पाश्चात्य रंग में रँगे और आंग्ल-रागी नेहरू ने भारतीय विरासत एवं ऐतिहासिक अतीत को पश्चिमी चश्मे से देखा व समझा तथा उनके लेखन में भी वही पूर्वाग्रह और गलत निरुपण परिलक्षित होते हैं। यहाँ पर ‘द डिस्कवरी अॉफ इंडिया’ में नेहरू द्वारा की गई एक सरल, लगभग नासमझी भरी, टिप्पणी प्रस्तुत है, जो अभिमानी धृष्टता और दूसरों को नीचा दिखाने वाले पश्चिमी दृष्टिकोण से भरी हुई है—
“इसके बावजूद मैंने उसे (भारत को) एक बाहरी आलोचक की नजर से देखना शुरू किया। एक ऐसा आलोचक, जो वर्तमान के साथ-साथ अतीत के बहुत से अवशेषों, जिन्हें उसने देखा था, को नापसंद करता था। मैं एक हद तक उस तक पश्चिमी रास्तों से गुजरते हुए पहुँचा था। मैंने उसे बिल्कुल उसी भाव से देखा, जिससे किसी पश्चिमी मित्र ने देखा होता। मैं उसके दृष्टिकोण और रंग-रूप को बदलकर उसे आधुनिकता का जामा पहनाने को उत्सुक भी था और चिंतित भी।” (जे.एन./50)
नेहरू की पुस्तकों में न तो कोई शोध है और न ही वे किसी नए आधार को प्रस्तुत करती हैं, फिर भी वे पठनीय हैं। उनके कामों को विद्वत्ता की श्रेणी में भी नहीं आँका जा सकता। उन्होंने ‘ग्लिंप्सेस अॉफ वर्ल्ड हिस्टरी’ और ‘डिस्कवरी अॉफ इंडिया’ में जो कुछ लिखा, वह और कुछ नहीं है, बल्कि पूर्व में प्रकाशित हो चुकी सामग्री का ही पुनः प्रकाशन है, जिसमें से अधिकांश पश्चिमी विद्वानों द्वारा अपने पश्चिमी पूर्वाग्रहों से ग्रसित होकर लिखा गया है। उसमें सीखने के लिए कुछ भी नया नहीं है, यहाँ तक कि निष्कर्षों या विचारों के स्तर पर भी। कई जगहों पर तो इसमें दिए गए तथ्य और निष्कर्ष भी गलत हैं। उनकी पुस्तक में विषयों का वर्णन ही बेहद सतही है। उन्होंने अपनी पुस्तक में जिन विषयों को उठाया है, उनसे संबंधित कोई भी महत्त्वपूर्ण समीक्षा नहीं मिलेगी—चाहे वह इतिहास पर हो या राजनीति पर या फिर अर्थशास्त्र पर। उनके कई अंदाज पूरी तरह से बासी हैं और मार्क्सवादियों की नकल हैं। नेहरू द्वारा भारतीय इतिहास के साथ की गई छेड़छाड़ की ललक के लिए हम कुछ उदाहरणों को लेते हैं।
कोनराड एल्स्ट ने लिखा— “निश्चित रूप से, निषेधमात्रवाद के सबसे प्रसिद्ध प्रस्तावक जवाहरलाल नेहरू थे। वे भारतीय संस्कृति और इतिहास को लेकर पूरी तरह से अनभिज्ञ थे, इसलिए उनके प्रशंसक उन्हें संदेह का लाभ दे सकते हैं। उनके लेखन हर स्तर पर मुसलमान अत्याचारियों की प्रशंसा करने और उनके अपराधों को छिपाने या उन्हें नकारने के कुछ भोंडे प्रयास शामिल हैं। नेहरू के साथ निषेधमात्रवाद भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की आधिकारिक लाइन बन गई और स्वतंत्रता के बाद भारतीय राज्यों तथा कांग्रेस की भी।” (के.ई./38,39)
वी.एस. नायपॉल 13 जनवरी, 2003 के ‘इकोनॉमिक टाइम्स’ में लिखते हैं— “आप इतिहास को कैसे अनदेखा करते हैं? लेकिन राष्ट्रवादी आंदोलन, स्वतंत्रता आंदोलन ने इसे नजरअंदाज कर दिया। आप जवाहरलाल नेहरू की ‘ग्लिंप्सेस अॉफ वर्ल्ड हिस्टरी’ पढ़ें। यह पहले तो पौराणिक अतीत के बारे में बात करती है और फिर अचानक ही आक्रमणों एवं विजय-अभियानों पर कूद जाती है। इसके चलते आपके पास बिहार, नालंदा और उनके जैसे स्थानों पर आनेवाले चीनी तीर्थयात्री हैं। फिर पता नहीं क्या होता है कि वे आपको यह नहीं बताते कि आगे क्या हुआ? वे सभी स्थान जीर्ण-शीर्ण क्यों हैं? वे आपको कभी नहीं बताते कि एलिफेंटा द्वीप खँडहर में क्यों है या फिर भुवनेश्वर को क्यों उजाड़ा गया?”
