पार्ट 3 — "जंजीरें इश्क़ की"
हवा उस रात कुछ ज़्यादा ही भारी थी। बुरी तरह चुपचाप… जैसे पूरी दुनिया सांस रोके खड़ी हो। आकाश में चाँद बादलों के पीछे छुपा था और हवाओं में मिट्टी और सड़ांध की गंध घुली हुई थी। राघव अपने कमरे में लेटा था, लेकिन नींद उसकी आँखों से कोसों दूर थी।
दरवाज़े के पास रखी पुरानी लोहे की जंजीर फिर से ठक… ठक… ठक… की हल्की-सी आवाज़ कर रही थी।
राघव ने करवट ली और सोचा —
"ये आवाज़ सिर्फ हवा से आ रही है… बस हवा से…"
लेकिन अगले ही पल… एक और आवाज़ आई —
"राघव…"
उसकी रगों में जैसे ठंडा लावा दौड़ गया। आवाज़ धीमी थी… मगर इतनी करीब कि जैसे कोई उसके कान के बिलकुल पास फुसफुसाया हो।
उसने झटके से सिर उठाया — कमरा खाली था।
राघव ने टॉर्च उठाई और चारों तरफ़ रोशनी फेंकी। पुराना लकड़ी का अलमारी… खिड़की… दीवार पर टंगी तस्वीरें… सब सामान्य।
लेकिन एक चीज़ बदली हुई थी —
अलमारी के पास की फ़र्श पर गीले पैरों के निशान।
वो पैरों के निशान सीधे दरवाज़े की तरफ़ जाते थे… और वहां जाकर अचानक गायब हो जाते।
राघव के गले में कुछ अटक गया। वह टॉर्च को कसकर पकड़ते हुए दरवाज़े तक पहुँचा… और जैसे ही हाथ दरवाज़े के हैंडल पर रखा…
"कचाक्!"
दरवाज़ा अपने-आप खुल गया।
बाहर अंधेरा… बिलकुल गाढ़ा काला अंधेरा।
पर उसी अंधेरे में कहीं दूर… पुरानी हवेली के मुख्य दरवाज़े की तरफ़, हल्की-सी लाल रोशनी टिमटिमा रही थी।
जैसे कोई लालटेन जलाई हो… लेकिन वो रोशनी स्थिर नहीं थी — कभी बढ़ती, कभी घटती…
राघव का दिल तेज़ धड़क रहा था, लेकिन उसके कदम मानो खुद-ब-खुद उस रोशनी की तरफ़ खिंचने लगे।
जैसे-जैसे वह करीब पहुँचा, उसे लगा कि लाल रोशनी के साथ एक धीमी-सी घंटी की आवाज़ भी आ रही है —
"टन… टन… टन…"
---
हवेली का दरवाज़ा
मुख्य दरवाज़ा थोड़ा-सा खुला हुआ था। हवा के साथ वह चीं… चीं… कर रहा था।
राघव ने दरवाज़ा और धकेला…
अंदर बिल्कुल सन्नाटा।
मगर फर्श पर वही गीले पैरों के निशान… और इस बार वो निशान हवेली के पिछले हिस्से की ओर जा रहे थे।
उसने हिम्मत कर टॉर्च की रोशनी आगे डाली…
वो निशान तहखाने के दरवाज़े तक पहुँचते थे।
तहखाना… वही जगह, जिसे उसकी दादी हमेशा मना करती थीं — "वो दरवाज़ा कभी मत खोलना… वहाँ सिर्फ अंधेरा नहीं है बेटा, वहाँ वो है…"
राघव का गला सूख गया। लेकिन उसके दिमाग में एक और खयाल था — शायद इस पूरे राज़ का जवाब वहीं छिपा हो।
उसने कांपते हाथों से तहखाने का दरवाज़ा खोला।
---
तहखाना
अंदर से ठंडी, सीलन भरी हवा का झोंका आया। दीवारों पर जाले, टूटी बोतलें, और कोनों में धूल से ढके लकड़ी के बक्से पड़े थे।
लेकिन बीच में…
एक लोहे की मोटी जंजीर बंधी हुई थी।
जंजीर का दूसरा सिरा दीवार में गहरे धंसा हुआ था, मानो वहां कुछ बांधा गया हो… और उसी जगह फ़र्श पर गाढ़ा लाल दाग़ था।
राघव झुका, हाथ से छूकर देखा —
वो दाग़ सूखा हुआ ख़ून था।
अचानक… जंजीर हिलने लगी।
छन… छन… छन…
जैसे कोई अदृश्य ताकत उसे खींच रही हो।
राघव डर के मारे पीछे हट गया। तभी, तहखाने के कोने से एक धीमी-सी सरसराहट सुनाई दी…
और फिर…
दो लाल आँखें अंधेरे में चमकने लगीं।
---
लाल आँखें
राघव का पूरा शरीर ठंडा पड़ गया।
वो आँखें धीरे-धीरे करीब आ रही थीं… और उसके साथ एक औरत का साया नज़र आया।
लेकिन वो औरत इंसान जैसी नहीं थी — उसका चेहरा आधा सड़ा हुआ, होंठ फटे हुए, और बाल खून से लथपथ।
उसने फुसफुसाया —
"तू आ ही गया… राघव… मैंने तेरा इंतज़ार किया था…"
राघव ने पीछे हटने की कोशिश की, लेकिन उसके पैर जैसे जमीन में गड़े हुए थे।
वो औरत जंजीर के पास पहुँची… और जैसे ही उसने उसे छुआ, पूरा तहखाना जोर से हिल गया।
दीवारों पर पड़ी ईंटें गिरने लगीं…
और फिर…
वो औरत चिल्लाई —
"तूने मेरी मौत देखी है… अब तू मेरी रूह को चैन देगा… या फिर खुद इस जंजीर में बंध जाएगा…"
---
डर का चरम
राघव का दिमाग सुन्न था। उसने पूरी ताकत से भागने की कोशिश की…
लेकिन तभी, जंजीर ने जैसे खुद-ब-खुद उसके पैरों को जकड़ लिया।
लोहे की ठंडी पकड़ उसकी त्वचा को चीर रही थी।
उसके कानों में औरत की चीखें गूंज रही थीं, लेकिन उन चीखों में सिर्फ दर्द नहीं… एक अजीब-सी मोहब्बत भी थी।
जैसे वो औरत राघव को छोड़ना नहीं चाहती…
अचानक तहखाने के दरवाज़े पर ज़ोर का धमाका हुआ —
"धड़ाम!"
दरवाज़ा अपने आप बंद हो गया।
अब राघव… और वो औरत… और वो जंजीर…
सब एक अंधेरे में कैद थे।
---
राघव के सीने में सांस तेज़ चल रही थी। उसे पता था… अगर आज रात वो इस जगह से नहीं निकला, तो शायद सुबह कभी देख ही न पाए।
पर बाहर निकलने का रास्ता… क्या वाकई बचा है?
या फिर… ये जंजीर अब हमेशा के लिए उसकी बन चुकी है…?