अजय ने थोड़ा गंभीर होकर कहा, "क्या मतलब? कैसी हरकतें?"
राधा ने थोड़ा झिझकते हुए कहा, "जब वह लड़का दरवाजे पर आया, तो समीरा ने बहुत जल्दी-जल्दी में उससे बात की और फिर तुरंत दरवाजा बंद कर लिया। जब मैंने पूछा कि कौन था, तो वह घबरा गई। मुझे उसकी आंखों में कुछ छिपाने जैसा एहसास हुआ।"
अजय माथुर हमेशा से एक सख्त लेकिन समझदार पिता रहे थे। उन्होंने अपनी बेटी को लेकर कभी ज्यादा रोक-टोक नहीं की, लेकिन किसी अजनबी का यूं घर आना और समीरा का घबराना उन्हें परेशान कर गया।
उन्होंने कुछ देर सोचा, फिर गंभीर स्वर में बोले, "समीरा अभी अपने कमरे में है?"
"हां, शायद। जब से वह लड़का गया है, वह अपने कमरे में ही बंद है। न जाने क्या कर रही है।"
अजय ने गहरी सांस ली और समीरा के कमरे की तरफ बढ़े।
समीरा का कमरा – एक बेचैन दिल
समीरा अब भी खिड़की के पास बैठी थी। उसके सामने गुलाबों का गुलदस्ता रखा था। कमरे में हल्की रोशनी थी, और बाहर चांदनी धीरे-धीरे फलक पर अपनी जगह बना रही थी।
उसके हाथों में एक गुलाब था, जिसे वह धीरे-धीरे अपनी उंगलियों से महसूस कर रही थी। उसकी आंखों में उलझन थी—एक तरफ दानिश के दिए हुए ये फूल और दूसरी तरफ उसके पिता की सख्त हिदायतें।
तभी दरवाजे पर दस्तक हुई।
समीरा चौंकी।
"समीरा, दरवाजा खोलो।"
यह पापा की आवाज थी।
उसका दिल जोर-जोर से धड़कने लगा।
"क्या पापा को कुछ पता चल गया?" उसने खुद से पूछा।
वह जल्दी से उठी, गुलदस्ते को टेबल के कोने में रखा, और दरवाजा खोला।
अजय माथुर गंभीर नजरों से अपनी बेटी को देख रहे थे।
"बेटा, मैं अंदर आ सकता हूं?" उन्होंने शांत स्वर में पूछा।
"जी, पापा।" समीरा ने हल्की आवाज़ में कहा और दरवाजा थोड़ा और खोल दिया।
अजय कमरे में आए, उनकी नजरें चारों ओर घूमीं। समीरा की बेचैनी को वे साफ महसूस कर सकते थे।
"कैसी हो?"
"अच्छी हूं, पापा।"
"तुम्हारी माँ कह रही थी कि आज कोई अजनबी घर आया था। और तुमने उससे बात की थी। कौन था वो?"
समीरा का गला सूख गया। वह चाहकर भी नजरें पापा से नहीं मिला पाई।
"व-वो... बस एक डिलीवरी बॉय था, पापा। शायद गलत पते पर आ गया था।"
अजय ने अपनी बेटी की आँखों में देखा। वे एक अनुभवी इंसान थे, झूठ और सच्चाई का फर्क अच्छी तरह समझते थे।
"समीरा, तुम मुझसे कुछ छिपा रही हो?"
समीरा ने झट से सिर हिलाया, "न-नहीं, पापा। ऐसा कुछ नहीं है।"
अजय ने एक लंबी सांस ली, फिर बोले, "बेटा, मैं तुम्हारा पिता हूं। अगर तुम्हारे साथ कुछ भी गलत हो रहा है या तुम किसी उलझन में हो, तो तुम मुझसे खुलकर बात कर सकती हो।"
समीरा की आंखें भर आईं। उसने अपना सिर झुका लिया।
"पापा... कुछ भी गलत नहीं है। बस... मैं थोड़ा कन्फ्यूज हूं।"
अजय ने धीरे से उसके सिर पर हाथ फेरा, "कैसी कन्फ्यूजन?"
समीरा ने थोड़ा हिचकिचाते हुए कहा, "कभी-कभी हमें कुछ चीजें अच्छी लगती हैं, लेकिन हम जानते हैं कि वे हमारे लिए सही नहीं हैं। तब हमें क्या करना चाहिए, पापा?"
