Itihaas se Chhedchhad - 4 in Hindi Anything by Mini Kumari books and stories PDF | इतिहास से छेड़छाड़.. - 4

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इतिहास से छेड़छाड़.. - 4

इतिहास से की गई छेड़छाड़ को दूर करने की दिशा में कुछ न करना 

“और अगर अन्य सभी लोग पार्टी द्वारा थोपे गए झूठ को स्वीकार कर लें (और अगर सभी रिकॉर्डभी वही कहानी दोहराएँ) तो वह झूठ इतिहास का एक हिस्सा हो जाता है और सच बन जाता है। पार्टी का नारा कहता है—‘जो अतीत को नियंत्रित करता है, वही भविष्य को भी नियंत्रित करता है; जो वर्तमान को नियंत्रित करता है, वही अतीत को नियंत्रित करता है।’ उन्होंने जोर दिया कि अतीत को सिर्फ थोड़ा-बहुत बदला ही नहीं गया है, बल्कि उसे वास्तव में नष्ट ही कर दिया गया।” 
—जॉर्ज अ‍ॉरवेल, नाइंटीन एटी फोर 

शिकार बन चुके, हारे हुए या फिर उपनिवेश बन चुके द्वारा इतिहास नहीं लिखा जाता है; इसे शिकारी, विजेता और उपनिवेशवादियों द्वारा लिखा जाता है। यह उनके उद्देश्य की पूर्ति के लिए होता है। 

ब्रिटिश, जो बर्बर उपनिवेशवाद के अपने ज्ञान और अनुभव से समृद्ध थे, अच्छी तरह से जानते थे कि अपने दमनकारी उपनिवेशवाद को कैसे जारी रखा जाए और भारत पर अपने शासन को कैसे लंबा खींचा जाए। भौतिक नियंत्रण, हथियारों के बल पर नियंत्रण की अपनी सीमाएँ हैं; लकिे न मानसिक नियंत्रण लंबे समय तक टिका रह सकता है। अगर आपको देशों का अनुचित लाभ उठाना है और उनके रहनेवालों को लंबे समय तक अपने अधीन रखना है (दशकों और शताब्दियों तक) तो आप ऐसा सिर्फ ताकत के बल पर नहीं कर सकते। आपको उन लोगों के खुद में विश्वास को हिलाना होगा। आपको उन्हें यह महसूस करवाना होगा कि वे आक्रांताओं के सामने कुछ भी नहीं हैं—और यह भी कि वे उनके सामने कुछ भी नहीं थे। ऐसा करने के लिए आपको उनके इतिहास, धर्म एवं संस्कृति को दोबारा लिखना और फिर से व्याख्या करनी होगी, ताकि उन्हें यह दिखाया जा सके कि वे आक्रांता के मुकाबले कितने तुच्छ हैं! ब्रिटिश राजनेताओं, नौकरशाहों, सैन्य अधिकारियों, लेखकों, उपन्यासकारों और इतिहासकारों ने बिल्लकु यही किया। अपने अधीनों में यह बात भर दो कि वे हीन हैं, कि वे कुछ भी नहीं हैं और वे सिर्फ राज किए जाने के लिए ही बने हैं। कैसे? उनकी शिक्षा-प्रणाली एवं उनकी पुस्तकों पर नियंत्रण पाएँ और उनमें बदलाव करें। इतिहास को गढ़ें, दोबारा लिखें और विकृत करें। अंग्रजों ने दो शताब्दियों के अपने शासनकाल के दौरान भारतीय इतिहास और सभ्यता को इस प्रकार से प्रस्तुत किया कि प्रत्येक भारतीय चीज को बुरा बनाकर पेश किया जाए और किसी भी पश्चिमी चीज को सर्वश्रेष्ठ। इस काम को इतनी कशुलता से किया गया था कि विदेशियों या अंग्रजों को अब ऐसा करने की जरूरत ही नहीं है। भारतीय खुद ही खुद का अपमान करनेवाले हो गए हैं और कोई भी चीज, जो अंग्रेजी या पश्चिमी हो, उसकी प्रशंसा करते हैं। 

