मिटना - चेतना का प्रथम आलोक' in Hindi Philosophy by Agyat Agyani books and stories PDF | मिटना - चेतना का प्रथम आलोक'

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मिटना - चेतना का प्रथम आलोक'

जीवन की गति केवल बनना नहीं है — बनना और मिटना, दोनों साथ-साथ प्रकृति का शाश्वत संचार है। जो जन्म लेता है, वह निश्चय ही एक दिन लय होता है। परंतु मिटना केवल समाप्ति नहीं, भीतर उठती हुई नवचेतना का जन्म है। यही बोध आत्मा के विकास की पहली सीढ़ी है।

यह लेख उसी “मिटने” की प्रक्रिया को समझने, स्वीकारने और साधक के रूप में जीने का आह्वान है — जहाँ 'मैंपन' का विसर्जन ही परम आनंद का जनक बन जाता है।
 
 
अध्याय १: मिटना — चेतना का प्रथम आलोक 
 
✨ "जो बना है, वह मिटेगा;
 
पर जो सच में मिट गया, वही सचमुच जागेगा।"
 
मनुष्य का मन जन्म से ही निर्माण की चाह में संलग्न रहता है।
वह चाहता है:
 
कुछ बने,
 
कुछ टिके,
 
कुछ स्थायी हो जाए।
 
और यहीं से एक भ्रम जन्म लेता है —
कि स्थिरता पाई जा सकती है,
कि जो कुछ हमने गढ़ा है, वह यथावत रहेगा।
 
परंतु प्रकृति की धारा इसमें सहमत नहीं।
वह प्रतिक्षण बदलती है — उसे जन्म भीतर ही क्षय का बीज भरा होता है।
शिशु बना, बढ़ा, वृद्ध हुआ — और मिट गया।
पर्वत बनते हैं, टूटते हैं।
ग्रह-नक्षत्रों की चमक भी काल के गले से नहीं बचती।
 
यह बनना और मिटना एक ही चक्र के दो क्षण हैं —
जैसे दिन और रात, जैसे श्वास और निश्वास।
 
🌿 लेकिन मनुष्य इस चक्र को थामना चाहता है
विज्ञान उसकी सहायता करता है —
उम्र बढ़ाओ, रोग रोको, श्रृंगार करो, पतन से बचो।
और अध्यात्म कुछ और कहता है —
“तुम्हारा विरोध ही पीड़ा है।
जो जाना ही है, उसे प्रेमपूर्वक जाना दो।”
 
यही ‘मिटने’ की पहली दहलीज़ है।
 
🧘♂️ क्या मिटता है?
शरीर? हाँ, वह तो बदलते ही रहता है।
 
विचार? हाँ, हर अनुभव पुराने विचारों को हटा देता है।
 
भावनाएँ? नित्य मरणशील।
 
अहंकार? वह भी अस्थिर, पर सबसे कठिन रूप से जमी हुई परत।
 
असली 'मिटना' तब घटता है जब हमारा मैं —
जो स्वयं को जानता है, कहता है, दर्शाता है —
वह एक दिन विस्मित होकर यह समझने लगता है कि "मैं" तो काल्पनिक था।
यह बोध रोमांचक नहीं, बल्की भंग कर देने वाला होता है।
 
🌌 यह भंग — चेतना का प्रथम आलोक है
जब ‘मैं’ की दीवारें अंदर से टूटती हैं,
तब भीतर कोई नवचेतना जन्म लेती है।
 
यह चेतना पुरानी नहीं है —
यह सोचती नहीं, तुलना नहीं करती, निर्णय नहीं सुनाती।
यह केवल 'देखती है',
मौन होकर, निर्लिप्त।
 
“जो देखने में रह गया,
वह ब्रह्म को स्पर्श कर गया।”
 
📿 मिटना कोई आपदा नहीं — यह योग की विधि है
सच्चा योग, शरीर को मोड़ना नहीं है —
बल्कि अहंकार को मोड़ना है।
विचार की सामर्थ्य को निवृत्त कर देना है।
 
योगी वह नहीं जो बैठा है –
योगी वह है जो अपने भीतर हर उस परत को त्याग चुका है
जो उसे 'अलग' बनाती थी।
 
"वह मिटता गया, मिटता गया –
अंत में केवल मौन रह गया। और वही उसका शुद्धतम स्वरूप था।"
 
🔥 “मिटना" केवल छोड़ना नहीं – यह प्रकाश में प्रवेश है
मिटना शक्ति है,
क्योंकि वही आत्मा का विकेंद्रीकरण करता है।
जहाँ मैं नहीं, वहाँ सर्व है।
जहाँ कुछ थामने की इच्छा नहीं,
वहीं से समताभाव का जन्म होता है।
 
यही 'मिटना' — ध्यान का आदिसूत्र है,
जहाँ व्यक्ति विश्राम नहीं —
अस्तित्व में समर्पण जानता है।
 
📯 सार
 
"बनना प्रारंभ हो सकता है बोध से —
परन्तु मिटना समापन होता है स्वयं में परम से।”
 
आपकी समझ ही आपकी तकदीर हैं                                                 
 
लेखक: अज्ञात अग्यानी