
" साधकों सहस्रारचक्र पर पहुंचने के लिए उन्हें लंबी साधना करनी पड़ी। आचार - विचार और आहार - व्यवहारआदि की शुद्धता के साथ-साथ जब ओम मंत्र का जाप करते हुए वे सहस्त्रार चक्र तक पहुंचेतो उन्होंने मस्तिष्क के सबसे ऊपरी हिस्से पर स्थित चक्र के जागरण अवस्था को महसूसकिया और हजार पंखुड़ियों वाले इस कमल के प्रभाव को महसूस किया।मानो वे संसार व सांसारिकबंधनों, बाधाओं से भी ऊपर आनंदमय जगत में स्थिर हो गए हों।"
(कृपया योग साधना के विभिन्नचक्रों का योग्य गुरु के मार्गदर्शन में ही अभ्यास करें।)
(क्रमशः)
डॉ. योगेंद्र कुमार पांडेय