गांधी-नेहरू के राज में भारत की अर्थव्यवस्था के इतने बुरे होने और भारत के इतने दयनीय होने तथा लोगों के ऐसा सोचने कि भारत और भारतीयों में आंतरिक रूप से कुछ कमी है, के कारणों में से एक यह भी है। नेहरू या फिर इंदिरा गांधी या राजवंश को उनकी विनाशकारी नीतियों के लिए दोषी ठहराने के बजाय लोग ऐसा सोचने लगे कि जो कुछ भी भारतीय है, वह सब बुरा है और जो कुछ भी पाश्चात्य है, सब अच्छा। अगर भारत ने आजादी के बाद अच्छा प्रदर्शन किया होता तो यह धारणा बिल्कुल विपरीत होती। 

आप वही बोलते हैं, जो आप पढ़ते हैं, जो आपको पढ़ाया व बताया जाता है। अंग्रेजी और विदेशी लेखकों द्वारा लिखी गई कई पुस्तकें, जैसेकि मैक्स मूलर, एक जर्मन, जिसके कुछ हिस्से सीमित या कमी वाले शोध के चलते या तो गलत थे या शाही या धार्मिक धर्मांतरण वाले हितों की सेवा करने के लिए जानते-बूझते पक्षपाती और झूठे थे। सही स्थिति को दरशानेवाली पुस्तकों की कमी के चलते ये पुस्तकें व्यापक रूप से पढ़ी जाने लगीं और इनमें से कुछ पाठ्‍यपुस्तकों का हिस्सा भी बन गईं। भारतीयों को यह बताया व सिखाया गया है कि अंग्रेजों और ईसाइयों ने उनके हितों की पूर्ति करने के लिए क्या सोचा और तैयार किया है। दूसरों के साथ भी ऐसा ही किया गया। दूसरे देशों में रहनेवाले लोग भी इन्हीं पुस्तकों को पढ़ते हैं। पीढ़ियों के साथ सभी इन झूठ बातों को सच मानने लगे। कई भारतीय लेखकों ने भी अपनी पुस्तकों के लिए नए शोध करने के बजाय इन विदेशी लेखकों द्वारा लिखी गई पुस्तकों की सामग्री का ही सहारा लिया। इसके चलते भारतीय लेखकों के काम भी उन्हीं कमियों से त्रस्त होने लगे, जिनमें नेहरू भी शामिल हैं। 

एक विशुद्ध विद्वान् डॉ. के.एम. मुंशी द्वारा अपनी पुस्‍तक ‘द हिस्टरी ऐंड कल्चर अ‍ॉफ‌िद इंडियन पीपुल’ की प्रस्तावना में निम्नलिखित अनुभव योग्य बातें लिखी गई हैं— 
“सूचना के हमारे उपलब्ध स‍्रोत ...जब तक कि वे विदेशी हैं, तब तक भारत को परास्त करनेवालों के प्रति उनके पूर्वाग्रह से ग्रस्त रहने की पूरी उम्मीद है। हमारे इतिहास के अधिकांश हिस्सों में ब्रिटिश समय के प्रति बरताव भी उतना ही दोषपूर्ण है। यह आमतौर पर ब्रिटिश जीत की एक अनौपचारिक रिपोर्ट और उससे भारत को मिलनेवाले फायदों की तरह प्रतीत होती है। इसलिए, भारत का इतिहास, जिसके साथ इसी प्रकार के कामों के जरिए निबटा गया है, में ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य की कमी है। यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है कि बीते 200 वर्षों के दौरान हमें न सिर्फ ऐसे इतिहास को पढ़ने के लिए मजबूर किया गया है, बल्कि हमें अपने पूरे जीवन के दृष्टिकोण को उसके आधार पर ढालना भी पड़ा है। पीढ़ी-दर-पीढ़ी, स्कूल या फिर कॉलेज के कॅरियर के दौरान, देश पर हुए एक के बाद एक कब्जों के बारे में पढ़ाया गया, लेकिन कभी यह नहीं बताया गया कि हमने उनका कैसे विरोध किया और जीत हासिल की। उन्हें हिंदू सामाजिक व्यवस्था को नीचा दिखाना सिखाया गया था।” (बी.एन.एस./49-51) 

