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🌧️ एपिसोड 2: दोस्ती की पहली सीढ़ी
बारिश के बाद की वो सुबह कुछ अलग थी। आसमान में बादल अब भी छाए हुए थे, लेकिन बारिश थम चुकी थी। जैसे सारी कायनात अब भी उस भीगी हुई मुलाक़ात की ख़ामोशी में सिमटी हुई थी।
कॉलेज का माहौल एक बार फिर रूटीन पर लौट रहा था, लेकिन अन्वी के दिल की धड़कन अब रोज़ की तरह शांत नहीं थी।
कल रात की बातें अब तक उसके ज़ेहन में गूंज रही थीं — विवेक की आँखों की गंभीरता, उसका धीरे से कहना – "बारिश फिर होगी..." — ये सब किसी पुराने गीत की तरह उसके मन में बजता रहा।
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📚 कॉलेज का दिन – नज़रों की तलाश
कॉलेज की पहली क्लास शुरू हो चुकी थी। हिंदी लिटरेचर की प्रोफेसर वर्षा मैम कक्षा में प्रेमचंद की कहानी "नमक का दारोगा" पढ़ा रही थीं।
अन्वी की आँखें किताब में थीं, लेकिन मन कहीं और।
"प्रेमचंद का नायक ईमानदारी से समझौता नहीं करता, भले ही दुनिया उसके खिलाफ हो जाए..." — मैम बोल रही थीं।
ये बात जैसे सीधे अन्वी के दिल तक जा पहुँची। उसे न जाने क्यों वो शब्द विवेक से जोड़ते हुए लगे।
उसकी ईमानदारी, उसकी आँखों की गंभीरता — क्या वो भी ऐसे ही किसी आदर्श को जी रहा है?
क्लास खत्म हुई, और बाहर आते ही...
"हेलो!"
वो वही था — विवेक।
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☕ कैंटीन की चाय और पहली बातों का सिलसिला
"आपने चाय पी है आज?"
अन्वी ने हँसते हुए मना किया।
"तो चलिए, मेरी तरफ से — बिना शक्कर की चाय। जैसा आपको पसंद है।"
विवेक की ये बात सुनकर अन्वी चौंक गई। उसने कैसे जान लिया कि उसे बिना शक्कर की चाय पसंद है?
"मैंने ध्यान दिया था उस दिन..."
विवेक ने बिना पूछे ही जवाब दे दिया।
दोनों कैंटीन के कोने की बेंच पर बैठ गए। हल्की सर्द हवा चल रही थी। चारों ओर दोस्त-यारों की आवाज़ें थीं, लेकिन दोनों के बीच एक शांति थी — जैसे ये शोर उनके लिए मौन हो गया हो।
"आपको पढ़ना पसंद है?"
"बहुत ज़्यादा। ख़ासकर डायरी लिखना।"
"डायरी? तो आप वो हैं जो हर एहसास को पन्नों में बाँध लेती हैं?"
"शायद हाँ... और आप?"
"मैं उन्हें पढ़ता हूँ... जो खुद को नहीं पढ़ पाते।"
अन्वी ने मुस्कुराते हुए पूछा, "मतलब?"
"मतलब, मैं लोगों की आँखें पढ़ता हूँ। उनमें सच्चाई दिखती है या बनावट — ये मैं समझ सकता हूँ।"
अन्वी अब सचमुच उसकी बातों में खोने लगी थी।
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🌿 लाइब्रेरी – किताबों के बीच का रिश्ता
शाम के समय दोनों लाइब्रेरी में मिले।
विवेक पहले से बैठा हुआ था, प्रेमचंद की ‘प्रेम की होली’ पढ़ते हुए।
"आप हर बार प्रेमचंद ही पढ़ते हैं?"
"हाँ... क्योंकि प्रेमचंद की कहानियाँ इंसान के भीतर झाँकना सिखाती हैं। और प्यार की सच्चाई को भी।"
"क्या आपने कभी... प्यार किया है?"
अन्वी के इस सवाल पर विवेक कुछ देर चुप रहा।
"नहीं किया... लेकिन शायद कर रहा हूँ..."
उसकी आँखें सीधी अन्वी की आँखों में थीं।
एक पल को लगा जैसे समय थम गया हो।
अन्वी ने नजरें चुरा लीं।
"मैं चलूँ?"