ब्रिगेडियर बी.एन. शर्मा ने लिखा— “नेहरू की मूल छेड़छाड़ ‘डिस्कवरी अॉफ इंडिया’ से उजागर होती है, जिसमें उन्होंने भारतीय संस्कृति से उसकी हिंदुत्व की अस्मिता को अलग कर दिया और इसे एक प्रकार से विभिन्न धार्मिक मतों से परिपूर्ण एक समग्र संस्कृति बना दिया, जिनमें मुख्य रूप से इसलाम व ईसाइयत शामिल थे और हमारे आधुनिक इतिहासकारों पर इसका काफी प्रभाव (नकारात्मक) पड़ा। वामपंथी और समाजवादी इतिहासकारों के झुंड (दरबार/संस्थानों से जुड़े इतिहासकारों) ने नेहरू के इन अधपके विचारों को हाथोहाथ लिया और बिना समय गँवाए नया इतिहास लिख दिया।” (बी.एन.एस./59) नेहरू की भारतीय इतिहास की समझ पश्चिमी लेखकों के प्रभाव और कैंब्रिज वाली सोच से देखने के पूर्वानुराग से ग्रसित था।(बी.एस.एस./65)
‘डिस्कवरी अॉफ इंडिया’ के होते हुए भी ऐसा प्रतीत होता है कि नेहरू कई महत्त्वपूर्ण पहलुओं पर न तो भारत के असली इतिहास को ही खोज पाए और न ही समकालीन भारत को समझ पाए, जैसाकि उनके द्वारा 17 जनवरी, 1936 को लॉर्ड लोथियन को लिखे उनके पत्र के दोषपूर्ण प्रस्तुतीकरण से स्पष्ट होगा— “भारत अपने पूरे इतिहास में कभी भी उस धार्मिक संघर्ष का साक्षी नहीं बना है, जिसने यूरोप को खून से लथपथ कर रखा है। इसलाम के आने पर जरूर कुछ संघर्ष हुआ था, लेकिन वह धार्मिक न होकर राजनीतिक था। मैं भारत में कभी भी बड़े पैमाने पर धार्मिक संघर्ष के बारे में सोच भी नहीं सकता। आज की सांप्रदायिकता पूरी तरह से राजनीतिक, आर्थिक और मध्यम वर्गीय है। किसी को भी यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत में सांप्रदायिकता हाल-फिलहाल का एक तथ्य है, जो हमारे सामने ही अस्तित्व में आया है। सामाजिक मुद्दों के सामने आने के साथ ही यह खुद ही पृष्ठभूमि में चला जाएगा।” (जे.एन.3/147-48)
जाने-माने इतिहासकार डॉ. आर.सी. मजूमदार ने लिखा— “क्या नेहरू हिंदुओं के उस बहते हुए खून को पूरी तरह से भूल गए, जिसे गजनी के महमूद ने एक हाथ में करान और दूसरे में ु तलवार लेकर भारत पर आक्रमण के दौरान बहाया था? क्या वे भारत पर तैमूर के उस हमले को भूल गए, जो उसने ‘काफिरों के साथ युद्ध’ के लिए किया था? कोई भी यह जानना चाहेगा कि फिरोज तुगलक, सिकंदर लोदी और औरंगजेब (इनके अलावा और भी कई थे) का मूर्ति तोड़नेवाला आवेश धार्मिक न होकर राजनीतिक था? न ही नेहरू को अलीगढ़ मूवमेंट और उसके संस्थापक का कोई ज्ञान है। वे (नेहरू) सच्चाई का सामना करने में असमर्थ या अनिच्क थे।” छु (मैक/139)