अगर ब्रिटिशों ने ऐसा कोई काम किया, जिसे उल्लेखनीय कहा जा सकता है, जिसने भारत को अतीत में पश्चिम के मुकाबले कहीं उन्नत दिखाया, तो वह यह था कि उन्होंने पश्चिम के साथ उसके संपर्क की ‘खोज’ की। अगर आर्यों के बारे में कुछ बेहद विशिष्ट था तो वह यह था कि वे पश्चिम से आए थे—और भारत आर्यों के कब्जे में था इत्यादि। हालाँकि, इसके बाद इस बात को गलत साबित करते कई शोध-निष्कर्ष और लेख लिखे जा चुके हैं, लेकिन इसके बावजूद आज भी भारत में इस गलत धारणा को जारी रहने दिया गया है। इसके बाद के पुरातात्त्विक खुलासों के अलावा जीवकोशीय आणविक जीव-विज्ञान में एक अंतर-महाद्वीपीय अनुसंधान ने ए.आई.टी. : आर्यों के आक्रमण के सिद्धांत को पूरी तरह से खारिज कर दिया है। बेशक, ऐसी बातों का कोई अंत नहीं है, लेकिन ऐसा मानने के उपयुक्त कारण हैं कि तथाकथित आर्य एवं द्रविड़ दोनों ही भारत से संबंधित थे और कहीं बाहर से यहाँ नहीं आए थे—और अब यह बात डी.एन.ए. अध्ययनों से भी साबित हो चुकी है। इसके अलावा, ‘द्रविड़’ एक भौगोलिक क्षेत्र को संदर्भित करता है और एक प्रजाति को नहीं। 

जब जातिवादी आर्यन-द्राविड़ियन सिद्धांत को आगे बढ़ाया गया, तब इसका पक्ष लेनेवाले कई लोग थे, जिनमें कई पढ़े-लिखे भारतीय भी शामिल थे; क्योंकि उन्हें लगा कि यह तो उनकी शान को बढ़ानेवाला है। वे अधम ‘मूल निवासी’ नहीं हैं और उनके पूर्वज पश्चिम से आए थे। हीन भावना का स्तर ऐसा था, जिसका जिम्मेदार था ब्रिटिशों का सफल प्रचार-प्रसार! यहाँ तक कि महात्मा गांधी ने भी अपने दक्षिण अफ्रीकी दिनों के दौरान ब्रिटिश अधिकारियों से निवेदन किया था कि भारतीयों के साथ अंग्रेजों जैसा ही व्यवहार किया जाए, न कि मूल दक्षिण अफ्रीकी लोगों की तरह; क्योंकि आखिरकार भारतीय भी तो श्रेष्ठ जाति से आते थे—आर्य, जो पश्चिम से थे! (डी.वी.) (यू.आर.एल.31) 