अजय ने थोड़ा सोचते हुए कहा, "बेटा, सही और गलत का फैसला तुम्हारे दिल और दिमाग दोनों को मिलकर करना चाहिए। अगर कोई चीज तुम्हारे दिल को खुशी देती है, लेकिन दिमाग उसे गलत कहता है, तो खुद से पूछो—क्या यह खुशी अस्थायी है या स्थायी?"
समीरा की आँखों में हल्की नमी आ गई। उसने धीरे से कहा, "धन्यवाद, पापा।"
अजय ने उसके सिर पर प्यार से हाथ फेरा और बोले, "अगर कभी कोई बात हो, तो मुझसे कहना। छिपाने से समस्याएँ हल नहीं होतीं, बल्कि बढ़ती हैं।"
फिर वे मुस्कुराए और बोले, "अब जल्दी से नीचे आओ, माँ ने तुम्हारे लिए खाना परोसा है।"
समीरा ने हल्की मुस्कान के साथ सिर हिलाया।
अजय के जाते ही उसने धीरे से गुलदस्ते की ओर देखा और सोचा—"शायद, मुझे भी अपने दिल और दिमाग दोनों की सुननी चाहिए।"
वह खिड़की की तरफ देखती रही, जहां बाहर हल्की चांदनी बिखरी हुई थी।
सानियाल हवेली, दानिश की बेचैनी
रात गहरा रही थी। मद्धम रोशनी फैली हुई थी। दानिश अपने कमरे में बैठा था, जहाँ एक तरफ महंगे फर्नीचर और कीमती कलाकृतियाँ थीं, तो दूसरी तरफ खिड़की के पार दूर तक फैले हुए बागान, जो हल्की चांदनी में नहाए हुए थे। मगर इन तमाम भव्य चीज़ों के बीच, उसकी निगाहें बस एक चीज़ तलाश रही थीं—समीरा का जवाब।
उसकी उंगलियाँ अनजाने में टेबल पर पड़े फोन के इर्द-गिर्द घूम रही थीं। मन में बार-बार यही सवाल उठ रहा था—"क्या उसे मेरा भेजा हुआ गुलदस्ता पसंद आया होगा?"
उसने अपने सामने रखे क्रिस्टल ग्लास में थोड़ा पानी लिया और धीरे-धीरे एक घूंट भरा। पर पानी भी उसकी बेचैनी को कम नहीं कर पा रहा था। उसने खुद को आईने में देखा—हल्की बिखरी हुई ज़ुल्फें, माथे पर चिंता की लकीरें, और आँखों में बेसब्री का साया।
"क्या उसे मेरा भेजा हुआ गुलदस्ता अच्छा लगा होगा?"
ये सवाल उसके दिमाग़ में घूमता रहा।
वह जानता था कि समीरा को फूल पसंद हैं। यही सोचकर उसने आज उसे वही खूबसूरत गुलाब भेजे थे—ताजे, खुशबूदार, कोमल।
मगर अब… अब उसकी बेसब्री बढ़ती जा रही थी।
फोन अब भी टेबल पर पड़ा था। उसने कई बार उसे उठाने की सोची, लेकिन फिर खुद को रोक लिया।
"नहीं… मुझे इंतज़ार करना चाहिए। शायद वह खुद फोन करे," उसने खुद को समझाया।
मगर वक्त बीतता जा रहा था। मिनट दर मिनट, घड़ी की सुइयाँ जैसे धीमी चल रही थीं। उसने एक बार फिर फोन की ओर देखा।
"क्या वह अभी तक गुलदस्ता देख भी चुकी होगी?"
उसका दिल कह रहा था कि समीरा को वो फूल ज़रूर पसंद आए होंगे। मगर फिर मन का दूसरा हिस्सा शंका पैदा कर रहा था—"अगर उसे पसंद नहीं आए? अगर वह नाराज़ हो गई हो? अगर उसे ये मेरा तरीका पसंद नहीं आया?"
इन सवालों के जवाब सिर्फ समीरा ही दे सकती थी, मगर उसने अब तक कोई प्रतिक्रिया नहीं दी थी।
दानिश की बेचैनी बढ़ने लगी।
उसने खुद को व्यस्त रखने की कोशिश की। पहले किताब उठाई, मगर शब्दों पर ध्यान नहीं टिक सका। फिर उसने लैपटॉप ऑन किया, मगर स्क्रीन पर उंगलियाँ बस यूँ ही घूमती रहीं।
फिर वह खिड़की के पास चला गया। बाहर का नज़ारा हमेशा उसे सुकून देता था, लेकिन आज नहीं। हल्की हवा बह रही थी, मगर वह उसे महसूस भी नहीं कर पा रहा था।