यहाँ पर नेहरू द्वारा अपनी ‘ग्लिंप्सेस अॉफ वर्ल्ड हिस्टरी’ में इसलामी विध्वंस को युक्तिसंगत करना देखिए—“यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है कि उत्तर के कई खूबसूरत स्मारकों को नेस्तनाबूद कर दिया गया; लेकिन यह सच्चाई कि इन मंदिरों का अकसर किलों के रूप में प्रयोग किया जाता था, इस बात का कारण हो सकती है, जिसके चलते मुसलमान आक्रांताओं ने इन्हें ध्वस्त किया।” (जे.एन.5/239) नेहरू धार्मिक कट्टरता से प्रेरित तोड़-फोड़ को नजरअंदाज करते और छिपा लेते हैं, जिसका विस्तृत वर्णन खुद समकालीन मुसलमान इतिवृत्त करते हैं।
नेहरू द्वारा भारतीय इतिहास के साथ छेड़छाड़ के एक और उदाहरण का नमूना देखते हैं, जो था सोमनाथ के मंदिर का विध्वंस। गजनी के महमूद ने करीब 30 वर्षों की अवधि के दौरान भारत पर कुल सत्रह हमले किए। सोलहवें हमले में वह सोमनाथ के मंदिर को ध्वस्त करने में सफल रहा और वहाँ से कई ऊँटों पर लादकर सोने तथा आभूषणों को लूटकर ले गया। ऐसा कहा जाता है कि महमूद ने खुद अपने हाथों से मंदिर की शानदार मूर्ति को टुकड़े-टुकड़े किया और लादकर गजनी ले गया, जहाँ उन टुकड़ाें को शहर की नव-निर्मित जामिया मसजिद (जुमे की मसजिद) की सीढ़ियों में मिला दिया। मंदिर को बचाने का प्रयास करनेवाले हजारों लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया, जिनमें एक घोघा राणा भी शामिल थे, जिन्होंने 90 वर्ष की उम्र में महमूद को चुनौती दी थी। अहमद अल-बरूनी, गजनी के सुल्तान महमूद (ईस्वी 997-1300) के बुलावे पर उसकी सेवा में आया और भारत की यात्रा की तथा भारत में 40 वर्ष बिताए।
अल-बरूनी की अपनी पुस्तक ‘तारीख-उल-हिंद’ में दर्ज है—
“उसके द्वारा ढाया गया लिंग वास्तव में सोमनाथ का पत्थर था, जहाँ ‘सोम’ का मतलब होता है—चंद्रमा और ‘नाथ’ का मतलब है—पालनहार; और पूरे शब्द का मतलब होता है—चाँद का पालनहार। सुल्तान महमूद ने उस छवि को नष्ट कर दिया। खुदा उन पर मेहरबान रहे! (ए.एच.416) उन्होंने आदेश दिया कि ऊपरी भाग को तोड़ दिया जाए और नीचे के भाग को उनके घर गजनी ले जाया जाए तथा उसके साथ सोने व हीरे-माेतियों आदि से बने और कढ़ाई वाले उसके सभी आवरण और शृंगार भी। उसके एक भाग को तो शहर के घुड़दौड़ के मैदान में फेंक दिया गया, जहाँ थानेसर से लाई गई काँसे की प्रतिमा चक्रस्वामिन पहले से ही पड़ी हुई थी। सोमनाथ से लाई गई प्रतिमा का एक हिस्सा गजनी की मसजिद के दरवाजे के आगे पड़ा है, जिस पर लोग गंदगी और पानी से अपने पैरों को साफ करने के लिए रगड़ते हैं।”
—सीता राम गोयल (एस.आर.जी.4बी/101-02)
तरहवीं शताब्दी के अरब भूगोलवेत्ता जकारिया अल-काजविनी ने लिखा—