आर्यन-द्राविड़ सिद्धांत को स्थापित करने में अंग्रेजों की चालाकी को देखें। इसने भारतीयों के बीच विभाजन (उत्तर बनाम दक्षिण) की लकीर खींचने में मदद की। इसने उन्हें यह दिखाने में मदद की कि अगर आर्यों में कुछ श्रेष्ठतर था तो वह इसलिए था, क्योंकि वे पश्चिम से आए थे। इसके अलावा, इसने उन्हें यह दिखाने में भी मदद की कि भारत को पश्चिम से आए विभिन्न समूहों द्वारा शासित किया जा चुका है। पहले आर्य, फिर मुसलमान और फिर अंग्रेज। अगर ब्रिटिश विदेशी थे तो मुसलमान और आर्य भी थे। तो फिर विदेशी शासन को लेकर रोना-धोना क्यों, जिसका मतलब हुआ उनका शासन, वह भी विशेषकर तब, जब वे मूल निवासियों को ‘सभ्य’ करने और देश का भला करने के लिए आए थे! क्या कोई ब्रिटिशों और अन्य विदेशियों के उद्देश्य एवं प्रेरणा को समझ सकता है; इसके बावजूद भारतीय उनकी तरह बात करते हैं! 
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जनता के बीच धर्मपाल (डी.पी.) (डी.पी.2) की रचनाओं का सामान्य प्रभाव पूरी तरह से आँखें खोलनेवाला रहा है। हालाँकि, पारंपरिक भारतीय इतिहासकार, विशेष रूप से वे, जो अ‍ॉक्सब्रिज से पढ़कर निकले हैं, को उनका काम उन सिद्धांतों के प्रति एक स्पष्ट खतरे के रूप में प्रतीत हुआ, जिसे वे दशकों तक आँखें बंद करके और मशीनी रूप से पढ़ाते एवं प्रचारित करते रहे। वे निश्चित रूप से उस प्रकार की निश्चिंतता को प्रकट नहीं करते हैं, जो उन व्यक्तियों के लिए पहले से ही उपलब्ध है, जिसे वे बिना कुछ पूछे अंग्रेज इतिहासकारों के कदमों में बैठकर पी चुके हैं और ऐसा करने के क्रम में न सिर्फ उनके ‘तथ्यों’ को अपने गले से नीचे उतार चुके हैं, बल्कि उनकी धारणाओं को भी। लेकिन उनके नाम उन अच्छेसे स्थापित इतिहासकारों से यह पूछने की उपलब्धि भी जुड़ जाती है, जिनके जवाब देने में उन्हें मुश्किल होती है; जैसे—वे कैसे इतने कम समय में इतने कम साक्ष्यों के बल पर इस नतीजे पर पहुँच गए कि भारतीय तकनीकी क्षेत्र में काफी पिछड़े हुए थे या फिर और अधिक सामान्य तौर पर, वे कैसे उन ऐतिहासिक दस्तावेजों की खोज कर पाने में असफल रहे, जिन्हें उन्होंने बिल्कुल समान प्रशिक्षण के बाद आसानी से समझ लिया। धर्मपाल द्वारा भारतीय समाज के अंग्रेज-जनित इतिहास के चिथड़े कर देने के चलते वास्तव में आज इस क्षेत्र में पर्याप्त गंभीर अंतर पैदा हो गया है। भारतीय समाज को लेकर अंग्रेजी या औपनिवेशिक वर्चस्व वाली धारणाओं और पूर्वाग्रहों की वैधता को बुरी तरह से कमजोर कर दिया गया है।” 
—क्लाउड अल्वारेस (डी.पी.3) 
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स्वतंत्रता के बाद किए जानेवाले कामों में से एक काम होना चाहिए था— ‘भारतीय इतिहास का ईमानदार और विश्वसनीय पुनर्लेखन’, जिसे पश्चिम द्वारा पूरी तरह से विकृत कर दिया गया है, वह भी निम्नलिखित कदम उठाकर—एक बड़ी, बहु-विषयक और सक्षम टीम की स्थापना करना, जो मार्क्सवादी, ‘धर्मनिरपेक्ष’ और पक्षपाती इतिहासकारों से मुक्त हो और इस टीम का काम हो गहन शोध में संलग्न होना तथा पुराने समय के भारत के इतिहास और सामाजिक-आर्थिक जीवन को जितना संभव हो सके, उतना निष्पक्ष तरीके से लिखना; मौजूदा ऐतिहासिक कार्यों में मौजूद कमियों व खामियों की ओर इशारा करना और उन्हें पूर्ण करना; नई शोध-सामग्री और ठीक किए गए काम को विभिन्न तरीकों से उपलब्ध करवाना—आगे के शोध के लिए विस्तृत, शैक्षणिक कार्य; स्कूलों व कॉलेजों के लिए पाठ्‍य-पुस्तकें; दिलचस्प रूप में सामान्य जनों के पढ़ने के लिए पुस्तकें और बच्‍चों के लिए सचित्र पुस्तकें। 

उन्हें सभी आवश्यक सहायता प्रदान की जानी चाहिए थी—अकादमिक प्रोत्साहन, वित्तीय सहायता, प्रोत्साहन राशि, पर्याप्त अवसर, संग्रह के लिए खुशी प्रदान करनेवाला कॅरियर और सभी उपलब्ध मूल सामग्रियों के संकलन। ऐतिहासिक कथाओं को भी प्रोत्साहित किया जाना चाहिए— हमें अमिताभ घोष जैसी गुणवत्ता वाली पुस्तकों की आवश्यकता है। 

