लेखक: Aadi Jain
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अर्णव एक 14 साल का लड़का था, जो हिमालय की गोद में बसे एक छोटे से गांव ‘त्रिलोचनपुर’ में रहता था। वह बाकी बच्चों से अलग था — ज्यादा बोलता नहीं था, अकेले रहना पसंद करता था, और अक्सर पहाड़ों की तरफ देखने लगता, जैसे कुछ खोज रहा हो।
उसके पिता लकड़हारे थे और माँ बीमार। घर में पैसों की तंगी थी, लेकिन अर्णव कभी शिकायत नहीं करता। उसका मन बस एक ही चीज़ में लगता था — शिव। वो हर सुबह गांव के पुराने शिव मंदिर में जाकर घंटों बैठा रहता।
लोग उसे पागल समझते —
“एक भगवान तुम्हारे दुख क्या कम करेंगे?”
लेकिन अर्णव को भरोसा था। उसने कभी कोई चमत्कार नहीं देखा था, फिर भी उसकी आँखों में शिव के लिए एक सच्चा प्रेम और विश्वास था।
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एक दिन गाँव में ज़ोरदार तूफान आया। बिजली कड़की, पहाड़ों से पत्थर लुड़कने लगे। अर्णव अपने माता-पिता को बचाने के लिए दौड़ा, लेकिन पहाड़ से गिरते एक बड़े पत्थर ने उसे घायल कर दिया। आँखें बंद होने से पहले उसने सिर्फ एक ही नाम पुकारा —
> "भोलेनाथ…"
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जब उसने आँखें खोलीं, वह एक अजीब सी जगह पर था। कोई आवाज़ नहीं, कोई इंसान नहीं… बस शांति और हिम से ढकी एक गुफा। वहाँ सामने एक आकृति बैठी थी — ध्यानमग्न, शांत, और इतनी तेजस्वी कि आँखें झपक न सकें।
उनकी जटाएँ गंगा के जल से भीगी थीं। गले में सर्प, शरीर पर भस्म, और नेत्र… अनंत गहराई वाले।
अर्णव ने कांपते हुए पूछा, “आप…?”
उन्होंने आँखें खोलीं और एक हल्की मुस्कान दी।
> "मैं वही हूँ, जिसे तुम हर सुबह पुकारते थे।"
"शिव… नीलकंठ… महादेव।"
अर्णव की आँखों से आँसू निकल पड़े। “मैं आपको देखने लायक नहीं हूँ, महादेव… मैं बस एक साधारण बच्चा हूँ।”
भोलेनाथ उठे और बोले —
> “जो सच्चे मन से पुकारता है, वह मुझे पा ही लेता है। तू साधारण नहीं अर्णव… तू श्रद्धा है। और श्रद्धा ही शिव है।”
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भगवान शिव ने अर्णव को अपना हाथ थमाया और कहा,
> “चलो, तुम्हें तुम्हारा उत्तर दूं।”
अर्णव ने देखा कि वहाँ एक जल की झील थी, जिसमें उसका पूरा जीवन प्रतिबिंबित हो रहा था — गरीबी, माँ की बीमारी, तिरस्कार, अकेलापन…
लेकिन साथ ही वो भी दिखा — हर बार जब अर्णव टूटा, कोई अदृश्य शक्ति उसे फिर से उठा देती थी। माँ को समय पर दवा मिल जाती, पिता सही-सलामत लौट आते, और खुद अर्णव हर बार जीवन में टिके रहने की ताक़त पाता।
> “हर बार तू गिरा, मैं वहीं था। पर मैंने कभी सामने से नहीं थामा, क्योंकि सच्चा विश्वास अंधेरे में भी रौशनी देख लेता है।”
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अर्णव गला रुंधा हुआ सा बोला, “मुझे अब क्या करना चाहिए?”
शिव ने मुस्कराकर कहा,
> “अब तू लौट जा… लेकिन इस बार सिर्फ पूजा मत करना। दुनिया के दुःखों को दूर करने का प्रयास करना। यही शिव की सच्ची भक्ति है।”
“मैं तेरे साथ हूँ… तेरे भीतर हूँ।”
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अगले पल, अर्णव की आँख खुली — वो उसी तूफानी पहाड़ी पर था, लेकिन अब ज़ख्म भर चुका था। नीचे गाँव में सब लोग ठीक थे। माँ भी होश में थी।
उस दिन से अर्णव बदल गया।
अब वो हर रोज़ मंदिर जाकर सिर्फ घंटा नहीं बजाता था — वह गांव के बच्चों को पढ़ाता, बूढ़ों की मदद करता, और जरूरतमंदों को खाना देता। उसके भीतर अब डर नहीं था, क्योंकि उसे पता था — वो अकेला नहीं है।
उसके गले में एक छोटा सा त्रिशूल लटकता था — वह निशानी, जो उस दिव्य रात को भगवान शिव ने खुद उसे दी थी।
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> "शिव कहीं बाहर नहीं रहते… वे वहाँ होते हैं जहाँ दिल सच्चा होता है।
और अर्णव का दिल, अब शिव का मंदिर बन चुका था।"