“सोमनाथ : भारत के पवित्र शहरों में से एक, समुद्र के किनारे पर स्थित है और लहरें इसके कदम चूमती हैं। इस स्थान के अजूबों में से एक था मंदिर, जहाँ सोमनाथ नाम की मूर्ति रखी हुई थी। यह मूर्ति बिल्कुल मंदिर के केंद्र में स्थापित थी न तो इसके नीचे टिकाने के लिए कुछ था और न ही इसे ऊपर से सहारा मिला हुआ था (हो सकता है कि गुरुत्वाकर्षण के चलते ऐसा हो)। यह मंदिर हिंदुओं की आस्था का एक प्रमुख केंद्र था और जो कोई भी उस मूर्ति को हवा में ऐसे लटकते हुए देखता था, वह पूरी तरह से विस्मित ही रह जाता था, फिर चाहे वह मुसलमान हो या फिर कोई नास्तिक। हिंदू चंद्रग्रहण के अवसर पर वहाँ तीर्थयात्रा करने जाते थे और लाखों से भी अधिक की संख्या में एकत्र होते थे। समीन उद्-दौला महमूद बिन सुबुक्तगीन (गजनी का महमूद, जो सुबुक्तगीन का बेटा था) ने भारत के साथ एक धार्मिक युद्ध छेड़ दिया और उसने इस उम्मीद में सोमनाथ पर कब्जा करने और उसे तहस-नहस करने के कई प्रयास किए कि ऐसा होने पर हिंदू मुसलमान बन जाएँगे। इसके परिणामस्वरूप हजारों हिंदुओं को मुसलमान बना दिया गया। वह यहाँ पर 416 ए.एच. (दिसंबर 1025, ईस्वी) में पहुँचा। बादशाह ने आश्चर्य के साथ मूर्ति की ओर देखा और विजयोपहार को कब्जे में लेने तथा खजाने को जब्त कर लेने के आदेश दिए। वहाँ पर सोने व चाँदी की बनी कई मूर्तियाँ और गहनों से भरे हुए मटके थे।” (यू.आर.एल.55)
इसके बावजूद, नेहरू अपनी पुस्तक ‘डिस्कवरी अॉफ इंडिया’ के ‘अध्याय-6, नई समस्याएँ’ (जे.एन./250-4) में गजनी के महमूद और अफगानों के बारे में लिखते हैं, वह भी सिर्फ एक वाक्य में, जो कहता है— “काठियावाड़ से वापसी के रास्ते में उसे मिला।” (जे.एन./251) सिर्फ इतना ही। सोमनाथ और उसके विध्वंस के बारे में और कुछ भी नहीं है!
लेकिन नेहरू जिस बात को ‘डिस्कवरी अॉफ इंडिया’ में पूरी तरह से गोल कर गए, वे उसके बारे में थोड़ा-बहुत उससे 10 साल पहले सन् 1935 में लिखी अपनी पुस्तक ‘ग्लिंप्सेस अॉफ वर्ल्ड हिस्टरी’ में जिक्र कर चुके थे। ‘अध्याय-51, उत्तरी हिंदुस्तान में : हर्ष से महमूद तक’ में नेहरू लिखते हैं— “लेकिन वह सोमनाथ ही था, जहाँ उसे (गजनी के महमूद को) सबसे अधिक खजाना मिला।”
नेहरू आगे लिखते हैं— “वह (गजनी का महमूद) इसलाम धर्म का एक बड़ा नेता माना जाता है, जो भारत में इसलाम धर्म के प्रचार के लिए आया। बहुत से मुसलमान उसकी इज्जत और बहुत से हिंदू उससे घृणा करते हैं; लेकिन असल में वह मजहबी आदमी नहीं था। वह एक मुसलमान जरूर था, लेकिन यह एक गौण बात थी। उसकी बात यह थी कि वह एक प्रतिभाशाली सैनिक था। वह हिंदुस्तान को जीतने और लूटने आया था, जैसाकि बदकिस्मती से अकसर सैनिक लोग किया करते हैं। महमूद चाहे जिस धर्म का होता, यही करता। इसलिए हमें महमूद को एक सैनिक के अलावा कोई दूसरी चीज समझने की गलती में नहीं फँसना चाहिए।” (जे.एन.5/281/एल-3529)