इसके बावजूद नेहरू और उनके राजवंश की ओर से स्वतंत्रता के बाद भारत के वास्तविक इतिहास को लिखने का कोई प्रयास नहीं किया गया। शासकीय संस्‍थाओं द्वारा स्वतंत्रता के बाद भारतीय इतिहास के क्षेत्र में न के बराबर काम किया गया है। भारतीय शैक्षणिक समुदाय द्वारा भारत के इतिहास को लेकर कोई सार्थक पुस्‍तक या पाठ्‍य-पुस्तक नहीं लाई गई है। अगर वास्तव में कुछ सार्थक काम किए गए हैं तो वे शासन से बाहर बैठे लोगों द्वारा किए गए हैं, विशेषकर जदुनाथ सरकार, आर.सी. मजूमदार, सीता राम गोयल, धर्मपाल इत्यादि जैसे इतिहासकारों द्वारा। 

स्कूलों और कॉलेजों की पाठ्‍य-पुस्तकें, उनमें से कई तो शासन से जुड़े इतिहासकारों द्वारा लिखी गई हैं, बेहद शर्मनाक हैं। वे आर्यों के आक्रमणकारी होने, आर्यन-द्राविड़ियन विभाजन के बेवकूफाना सिद्धांत, भारतीय इतिहास को आक्रमणों और मूल निवासियों की पराजय—इन सब की एक शृंखला के रूप में दिखाते हैं, वह भी भारतीयों की कई जीतों और जबरदस्त प्रतिरोधों की बात को छिपाते हुए आगे बढ़ते हैं। बाबर से लेकर औरंगजेब (वर्ष 1526 से 1707) तक भारत में मुगल शासन दो शताब्दियों से भी कम समय तक रहा, लेकिन स्कूलों का पाठ्‍यक्रम मुगलों के दौर की प्रशंसा से भरा पड़ा है और ऐसा करने के क्रम में वह उससे कहीं अधिक शानदार तथा अधिक समय, यानी करीब 300 (वर्ष 1336 से 1646 तक) वर्षों से अधिक के विजयनगर साम्राज्य को या फिर चोल के राजा के भव्य साम्राज्य को सिर्फ एक ही पैराग्राफ में समेट दिया है या शिवाजी और बाजीराव के शासनकाल को न के बराबर महत्त्व दिया है। इसके अलावा, भारत की समुद्री प्रगति का भी कहीं नामोनिशान तक नहीं है और दक्षिण-पूर्व एशिया—बाली, इंडोनेशिया, कंबोडिया, अंकोरवाट में विस्तार का या तो उल्लेख तक नहीं किया गया है या फिर अल्प संदर्भ दिए गए हैं। इसके अलावा, गणित और विज्ञान तथा उद्योग और कृषि में भारत के पुरातन कौशल और भारत ने दुनिया को जो दिया, उसका भी उल्लेख नहीं किया गया है। 

स्वतंत्रता के बाद भारत की अद्वितीय समृद्ध विरासत पर आधारित भारत की भव्य कथा को गढ़ने का प्रयास तक नहीं किया गया, जिस पर सभी छात्र और भारतीय गर्व की अनुभूति कर सकते हैं। इसके बजाय पश्चिमी इतिहासकारों (जिनकी पुस्तकें अभी भी मुख्यधारा में शामिल हैं), नेहरूवादियों और मार्क्सवादियों की बदौलत भारत की ‘महान्’ कथा बेहद नकारात्मक है— परास्त, आक्रमणकारियों के आगे हथियार डालनेवाले, गुट-शासित, विभाजित, जातिवादी, शोषक, उत्पीड़क, शासित होने के लिए पैदा हुए। 

ऐसी उम्मीद थी कि नेहरू उपर्युक्त सभी पहलुओं को लेकर चितिं त होंगे और स्वतंत्रता के बाद उचित सुधारात्मक कदम उठाएँगे। लेकिन अफसोस की बात है कि ‘ग्लिंप्सेस अ‍ॉफ वर्ल्ड हिस्टरी’ और ‘डिस्कवरी अ‍ॉफ इंडिया’ के लेखक खुद पश्चिमी विचारों एवं स्पष्टीकरणों के गलुाम थे और वे विकृत मार्क्सवादी-नकारात्मकतावादी के साथ शीर्षपर थे! कुल नतीजा क्या रहा—भारतीय विकृत इतिहास न सिर्फ अपरिवर्तित और औपनिवशिे क रह गया, बल्कि यह मार्क्सवादी-नकारात्मकतावादी स्पष्टीकरणों एवं विकृतियों के साथ और भी बदतर हो गया, जिन्हें अगले तीन ब्लंडर(भूले) उप-अध्याय सामने लाते हैं।