"रुकिए... एक किताब दीजिए मुझे पढ़ने के लिए — कोई भी, जो आपको पसंद हो।"
अन्वी ने अपनी डायरी से एक कागज़ निकाला — उस पर एक शेर लिखा था:
> "कुछ एहसास यूँ भी होते हैं ज़िंदगी में,
जो बिन कहे ही सब कुछ कह जाते हैं..."
"इसे पढ़िए। ये मेरी पसंदीदा किताब से नहीं — मेरे दिल से है।"
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🌙 घर की रात – माँ की चिंता
घर लौटते समय अन्वी की माँ सरिता जी ने पूछा,
"कहाँ थी देर तक? कॉलेज में कोई प्रॉब्लम तो नहीं?"
"नहीं माँ, बस लाइब्रेरी में थी। किताबें पढ़ रही थी।"
"हमारी दुनिया लड़कियों के लिए उतनी आसान नहीं होती, बेटा। रिश्ते बहुत सोच-समझ कर बनाना चाहिए।"
"माँ..."
"मैं तुझे रोक नहीं रही, बस इतना चाहती हूँ कि जो भी फैसला ले — उसमें सिर झुकाने की नौबत न आए।"
अन्वी ने माँ की बात को मन में बिठा लिया। लेकिन दिल अब भी विवेक की बातों में उलझा था।
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📱 रात का संदेश
रात 10 बजे के आसपास मोबाइल की स्क्रीन जली।
विवेक का मैसेज था:
"आपके लिखे शेर में जो बात थी, वो किताबों में भी कम मिलती है... क्या आप और कुछ लिखती हैं?"
अन्वी ने हल्के मन से जवाब दिया:
"कभी-कभी... लेकिन जो दिल से निकले, वही लिखती हूँ।"
"तो अगली बार, मुझे सुनाइएगा। मैं सिर्फ़ पढ़ने नहीं — समझने आता हूँ।"
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🌼 अगले दिन – एक खास इत्तेफाक
कॉलेज में एक वर्कशॉप का आयोजन था — "Literature & Emotions"
जिसमें विद्यार्थियों से कहा गया कि वो अपनी कोई खुद की लिखी कविता या विचार प्रस्तुत करें।
वर्षा मैम ने कहा —
"अन्वी, तुम अपनी डायरी से कुछ पढ़ोगी?"
अन्वी घबरा गई। लेकिन तब उसे सामने बैठा विवेक दिखा — उसकी आँखों में आत्मविश्वास था, जैसे कह रहा हो "मैं यहीं हूँ।"
अन्वी ने कांपती आवाज़ में पढ़ना शुरू किया:
> "एक अजनबी की मुस्कान में
एक पुराना सा अपनापन मिला
न नाम पता, न रिश्ता कोई
फिर भी दिल को वो भा गया..."
पूरा हॉल तालियों से गूंज उठा।
विवेक की मुस्कान सबसे अलग थी — शांत, लेकिन सबसे गहरी।
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🌦️ वो वादा...
वर्कशॉप के बाद विवेक और अन्वी कैंपस के पीछे वाले बगीचे में टहल रहे थे।
पेड़ों के पत्तों पर फिर से हल्की बूँदें गिरने लगी थीं।
"देखा, बारिश फिर हुई..."
विवेक ने कहा।
अन्वी हँस पड़ी — "और आपने कहा था — 'बारिश फिर होगी...'"
"मैंने वादा किया था न?"
"हर बात वादा नहीं होती।"
"शायद... लेकिन कुछ लम्हे, ज़िंदगी भर का भरोसा बन जाते हैं। जैसे आपकी कविता, जैसे आपकी नज़रे..."
वो कुछ पल एक-दूसरे को देखते रहे।
फिर विवेक ने कहा —
"एक दिन मैं तुमसे कुछ कहूँगा — लेकिन तब, जब तुम खुद सुनने के लिए तैयार होगी।"
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📓 डायरी की अगली इंट्री
> "आज पहली बार किसी ने मेरे दिल की बात बिना कहे पढ़ ली।
क्या ये वही इंसान है, जो मेरी हर कविता में था?
क्या ये 'पहली बारिश का वादा'... सच में मेरे लिए किया गया था?"
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🕊️ जारी रहेगा...
अगले एपिसोड में —
दोस्ती और गहराएगी।
कभी नज़रों की खामोशी कहेगी बातें, कभी समाज की दीवारें बनेंगी परछाइयाँ।
लेकिन क्या ये रिश्ता — बिना कहे — बिना छुए — बिना वादे — फिर भी पूरा होगा?
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Writer:Rekha Rani