इतिहास के साथ इससे बुरी छेड़छाड़ नहीं हो सकती। नेहरू अपने पाठक को यह भरोसा दिलवाना चाह रहे हैं कि महमूद ने जो तबाही मचाई, वह इसलिए नहीं मचाई कि वह एक मुसलमान था—और यह भी कि दूसरे किसी धर्म के व्यक्ति ने भी शायद वही किया होता, जो महमूद ने किया। क्या बकवास है! इसके अलावा, नेहरू महमूद के भयानक विनाश को लेकर कुछ भी नहीं बताते हैं।
प्रसिद्ध भारतीय उपन्यासकार शरत चंद्र चटर्जी (चट्टोपाध्याय) का कहना था— “वे (मुसलमान) सिर्फ लूटपाट से ही संतुष्ट नहीं थे, उन्होंने मंदिरों को ध्वस्त कर दिया। उन्होंने मूर्तियों को तोड़ दिया, उन्होंने महिलाओं का बलात्कार किया। अन्य धर्मों का अपमान और मानवता पर चोट की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। यहाँ तक कि बादशाह बन जाने के बाद भी वे खुद को इन वीभत्स इच्छाओं से मुक्त नहीं कर पाए।” (अकब.2/226)
असली इतिहास वह है, जो उस समय के इतिहासकारों (महमूद के समकालीन) ने खुद लिखा था। समकालीन इतिहास के अनुसार, जब गजनी का महमूद सोमनाथ मंदिर से सोने की बनी भगवान् शिव की प्रतिमा को लेकर जा रहा था, तब कई अमीर व्यापारी साथ आए और उन्होंने उसे मूर्ति को वापस लौटा देने की एवज में उसकी कीमत से कई गुना अधिक धन देने की पेशकश की। महमूद का जवाब था, “मैं मूर्ति तोड़नेवाला हूँ, मूर्ति बेचनेवाला नहीं!”
रोमिला थापर ने लिखा— “शेख फरीद अल-दीन एक कहानी का उल्लेख करते हैं, जिसमें ब्राह्मण महमूद से प्रतिमा को सँभालकर रखने की विनती करते हैं और ऐसा करने के बदले उसे अपार धन देने की पेशकश भी करते हैं। लेकिन उसने यह कहते हुए साफ इनकार कर दिया कि वह मूर्ति तोड़नेवाला है, मूर्ति बेचनेवाला नहीं।” (आर.टी./55)
जे.एल. मेहता ने लिखा— “हालाँकि, महमूद ने उस प्रस्ताव (प्रतिमा के बदले धन) को ठुकरा दिया और कहा कि वह मूर्ति तोड़नेवाला (बुत-शिकन) कहलाना पसंद करेगा, न कि मूर्ति बेचनेवाला (बुत-फरोश)।” (जे.एल.एम./59)
नेहरू ने ‘डिस्कवरी अॉफ इंडिया’ में लिखा— “महमूद (गजनी का) एक धार्मिक व्यक्ति होने के मुकाबले एक योद्धा अधिक था।” इसके बाद वे मथुरा के बारे में लिखते हैं— “महमूद अपने शहर गजनी को मध्य व पश्चिमी एशिया के महान् देशों जैसा बनाने के लिए बेकरार था और इसलिए वह भारत से अपने साथ बड़ी संख्या में कारीगरों और मिस्त्रियों को ले गया। उसकी दिलचस्पी इमारतों में थी और वह दिल्ली के निकट स्थित मथुरा शहर से बेहद प्रभावित था। उसने (महमूद ने) इस बारे में लिखा— ‘यहाँ पर हजारों ऐसी इमारतें मौजूद हैं, जो आस्थावान् की आस्था जितनी ही मजबूत हैं। इस बात में कोई शक नहीं है कि इस शहर को उसकी मौजूदा स्थिति को प्राप्त करने के लिए करोड़ों दीनार का खर्चा होगा और न ही आगामी 200 वर्षों में ऐसा एक शहर तैयार किया जा सकता है।’ ” (जे.एन./252)
सबसे दिलचस्प और कौतूहलपूर्ण यह है कि नेहरू द्वारा कहीं पर भी इस बात का उल्लेख नहीं किया गया है कि कैसे उस महमूद, जो खुद को ‘इमारतों का प्रेमी’ कहता है, ने मथुरा और सोमनाथ को निर्दयता से तबाह कर दिया था।
गजनी के महमूद के सहयोगी और सचिव अल-उतबी ने ‘तारीख-ए-यमिनी’, में लिखा—
“सुल्तान ने आदेश दिए कि सभी मंदिरों को मिट्टी का तेल डालकर जला दिया जाए और उन्हें जमींदोज कर दिया जाए।” उतबी ने लिखा कि सुल्तान पहले सिजिस्तान जाना चाहता था, लेकिन बाद में उसका मन बदल गया। और वे विस्तार से बताते हैं कि कैसे सुल्तान ने ‘हिंद को मूर्ति-पूजा से मुक्त किया और मसजिदों का निर्माण किया।’ उन्होंने यह भी कहा, “मुसलमानों ने जब तक काफिरों तथा सूरज और अग्नि को पूजनेवालों को काट नहीं दिया, तब तक उन्होंने धन की ओर ध्यान तक नहीं दिया।” ‘तबाकत-ए निसारी’ में मिन्हाज-उस-सिराज ‘मूर्तियोंवाले कम-से-कम 1,000 मंदिरों को मसजिदों में बदलने के लिए’ महमूद का गुणगान करते हैं और उसे ‘इसलाम की सबसे महान् शख्सियतों में से एक’ बताते हैं। कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि पाकिस्तान अपनी मिसाइलों के नाम ‘गजनी’ और ‘गोरी’ रखता है!
नेहरू ने ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ में लिखा— “भारतीयों में से, अल-बरूनी (जो महमूद गजनवी के साथ आया था) कहते हैं कि वे ‘अभिमानी, भाव-शून्य, आत्म-निहित और हठी हैं’ और उनका मानना है कि ‘उनके देश जैसा और कोई देश नहीं है, उनके राजा जैसा और कोई राजा नहीं है तथा उनके विज्ञान जैसा किसी का विज्ञान नहीं है।’ संभवतः उन लोगों की मानसिकता का बिल्कुल सटीक विवरण।” (जे.एन./252) ऐसा नहीं लगता है कि नेहरू के मन में अपने खुद के देश के प्रति स्वाभिमान या गौरव का कोई बोध था; बल्कि इसके बजाय वे भारतीयों को लेकर किसी भी नकारात्मक चीज के साथ सहज और ठीक लगते हैं। लेकिन बड़े पैमाने पर हुए विनाश और उसके विनाशक गजनवी के महमूद का जिक्र आते ही वे थोड़े नकारात्मक हो जाते हैं।
नेहरू (‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ में) आगे महमूद द्वारा किए गए विध्वंस के बारे में अल-बरूनी को लिखते हुए उद्धृत करते हैं, “हिंदू चारों दिशाओं में बिखरी धूल के परमाणुओं और बीते जमाने की कहानियों की तरह हो गए। उनके बिखरे हुए अवशेष निश्चित रूप से तमाम मुसलमानों के प्रति सबसे अधिक घृणा रखते हैं।” (जे.एन./251) इसके बाद नेहरू टिप्पणी करते हैं, “यह काव्यात्मक विवरण हमें अंदाजा देता है।...” (जे.एन./251) तो अल-बरूनी द्वारा भारत और हिंदुओं पर किए गए भयानक अत्याचारों का वर्णन नेहरू को काव्यात्मक लगता है!
संयोग से, अल-बरूनी ने ग्यारहवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में महमूद गजनवी के साथ भारत की यात्रा की थी। पुस्तक ‘अल-बरूनी का भारत’ (ई.एस.) भारत पर अल-बरूनी का लिखित कार्य है, जिसका अनुवाद डॉ. एडवर्ड सी. सचाऊ ने किया है। यहाँ अल-बरूनी, महमूद ने भारत के साथ जो किया और भारत में क्या किया, उसका गवाह था और जिसे ऊपर अपने उद्धरण में नेहरू द्वारा संदर्भित किया गया था, का एक उद्धरण लिया गया है—
“इस राजकमार (सुबुक्तगीन) ने पाक युद्ध को अपने लिए चुना और इसलिए खुद को अल- गाजी (अल्लाह की राह में युद्धरत) कहलाना चुना...और उसके बाद तीस या फिर उससे अधिक वर्षों के दौरान उसके बेटे यामीन-अद्दौला महमूद ने भारत पर चढ़ाई की। खुदा पिता और पत्रु दोनों पर मेहरबान रहे! महमूद (गजनी का) ने देश (भारत) की समृद्धि को नेस्तनाबूद कर दिया और ऐसे शानदार कारनामों को अंजाम दिया, जिनसे हिंदू धूल के कणों की तरह चारों दिशाओं में फलै गए और पुराने समय की कहानी बनकर रह गए।...” (ई.एस./5, 6) सबसे दिलचस्प यह है कि नेहरू ने अल-बरूनी की किस बात को उद्धृत करना चुना, किस बात को नजरअंदाज करने का फैसला किया। यहाँ तक कि भगवान् भी अतीत को बदल नहीं सकते, लेकिन नेहरू जैसे ‘इतिहासकार’ और मार्क्सवादी-नकारात्मक इतिहासकार जरूर ऐसा कर सकते हैं!
नेहरू ने औरंगजेब के बारे में अपनी पुस्तक ‘ग्लिंप्सेस ऑफ वर्ल्ड हिस्टरी’ (जे.एन.5/314-5) में थोड़ा और अपनी पुस्तक ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ (जे.एन./291-5) में विस्तार से लिखा है; लेकिन औरंगजेब द्वारा किए गए हिंदू मंदिरों के व्यापक विनाश पर चुप्पी साधे रखी है। सीता राम गोयल एक समकालीन मुसलिम इतिहासकार (एस.आर.जी.4बी/202-6) के हवाले से लिखते हैं—
राज्य के अभिलेखागार के आधार पर औरंगजेब के अपने इतिहास (1710 सी.ई. में पूर्ण) में लेखक सका मुस्तद खाँ ने दर्ज किया—
“धर्म के सबसे बड़े मानने वाले (औरंगजेब) को यह बात पता चली कि मुल्तान के टट्टा प्रांत में, और विशेषकर बनारस में, ब्राह्मण विधर्मी अपने स्थापित किए हुए विद्यालयों में अपनी झूठी पुस्तकें पढ़ा रहे हैं तथा यह भी कि हिंदू व मुसलमान दोनों ही धर्मों के प्रशंसक और छात्र इन पथभ्रष्ट व्यक्तियों से इस नीच शिक्षा को हासिल करने के लिए दूर-दूर से आते थे। इसलाम को स्थापित करने की जल्दी में बैठे इस महामहिम ने सभी सूबों के अधिकारियों को आदेश जारी किया कि काफिरों के इन विद्यालयों व मंदिरों को तुरंत ध्वस्त कर दिया जाए और इन विधर्मियों के धर्म के शिक्षण और सार्वजनिक पालन को तत्काल बंद किया जाए... कहा जाता है कि बादशाह की आज्ञा का पालन करते हुए उसके अधिकारियों ने काशी स्थित विश्वनाथ के मंदिर को ध्वस्त कर दिया था।
“ ...सुल्तान ने चमत्कारों से भरपूर रमजान के महीने में मथुरा के मंदिर को ध्वस्त करने का आदेश जारी दिया था, जो केशो ऋषि के डेरे के रूप में प्रसिद्ध था। उसके अधिकारियों ने बिना समय गँवाए अधम की इस बुनियाद को ध्वस्त कर दिया और एक बड़ी रकम को खर्च करते हुए उसके स्थान पर एक बड़ी मसजिद का निर्माण किया गया।
“अंबर के मंदिरों को गिराने के लिए भेजे गए अबू तुरीब मंगलवार, 10 अगस्त/24वें रजब को दरबार में लौटे और बताया कि उन्होंने 66 मंदिरों को ध्वस्त कर दिया है।
“बादशाह ने मुहम्मद खलील और खिदमत राय, कातिलों के दरोगाओं को बुलाकर उन्हें आदेश दिया कि वे पंढरपुर के मंदिर को गिरा दें और शिविर के कसाइयों को वहाँ ले जाकर मंदिर में मौजूद गायों की हत्या कर दें। ऐसा किया गया।”